Saturday, April 20, 2024
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वंदे मातरम का मंच से ही विरोध कर दिया था कॉन्ग्रेस अध्यक्ष मो. जौहर ने, बोया था जामिया का बीज, जहाँ गूँजता है नारा-ए-तकबीर

मोहम्मद अली जौहर वही हैं, जिन्होंने कॉन्ग्रेस अधिवेशन के मंच से उतर कर वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी बता दिया था। तब मशहूर गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने उन्हें समझाया भी था कि यह कॉन्ग्रेस का मंच है न कि कोई मस्जिद। मगर, जौहर ने नहीं सुनी तो नहीं सुनी।

सन् 1920 की बात है। महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन छिड़ चुका था। हर ओर अंग्रेजों के बहिष्कार के लिए मुहीम चल रही थी। जनमानस की जागृति हेतु हर संभव प्रयास हो रहे थे। ब्रिटिश सरकार के प्रभुत्व को खारिज करने के लिए गाँधी चाहते थे कि हर हाल में भारतीय लोग ब्रिटिश सरकार को अपना सहयोग देना बंद करें। 

उनके इस अभियान का उद्देश्य था कि चाहे बात सरकारी निकाय में काम करने वाले भारतीय अधिकारियों की हो या फिर अंग्रेजों द्वारा संचालित स्कूल-कॉलेज में पढ़ रहे छात्र-छात्राओं की, हर कोई उन चीजों का बहिष्कार करे, जिससे ब्रिटिश अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही थी। इसके अलावा इस आंदोलन के पीछे उनका एक और महत्तवपूर्ण मकसद था, जो देश में राष्ट्रीय स्कूलों और कॉलेजों की स्थापना करके पूरा होना था।

अब चूँकि गाँधी के असहयोग आंदोलन में कई मुस्लिम नेता बढ़-चढ़ कर शामिल हुए थे, तो गाँधी समेत इन सबके लिए राष्ट्रीयता के नाम पर मुस्लिमों के लिए शैक्षणिक संस्थान खोलना एक ड्रीम प्रोजेक्ट था। नतीजा, इसी सपने को आधार बना कर सन् 1920 में 26 अक्टूबर को अलीगढ़ में जामिया की स्थापना एक संस्थान के रूप में हुई। 

जामिया मिलिया इस्लामिया की आधारशिला मौलाना महमूद हसम ने रखी थी। लेकिन इसके संस्थापकों में एक ऐसे शख्स का नाम शामिल था, जिसके बारे में कहा जाता है कि उनका सपना हिंदुस्तान को दारुल इस्लाम बनाना था और जिसने 1923 में भरी सभा में खड़े होकर सबके बीच वंदे मातरम का विरोध कर दिया था।

मोहम्मद अली जौहर, जामिया के पहले कुलपति

जी हाँ, हम बात कर रहे हैं मोहम्मद अली जौहर की। जौहर, भारत के इतिहास में एक ऐसे मजहबी नेता थे, जिन्होंने साल 1930 में मुस्लिम लीग की ओर से लंदन में हुए गोल मेज सम्मेलन में, ब्रिटिश हुकूमत के सामने गुलाम भारत में मरने तक से मना कर दिया था। उन्होंने उस सम्मेलन में बात रखते हुए कहा था कि या तो भारत को आजादी दी जाए या फिर लंदन में उन्हें कब्र के लिए जमीन दी जाए। सम्मेलन में वह कह चुके थे कि वो गुलाम भारत में वापस नहीं जाना चाहते। इसलिए उन्हें वहीं कब्र मिले।

आज मुहम्मद अली जौहर का जन्मदिवस है। उनका जन्म 10 दिसंबर 1878 में यूपी के रामपुर में हुआ था। अलीगढ़ के देवबंद से तालीम पाने वाले जौहर उच्च शिक्षा के लिए ऑक्सफॉर्ड तक पहुँचे। उन्होंने वहाँ लिंकन कॉलेज से 1898-1902 में मॉर्डन हिस्ट्री की पढ़ाई की लेकिन ICS परीक्षा में असफल होने के कारण ब्रिटिश सरकार की सिविल सर्विस का हिस्सा नहीं बन पाए। तत्पश्चात उन्होंने रामपुर और बडोरा में सेवा दी। इसी बीच उनकी करीबियाँ मुस्लिम लीग से बढ़ने लगीं।

