Friday, March 29, 2024
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मोपला हिंदू नरसंहार: कहीं गला काट कुएँ में फेंका, तो कभी हत्या के लिए उतार दी पूरे शरीर की चमड़ी – इतिहास जो भूला दिया गया

1766 से लेकर 1921 तक मोपलाओं के द्वारा किए गए हिंदू नरसंहार के बारे में सबको पता चलना चाहिए। इसके लिए मोपला हिंदू नरसंहार की बात करते हुए एक स्मारक खड़ा किया जाना चाहिए। मोपला हिंदू नरसंहार पर एक कमिटी भी बने और वो जो भी डॉक्यूमेंट रिकॉर्ड करे, उसे इतिहास की किताबों में जगह मिले।

किसान विद्रोह, हिंदू जमींदारों के खिलाफ मुस्लिम मजदूरों का आंदोलन, अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति से लेकर मालाबार या मोपला विद्रोह… ऐसे कई टर्म हम सभी ने इतिहास में पढ़े हैं। पढ़े हैं क्योंकि इतिहास की किताबों में यही लिखा गया है। सच्चाई जबकि कोसों दूर है, रक्तरंजित है।

तो आखिर क्या है सच्चाई? कौन बताएगा रक्तरंजित इतिहास को? इन्हीं सवालों को जानने के लिए ऑपइंडिया ने मुलाकात की जे नंदकुमार से। RSS के विचारक, प्रज्ञा प्रवाह के भारतीय संयोजक जे नंदकुमार उसी राज्य से आते हैं, उस क्षेत्र को जानते-समझते हैं, जहाँ की यह वीभत्स घटना है।

मोपला हिंदू नरसंहार को गलत शब्दों में गढ़ कर इतिहास के साथ धोखा क्यों किया गया? वो कौन सी ताकतें थीं, जिन्होंने हजारों हिंदुओं के कत्लेआम पर आँखें मूँदी रखीं? इतने बड़े स्तर पर जो रक्तपात होता रहा, उसके पीछे के सामाजिक और राजनीतिक पहलूओं को ऑपइंडिया ने जानने की कोशिश की जे नंदकुमार से मिल कर। मोपला हिंदू नरसंहार से वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को कैसे वाकिफ कराया जाए, इसके लिए क्या रोडमैप हो, क्या लक्ष्य हो, सरकार के स्तर पर क्या-क्या काम करने की जरूरत है, सब कुछ निकला इस बातचीत से, सवाल-जवाब के फॉर्मेट में।

सवाल: जिसे ‘मालाबार विद्रोह’ कह कर पढ़ाया जाता है, दरअसल उसकी आग 1921 से बहुत वर्षों पहले 1792 से ही शुरू हो गई थी। हजारों हिंदुओं का नरसंहार उसी शरीयत मानसिकता का नतीजा था। इतने लंबे कालखंड में हिंदुओं के प्रति नफरत की आग कैसे बढ़ती रही और फिर क्यों हुआ मोपला हिंदू नरसंहार? आखिर इतने लंबे समय तक हिंदू एकजुट होकर प्रतिकार क्यों नहीं कर पाए?

जवाब: 1921 के घोर नरसंहार का बैकग्राउंड अगर ठीक तरह से खोजा जाए तो 1792 से भी पीछे जाने की आवश्यकता है। मुख्यतः यह इस्लामी कट्टर मानसिकता है, जो अन्य धर्मों के लोगों के खिलाफ सोच रखती है। इसमें विशेषतः सुन्नी मुस्लिम लोग हिंदुओं के खिलाफ भी हैं, यहूदियों के खिलाफ भी, यहाँ तक की गैर-सुन्नी मुस्लिमों के खिलाफ भी और ईसाइयों के खिलाफ भी। इस नरसंहार के पीछे यह विचार एक मुख्य कारक तो है।

इसके साथ ही केरल में दो महत्वपूर्ण घटनाएँ भी कारक बनीं।
इनमें एक है:

यमन से कुछ मुस्लिम प्रचारकों का केरल आना। इनमें दो नाम बहुत महत्वपूर्ण हैं – (i) सईद अल्वी थंगई (Sayyid Alawi Thangal). यह आए 18वीं सदी की शुरुआत में। इनके पुत्र थे फज़ल पुकौया थंगई (Fazal Pookoya Thangal). इन दोनों नामों को जानना बहुत जरूरी है। वो इसलिए क्योंकि मालाबार क्षेत्र में बसी मुस्लिम आबादी को ज्यादा से ज्यादा कट्टरपंथी विचारधारा से जोड़ने में इन दोनों का बहुत योगदान रहा। इस्लामी कट्टर मानसिकता के बावजूद सईद अल्वी थंगई और फज़ल पुकौया थंगई के केरल आने से पहले हिंदू-मुस्लिम फसाद बहुत बड़े स्तर पर नहीं हुआ था। यमन से आए मुस्लिम प्रचारकों के बाद ही इस्लामी कट्टरपंथ अपने चरम पर पहुँचा।

दूसरा है:

1766 में हैदर अली (टीपू सुल्तान के अब्बा) का मालाबार पर आक्रमण करना। इस दौरान वहाँ बसे हिंदुओं के ऊपर बहुत ही क्रूर तरीके से आक्रमण किया गया। उनकी जमीन और संपत्तियाँ सब कब्जे में लिया था उन्होंने। हैदर अली के इस हमले से घबराए और बचे हुए हजारों नहीं बल्कि लाखों हिंदुओं का पलायन कोच्चि और त्रावणकोर की ओर हुआ। जमीन-जायदाद और यहाँ तक की मंदिरों का भी मोह त्याग कर इन हिंदुओं ने भाग कर अपनी जान बचाई। जब हैदर अली की मृत्यु हुई तो लोगों ने सोचा कि अब कुछ अच्छा होगा। लेकिन उनका बेटा टीपू सुल्तान अपने अब्बा हैदर अली का 10-गुणा क्रूर निकला।

टीपू सुल्तान ने वहाँ के टैक्स कलेक्शन सिस्टम तक को बदल दिया। वो लेकर आए मोपला कालमदार सिस्टम। इस कालमदार सिस्टम का अर्थ है – जो हिंदू लोग अपनी संपत्ति छोड़ गए, उन सारी संपत्तियों पर इन्होंने कब्जा कर लिया और मोपलाओं के बीच बाँट दिया। फिर इन्हीं संपत्तियों पर टैक्स कलेक्ट कर टीपू सुल्तान को भेजा जाता था।

