जब बात 1857 के क्रांति की आती है तो आरा के वीर कुँवर सिंह, झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई, बलिया के मंगल पांडेय, नासिक के तांत्या टोपे और पेशवा नानासाहब जैसे योद्धाओं के नाम बरबस ही जबान पर आ जाते हैं। इनमें कुछ नायक ऐसे भी हैं, जिन्होंने बुरी तरह अंग्रेजों के दाँत खट्टे किए लेकिन उनके बारे में ज़्यादा लोगों को पता नहीं। मध्य प्रदेश के निमाड़ के महाराणा बख्तावर सिंह उन्हीं में से एक हैं, जिन्हें अंग्रेजों ने 2 बार फाँसी पर लटकाया था।
वो महाराणा बख्तावर सिंह ही थे, जिन्होंने मालवा में क्रांति की मशाल जलाई थी। कई आक्रांता अंग्रेज अधिकारियों को उन्होंने मौत के घाट उतार दिया था। 10 फरवरी, 1858 को जब उन्हें सज़ा-ए-मौत दी गई थी, तब उनकी उम्र मात्र 34 वर्ष ही थी। मालवा क्षेत्र को आज उज्जैन और इंदौर के अलावा उसके आसपास के जिलों वाला इलाका समझ लीजिए। महाराणा बख्तावर सिंह ने मालवा के साथ-साथ गुजरात से भी अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए तैयार कर ली थी।
7 साल की उम्र में गद्दी पर बैठे, 1857 के युद्ध में अंग्रेजों को कई बार खदेड़ा
मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित अमझेरा कस्बे में 14 दिसंबर, 1824 को उनका जन्म हुआ था। उनके पिता का नाम अजीत सिंह और माता का नाम इन्द्रकुँवर था। महाराजा और महारानी के यहाँ जन्मे बख्तावर सिंह ने जब अपने रियासत की शासन व्यवस्था अपने हाथ में ली थी, तब उनकी उम्र मात्र 7 वर्ष ही थी। राष्ट्रभक्ति बचपन से उनके भीतर थी और अंग्रेजों से बदला लेना उनका लक्ष्य। जब उन्होंने सक्रियता बढ़ानी शुरू की, उस समय देश के कई इलाकों में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की तैयारी चल रही थी।
हमें आज वीर विनायक दामोदर सावरकर जैसे महापुरुष का धन्यवाद करना चाहिए, वरना 1857 के युद्ध को तो अंग्रेजों ने ‘सिपाही विद्रोह’ बता दिया था और वामपंथी इतिहासकारों ने इसे इसी तरह आगे बढ़ाया। रियासतों के राजाओं के पास भी क्रांतिकारियों के दूत आते थे और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से सम्बंधित तैयारियों की खबर देते थे। सरदारपुर तहसील में स्थित भोपावर में उस समय अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी। महाराणा बख्तावर सिंह की सेना ने ‘हर-हर महादेव’ नारे के साथ इस छावनी पर हमला बोल दिया।
वो 3 जुलाई, 1857 का दिन था। सुबह-सवेरे अंग्रेजों की सेना पर मालवा की अमझेरा रियासत का हमला हुआ। अमझेरा की बहादुर सेना के सामने अंग्रेजों की फ़ौज बिना लड़े ही भाग खड़ी हुई। वहाँ से अंग्रेजों का झंडा उखाड़ कर फेंक डाला गया। भोपावर में सारे हथियार और धन महाराणा बख्तावर सिंह के कब्जे में आ गया। सरदारपुर और मानपुर-गुजरी छावनी मालवा रियासत का अगला निशाना बने। सैकड़ों अंग्रेज मारे गए। मालवा की जनता भी बख्तावर सिंह की राष्ट्रवाद की भावना में बहने लगी।
