केरल हाईकोर्ट (Kerala High Court) ने बुधवार (6 जुलाई 2022) को कहा कि एक मुस्लिम महिला अपने नाबालिग बच्चे और संपत्ति की संरक्षक नहीं हो सकती है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) इस बात की मिसाल दे चुका है। हालाँकि कुरान या हदीस में मुस्लिम महिला के बच्चे के अभिभावक होने के अधिकार पर कोई रोक नहीं है, लेकिन कोर्ट ने कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत शीर्ष अदालत द्वारा व्याख्या किए गए कानून का पालन करने के लिए बाध्य है।
रिपोर्ट के अनुसार, न्यायमूर्ति पीबी सुरेश कुमार और न्यायमूर्ति सीएस सुधा की खंडपीठ ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को अभिभावक होने से रोकने वाले कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन माना जा सकता है और इसलिए यह शून्य है, लेकिन उच्च न्यायालय इसमें नहीं जा सकता, क्योंकि यह है शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित मिसाल से बँधा हुआ है।
अदालत ने कहा, “इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस आधुनिक युग में महिलाओं ने ऊँचाइयों को बढ़ाया है और धीरे-धीरे लेकिन लगातार कई पुरुष गढ़ों में प्रवेश किया है। जैसा कि बताया गया है, कई इस्लामी मुल्कों या मुस्लिम बहुल देशों में राज्य की प्रमुख के रूप में महिलाएँ हैं। महिलाएँ भी अंतरिक्ष में अभियानों का हिस्सा रही है। चाहे जो भी हो, यह अदालत माननीय सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों से बाध्य है।”
इस बीच अपीलकर्ता ने हदीस का हवाला देते हुए तर्क दिया कि महिला को उसके पति की संपत्ति के संरक्षक के रूप में भी मान्यता दी गई थी। उन्होंने कहा कि कुरान या हदीस में ऐसा कुछ भी नहीं है जो एक महिला को अपने बेटे या उसकी संपत्ति का संरक्षक होने से रोकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले में हदीसों पर कभी विचार नहीं किया गया।
दूसरी ओर, प्रतिवादी ने कहा कि न तो कुरान और न ही हदीस यह कहती है कि एक माँ अभिभावक हो सकती है और वास्तव में कुरान की कई आयतों ने ऐसा कहा है। कोर्ट ने कहा कि हालाँकि, कुरान में विशेष रूप से यह उल्लेख नहीं किया गया है कि एक माँ अभिभावक नहीं हो सकती है, लेकिन यह कोर्ट पर निर्भर नहीं है कि वह इसकी व्याख्या करे, खासकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लिए गए विचार के आलोक में।
कोर्ट ने शायरा बानो मामले का जिक्र करते हुए कहा कि शरीयत अधिनियम एकमात्र कानून है जो अधिनियम की धारा 2 में वर्णित मामलों में मुस्लिमों पर लागू होता है, जिसमें संरक्षक की भूमिका भी शामिल है।
याचिका एक विभाजन विलेख (Partition Deed) पर दायर की गई थी, जिसमें एक मुस्लिम माँ ने अपने बेटे की संपत्ति के कानूनी अभिभावक के रूप में काम किया था। केरल उच्च न्यायालय ने पाया कि पक्ष विभाजन अनुबंध से बँधे थे, लेकिन माँ को एक सही अभिभावक मानने से इनकार किया।