हिंदुओं पर आक्रमण के पीछे इन दो कारकों के अलावा एक तीसरा भी पहलू है। इनका जिक्र इतिहास की किताबों में नहीं मिलेगा। मालाबार अपने टीक की लकड़ियों के लिए मशहूर रहा है। यहाँ का नीलंबूर टीक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फेमस है। मक्का में भी नीलंबूर टीक का प्रयोग किया गया है। टाइटैनिक के इंटीरियर डेकोरेशन में भी नीलंबूर टीक लगाया गया। उस समय की सबसे लग्जरी और सबसे महँगी कार रॉल्स रॉयस में भी नीलंबूर टीक लगाया जाता था। मालाबार पोर्ट से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीलंबूर टीक भेजा जाता था। इस पूरे व्यापार पर कब्जा करने के लिए भी टीपू सुल्तान ने आक्रमण किया था।

1792 आते-आते श्रीरंगपटनम श्रीरंगपट्टनम संधि हुई। एंग्लो-मैसूर तीसरा युद्ध समाप्त हो गया। इसके साथ ही मालाबार के ऊपर टीपू का कब्जा समाप्त हो गया। इसके बाद स्वाभाविक रूप में जो हिंदू त्रावणकोर या कोच्चि की तरफ भागे थे, वो मालाबार में वापस आने लगे। सब वापस आने की हिम्मत नहीं जुटा पाए लेकिन अधिकांश लोग वापस आए। इसके बाद इन सभी ने अपनी-अपनी संपत्तियों पर अपना हक जताया। यहीं से शुरू हुई एक नई सामाजिक समस्या। 1921 में हुआ मोपला हिंदू नरसंहार अपने आप में पहला नहीं था। 1792 में जो समस्या उपजी, उसको लेकर कम से कम 25 बड़े आक्रमण हिंदुओं पर किए गए। इसमें सबसे बड़ी बात यह रही कि हिंदुओं की संपत्ति पर कब्जा जमाने के लिए मुस्लिम सामंतों ने इस तरह के आक्रमण का नेतृत्व किया।

उस समय लकड़ी के जो 4-5 बड़े व्यापारी थे, उन सभी को अंग्रेजों ने उपाधि दी थी – खान बहादुर। मालाबर के क्षेत्र में यह उपाधि केवल मुस्लिमों को ही दिया गया और वो भी उनको, जो टीक की लकड़ी के बहुत बड़े व्यापारी थे। इन व्यापारियों को पहले हिंदू लोग टीक की लकड़ियाँ देते थे क्योंकि अधिकतर टीक के वन मंदिरों की संपत्ति थी। हैदर अली और टीपू सुल्तान के आक्रमणों के बाद हिंदुओं ने मुस्लिम व्यापारियों के साथ काम करना बंद कर दिया। यह सामाजिक समस्या भी एक कारण बना।

1766 से शुरू हुए हिंदुओं पर आक्रमण से लेकर 1921 का मोपला नरसंहार… आखिर इतने लंबे समय तक हिंदू एकजुट होकर प्रतिकार क्यों नहीं कर पाए? इस सवाल के पीछे मुख्यतः दो कारण हैं:

एक कारण – वहाँ के हिंदू संगठित नहीं थे। संगठित होने के लिए या इसके प्रयास के लिए कुछ होना चाहिए था लेकिन 19वीं शताब्दी के अंत आते-आते तक हिंदुओं में जाति प्रथा अपने चरम पर थी। इसी कारण से संगठनात्मक दृष्टि बन नहीं पाई।

दूसरा कारण – पहले के हिंदुओं के पास हथियार थे। केरल में तब कई सारे अखाड़े मतलब वहाँ की भाषा में कलरी थे। अंग्रेजों ने वहाँ के सभी कलरी पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके कारण हिंदुओं के पास हथियार लेकर चलने की संभावना ही नहीं बची। इसी से जुड़ा एक तीसरा कारण भी है। मुस्लिम पहले से ही तैयार थे। इनकी एक तरह से मिलिट्री ट्रेनिंग भी शुरू हो गई थी। साथ ही उनके पास हथियार और बंदूकें भी थीं।

अंग्रेज भी मुस्लिमों के इस आक्रामक रवैये पर लगाम लगाने को बहुत इच्छुक नहीं थे। उनके लिए हिंदू-मुस्लिम लड़ रहा है तो फायदा होगा, वाली स्थिति थी। इस तरह हथियारों और बंदूकों से लैस संगठित मुस्लिम के सामने थे हथियार रहित हिंदू, सामाजिक स्तर पर बिखरे हुए हिंदू, असंगठित हिंदू। इन कारणों से हिंदुओं की ओर से संगठित प्रतिक्रिया नहीं देखने को मिली लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर यह हुआ, कई जगहों पर हुआ।

सवाल: जब मोपला हिंदू नरसंहार हुआ तब अंग्रेजों की सरकार थी। उनकी पुलिस-प्रशासन ने इस नरसंहार को कैसे देखा, किन उपायों से इस पर काबू पाया… यह उनकी समस्या थी। या काबू नहीं पाया तो इसके पीछे उनकी कूटनीति रही होगी। लेकिन उसी समय महात्मा गाँधी-नेहरू-पटेल-बोस वाली मजबूत कॉन्ग्रेस भारत की राजनीति में पकड़ बना चुकी थी। फिर ऐसा क्यों हुआ कि हिंदू नरसंहार को ‘स्वतंत्रता विद्रोह’ या ‘किसान विद्रोह’ के नाम से इतिहास में दर्ज किया गया? क्या कॉन्ग्रेस के गरम दल के नेताओं ने भी ‘हिंदू नरसंहार’ को लेकर कुछ नहीं लिखा, कोई लेटरबाजी नहीं की?

