Thursday, April 25, 2024
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जब विवेकानंद ने कहा- संन्यासी हूँ तो क्या हृदय की कोमलता का भी त्याग कर दूँ

संसार संन्यासी को देखता है। संसार महायोगी का नाम जपता है। 'विवेकानंद' कहकर जयघोष करता है। किंतु इस महायोगी का जीवन कितना दारुण था- अंत समय में उन्हें कई रोगों ने जकड़ लिया था, जीवन भर अभावों में उनका जीवन बीता, संन्यस्त हो कर अपने परिवार के लिए कुछ न कर पाने का उन्हें गहरा अपराधबोध था।

लगभग सभी के मन में महान हो जाने की अभिलाषा कहीं न कहीं दबी होगी। हर कोई जानने को इच्छुक होगा कि ऐसा क्या है जो हमें ‘लार्जर दैन लाइफ’ वाली फ़ीलिंग दे जाए।

चाहे वह बुद्ध हो, विवेकानंद या फिर गाँधी। अक्सर हमें किसी महापुरुष का उजला, चमत्कृत पक्ष ही दिखाया, बताया या सुनाया जाता है। उनके असली संघर्षो को छिपा दिया जाता है या उस पर इतना पर्दा डाल दिया जाता है कि सच स्वतः विकृत हो जाता है। किसी महापुरुष या महामानव को जानने का सबसे श्रेष्ठ उपाय क्या हो सकता है? बेहतर तो यही है कि उन लोगों द्वारा लिखित या मुख द्वारा निःसृत वाणियाँ। यह सब अगर उपलब्ध हो तो दूसरों के कहे का कोई मतलब नहीं होता पर अफ़सोस इस बात का है कि देश के बहुतेरे महामानवों ने अपने बारे में कुछ नहीं लिखा। यहाँ तक कि उन लोगों द्वारा लिखी गई चिट्ठियाँ भी उपलब्ध नहीं हैं। इसलिए सुनी-सुनाई बातों के आलावा हमें खास कुछ उपलब्ध नहीं होता।

आज विवेकानंद के जन्म दिवस पर उनके जीवन की उन घटनाओं के बारे में बताने जा रहा हूँ जो मृत्यु-पर्यंत उन्हें व्यथित करती रहीं। विवेकानंद सदा मानवता के कल्याण के प्रति चिंतित रहे। एक महामानव “महायोगी” विवेकानंद की कहानी का वह हिस्सा जो बहुत कम कहा गया है।

स्वामी विवेकानंद का जीवन बहुत लंबा न होने के बावजूद, सौभाग्य से विभिन्न समय पर लिखे गए पत्रों, संस्मरणों, लेखों और हँसी-ठिठोली से हम वंचित नहीं हुए हैं। खास बात ये है कि उनके लिखे कई पत्र, संस्मरण आज उनके न रहने के लगभग एक शताब्दी के बाद भी कई नए रहस्य उद्घाटित कर रहे हैं।

किशोरावस्था से ही सत्य की तलाश में भटकन और जवानी की शुरुआत में ही संन्यास लेने वाले विवेकानंद की यह कहकर ख़ूब मज़ाक उड़ाया जाता है कि स्वामीजी ने जीवन संघर्ष से भागकर, अभावों के कारण सन्यास ले लिया।

ये उलाहना अनायास नहीं था। सिद्धार्थ गौतम से लेकर वर्धमान महावीर तक, ऐसे कई राजपुत्र थे, जो संसार से ऊबकर, राजसी वैभव छोड़कर आत्मज्ञान या सत्य की ख़ोज में महल छोड़ वन, नदी, पहाड़ भटकने लगे। पलट कर ये भी नहीं सोचा कि हमारे बाद हमारे परिवार का क्या होगा?

किन्तु नरेंद्र नाथ (विवेकानंद) के साथ संयोग कुछ अलग था। कलकत्ते में 3 नंबर गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट पर उनकी विशाल पुस्तैनी कोठी थी। पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ते के बहुत ही मशहूर बैरिस्टर थे। परिवार बेहद संपन्न था।