सन् 1911 में कलकत्ता से अंग्रेजी साप्ताहिक ‘कामरेड’ और 1913 में दिल्ली से ‘हमदर्द’ जैसी पत्रिकाएँ निकाल कर इस्लामी प्रोपगेंडा को हवा देने वाले जौहर पर धर्मांतरण का समर्थन करने के इल्जाम लगते रहे हैं। कहते हैं कि उन्होंने यही सब करके ‘मौलाना’ की उपाधि प्राप्त की थी। 1918 में वह मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बन चुके थे और 1919 में खिलाफत आंदोलन का आगाज करने वाले सबसे प्रमुख नेता।

खिलाफत आंदोलन से चमके मोहम्मद अली जौहर

कुछ लोगों को आज भी लगता है कि आजादी के संग्राम में ‘खिलाफत आंदोलन’ मात्र भारत की स्वतंत्रता के लिए चलाया गया एक अभियान था। लेकिन नहीं! वास्तविकता में यह एक ऐसा आंदोलन था, जिसकी नींव तुर्की में खलीफा का शासन बरकरार रखने के लिए पड़ी थी।

दरअसल विश्व युद्ध के दौरान जब तुर्की ने जर्मनी का साथ दे दिया था तो ब्रिटिश आग बबूला हो उठे। उन्होंने तुर्की को विभाजित किया, जिससे खलीफा शासन कमजोर हो गया और विश्व के अन्य मुसलमान क्रोधित हो गए। भारत में वही गुस्सा जौहर अली और शौकत अली में भी दिखने को मिला और इन्होंने ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की। उस समय चूँकि महात्मा गाँधी मुसलमानों को आजादी की लड़ाई में हिस्सेदार बनाना चाहते थे तो उन्होंने व इंडियन नेशनल कॉन्ग्रेस ने मोहम्मद अली जौहर के साथ समझौता कर लिया।

वंदे मातरम का विरोध करने वाले मोहम्मद अली जौहर

मोहम्मद अली जौहर को लेकर एक और किस्सा जो बेहद प्रचलित है, वो यह कि उन्होंने 1923 में आंध्र प्रदेश के काकीनाड़ा में कॉन्ग्रेस के अधिवेशन के समय मंच से उतर कर वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी बता दिया था। उस समय के मशहूर गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर ने उन्हें समझाया भी था कि यह कॉन्ग्रेस का मंच है न कि कोई मस्जिद। मगर, जौहर ने नहीं सुनी तो नहीं सुनी। उनकी मुखालफत का ही परिणाम है कि आज भी कई कट्टरपंथी वंदे मातरम को इस्लाम विरोधी बता देते हैं।

जौहर की इस हरकत से पहले कॉन्ग्रेस के सभी सत्र और बैठकें वंदे मातरम से प्रारंभ होती थीं, लेकिन उस दिन एक मजहबी नेता ने पूरा माहौल बिगाड़ दिया। हालाँकि उनके मंच छोड़ने के बाद हर किसी ने वंदे मातरम दोबारा मन से गाया। देशघाती कई नीतियों और मजहबी झुकाव के कारण कॉन्ग्रेस में बाद में उनका विरोध हुआ और अंतत: वह फिर मुस्लिम लीग के नेता बने।

मुस्लिम लीग में शामिल होने के बाद 1924 में अधिवेशन के दौरान उन्होंने सिंध से पश्चिम का सारा क्षेत्र अफगानिस्तान में मिलाने की माँग की। लोगों के बीच दांडी यात्रा से प्रसिद्ध हुए महात्मा गाँधी के लिए जौहर ने सार्वजनिक रूप से जहर उगलते हुए कहा था कि गाँधी से अच्छा तो व्यभिचारी मुसलमान है।