महू, आगर, नीमच, महिदपुर और मंडलेश्वर – उस इलाके में स्थित अन्य छावनियों को भी महाराणा बख्तावर सिंह की सेना ने अपना निशाना बनाया और अंग्रेजों को भगाया। कई सैनिक तो अंग्रेजों से बगावत और मालवा रियासत के समर्थन के लिए भी तैयार हो गए। इंदौर में उस समय अंग्रेजों की एक बड़ी व महत्वपूर्ण छावनी थी। 31 अक्टूबर, 1857 को अंग्रेजों ने एक विशाल सेना के साथ धार के किले पर धावा बोल दिया। उन्हें पता था कि अगर महाराणा को नहीं रोका गया तो वो उनके लिए बड़ा संकट बन सकते हैं।
धार से कुछ ही दूरी पर अमझेरा का किला था, जहाँ उस समय महाराणा बख्तावर सिंह मौजूद थे। उनकी गैर-मौजूदगी में अंग्रेजी सेना ने धार के किले पर कब्ज़ा कर लिया। कर्नल डूरंड ने इसके बाद 5 दिसंबर, 1857 को अमझेरा के किले पर हमले की योजना बनाई, लेकिन ब्रिटिश सेना में मालवा रियासत का इतना खौफ था कि अधिकतर भाग खड़े हुए। इसके बाद लेफ्टिनेंट हचिंसन के नेतृत्व में एक पूरी बटालियन को हमले के लिए भेजने की साजिश रची।
महाराणा बख्तावर सिंह को पकड़ने के लिए अंग्रेजों ने लिया था धोखे और गद्दारी का सहारा
जब महाराणा बख्तावर सिंह लालगढ़ के किले में थे, तब कर्नल डूरंड को ये सूचना मिल गई। अब अंग्रेजों ने वही ‘फूट डालो, राज करो’ वाली नीति का सहारा लिया, क्योंकि सीधी लड़ाई में वो देशभक्तों की सेना से जीत नहीं पा रहे थे। अमझेरा रियासत के कुछ जागीरदारों को खरीद लिया गया और उन्हें गद्दारी के लिए तैयार किया गया। उन्हें मध्यस्थ बना कर भेजा गया और संधि-वार्ता का झूठा लालच दिया गया। महाराणा बख्तावर सिंह को अंदाज़ा नहीं था कि अंग्रेज, या फिर उनके अपने ही लोग इस हद तक गिर सकते हैं।
11 नवंबर को वो उनके कुछ खास लोगों के साथ धार के लिए निकल गए, हालाँकि उनके वफादार करीबियों ने उन्हें ऐसा करने से मना भी किया था। उसी समय हैदराबाद से घुड़सवारों का एक दल वहाँ आया हुआ था, जिसने उन्हें रोक लिया। अंग्रेजों ने धोखा दिया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। एक व्यक्ति ऐसा भी था, जिसने इन विपरीत परिस्थितियों में भी एक लड़ाई लड़ी। राघोगढ़ (देवास) के ठाकुर दौलत सिंह ने महू छावनी पर हमला कर के महाराणा को छुड़ाने का प्रयास किया, लेकिन दुर्भाग्य से वो सफल नहीं हो पाए।
महाराणा बख्तावर सिंह को इसके बाद प्रताड़ित करने के लिए इंदौर ले जाया गया, क्योंकि महू में उन्हें रखे जाने पर पूरे मालवा में विद्रोह और अंग्रेजों पर हमले होने लगे थे। 21 दिसंबर को इंदौर रेजीडेंसी में सुनवाई हुई। कई वकील वहाँ मौजूद थे। महाराज ने अंग्रेजों को सरकार मानने से इनकार कर दिया और अपना बचाव नहीं किया। फरवरी 1858 में उन्हें फाँसी देने का निर्णय ले लिया गया। अंग्रेज इस क्रूरता से अपने खिलाफ हुए विद्रोह को और दबाना चाहते थे और जनता के मन में खौफ बिठाना चाहते थे।