जवाब: उस समय के इतिहास को देखें तो जो पक्के राष्ट्रवादी थे, वो सब जेल में थे। नेताजी सहित बहुत सारे लोग उस समय जेल में थे। फिर भी जब उनकी मुक्ति हुई तो लोगों ने आवाज उठाई। वीर सावरकर जी ने तो बहुत ही कड़े शब्दों में इसका विरोध किया था। ‘मोपला अर्थात मुझे इससे क्या’ नाम की एक पुस्तक भी सावरकर जी ने लिखी।

शुरुआत के समय में कॉन्ग्रेस के लीडर गाँधी जी के हाथ में थे। वो वीटो पावर बहुत जबरदस्त था। इसके अलावा मैं सिर्फ गाँधी जी की बात नहीं कर रहा हूँ लेकिन कुछ लोगों को भारत के स्वतंत्रता संग्राम को लेकर मोनोपोली या एकमात्र क्रेडिट जैसा चाहिए था। इससे पहले उनके पास इस तरह के नेतृत्व नहीं थे… लेकिन आगे चलकर ऐसा सिर्फ उनके पास ही हो, यह ऐसे लोगों की सोच थी। इसलिए पागलपन की हद तक भी ये लोग जाने के लिए तैयार थे। स्वतंत्रता संग्राम करने लिए मुस्लिमों को साथ लेकर चलने और इसे एक अच्छा मौका समझते हुए इन लोगों ने यह प्रारंभ किया।

पहले सवाल के जवाब में मैंने बताया था कि पूरा मालाबार एक अग्निपर्वत मतलब वॉलकैनो बन चुका था। वह फटने के लिए तैयार था। सामाजिक स्तर पर मुस्लिमों और हिंदुओं के बीच तनाव इतना था कि एक चिंगारी पर्याप्त थी। लेकिन खिलाफत के साथ खड़े होकर गाँधी जैसे बड़े नेता ने एक मशाल फेंक दिया केरल के मालाबर में। परिणाम हुआ इतने बड़े नरसंहार का होना।

इसके बाद बाबा साहब आंबेडकर और एनी बेसेंट जैसे बड़े नेताओं ने मोपला में हुए हिंदू नरसंहार पर वो सच्चाई बयाँ की, जिससे कॉन्ग्रेस बच रही थी। एनी बेसेंट का नाम इस रूप में उल्लेख करना चाहिए कि मालाबार में अगर कोई राष्ट्रीय नेता सबसे पहले पहुँचा तो वो एनी बेसेंट ही थीं। वहाँ पहुँच कर उन्होंने महात्मा गाँधी को बहुत ही कड़े शब्दों में एक पत्र लिखा।

एनी बेसेंट ने पत्र में बताया कि यहाँ जो नरसंहार हो रहा है, उसके चित्रण और वर्णन से मुझे बेहोशी आती है। सहन नहीं कर पा रही हूँ मैं। इसलिए गाँधी जी को यहाँ आने का आमंत्रण देती हूँ। जब वो आएँ तो साथ में अपने दो करीबी और मजबूत ‘रिश्तेदारों’ – मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली को भी साथ लाएँ और देखिए कि इधर क्या हो रहा है। पूर्ण-गर्भिणी माता के गर्भ को चीर कर उनके भ्रूण निकाल भाले पर टाँग दिया जाता था और यह कई जगहों पर किया जा रहा है। एनी बेसेंट ने वहाँ गहन सर्वे भी किया था।

बाबा साहब आंबेडकर ने बताया कि यह हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं है। इसे हिंदू-मुस्लिम दंगा कह भी नहीं सकते। उन्होंने इसके लिए एक शब्द का प्रयोग किया था – Bartholomew (इसका मतलब ईसाई धर्म के इतिहास से जुड़ा एक नरसंहार है)। यह कुछ ऐसा है कि एक समुदाय ने पूरी तैयारी करके उस दूसरे समुदाय पर हमला किया, जिसकी कोई तैयारी ही नहीं थी। यह हमला अचानक था और एकदम से नरसंहार कर दिया गया। मृतकों की संख्या किसी को पता नहीं। यह गिनती बहुत बड़ी होगी। हजारों की संख्या में हिंदू अपने घर-संपत्ति को छोड़ कर पड़ोसी गाँवों या जंगलों में भाग गए। बाबा साहब आंबेडकर ने सवालिया लहजे में पूछा कि जो स्थिति यहाँ की है, वैसे में महात्मा गाँधी क्यों नहीं इस विषय को देख रहे हैं?

एनी बेसेंट, बाबा साहब आंबेडकर और इन जैसे कई लोगों ने इस मामले पर आपत्ति जताई थी। विडंबना यह है कि तब के केरल के कॉन्ग्रेस नेताओं ने शुरुआत में जो गाँधीजी ने बताया, उसे वैसे ही मान कर चले। उनकी मानसिकता ही यही थी।

इसके पीछे एक और पृष्ठभूमि है। बंगाल विभाजन में अपनी कूटनीतिक विफलता यानी 1911 के बाद अंग्रजों ने बहुत ही शातिर ढंग से अपने प्यादों को सेट किया, जाल बिछाया। कॉन्ग्रेस उनके इसी जाल में फँस गई थी। उन्होंने कॉन्ग्रेस को “राष्ट्रीय स्तर की पार्टी नहीं” कहना शुरू किया। हिंदू पार्टी कहने लगे। “मुस्लिम प्रतिनिधित्व कॉन्ग्रेस में कहाँ” ऐसे सवाल किए जाने लगे। अंग्रजों ने यहाँ तक दाँव खेला कि अगर कॉन्ग्रेस में मुस्लिम प्रतिनिधित्व होगा तो वो भारत को स्वतंत्र घोषित कर ब्रिटेन जाने को तैयार हैं। इस तरह से उन्होंने कॉन्ग्रेस को घेरा।

नतीजा क्या हुआ? कॉन्ग्रेस ने यह दिखाना शुरू कर दिया कि उनके साथ मुस्लिम भी हैं… वो एक राष्ट्रीय स्तर की पार्टी हैं। यही वो कारण है कि खिलाफत जैसी खतरनाक साजिश को इन लोगों ने मिलकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करने की कोशिश की, इसे इंटरनेशनल मूवमेंट बनाने पर बल दिया।

इस सवाल का जो जवाब शुरू में मैंने दिया था, अब फिर से उस पर आते हैं। कॉन्ग्रेस के अंदर जितने महान नायक लोग थे, उनके जो गरम दल (कथित) के नेता लोग थे, उनमें से अधिकांश शुरुआत से ही जेलों में बंद थे। इस कारण से वो लोग इस मामले पर कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं थे। कॉन्ग्रेस के ही एनी बेसेंट और बाबा साहब आंबेडकर ने आपत्ति जताई थी। इसी तरह और भी कई लोगों ने इस मामले पर आपत्ति जताई थी।

उस समय केरल के जो नेता थे – के दामोदरन, माधवन, केपी मेनन आदि जैसे लोगों ने कॉन्ग्रेस नेतृत्व को एक पत्र लिखा। इस पत्र में इन लोगों ने कहा कि कॉन्ग्रेस का रेजोल्यूशन अपने आप में गलत है। इन लोगों ने बताया कि खिलाफत के समर्थन में कॉन्ग्रेस ने जो रेजोल्यूशन लिया, वो केरल में किए गए संघर्ष को एक तरह से नजरअंदाज करना हुआ। मतलब यह है कि कॉन्ग्रेस के भीतर भी आपत्ति जताने वाले लोग थे।