मोहम्मद अली जौहर का जामिया प्रेम

जौहर पर चर्चा करने की और भी बहुत सी वजहे हैं लेकिन इन सबमें जो आज सबसे अधिक प्रासंगिक है, वो जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रति इनका प्रेम। गुलाम हैदर, मौलाना को जामिया की बीज बोने वाला बताते हैं। उन्होंने भले ही जामिया को ज्यादा समय नहीं दिया मगर इस्लामी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में उनकी संलिप्ता ने उन्हें अपने समुदाय की एक बड़ी पहचान दिलाई।

लंदन में अली जौहर की मृत्यु के बाद एक ओर जहाँ उन्हें उनकी इच्छानुसार भारत न भेज कर येरुशरम में दफनाया गया, वहीं उनकी बीवी अमजदी बेगम ने उनकी सारी एकेडमिक संबंधी चीजें जामिया को दे दीं। यानी जीते जी और मरने के बाद भी जामिया के लिए मौलाना एक महत्वपूर्ण शख्सियत थे।

साभार:जामिया मिलिया इस्लामिया की वेबसाइट

1 मार्च 1935 को इस यूनिवर्सिटी को दिल्ली के कनॉट प्लेस से ओखला में लाया गया और उसके बाद 1936 में इसे नए कैंपस में शिफ्ट किया गया, जहाँ जामिया के सभी संस्थान आए। जामिया को दिसंबर 1988 में भारतीय संसद में एक एक्ट के तहत संस्थान से यूर्निवर्सिटी का दर्जा मिला और तब यह सेंट्रल यूनिवर्सिटी में तबदील हो गई।

इस यूनिवर्सिटी की वेबसाइट पर आज इसका बखान आपको हर सेक्शन में पढ़ने को मिल जाएगा। यहाँ से आपको ये भी पता चलेगा कि पिछले कुछ सालों में यूनिवर्सिटी ने कितनी उपलब्धियाँ हासिल की हैं। वेबसाइट से लिए गए स्क्रीनशॉट में आप विश्वविद्यालय द्वारा अर्जित कामयाबी को पढ़ सकते हैं। इसे लिखने वाली स्वयं इस यूनिवर्सिटी की वाइस चांसलर प्रोफेसर नज्मा अख्तर हैं।

साभार:जामिया मिलिया इस्लामिया की वेबसाइट

मगर, ये सब पढ़ते हुए यह ध्यान रहे कि पिछले कुछ सालों में जामिया यूनिवर्सिटी केवल अपनी शैक्षिक उपलब्धियों के कारण चर्चा का विषय नहीं बनी। इस यूनिवर्सिटी, जिसका बीज मोहम्मद अली जौहर ने बोया था, आज उन्हीं के विचारों का अनुसरण करने वालों छात्रों के कारण भी चर्चा में रही है।

जामिया मिलिया इस्लामिया क्यों बनी रही चर्चा में?

साल 2008 में बाटला हाउस एनकाउंटर के बाद मोहम्मद अली जौहर का यह जामिया चर्चा में आया था। हैरानी इस बात की नहीं थी कि दिल्ली को धमाकों से दहलाने वाले आतंकी उसी इलाके में छिपे थे। आश्चर्य इसका था कि आतंकियों के समर्थन में ऐसा ममतामयी माहौल तैयार किया जा चुका था कि संदिग्ध आतंकी एक न्यूज चैनल में घुस कर खुली चुनौती दे रहा था और तत्कालीन वीसी मुशीरुल हसन ने बाटला हाउस से गिरफ्तार आतंकियों को कानूनी मदद की घोषणा कर दी थी। हालाँकि बाद में जब दिल्ली पुलिस के तत्कालीन संयुक्त आयुक्त कर्नल सिंह ने मुशीरुल हसन के सामने सारे तथ्य रखे, तो वे चुप हो गए। इस बाटला हाउस एनकाउंटर में मोहन चंद्र शर्मा वीरगति को प्राप्त हुए थे।

