जब पूरे देश में जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के विरोध में ग़म का माहौल था, उस समय कुछ सिख नेता डायर की चापलूसी में लगे थे। अप्रैल 1919 के अंत में कर्नल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर और लेफ्टिनेंट जनरल सर हेरोल्ड रॉडन ब्रिग्स को न केवल स्वर्ण मंदिर में आमंत्रित किया गया था, बल्कि उन्हें सम्मानित भी किया गया था। गोलीबारी के दौरान स्वर्ण मंदिर को ‘बख़्श’ देने के लिए उन्हें धन्यवाद भी दिया गया। इतना ही नहीं, उन्हें मानद सिख भी बना दिया गया। डायर की पत्नी फ़्रांसिस ऐनी ट्रेवर ओम्मेनी के अनुसार, उनके पति ने उन्हें इस समारोह के बारे में बताया था।
उनके अनुसार, अमृतसर स्थित सिखों की सर्वोच्च संस्था ‘अकाल तख़्त’ के लोग आए और उन्होंने डायर से कहा कि उसे जॉन निकोल्सन की तरह सिख बनना चाहिए। बता दें कि ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकोल्सन को सिख एक ‘संत’ की तरह देखते थे। उसे सनकी और हिंसक बताया जाता रहा है, लेकिन पंजाब में उसके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ प्रचारित थीं और लोग उसे पूजने लगे थे। जब डायर के सामने सिख बनने का प्रस्ताव रखा गया तो उसने कहा कि वो अपने बाल लंबे नहीं रख सकता, क्योंकि वो एक ब्रिटिश अधिकारी है।
जब ‘अकाल तख़्त’ ने ‘साहिब’ को स्वर्ण मंदिर में किया सम्मानित
उस समय ज्ञानी अरूर सिंह ‘अकाल तख़्त’ का जत्थेदार हुआ करता था, वो कर्नल डायर को ‘साहिब’ कहकर बुलाया करता था। उसने कहा कि आपको लंबे बाल रखने की ज़रूरत नहीं है। इसके बाद डायर ने ये भी शर्त रखी कि वो धूम्रपान नहीं छोड़ेगा। जत्थेदार ने चापलूसी में और आगे बढ़ते हुए उन्हें सलाह दी कि वो धीरे-धीरे करके इसे छोड़ दे। हालाँकि, डायर ने एक तरह से खिल्ली उड़ाते हुए हर साल एक सिगरेट कम करने का वादा किया। इसके बाद स्वर्ण मंदिर में डायर और ब्रिग्स को बुलाकर पगड़ी, कृपण और सिरोपा दिया गया।
‘सिरोपा’ का अर्थ है सिर से पाँव तक का सम्मान। ‘मंदिर की सुरक्षा’ के लिए उसे धन्यवाद ज्ञापित किया गया। कई दिनों बाद जब डायर अफगान युद्ध के लिए अमृतसर छोड़कर जाने लगा तो शहर के कुछ प्रमुख सिख नेताओं ने उसकी सहायता के लिए 10,000 सिखों को भेजने की पेशकश की। डायर ने इस पेशकश को आगे भेजा, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इसे अस्वीकार कर दिया था। यहाँ तक कि ‘गुरु सत सुल्तानी’ नाम से उसके सम्मान में एक गुरुद्वारा भी स्थापित किया गया। आज इन तथ्यों पर कोई बात नहीं करना चाहता। बड़ी बात ये कि ‘अकाल तख़्त’ के जत्थेदारों की नियुक्ति भी तब अंग्रेज ही करते थे।