आज भी हरा-भरा लहलहा रहा है वो पेड़, जहाँ अमझेरा के राजा को 2 बार दी गई थी फाँसी
इंदौर में वो नीम का पेड़ आज भी मौजूद है, जहाँ उन्हें फाँसी पर चढ़ाया गया था। अच्छी कद-काठी के मालिक महाराणा बख्तावर सिंह को जब फाँसी पर चढ़ाया गया तब उनके वजन से रस्सी भी टूट गई। उस समय नियम था कि ऐसी स्थिति में सज़ा को टाल दिया जाता था। लेकिन, महाराणा का अंग्रेजों के मन में ऐसा भय बैठा हुआ था कि उनके लिए उन्होंने अपने नियम-कानून भी बदल डाले। उन्हें दोबारा फाँसी पर चढ़ा दिया गया और वो देश के लिए बलिदान हो गए।
उनकी पत्नी रानी दौलत कुँअर भी वीरांगना थीं और उन्होंने अपने पति द्वारा जलाई गई क्रांति की मशाल को आगे बढ़ाते हुए अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। वो भी वीरगति को प्राप्त हुईं। इंदौर में जिस नीम के पेड़ पर महाराणा को फाँसी दी गई थी, वो आज भी हरा-भरा है। इंदौर के बारे में बता दें कि कभी इसे बगीचों का शहर कहा गया था। नौलखा (9 लाख पेड़ों वाला क्षेत्र) सहित कई इलाकों के नाम यहाँ पेड़ों से पड़े हैं। 200 वर्ष पुराना नीम का पेड़ आज देशभक्तों के लिए एक पवित्र स्थल है।
ये महाराजा यशवंत राव चिकित्सालय के पास KEH परिसर में स्थित है। महाराणा बख्तावर सिंह के साथ-साथ उनके सहयोगियों सलकूराम, भवानी सिंह, चिमन लाल, मोहनलाल, मंशाराम, हीरा सिंह, गुलखां, शाह रसूल खां, वशीउल्ला खां, अता मोहम्माद, मुंशी नसरूल्ला और नगाड़ावादक फकीर को भी यहाँ फाँसी दी गई थी। कई दिनों तक लाशों को यहाँ लटका कर रखा गया था। लोगों के बीच अपना खौफ पैदा करने के लिए ब्रिटिश राज़ ने ऐसा किया था।
राजा बख्तावर सिंह के बारे में बता दें कि उनके पूर्वज मूल रूप से राजस्थान के जोधपुर के राठौड़ वंशीय राजा हुआ करते थे। पिता की असामयिक मृत्यु के कारण इन्हें काफी कम उम्र में सिंहासन पर बैठना पड़ा था, लेकिन उनकी शिक्षा-दीक्षा पूरी होने तक उनकी माँ ही शासन चलाती रहीं। महाराणा ने मध्य प्रदेश-गुजरात के कई रियासतों को अंग्रेजों के खिलाफ संयुक्त लड़ाई का न्योता दिया था, लेकिन उनकी कोई दिलचस्पी न होने के कारण उन्हें अकेले ही मैदान में उतरना पड़ा।
लालगढ़ के किले में तांत्या टोपे से भी उनकी मुलाकात हुई थी और वो उनसे खासे प्रभावित भी थे। जब उन्होंने भोपावर पर आक्रमण किया था, तब वहाँ के मुख्य अंग्रेज अधिकारियों को बैलगाड़ी पर बैठ कर वहाँ से भागना पड़ा था। झाबुआ के राजा द्वारा शरण दिए जाने के कारण उनकी जान बच गई थी। महाराणा ने अक्टूबर 1857 में पुनः भोपावर में आक्रमण किया था। उन्हें इंदौर के जेल में गहरी यातनाएँ दी गई थीं। उनकी मृत्यु के बाद उनकी माँ ने अंतिम संस्कार के लिए सामान भिजवाते हुए कहा था कि उनका बेटा आज इतना सुंदर लग रहा है कि भारत की सभी माताएँ उसकी बलाएँ ले रही हैं।