किंतु विडम्बना ने उन्हें भी नहीं छोड़ा, सुख के दिन जल्द ही दुर्दिन में बदल गए। 23 फ़रवरी वर्ष 1884 के दिन जब उनके पिता कलकत्ते में फ़ैले अकाल की भेंट चढ़ गए तो परिवार विपदाओं से घिरता गया। पिता की मृत्यु के बाद ही उनके विस्तृत परिवार में घमासान छिड़ गया था। उनके सगे-सम्बन्धियों ने ही उनके परिवार पर कई मुकदमे ठोक दिए थे। पुलिसिया तलाशी में उनकी पारिवारिक जानकारियों के न जाने कितने दस्तावेज़ ग़ायब हो गए। विवादों और मुकदमे के फलस्वरूप पारिवारिक बँटवारे ने जल्द ही उनके परिवार को आर्थिक रूप से तोड़ दिया। पति की मृत्यु के बाद उनकी माता भुवनेश्वरी देवी घर का ख़र्च चलाने की बमुश्क़िल कोशिश करती रहीं, जो नाकाफ़ी था।

जब विवेकानंद के पिता परलोकवासी हुए थे, उस समय उनकी उम्र लगभग 21 वर्ष थी। और घर में सबसे बड़े बेटे वही थे, उनसे बड़ी उनकी दो बहने थी। जिनमें से स्वर्णमयी 1932 तक जीवित रहीं। नरेंद्र नाथ अपने माता-पिता की कुल 14 संतानों में से छठे थे। विश्वनाथ दत्त और भुवनेश्वरी देवी की पहली तीन संतानों के नाम आज भी नहीं जान पाए हैं क्योंकि पैदा होते ही या बाल्यकाल में ही उनकी मृत्यु हो गई थी। दो अन्य पुत्रियाँ किरणबाला 18 की उम्र में और हरिमणि 22 की आयु में चल बसीं। पिता की मृत्यु के समय परिवार में स्वर्णमयी दीदी ही उनसे बड़ी थीं। नरेंद्र नाथ के दो और छोटे भाई, महेंद्रनाथ तब 15 के थे और भूपेंद्रनाथ तो अभी 3 वर्ष के बालक ही थे। कौन जानता था कि आगे चलकर महेंद्रनाथ एक बड़े लेखक और भूपेंद्रनाथ स्वतंत्रता सेनानी बनने वाले हैं? आम परिवारों की तरह अभाव सिर पर था और उससे परिवार को निकाल लेने की ज़िम्मेदारी नरेंद्र पर।

वर्ष 1881 में दक्षिणेश्वर में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से भेंट के बाद से ही नरेंद्र नाथ का मन विचलित होकर, संसार और वैराग्य के बीच झूलने लगा था। इसी आत्मसंघर्ष में 1884 से 1886 तक के दो वर्ष बीत गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। एक तरफ़ सत्य की ख़ोज तो दूसरे तरफ़ खस्ता हाल परिवार! उनके सामने प्रश्न था – क्या परिवार को भूखे मरने को छोड़ दें? क्या खुद के बारे में सोचना उचित है, जब घर में खाने के भी लाले पड़े हों? ऐसी दुविधा का सामना कभी सिद्धार्थ गौतम या वर्धमान महावीर को नहीं करना पड़ा।

इन दो वर्षों में नौकरी की तलाश में, वे आवेदन लेकर दर-दर भटके। ईश्वरचंद्र विद्यासागर के सुविख्यात ‘मेट्रोपोलिटन इंस्ट‍िट्यूशन’ की एक शाखा जब सिद्धेश्वर लेन, चांपातला में खुली तो नरेंद्र नाथ ने वहाँ नौकरी के लिए आवेदन किया। नौकरी मिल भी गई। स्कूल के सेक्रेटरी विद्यासागरजी के जमाई थे। लेकिन नरेंद्रनाथ से किसी बात पर उनका विवाद हो गया तो उन्होंने नौवीं और दसवीं के छात्रों से कहलवा दिया कि उन्हें पढ़ाना ही नहीं आता! स्वयं विद्यासागरजी तक शिक़ायत पहुँची तो उन्होंने कह दिया कि नरेंद्र को कल से नौकरी पर नहीं आना है।

जिस मेधावी नरेंद्र की कीर्ति विवेकानंद के रूप में पूरी दुनिया में एक विश्वशिक्षक और उपदेशक के रूप में छा जाने वाली थी, संसार जिसकी यश-पताका फ़हराने वाला था, उन्हें स्कूली छात्रों ने यह कहकर ख़ारिज़ कर दिया कि वे पढ़ाना नहीं जानते! और दूसरे यह कि ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे महामानव से भी अभावग्रस्त नरेंद्रनाथ के पेट पर लात मारने का महापाप जाने-अनजाने हो गया था।