सवाल: आपके जवाब से यह पहलू निकल कर आया कि कॉन्ग्रेस के अंदर से भी आवाज उठी थी। लेकिन जिस ढंग से इस नरसंहार को इतिहास में दर्ज किया जाना चाहिए था या आजादी के बाद कॉन्ग्रेसियों के द्वारा दर्ज करवाई जाती, वैसा किया नहीं गया। इन्हीं कॉन्ग्रेसी नेताओं से जुड़ा है अगला सवाल।
केरल के एक कवि थे कुमारन आसन (Kumaran Asan)। 16 जनवरी 1924 को हुई उनकी मौत पर आपने सवाल उठाए थे? उन्होंने अपनी कविता के जरिए हिन्दुओं के नरसंहार का खुलासा किया था। आखिर जब कवि या डॉक्टर-इंजीनियर जैसी आम जनता भी सच्चाई को देख पा रही थी, हिंदुओं के होते नरसंहार को समझ रही थी तो उस समय के कॉन्ग्रेसी नेतृत्व ने इससे मुँह क्यों मोड़ा? वो भी तब जबकि उनके ही बड़े-बड़े नाम (एनी बेसेंट, बाबा साहब आंबेडकर) से लेकर केरल के स्थानीय नेता लोग तक इस बात को लेकर कड़े शब्दों में आपत्ति जता चुके थे। क्या इसके पीछे यह समझा जाए कि सिर्फ और सिर्फ आजादी मिले और उस आजादी से मेरा नाम जुड़ जाए, इस स्वार्थ के लिए हिंदुओं के इतने बड़े नरसंहार को इन लोगों ने नजरअंदाज कर दिया?

जवाब: जरूर। यह सब कुछ राजनीतिक प्रासंगिकता के लिए किया गया। कॉन्ग्रेस नेतृत्व और यहाँ तक की गाँधीजी ने भी 1921 के अगस्त-सितंबर आते-आते यह मान लिया कि यह क्या हुआ? उन्होंने लिखा है, “क्या हुआ है मेरे मुस्लिम बंधुओं को, या क्या वो पागल हो गए हैं?” इसका मतलब यह है कि गाँधीजी सहित कॉन्ग्रेस नेतृत्व को यह समझ में आ गया था कि बहुत बड़ी गलती हो गई है। इसके बावजूद इस गलती को बताने के लिए ये लोग तैयार नहीं थे।

मोपला हिंदू नरसंहार की शुरुआत से ही जो बौद्धिक लोग थे, वो परिस्थितियों को देख-समझ रहे थे। कवि कुमारन आसन (Kumaran Asan) इनमें से एक थे। केरल में इरवा समुदाय के श्री नारायण गुरुदेवन देव जी द्वारा एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन स्थापित किया गया था। नाम है – श्री नारायण धर्म परिपालन योग (Sree Narayan Dharma Paripalana Yogam, SNDP Yogam)। कवि कुमारन आसन इसके प्रथम और संस्थापक महासचिव भी थे। साथ ही वो पहले नामचीन शख्स थे, जो मोपला हिंदू नरसंहार को करीब से देखे, उस दर्द को महसूस किए।

मोपला हिंदू नरसंहार के समय संन्यासी श्री नारायण गुरु त्रावणकोर में थे। कवि कुमारन आसन भी त्रावणकोर में ही थे। श्री नारायण गुरु ने ही कुमारन आसन को मोपला जाकर स्थिति देखने को कहा था क्योंकि बहुत सारे हिंदू लोग पलायन करके त्रावणकोर की ओर आ रहे थे। इसके बाद कुमारन आसन तुरंत मालाबर गए। वहाँ की स्थिति देख कर उन्होंने एक कविता लिखी – दुरावस्था (poem Duravastha by Kumaran Asan)।

दुरावस्था नाम की यह कविता एक तरह से हिंदुओं के दुर्भाग्य और उनकी त्रासदी को बयाँ करती है। इस कविता का परिचय भी स्वयं कवि कुमारन आसन ने ही लिखा। इस परिचय में उन्होंने स्पष्ट किया कि मालाबार क्षेत्र के हिंदुओं के साथ जो भी घटित हुआ, वो भविष्य में किसी और हिंदू के साथ न हो… इसलिए यह कविता लिख रहा हूँ। मलयालम में लिखी इस कविता की दो लाइनें कुछ ऐसी हैं:

अम्मा मार इल्लै सहोदरी मार इल्लै
इम् मूर्खर किस्वर चिंद इल्लै

इसका हिंदी में अर्थ कुछ ऐसा है – “इन क्रूर मोहम्मद लोगों की माताएँ नहीं हैं क्या? बहनें नहीं हैं क्या?” इतना खुल कर उन्होंने हिंदुओं के हो रहे नरसंहार का जिक्र किया। इसलिए कवि कुमारन आसन पर आक्रमण शुरू से ही हो रहा था। त्रिवेंदरम शहर में अचानक एक कार एक्सीडेंट के रूप में भी हमला किया गया उन पर। वहाँ वो बच गए। बाद में जब एक नदी में बोट से जा रहे थे, तो वो बोट ही डूब गई।

इसे एक दुर्घटना बताया गया। कहा गया कि इस ‘दुर्घटना’ में उनकी मौत हो गई। इस पूरे प्रकरण में आपत्ति इसलिए जताई गई क्योंकि FIR रिपोर्ट के अनुसार बोट की जिस केबिन में कवि कुमारन आसन बैठे थे, उसके बाहर से दरवाजे में ताला लगा हुआ था। ‘दुर्घटना’ के एक दिन बाद उनकी लाश उसी केबिन में मिली, जिसके दरवाजे पर बाहर से ताला लगा हुआ था। ‘दुर्घटना’ के दिन कवि कुमारन आसन वाले बोट के आसपास 2-3 अनजान बोट चक्कर काट रहे थे।

जाहिर सी बात है कि इसके पीछे मुस्लिम आतंकियों का हाथ था। केरल की विशेष राजनीतिक-मजहबी परिस्थितियों में लेकिन तब से लेकर अब तक मुस्लिमों के खिलाफ कुछ बताने को लेकर कॉन्ग्रेस या वामपंथी लोगों की हिम्मत नहीं है। इसलिए सच को दबाया गया। राजनीतिक फायदे के लिए इन लोगों ने इस सच को दबा कर रखा। सच बताने के लिए ये लोग तैयार नहीं हैं।

सवाल: आपने अपने जवाब में बहुत अच्छे ढंग से गाँधीजी पर एक सवाल खड़ा किया। इसके बावजूद अगला सवाल फिर से गाँधीजी से ही संबंधित… क्योंकि एक बहुत ही चुभने वाली बात उन्होंने तब की थी। हिंदुओं का नरसंहार हो रहा था, खिलाफत की बात चल रही थी, इस्लामी राज्य की स्थापना के सपने देखे जा रहे थे… और इन सब के बीच गाँधीजी हिंदुओं को बिना प्रतिकार मरने की सीख दे रहे थे। इतने बड़े स्तर के नेता से कैसे उम्मीद की जा सकती है कि वो इस ढंग का, जमीनी हकीकत से कट कर इस तरह का बयान दे?