अब थोड़ा पीछे चलते हैं। जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के अगले दिन मृतकों के परिजनों को अंतिम संस्कार के लिए भी अंग्रेजों की अनुमति लेनी पड़ी। अंग्रेज अधिकारियों ने प्रति मृतक मात्र 8 परिजनों के जुटने की अनुमति दी। जनरल डायर ने एक आदेश जारी करके सबको जल्द से जल्द अंतिम क्रिया-कर्म निपटाने और घर जाने के लिए कहा। डायर को अन्य अंग्रेज अधिकारियों ने आगाह किया कि स्वर्ण मंदिर के पास भारतीयों की एक और बैठक होनी है। तब खालसा कॉलेज के प्रिंसिपल रहे जेरार्ड एन्स्ट्रुथर वाथेन ने अपनी पत्नी को बताया था कि गोल्डन टेम्पल पर बमबारी न हो इसके लिए उसे डायर से बहस करनी पड़ी थी।
इसके बाद डायर ने ‘अकाल तख़्त’ के जत्थेदार को बुलावा भेजा। उसके साथ अमृतसर का एक अन्य अंग्रेजों का वफादार सिख नेता सरदार सुंदर सिंह मजीठिया भी पहुँचा। डायर ने उन्हें आदेश दिया कि वो शहर में ये फैलाएँ कि गोल्डन टेम्पल को नुकसान नहीं पहुँचाया गया है। इसके बाद शहर के 150 प्रमुख लोगों को पब्लिक लाइब्रेरी में एक बैठक के लिए बुलाया गया, जहाँ डायर ने पूरे भाषण के दौरान उन्हें खड़े रखा और धमकाया कि अगर अगर वो युद्ध चाहते हैं तो सरकार इसके लिए भी तैयार है।
डायर ने धमकाया कि उसके लिए फ्रांस और अमृतसर का युद्ध मैदान समान ही है। उसने ये भी कहा कि वो अपनी दुकानें खोलकर चुपचाप अपना काम शुरू करें। बाद में डायर ने ख़ुद को ‘पंजाब का रक्षक’ के रूप में पेश किया। असल में डायर सिख सैनिकों को वफादार बनाकर रखना चाहता था और इसीलिए अंग्रेजों के खिलाफ सिखों में फैली खबरों को काटना चाहता था। उसे सूचना मिली थी कि अंग्रेज सैनिकों द्वारा सिख लड़कियों के बलात्कार की ख़बरें भी फैली हुई हैं। उसने इसीलिए कूटनीति का सहारा लिया और स्वर्ण मंदिर में किसी भी प्रकार की बैठक न होने का आश्वासन जत्थेदार व सिख नेताओं से ले लिया।
अमृतसर की गली, डायर का भारतीयों को सड़क पर रेंगने का आदेश
उसी दौरान डायर को सूचना मिली थी कि मार्सेला शेरवुड नामक एक अंग्रेज महिला जब साइकिल से जा रही थी तब कुचा कुरिचन नामक गली में उसके साथ मारपीट हुई। डायर ने उस जगह पर एक त्रिभुज बनाकर 150 यार्ड की गली के दोनों तरफ खड़े के दिए। उसने आदेश दिया कि जो भी व्यक्ति इस गली से गुजरेगा उसे रेंग कर जाना होगा। जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के एक सप्ताह बाद 19 अप्रैल, 1919 को ये आदेश जारी किया गया। ये बताता है कि डायर को अपने किए का बिलकुल भी पछतावा नहीं था। कुछ लोगों को शेरवुड को पीटने के शक में पकड़ा गया और उसी जगह पर ले जाकर कोड़े बरसाए गए।
सुबह 6 बजे से लेकर शाम 8 बजे तक वहाँ गोरे तैनात रहते थे। एक पीड़ित ने बताया था कि अपने पेट को जमीन में सटाकर रेंगना पड़ता था, और नितम्ब जरा सा भी ऊपर उठने पर कोड़े बरसाए जाते थे। एक 16 साल के लड़के को शेरवुड को पीटने के आरोप में गिरफ़्तार करके उसपर भी कोड़े बरसाए गए थे। डायर का कहना था कि जूते से पीटा जाना भारत में सबसे बड़ा अपमान है, इसीलिए एक ब्रिटिश महिला के बारे में ऐसा सुनकर उसे बहुत दुःख हुआ था। इसीलिए, उसने ये आदेश जारी किया।