इसके बाद नरेंद्र नाथ को किसी ज़मींदारी कार्यालय में नौकरी मिल गई। परन्तु मार्च 1885 में वह नौकरी भी छोड़ दी। रामकृष्ण परमहंस को जाकर बताया, “ठाकुर, यह नौकरी भी छोड़ आया हूँ! परमहंस ने कहा: “ठीक किया, ठीक ही तो किया!” नरेंद्र! तेरा जन्म कुछ और करने के लिए हुआ है, तू कहाँ फँसा है ऐसे कामों में।”

परिवार पर चल रहे दीवानी मुक़दमे के दौरान 8 मार्च 1887 को कलकत्ता हाई कोर्ट में नरेंद्र नाथ की पेशी हुई। अंग्रेज़ बैरिस्टर साहब ने नरेंद्र नाथ से उनकी उम्र पूछी। नरेंद्र ने कहा, “होगी कोई तेइस चौबीस बरस!” पेशा पूछा तो उत्तर दिया, “बेकार हूँ! पिछले आठ महीने से मैं कुछ नहीं करता।” अब बैरिस्टर साहब ने उलाहना देते हुए कहा, “तुम किसी के चेला बन गए हो?” नरेंद्र ने उत्तर दिया, “आपका प्रश्न मेरे समझ में नहीं आया, मुझे नहीं मालूम कि चेला क्या होता है!” फिर नरेंद्र ने कहा, “मैंने कभी किसी भिक्षाजीवी साधु की चेलागीरी जैसा कोई कार्य कभी नहीं किया!” पिता की मृत्यु के बाद नरेंद्र के जीवन के वे दो वर्ष ऐसे ही घोर अपमान, उलाहना और कटाक्ष से भरे हुए बहुत ही पीड़ादाई थे।

स्वामी जी का जीवन कई बार संकट में नज़र आया। अनाहार, लम्बी भटकन, जहाँ-तहाँ पड़े रहना, कई बार उन्होंने खुद का जीवन संकट में डाला। तभी शंकर का ‘विवेकचूड़ामणि’ उन्होंने पढ़ा। शंकर ने कहा था : “मनुष्यत्व मुमुक्ष्यत्व: महापुरुष संश्रय।” यानी मनुष्य जाति, आत्मबोध की चाह और महान लोगों का साहचर्य, ये तीनों बातें कभी एक साथ, अकारण नहीं होतीं। और जब वैसा हो तो सत्य की खोज में प्राण-प्रण से जुट जाना चाहिए। नरेंद्र ने मन ही मन सोचा, “जाने कितने युगों के बाद मिला यह जीवन, क्या क्लर्क और टीचर की नौकरी करके ही गँवा दूँ? नहीं, यह संभव नहीं है। ठाकुर ठीक कहते हैं। मुझे कुछ और ही करना है अब वही करूँगा, जो माँ (काली) ने तय किया है।” तब जाकर वर्ष 1886 में उन्होंने संन्यास ले लिया।

वैसी ही किसी मनोदशा में तब विवेकानंद ने हरिदास देसाई को पत्र लिखकर कहा था, “आप मेरी दुखिनी माँ से मिलने गए, मुझे बहुत प्रसन्नता हुई। एक तरफ़ भारतवर्ष के करोड़ों नर-नारियों का दु:ख है, दूसरी तरफ़ आत्मीय स्वजनों की दुर्दशा, पीड़ा वेदना। ठाकुर के कहने पर मैंने संन्यास का पथ चुना है। आगे माँ काली ही मेरी रक्षा करेंगी!”

संन्यासी से आमतौर पर हम वैराग्य की अपेक्षा रखते हैं लेकिन नरेंद्र ने अपने मानवीय रूप को कभी नहीं छिपाया। विवेकानंद की एक बहन योगींद्रबाला ने पारिवारिक कलह से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। उसकी मृत्यु का समाचार मिलने पर विवेकानंद फूट-फूट कर रोने लगे, तो किसी ने टोका, “संन्यासी को ऐसा दुःख का प्रदर्शन शोभा नहीं देता!” इस पर विवेकानंद ने उत्तर दिया, “संन्यासी हूँ तो क्या अपने हृदय की कोमलता का भी त्याग कर दूँ? तो शेष ही क्या रहेगा।” उन्हें अपने परिवार के लिए कुछ न कर पाने का गहरा मलाल था, जिसका ज़िक्र उन्होंने कई बार परमहंस से भी किया था।

Vivekanand letter
खेतड़ी के महाराज को विवेकानंद का पत्र ( साभार-बेलूर मठ )