जवाब: यह ठीक है कि गाँधीजी बड़े व्यक्ति थे। हम जैसे छोटे स्तर के व्यक्ति के लिए शायद उनके कहे का पूरा अर्थ समझ में नहीं आए। मेरे स्तर के आधार पर उनके कहे गए शब्दों (मोपला हिंदू नरसंहार के संदर्भ में) का लेकिन कोई स्पष्टीकरण नहीं हो सकता है। इसकी कोई व्याख्या हो ही नहीं सकती। ऐसा इसलिए क्योंकि हिंदुओं के लिए मरने का आह्वान करना और मुस्लिमों के अल-दौला [Al-Daula (Islamic State)] की स्थापना के लिए यह कहना कि अगर हिंदू मरना चाहिए तो मरना सही है।

मालाबार में मुस्लिमों ने अल-दौला की स्थापना की। उनके लिए अल-दौला का मतलब है – मुस्लिमों का पवित्र राज्य। गाँधीजी का यह कहना कि इसकी स्थापना के लिए अगर हिंदुओं को मरना चाहिए तो मरो। और यह भी कहना कि गाय के ऊपर उनकी भक्ति है लेकिन खिलाफत के लिए गाय की हत्या करनी है तो उस हत्या के अधिकार के लिए लड़ूँगा। इस सब बातों का अर्थ क्या है, समझ में नहीं आता है। इन सब से बीच-बीच में वो (गाँधीजी) यह भी कहते आ रहे थे कि वो सत्य के पुजारी हैं। ये कौन सा सत्य है? इसलिए कोई स्पष्टीकरण हो ही नहीं सकता है। उनकी कुछ बातों के बारे में स्पष्टीकरण देने जैसी कोई जानकारी है ही नहीं हमारे पास।

इतने जघन्य ढंग से हिंदुओं की हत्या हुई कि एनी बेसेंट ने स्वयं गाँधीजी को नरसंहार की जगह देखने के लिए बुलाया। एनी बेसेंट ने हाथ जोड़ कर, आँखों में आँसू लेकर गाँधीजी से आग्रह किया कि वो आएँ, अपने खास मित्रों को लेकर आएँ और देखें कि क्या हो रहा है, यहाँ के हिंदुओं के हालत क्या हैं। इस तरह से उन्होंने वहाँ के हालात का जिक्र किया था।

गाँधीजी लेकिन इन सब से परे उस समय जो कह रहे थे, वक्तव्य दे रहे थे… शायद उनके मन में किसी न किसी तरीके से भारत को आजाद कराने का ख्याल था। और इसके लिए कॉन्ग्रेस को एक सेकुलर नेशनलिस्ट पार्टी के तौर पर अंग्रेजों से सामने दर्ज करना या उभारना उनका मकसद रहा होगा। इस दिखावे के लिए सभी लोगों (सभी धर्मों के लोगों के साथ) को साथ में रखना और ले चलने का लक्ष्य उनका शायद रहा हो। इसके अलावा एक विषय पर जिद करके ठान लेना और उसे अंत तक ले जाना भी गाँधीजी का एक पहलू रहा है। नेताजी वाले विषय में भी यह देखा गया था। इसके अलावे बहुत सारे प्रकरण में भी उनका यह पहलू सामने आया था। फिलहाल इन विषयों पर चर्चा की जरूरत नहीं है। जिन बातों का जिक्र ऊपर किया, सवाल के संदर्भ में वो अपने आप में परिपूर्ण है।

सवाल: गाँधीजी वाले मुद्दे से आगे बढ़ते हैं। अब आते हैं इतिहास की ओर। मोपला हिंदू नरसंहार की बात विजुअल मीडिया के अभी के समय में की जाए तो थुवूर के कुएँ पर काटे गए हिंदुओं के बिना अधूरी होगी। इस घटना का जिक्र मालाबार के तब के डिप्टी कलेक्टर दीवान बहादुर सी गोपालन ने अपनी पुस्तक ‘द मोपला रिबेलियन, 1921’ में भी की है।
अब सवाल यह है कि इतने बड़े कालखंड में, इतने बड़े स्तर पर हिंदुओं का नरसंहार हुआ तो आखिर उसे किसी एक घटना (थुवूर के कुएँ पर काटे गए हिंदुओं) में समेटा कैसे जा सकता है? क्या यह इतिहास की बदकिस्मती है कि जहाँ हजारों हिंदुओं का नरसंहार हुआ, उससे संबंधित सिर्फ एक घटना का ही जिक्र आम लोग जान पाए? थुवूर के अलावे अन्य जगहों पर हिंदुओं के साथ जो बर्बरता हुई, क्या उसे भूला दिया गया? या बाकी जगहों पर हुई विभत्स घटनाओं का कोई रिकॉर्ड ही नहीं है, उन्हें इतिहास में दर्ज ही नहीं किया गया? आखिर यह साजिश किसने की? मोपला हिंदू नरसंहार अपने संपूर्ण रूप में इतिहास में दर्ज नहीं है तो क्यों नहीं है? क्या खेल रचा गया कि आम लोगों तक इन सारी घटनाओं की जानकारी ही नहीं है?

