स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती का जन्म 1916 में आज ही के दिन (08 मई) हुआ था। महान भारतीय दर्शन अद्वैत वेदान्त के अनुयायी और भगवद्गीता, उपनिषद और अन्य हिन्दू शास्त्रों के प्रचारक स्वामी चिन्मयानन्द का जीवन कभी भी साधारण नहीं रहा। चिन्मय मिशन के संस्थापक और विश्व हिन्दू परिषद की नींव रखने वाले स्वामी चिन्मयानन्द पहले एक स्वतंत्रता सेनानी और जवाहरलाल नेहरू के द्वारा स्थापित द नेशनल हेराल्ड में पत्रकार थे। हालाँकि बालकृष्ण मेनन से स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती बनने का उनका सफर बड़ा ही रोचक है।
स्वामी चिन्मयानन्द केरल में ही जन्में और वहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा भी हुई लेकिन अंग्रेजी साहित्य में पोस्ट ग्रेजुएट करने के लिए स्वामी चिन्मयानन्द लखनऊ आए। यहाँ उन्होंने 1940-43 के दौरान लखनऊ विश्वविद्यालय से पोस्ट ग्रेजुएट की डिग्री हासिल की। इस दौरान उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। स्वामी चिन्मयानन्द अंग्रेजों द्वारा 1944 में गिरफ्तार किए गए। इसी दौरान उनकी मुलाकात नेशनल हेराल्ड के प्रथम संपादक के रामाराव से हुई, जिन्होंने स्वामी चिन्मयानन्द को एक पत्रकार के तौर पर नेशनल हेराल्ड में नौकरी दी। नेशनल हेराल्ड की स्थापना भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने की थी।
पत्रकारिता के इसी कालक्रम से शुरुआत हुई स्वामी चिन्मयानन्द के आध्यात्मिक जीवन की। हुआ असल में ऐसा कि पत्रकार के तौर पर कार्य करते हुए 1947 की गर्मियों में स्वामी चिन्मयानन्द हरिद्वार के ऋषिकेश स्थित शिवानंद सरस्वती के आश्रम पहुँचे। स्वामी चिन्मयानन्द वहाँ साधुओं को उजागर करने के लिए गए थे लेकिन वहाँ पहुँचने के बाद उनके भीतर हिन्दू धर्म और उसके दर्शन को लेकर गहरी जिज्ञासा जाग उठी। इसके समाधान के लिए उन्होंने शिवानंद सरस्वती से संपर्क किया। इसके बाद 31 वर्ष की उम्र में स्वामी चिन्मयानन्द साधु बन गए और अंततः 25 फरवरी 1949 को महाशिवरात्रि के अवसर पर उन्होंने शिवानंद सरस्वती से दीक्षा ली और संन्यास ग्रहण कर लिया। इस प्रकार बालकृष्ण मेनन, स्वामी चिन्मयानन्द सरस्वती बन गए।
स्वामी चिन्मयानन्द हिन्दू धर्म के उत्थान के लिए योगदान देना चाहते थे और उनका उद्देश्य था कि विश्व भर के हिन्दू संगठित होकर इस कार्य में अपना योगदान दें। 1963 में स्वामी चिन्मयानन्द ने पहली बार एक वैश्विक हिन्दू संगठन का विचार पूरे हिन्दू समाज के सामने रखा और हिन्दू धर्म के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया कि हिन्दू धर्म के उत्थान और एकत्रीकरण के लिए हिंदुओं के प्रतिनिधि एक साथ मिलकर प्रयत्न करें। उनके इस विचार से तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रचारक शिवराम शंकर आपटे बहुत प्रभावित हुए।
अगस्त 1964 में स्वामी चिन्मयानन्द और आरएसएस प्रचारक आपटे ने संदीपनी आश्रम में एक सभा का आयोजन किया जहाँ हिन्दू संगठनों के कई प्रतिनिधि पहुँचे। इसी सभा में हिंदुओं के बड़े संगठनों में से एक विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना हुई। इसी सभा में स्वामी चिन्मयानन्द को संगठन का अध्यक्ष और आपटे को महासचिव नियुक्त किया गया। विश्व हिन्दू परिषद का उद्देश्य तय हुआ, हिंदुओं और हिन्दू धर्म का उत्थान एवं विकास।
अगस्त 1964 में ही पोप ने घोषणा की कि उस साल नवंबर में इंटरनेशनल यूकेरिस्टिक कॉन्फ्रेंस (International Eucharistic conference) का आयोजन बॉम्बे में होगा। विश्व हिंदू परिषद के गठन और भविष्य में उसकी रूप-रेखा/कार्यशैली आदि पर नवंबर 1964 की यह घटना खासा महत्व रखती है। Religion, Caste & Politics in India नाम की एक किताब है। लेखक हैं – Christophe Jaffrelot – इस किताब के पेज 228 और 229 को पढ़िए।
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भारत के पिछड़े इलाकों (तब के बिहार, अभी के झारखंड) में उस समय गरीब-लाचार हिंदुओं को लालच-प्रलोभन देकर ईसाई बनाने का धंधा जोरों पर था। स्वामी चिन्मयानन्द इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा मानते थे। इसी बात की चर्चा RSS के मुखपत्र The Organiser में भी की गई थी। चर्च के बढ़ते प्रचार-प्रसार और हिंदुओं के साथ-साथ देश की आदिवासी जनसंख्या के धर्म परिवर्तन पर अंकुश लगाने के लिए ही विश्व हिंदू परिषद (VHP) अपने आप को तैयार करती है।
विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना करते समय स्वामी चिन्मयानन्द ने कहा था, “जिस दिन प्रत्येक हिन्दू जागृत होगा और उसे अपनी हिन्दू पहचान पर गर्व होगा, उस दिन परिषद का कार्य पूर्ण हो जाएगा और उन्हें (स्वामी चिन्मयानन्द) इसका पुरस्कार प्राप्त हो जाएगा। एक बार हिन्दू, अपने हिन्दू धर्म में वापस आ गए तो फिर सब ठीक हो जाएगा।“
हिन्दू धर्म और उसके दर्शन के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले स्वामी चिन्मयानन्द का निधन 3 अगस्त 1993 को हुआ। उनके द्वारा स्थापित चिन्मय मिशन आज भी विश्व भर में हिन्दू वेदान्त और स्वामी चिन्मयानन्द के विचारों का प्रचार-प्रसार कर रहा है।