अतिविख्यात होने के बाद भी, परिवारिक चिंता और सत्य की ख़ोज का दायित्व, इस द्वन्द में विवेकानंद आजीवन पिसते रहे। विशेषकर माँ के प्रति उनकी चिन्ता ज़्यादा थी। इसके लिए याचना में हाथ फैलाने से भी उन्होंने संकोच नहीं किया। 1891 से ही महाराजा अजीत सिंह ने उनके परिवार का दायित्व संभाल रखा था। 100 रुपए मासिक उनके परिवार को भरण-पोषण के लिए मिलता था। 1 दिसंबर 1898 को खेतड़ी के महाराज को पत्र लिखकर विवेकानंद ने कहा, “मेरे रोग का ख़र्च आपको और अधिक दिन तक नहीं उठाना होगा क्योंकि अब मैं अधिक दिनों का मेहमान नहीं हूँ। किंतु आज मैं असहाय होकर आपसे निवेदन करता हूँ कि माँ को, परिवार के भरण-पोषण के लिए हर माह सौ रुपयों की जो आर्थिक सहायता आप भेजते हैं, उसे मेरी मृत्यु के बाद भी जारी रखें!”  

आज एक बार फिर वो खुद को असहाय पा रहे थे। गुरुभाई भी परिव्राजक ही थे। वो भी उनके परिवार के लिए कुछ नहीं कर सकते थे। दुर्भाग्य ने यहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। स्वयं खेतड़ी के महाराज, विवेकानंद से पूर्व ही 1901 में स्वर्ग सिधार गए। खेतड़ी के महाराज ने ही नरेंद्र को पहली बार ‘विवेकानंद’ कहा था।

संसार संन्यासी को देखता है। संसार महायोगी का नाम जपता है। ‘विवेकानंद’ कहकर जयघोष करता है। किंतु इस महायोगी का जीवन कितना दारुण था – अंत समय में उन्हें कई रोगों ने जकड़ लिया था, जीवन भर अभावों में उनका जीवन बीता, संन्यस्त हो कर अपने परिवार के लिए कुछ न कर पाने का उन्हें गहरा अपराधबोध था।

फिर भी, क्षीण शरीर के बाद भी संतोष इस बात का कि शरीर भले ही चालीस की वय भी न पार कर पाए पर संसार को जो कुछ भी दे कर जा रहा हूँ, वो हज़ार वर्षों की ख़ुराक है।

मृत्यु को समीप जानकर, कहते हैं अगर अभी और एक विवेकानंद होता, तो वह समझ पाता कि विवेकानंद क्या कर रहें हैं। समय-समय पर अनगिनत विवेकानंद जन्म लेंगे।

जब-जब मृत्यु मेरे नज़दीक आती है, मेरी सारी कमज़ोरी चली जाती है। मैं खुद को मृत्यु के लिए प्रस्तुत करने को तैयार हो जाता हूँ। वस्तु की असारता किसी के पकड़ में आई है, तो वह इन्सान मैं हूँ। जो यह सोचता है, वह जग़त का कल्याण करेगा, वह अहमक़ है। लेकिन अच्छा या बुरा काम करते रहना होगा। हमारे हर तरह के बन्धनों की परिसमाप्ति के लिए है। आशा करता हूँ, वह कार्य मैंने किया है। अब प्रभु मुझे संसार के उस पार ले जाएँ।

संसार सर्व-विख़्यात महायोगी विवेकानंद को याद रखता है, किंतु उनके जीवन के इन आत्मसंघर्षों को भुलाकर खुद विवेकानंद हो जाना चाहता है। जबकि सत्य तो यही है कि महामानव विवेकानंद की कोई भी महागाथा उनके जीवन की इन कथाओं को जाने बिना कभी भी पूर्ण नहीं हो सकती।

विवेकानंद को एक सच्चा मानव और एक महायोगी, दोनों ही रूप में एकसाथ देखें, तभी जाकर हम उनको और उनके विचारों को आत्मसात कर खुद भी महामानव होने के मार्ग पर अग्रसर कर पाएँगे। जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जी पाएँगे। मानवता के कल्याण के लिए अपने तरफ से भी कोई योगदान दे पाएँगे।

डिस्क्लेमर: शंकर की लिखी पुस्तक ‘विवेकानन्द की आत्मकथा’ से दृष्टान्त लिए गए हैं

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रवि अग्रहरि
रवि अग्रहरि
अपने बारे में का बताएँ गुरु, बस बनारसी हूँ, इसी में महादेव की कृपा है! बाकी राजनीति, कला, इतिहास, संस्कृति, फ़िल्म, मनोविज्ञान से लेकर ज्ञान-विज्ञान की किसी भी नामचीन परम्परा का विशेषज्ञ नहीं हूँ!

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