जवाब: थुवूर के कुएँ पर काटे गए हिंदुओं की जो घटना है, वो अपने आप में अकेला नहीं है। थुवूर के जैसी कम से कम 4-5 घटनाएँ (हिंदुओं को काट कर कुएँ में डालने की) हैं।

पुतुमना (Puthumana) करके एक एरिया है। यहाँ एक नंबूदरी परिवार है। इस परिवार के कुएँ के अंदर भी इतनी ही बड़ी संख्या में हिंदुओं को काट कर फेंक दिया गया है। इसी तरह से एक जगह पर हिंदुओं की त्वचा उतार कर उन्हें मारा गया। मल्लपुरम में एक जगह है – चंगुविट्टी (Changuvetty)। मालाबार एरिया के मलयालम भाषा-शैली में चंगु का मतलब है – गला। विट्टी का मतलब है – काटा। जहाँ हिंदुओं का गला काटा गया, उस जगह का नाम भी चंगुविट्टी – मतलब गला काटा। यह जगह अभी भी है।

मतलब रिकॉर्ड की नजर से देखें तो बहुत सारे हैं। सच हालाँकि यह भी है कि मोपला हिंदू नरसंहार को एक प्रतीक के रूप में थुवूर के कुएँ पर काटे गए हिंदुओं को दिखाया गया, उसका वर्णन किया गया। पिछले साल जब मोपला हिंदू नरसंहार का 100 साल हुआ तो दिल्ली में भी हिंदू संगठनों ने थुवूर के कुएँ वाली बर्बर घटना को ही प्रतीक के तौर पर पेश किया। हम लोग भी तब दिल्ली के हिंदू संगठनों के साथ थे। इसका मतलब लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि मोपलाओं ने हिंदुओं के साथ जो किया, वो सिर्फ और सिर्फ किसी थुवूर के कुएँ तक सीमित है।

यह 1766 के मैसूर आक्रमण से शुरू हुआ। इतने बड़े कालखंड में अगर आप देखेंगे तो उस पूरे क्षेत्र में जहाँ-जहाँ आक्रमण और आतंक हुए, जितनी भी हत्याएँ की गईं… उनमें एक-समानता देखने को मिलती है। ठीक वैसा ही अभी ISIS के हमलों में देखने को मिल रही है। वहाँ भी गला काट कर कुएँ में डालने का प्रयोग चल रहा है। केरल में तब ऐसा ही हुआ था।

थुवूर के कुएँ पर काटे गए हिंदुओं वाली घटना अकेली घटना नहीं है। कम से कम 4 जगहों पर जो इस जघन्य घटना को अंजाम दिया गया, उन सभी जगहों पर मैं खुद गया हूँ। आपको जान कर आश्चर्य होगा कि अभी भी उस क्षेत्र में कई ऐसे कुएँ हैं, जो मुस्लिमों के कब्जे में हैं। इन कुओं का इतिहास भी इतना ही रक्तरंजित रहा है। हिंदू अभी भी प्रयास कर रहे हैं कि इन कुओं को वापस लिया जाए, खरीदा जाए ताकि एक मेमोरियल या स्मृति-स्मारक के जैसा कुछ बनाया जा सके।

सवाल: अब इतिहास से निकल कर हम आते हैं वर्तमान समय की राजनीति पर। 1921 से लेकर अब तक अंग्रेज, आजादी, कॉन्ग्रेस, वामपंथी, भाजपा… सबकी सरकार देश ने देखी। केरल में भी सत्ता परिवर्तन होते रहे हैं। वामपंथियों की अलग-अलग धड़ें वहाँ भी हैं। फिर ऐसा क्या है कि मोपला हिन्दू नरसंहार को CM विजयन अभी भी कृषि विद्रोह ही बताते हैं?
क्या इसे हम राजनीतिक दृष्टि से स्टॉकहोम सिंड्रॉम की तरह देख सकते हैं? और इसके एक कदम आगे बढ़ कर सोचें तो क्या सामाजिक स्तर पर भी इस स्टॉकहोम सिंड्रॉम वाली बात हो गई है? क्योंकि समाज ही अंततः राजनीति का निर्माण करता है। तो क्या यह स्टॉकहोम सिंड्रॉम वहाँ के समाज में घर कर चुका है?

जवाब: सही में है। खास तौर पर वामपंथियों के अंदर में। शुरुआती दौर को देखें तो कम से कम 1940 तक… वामपंथी लोगों की लिखी किताबों (ईएमएस नंबूदरीपाद सहित लोगों की पुस्तकों में) में मोपला हिंदू नरसंहार को साफ-साफ मजहबी दंगे कहा गया है। ईएमएस नंबूदरीपाद ने अपनी आत्मकथा में उल्लेख किया है कि उनके भी घर पर हमले हुए थे। उन्होंने लिखा है कि कैसे उनके घर के एक मैनेजर (जोकि एक नायर थे) ने उनको और उनके एक परिवार वाले को पकड़ कर घर के पीछे के दरवाजे से भगाया। यहाँ तक लिखा है कि अगर उस मैनेजर ने दीवार फाँद कर उन दोनों को घर से नहीं निकाला होता तो दोनों जिंदा नहीं बचते।

ईएमएस नंबूदरीपाद के अलावे भी बाकी सभी वामपंथियों ने 1940 से पहले एक बार भी “किसान विद्रोह” जैसे शब्द का प्रयोग मोपला हिंदू नरसंहार के लिए नहीं किया है। सार्वजनिक तौर पर भले ही यह बात वो लोग बहुत कड़े शब्दों के साथ नहीं रखे लेकिन यह एक मजहबी दंगा था, इस पर सबका एक जैसा मत था। किसी ने भी इसे किसान आंदोलन या मजदूर-जमींदार संघर्ष का नाम नहीं दिया।

1940 के बाद लेकिन वामपंथियों की सोच इसको लेकर बदली। बंगाल की वामपंथी पार्टी ने मोपला हिंदू नरसंहार को लेकर एक पर्चा छपवाया। उस पर्चे में ‘मोपला विद्रोह’ शब्द का प्रयोग किया गया था। इसके पीछे इन लोगों ने अपनी वामपंथी सोच के तहत ‘मोपला विद्रोह’ को एक वर्ग-विद्रोह की संज्ञा दी, मजदूर-जमींदार संघर्ष का नाम दिया। शक्ति-संपत्ति से मजबूत लोगों के खिलाफ भूमिहीन लोगों की क्रांति इसे बताया गया। उस पर्चे में यही सिद्धांत गढ़ा गया था कि केरल में जो हुआ, वो एक वर्ग-विद्रोह था।

1940 के बाद इस वर्ग-विद्रोह सिद्धांत को इन वामपंथी लोगों ने और भी जोर से चलाया। इसके पीछे इनकी मंशा कुछ और नहीं बल्कि राजनीतिक शक्ति को लेकर थी। 1957 आते-आते ये वामपंथी लोग चुनाव में भाग लेने लगे। केरल में मुस्लिम वोट एकतरफा वोट-बैंक रहा है। इस बात को ध्यान रखिए कि इनका 1% वोट-बैंक भी अगर इधर से उधर हो गया तो केरल के चुनाव में बहुत बड़ा फर्क ला देता है।