इसके बाद जामिया मिलिया इस्लामिया को लेकर विवाद साल 2019 में बढ़ा और पूरे देश ने एक विश्वविद्यालय के रूप में राष्ट्रीय राजधानी में फलता-फूलता एक इस्लामी संगठन देखा। याद करिए, पिछले दिसंबर की शुरुआत में एंटी सीएए प्रोटेस्ट भड़कने से पहले एक ‘जामिया का छात्र’ नामक संगठन सामने आया था, जिसने एक पोस्टर जारी करके मजहब विशेष के लोगों से राजनीतिक रूप से अल्लाह के कानून द्वारा ‘शासन स्थापित करने’ के लिए संगठित होने का आह्वान किया था। इस पोस्टर में लिखा था ‘अल्लाह की आज्ञा हर कानून से सबसे ऊपर है।’

जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ उग्र प्रदर्शन शुरू हुए। स्थिति इतनी बिगड़ गई की पुलिस को छात्रों को टाँगकर वहाँ से हटाना पड़ा। कुछ समय में वहाँ पत्थरबाजी की खबरें आनी शुरू हो गईं। बाद में वीडियोज से पता चला कि जामिया के ‘छात्रों’ ने हिंदुओं से आजादी के नारे भी लगाए हैं। छात्रों ने बुलंद आवाज में कहा था कि वह हिंदुओं से आजादी लेकर रहेंगे।

माहौल को बिगड़ता देख उस दौरान दिल्ली पुलिस ने बल का प्रयोग जरूर किया था और अराजक तत्वों पर कैंपस में घुस कर एक्शन लिया था, लेकिन हालातों को आँकिए तो शायद समय की वही माँग थी। बाद में पूरे मामले की जाँच में पता चला थ कि जामिया से 750 फेक आईडी कार्ड मिले, जिसने साफ कर दिया कि पूरी हिंसा एंटी सीएए प्रोटेस्ट के कारण नहीं भड़की बल्कि उसकी तैयारी बहुत पहले से चल रही थी।

विचार करने वाली बात है कि आखिर एक शैक्षणिक संस्थान में ‘तेरा-मेरा रिश्ता क्या? ला इलाहा इल्लल्लाह’ और ‘आज़ादी कौन दिलाएगा? जैसे नारे कौन लगाता है। कौन नारा-ए-तकबीर चिल्लाता है या कौन हिंदू राष्ट्र के नाम पर हिंदुओं पर हमला करता है? शायद एक लोकतांत्रिक देश में कोई भी नहीं। लेकिन अफसोस! जामिया के दिमाग में उस समय यही चल रहा था। उन्होंने आयशा व लदीदा जैसी कट्टरपंथी लड़कियों को पूरे प्रोटेस्ट की पोस्टर गर्ल बना दिया था और उनकी आड़ में अपनी आवाज उठा रहे थे।

धीरे-धीरे जब जामिया हिंसा शांत हुई और मामले की जाँच शुरू हुई तो हिंसा में शामिल प्रमुख चेहरों की हकीकत खुलने के साथ, दिल्ली पुलिस को पूरी हिंसा में पीएफआई की भूमिका भी मिली। पुलिस ने बताया कि कैसे हिंसा से दो दिन पहले 13 दिसंबर 2019 को कट्टरपंथी इस्लामी संगठन PFI के लगभग 150 सदस्यों ने विभिन्न राज्यों से दिल्ली में प्रवेश किया था और इन्हीं अराजक तत्वों द्वारा पथराव और आगजनी की शुरुआत हुई थी। पुलिस ने ये भी कहा था कि सिर्फ दिल्ली में हुई हिंसा के लिए ही नहीं बल्कि लखनऊ की हिंसा के पीछे भी पीएफआई का हाथ था।

सोचिए, एक समय था जब देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने इस जामिया के लिए कटोरा लेकर भीख माँगने की बात कह दी थी और एक पिछले साल का जामिया था, जिसके छात्र पुलिस प्रशासन पर पत्थर फेंकने से नहीं चूके और न ही पीएफआई जैसे कट्टरपंथी संगठनों के साथ हाथ मिलाने से गुरेज किया। शायद वह जौहर के आदर्शों का परिणाम था कि जामिया में मजहब को आधार बना कर उपद्रव मचाने वाले लोग शाहीन बाग से लेकर दिल्ली में हुए उत्तर-पूर्वी दिल्ली के दंगों तक में सक्रिय भूमिका में पाए गए।

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