अरूर सिंह के पोते आज भी करते हैं बचाव
आज भी ज्ञानी अरूर सिंह के वंशज उसके द्वारा एक क्रूर अंग्रेज अधिकारी को सम्मानित किए जाने के फ़ैसले को जायज ठहराते हैं। तरनतारन व संगरूर से सांसद रहे सिमरनजीत सिंह मान उसके पोते हैं। सिमरनजीत सिंह मान ने 2007 में बलिदानी भगत सिंह को ‘छोटा आतंकवादी’ कहा था। जबकि ये व्यक्ति पंजाब में DIG के पद पर रहा है। पिछले 31 वर्षों से वो अमृतसर में ‘शिरोमणि अकाली दल’ (SAD) के अध्यक्ष हैं। अमृतसर सिखों के लिए सबसे पवित्र व प्रभावशाली स्थल है।
उनका तर्क है कि उनके दादा ने जनरल डायर को इसीलिए सम्मानित किया, क्योंकि वो स्वर्ण मंदिर पर हवाई बमबारी का निर्णय ले चुके अंग्रेजों को शांत करना चाहते थे और अमृतसर को बचाना चाहते थे। उनका कहना था कि खालसा कॉलेज के तत्कालीन प्राधायाध्यापक GA वाथेन के कहने पर उन्होंने ऐसा किया था। सोचिए, जो व्यक्ति भगत सिंह को ‘हत्यारा’ और ‘आतंकवादी’ बताता हो उसकी मानसिकता और कैसी होगी। ऐसे ही लोग खालिस्तानी अलगाववादी तत्वों को बढ़ावा देते हैं।
जलियाँवाला बाग़ नरसंहार: जहाँ की मिट्टी है चंदन, अंग्रेजी क्रूरता की निशानी
जलियाँवाला बाग़ नरसंहार – 13 अप्रैल, 1919 को यहाँ भारतीय नागरिकों ने ख़ून का एक ऐसा खेल देखा था जिसने पूरे देश के दिल में में अंग्रेजी आक्रांताओं के विरुद्ध चिंगारी को प्रज्वलित कर दिया था। सरकार ने मृतकों का सरकारी आँकड़ा 379 दिया, लेकिन सच ये है कि इस नरसंहार में 1500 से भी अधिक लोग मारे गए थे और लगभग इतने ही घायल हुए थे। ये निर्दोष आम लोग थे, कोई सैनिक नहीं थे। इनमें बच्चे, महिलाएँ, बुजुर्ग सब शामिल थे। कई ने जान बचाने के लिए कुएँ में छलाँग लगा दी थी। आज जलियाँवाला बाग़ एक स्मारक है।
जलियाँवाला बाग़ की मिट्टी हर देशभक्त के लिए चंदन है। यही वो जगह है जहाँ नरसंहार के बाद 11 साल के एक बच्चे ने रक्तरंजित मिट्टी को अपने माथे से लगाकर भारत के दुश्मनों से बदला लेने की क़सम खाई थी। ये हमेशा उसकी स्मृति में रहे, इसके लिए उसने इस मिट्टी को अपने घर में भी रखा हुआ था। आगे चलकर यही बच्चा भगत सिंह कहलाया, जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बलिदान का पर्यायवाची बन गए। जलियाँवाला बाग़ की यही वो मिट्टी थी जिसने उधम सिंह को क्रांतिकारी बनने के लिए प्रेरित किया। आज तक ब्रिटेन ने इस नरसंहार के लिए माफ़ी नहीं माँगी है।
1997 में और फिर सितंबर 2022 में क्वीन एलिजाबेथ भारत आई थीं तब लोगों को लगा था कि वो जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के लिए माफ़ी माँगेंगी, लेकिन दोनों बार वो जलियाँवाला बाग़ तो गईं, स्वर्ण मंदिर का भी दौरा किया, लेकिन मृतकों को श्रद्धांजलि देकर इतिश्री कर ली। 1997 में राजघाट पर स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों ने धरना भी दिया था, लेकिन क्वीन ने माफ़ी नहीं माँगी। अमृतसर के गोल्डन टेम्पल रोड में स्थित जलियाँवाला बाग़ हर बैशाखी के दिन भारतीयों को उस क्रूरता की याद दिलाता है, स्वतंत्रता की क़ीमत बताता है।