केरल के चुनावी-समीकरण को आप किसी और राज्य से तुलना नहीं कर सकते हैं। इसका कारण है – अल्पसंख्यक वोट-बैंक का होना। इन अल्पसंख्यक वोट-बैंक में भी खासकर मुस्लिम वोट-बैंक का रोल वहाँ खासा मायने रखता है। इसी मुस्लिम वोट-बैंक को साथ में रखने के लिए वामपंथियों ने यह सिद्धांत गढ़ा। जो मुस्लिम आतंकी थे, उनको इन लोगों ने उच्च स्तर पर ले जाकर बिठा दिया। कहानी वही गढ़ी – इन लोगों ने संघर्ष किया और संघर्ष के पीछे का कारण था कि हिंदू लोगों ने इन लोगों को सताया, इन पर हमले किए और इन्होंने प्रतिक्रिया में संघर्ष का रास्ता चुना।

वामपंथियों ने इस झूठ को ऐसे गढ़ा। झूठ कैसे? क्योंकि मोपला हिंदू नरसंहार में जिन हिंदुओं को मारा गया, उनमें एक भी जमींदार ऐसे नहीं थे, जो बड़े जमींदार थे। मरे कौन? सामान्य मजदूरों को मारा गया। पिछड़े जाति के लोगों को मारा गया। सही में जो उस वक्त जमींदार थे, वो मुस्लिम जमींदार थे और उन लोगों ने ही मोपला हिंदू नरसंहार का प्लान किया।

लकड़ियों के बड़े-बड़े व्यापारी और जमींदार उस समय मुस्लिम लोग ही थे। कोयाप्पथोड (Koyappathod) नाम का एक परिवार है। अति-धनाढ्य परिवारों में से एक है। 1921 के अगस्त महीने के बाद गिरफ्तार किए गए लोगों में इस परिवार के नेता लोग भी थे। इसके अलावा एक और आश्चर्यजनक बात है। 1919 में ऑल इंडिया खिलाफत कमिटी का जिसने आयोजन किया था, वो उस समय के भारत का सबसे अमीर लकड़ी व्यापारी था। नाम था – जान मोहम्मद चौटानी (Mian Mohammad Jan Mohammad Chotani)। नीलंबूर टीक की लकड़ी के लिए ये लकड़ी व्यापारी सबसे ज्यादा केरल के ऊपर आश्रित थे।

एक उदाहरण और है। केरल में उस समय बहुत अधिक संपत्ति वाले ढेर सारे मुस्लिम परिवार थे। इनमें एक था – चोव्वाकरन मूसा (Chovvakkaran Moosa)। मूसा नाम से वो प्रसिद्ध थे, चोव्वा उनके जगह का नाम है। उस समय मक्का में भी इनके जमीन-जायदाद थे। उस समय सिर्फ तीन भारतीयों के जमीन-जायदाद मक्का में थे। एक – हैदराबाद के निजाम, दूसरे तमिलनाडु के आरकोट नवाब और तीसरे केरल के मालाबार के मूसा।

क्या मूसा गरीब थे? क्या वो किसान थे? क्या वो भूमिहीन थे? क्या उनके परिवार वालों पर आक्रमण हुए थे? मोपला हिंदू नरसंहार के पहले ही मूसा की मृत्यु हो चुकी थी लेकिन उनके परिवार वाले तो थे। मूसा के परिवार वालों पर किसी भी तरह का आक्रमण नहीं हुआ था। इसका मतलब क्या हुआ? सबसे बड़े व्यापारी और श्रीमंत लोग मुस्लिम थे, उन्हीं लोगों ने मोपला हिंदू नरसंहार की प्लानिंग की, आक्रमण किया। इसमें किसान-विद्रोह या वर्ग-विद्रोह जैसी कोई बात ही नहीं थी।

मोपला हिंदू नरसंहार में सबसे ज्यादा हत्या पिछड़े जाति वर्ग के हिंदुओं की हुई। सबसे पहला जो आक्रमण हुआ था, वो इल्वा (Ilhava) समुदाय के ऊपर हुआ था। इसके बाद बुनकरों की एक कॉलनी के ऊपर हमला किया गया था। आश्चर्य तो यह कि एक ऐसे क्षेत्र में भी हमला किया गया, जहाँ ईसाई समुदाय रहते थे। क्रिस्तु दास नाम के एक शिक्षक थे। तीन बेटे सहित उनकी भी हत्या कर दी गई थी।

जिस जगह इतना सब कुछ हुआ, वहाँ की घटनाओं को छिपाने के लिए बाद में झूठी कहानी गढ़ी गई। वामपंथ अपने आप में एक बहुत बड़ा झूठ है। इस तरह के झूठ वो गढ़ते हैं, बताते हैं और फिर इन्हीं झूठ के सहारे वो पनपते हैं… और चारों ओर प्रसारित भी करते हैं।

सवाल: अगला और आखिरी सवाल आपके अभी तक के दिए सभी जवाबों में से है। आपके जवाब से निकल कर आया कि कॉन्ग्रेस के नेता सच्चाई से मुँह मोड़ रहे थे, वो भी तब जब उनके ही साथी नेता जमीनी सच्चाई की बर्बरता को बता रहे थे, आकर देखने की अपील कर रहे थे। आपके एक जवाब से यह भी साफ हुआ कि वामपंथी नेता हिंदू नरसंहार को वर्ग-संघर्ष या किसान-विद्रोह की झूठी संज्ञा दे रहे थे। आपके जवाब से यह भी स्पष्ट है कि मानसिकता के स्तर मुस्लिम किसी के साथ सौहार्द्र के साथ नहीं रह सकते, फिर चाहे वो हिंदू हो या ईसाई। इसके लिए आपने ईसाई परिवार के नरसंहार का उदाहरण भी दिया। मतलब मुस्लिम अपने वर्चस्व को स्थापित करने की मानसिकता को साथ लेकर चलते हैं।
अब सवाल यह है कि इन सारे जवाबों के बावजूद सही इतिहास अगर आम जनता अभी तक नहीं जान पाई है, तो क्या हम जैसे चंद लोग ही सिर्फ इस सच्चाई पर बातचीत करते रह जाएँगे? जबकि हकीकत में इन सारी घटनाओं को सूचिबद्ध किया जाना चाहिए, इतिहास चाहे वो कितना ही रक्तरंजित क्यों न हो, उसे पढ़ाया जाना चाहिए। ऐसे इतिहास को पढ़ा जाना चाहिए ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति नहीं हो। ऐसे में क्या आपको नहीं लगता है कि अब समय आ गया है कि इतिहास को देश की जनता ठीक वैसे ही पढ़े-देखे जैसा वो घटित हुआ है? और अगर ऐसा है तो क्या कोई कमिटी गठित की जानी चाहिए, जो मोपला हिन्दू नरसंहार के हर एक पहलू, हर एक घटना को रिकॉर्ड करे, उसे पाठ्य-पुस्तकों में जगह दिलवाए, इतिहास में दर्ज करे? पाठ्य-पुस्तकों में मोपला हिन्दू नरसंहार की बात इसलिए हो ताकि हर एक विद्यार्थी यह जान सके कि आखिर हुआ क्या था? ताकि यह किसी न्यूज डिस्कशन का हिस्सा भर बन कर न रह जाए? ऐसी कमिटी बनने की संभावना कितनी है और कितनी इसकी जरूरत है?

जवाब: जरूर। अब बहुत ही उचित समय है ऐसी कमिटी के बनने की। इस कमिटी में अच्छे इतिहासकार होने चाहिए। केरल के एक अच्छे इतिहासकार एमजीएस नारायण अभी भी हैं। सत्य के पक्ष में रहने वाले इतिहासकारों (निष्पक्ष कहना सही नहीं होगा) का इस कमिटी में होना आवश्यक है। अच्छे कानूनविदों की भी इस कमिटी में जगह होनी चाहिए। अच्छे शिक्षाविदों का होना भी जरूरी है।

साथ ही साथ सबसे जरूरी बात – मोपला हिन्दू नरसंहार में मार डाले गए लोगों के परिवार-बच्चे अभी भी जिंदा हैं, कइयों के तो पोते-पोतियों तक जिंदा हैं अभी भी। इनमें से कई बहुत अच्छे पढ़े-लिखे भी हैं। क्योंकि वो एक प्रकार से रिफ्यूजी बन कर त्रावणकोर गए। वहाँ जाकर उन्होंने त्रावणकोर राजा की सहायता से, वहाँ के हिंदू समाज की सहायता से और सबसे महत्वपूर्ण आर्य समाज की सहायता (केरल में आर्य समाज ने आकर बहुत ही अच्छे-अच्छे काम किए) से उन लोगों ने संघर्षों के साथ जीवन को आगे बढ़ाया, पढ़-लिख कर आगे बढ़े। तो ऐसे लोगों का भी स्थान उस कमिटी में होना चाहिए। खूब अच्छे ढंग से अध्ययन और सब तरह के डॉक्यूमेंट सामने लाने की आवश्यकता है।

मोपला हिन्दू नरसंहार के लिए कमिटी बनाने का प्रयास इसके 50 साल होने पर किया गया था। फिर जब 75 साल हुए 1996 में, तब भी यह प्रयास किया गया था। वर्तमान में भी कुछ लोग इसके लिए प्रयास कर रहे हैं। व्यक्तिगत स्तर या किसी संगठन के स्तर पर इसको लेकर प्रयास करने से ज्यादा मेरा निवेदन केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकार तक से है। इस मामले में दोनों सरकारों को हस्तक्षेप करना चाहिए। यही भविष्य के लिए सही होगा। आने वाली पीढ़ी जो सच को पढ़ना चाहेगी, उसके लिए सही होगा।

आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि मोपला हिन्दू नरसंहार में जिन मुस्लिम आक्रांताओं ने हिंदुओं के साथ रक्तपात किया, बर्बरता की, हत्याएँ कीं… उन्हीं के परिवार वालों (वंशजों) को अभी भी पेंशन इस नाम पर दी जा रही है कि वो तो स्वतंत्रता सेनानी थे। इस विडंबना को समझिए कि जिनके दादा-परदादा मार डाले गए, उनके वंशज निरीह होकर इनके ही हत्यारों के वंशजों को पेंशन लेते देख रहे हैं और कुछ कर नहीं पा रहे। इस ऐतिहासिक भूल को ठीक करना ही होगा।

1766 से लेकर 1921 तक का जो नरसंहार, मतलब हिंदुओं की जो हत्याएँ हुईं, उसको लेकर ‘मोपला नरसंहार’ या ‘हिंदू नरसंहार’ की संज्ञा के साथ घोषणा करने की आवश्यकता है। इस घोषणा से क्या होगा, वो एक दूसरा विषय है लेकिन इस घोषणा की आवश्यकता है। अभी तक मोपलाओं द्वारा की गई इस बर्बरता को नरसंहार माना ही नहीं गया है, घोषणा नहीं की गई है। होलोकॉस्ट मतलब यहूदियों का नरसंहार, रवांडा का नरसंहार, अर्मेनियाई नरसंहार… यह सबको मालूम है। इसी तरह मोपलाओं के द्वारा किए गए हिंदू नरसंहार के बारे में सबको पता चलना चाहिए। इसके लिए मोपला हिंदू नरसंहार की बात करते हुए एक केंद्र या एक स्मारक खड़ा किया जाना चाहिए।

मेरी यह सलाह है कि मोपला हिंदू नरसंहार की बात करते हुए जो केंद्र/स्मारक बने, वो मल्लपुरम जिले में बने। इनके अलावा मोपला हिंदू नरसंहार पर बनी कमिटी जो भी डॉक्यूमेंट रिकॉर्ड करे, उसे इतिहास की किताबों में जगह मिले। 1921 में सही मायने में क्या हुआ था, इसे जानने की जरूरत सबको है। अगर ऐसा नहीं होता है तो यह एक घोर पाप होगा। आने वाली पीढ़ी को झूठ बताना अपने आप में एक घोर पाप है।

अब वो वक्त आ गया है, जब मोपला हिंदू नरसंहार का सच सबको बताया जा सके, पढ़ाया जा सके। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार से अपनी माँगों को मैं एक-एक कर फिर से दोहराता हूँ:

(i) मोपला हिंदू नरसंहार के सच को जानने के लिए एक कमिटी का गठन किया जाए।
(ii) कमिटी जिन-जिन घटनाओं को रिकॉर्ड करे, हर एक की अच्छी तरह से डॉक्यूमेंटेशन की जाए।
(iii) होलोकॉस्ट और दुनिया के तमाम नरसंहार की तर्ज पर मोपला हिंदू नरसंहार की संज्ञा देते हुए इसकी घोषणा करना।
(iv) मोपला हिंदू नरसंहार की बात करते हुए एक स्मारक बनाना चाहिए।
(v) कमिटी के अध्ययन और रिसर्च के बाद जो भी सच सामने आए, उस मोपला हिंदू नरसंहार की बातों को इतिहास के पाठ्य-पुस्तक में जगह मिले।

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चंदन कुमार
चंदन कुमारhttps://hindi.opindia.com/
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