आइए, सबसे पहले जानते हैं कि हुआ क्या था। जिस शख्स ने गोलीबारी का आदेश दिया था, उसका नाम था – कर्नल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर (तब ब्रिगेडियर जनरल)। गोलियों के निशान आज भी वहाँ देखे जा सकते हैं। ये वो समय था जब रॉलेट एक्ट के विरुद्ध देशभर में प्रदर्शन चल रहा था। ये क़ानून बनाकर ब्रिटिश सरकार ने ऐसा प्रावधान कर दिया था, जहाँ वो बिना सुनवाई किसी भी भारतीय को सज़ा सुनाकर जेल में डाल सकती थी। इसीलिए, भारतीयों द्वारा इसे काला क़ानून नाम दिया गया था। कई नेता गिरफ़्तार कर लिया गया था।
जलियाँवाला बाग़ नरसंहार के बाद गाँधी का ‘असहयोग आंदोलन’
सोचिए, भगदड़ की स्थिति में लोग कितने ख़ौफ़ में रहे होंगे। 10 मिनट तक गोलीबारी चलती रही थी, ये तभी ख़त्म हुई जब सैनिकों की गोलियाँ ख़त्म हो गईं। ये प्रथम विश्व युद्ध के बाद का समय जब तक अंग्रेज एक के बाद एक काले क़ानून लेकर आ रहे थे। विरोध प्रदर्शन तक पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। जलियाँवाला बाग़ में उस दिन अधिकतर लोग बैशाखी बनाने के लिए जुटे थे, उनमें एकाध ऐसा समूह भी था जो अंग्रेजों के विरुद्ध शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहा था। बाग़ का रास्ता काफी संकरा था, जिसे अंग्रेजी सैनिकों ने ढँक दिया था ताकि लोग भाग भी न पाएँ। अचानक से बिना किसी चेतावनी के कर्नल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर 50 सैनिकों के साथ आ पहुँचा।
बताया जाता है कि 10 मिनट के भीतर 1650 गलियाँ चली थीं। बाद में ख़ुद डायर ने कहा था कि उसका उद्देश्य भीड़ को तितर-बितर करना नहीं था बल्कि वो पूरे पंजाब का मनोबल गिराना चाहता था ताकि कोई विद्रोह के लिए आवाज़ न उठा सके। इस नरसंहार के बाद महात्मा गाँधी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया। डायर ने भारतीयों को जमीन पर रेंग कर चलने का आदेश दे रखा था। किसी ब्रिटिश अधिकारी को देखते ही गाड़ी से निकल कर सलाम ठोकना होता था। नग्न करके कोड़े बरसाए जाते थे। बच्चों को ब्रिटिश झंडा यूनियन जैक को सलाम करवाने के लिए मीलों चलवाया जाता था।
डायर ने पंजाब में मार्शल लॉ लगा रखा था। भारतीय परिवारों की बिजली काट दी जाती थी। अक्टूबर 1919 में महात्मा गाँधी लाहौर पहुँचे और उन्होंने इस घटना की जाँच की। अंग्रेज सरकार के विरोध में उन्होंने कैसर-ए-हिन्द की उपाधि लौटा दी। अंग्रेजों ने 1915 में उन्हें इस उपाधि से नवाज़ा था। उन्होंने ब्रिटिश संचालित सभी संस्थाओं, खासकर स्कूल-कॉलेजों और नौकरियों का। उसी दौरान प्रिंस ऑफ वेल्स के भारत दौरे का ऐलान हुआ, गाँधी ने उसके बहिष्कार का भी ऐलान किया।