Friday, March 29, 2024
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उमा भारती ने बताया- भारत माता का घाव, फिर भी कॉन्ग्रेस लेकर आई प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट: समझिए उस कानून को जो है विवादित ढाँचों की ढाल

मथुरा, काशी, भोजशाला जैसे मंदिरों की चर्चा करते हुए अश्विनी उपाध्याय ने ऑपइंडिया को बताया, "ये सब स्थान मस्जिद हैं नहीं। इन्हें मस्जिद प्रूव करने के लिए सबसे पहले इस्लामिक लॉ से प्रूव करना पड़ेगा। कोई भी स्थान ऐसा नहीं हो सकता कि वह मंदिर भी हो और मस्जिद भी हो। वह या तो मंदिर होगा या मस्जिद।"

वाराणसी के ज्ञानवापी विवादित ढाँचे (Gyanvapi Controversial Structure in Varanasi) के वीडियोग्राफी सर्वे में शिवलिंग और अन्य हिंदू प्रतीकों को सामने आने के बाद इसे हिंदू समुदाय को सौंपने की माँग तेज हो गई है। वहीं, एक तरफ विरोधी मुस्लिम पक्ष शिवलिंग को फव्वारा बताकर तथ्यों को नकार रहा है तो दूसरी ओर उनके वकील पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 (The Places of Worship (Special Provisions) Act, 1991) को आधार बनाकर ढाँचे के स्वरूप एवं मालिकाना हक को लेकर किसी भी तरह के बदलाव की गुंजाइश को खारिज कर रहे हैं।

इन तथ्यों का इतिहास साक्षी है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने देश में आक्रमण करने के दौरान और उसके बाद भी सिर्फ धन-संपत्ति की ही लूट-पाट नहीं की थी, बल्कि अपने धार्मिक उन्माद के कारण हजारों-हजार की संख्या में मंदिरों का विध्वंस किया था और कई मंदिरों को मस्जिदों में रूपांतरित कर दिया था। इस बात के साक्ष्य आज भी देश की कई मस्जिदों में स्पष्ट नजर आते हैं और इन्हीं साक्ष्यों को आधार बनाकर हिंदू समुदाय अपनी धरोहर पर फिर से दावा ठोक रहा है। लेकिन, मुस्लिम समुदाय इस कानून को आधार बनाकर अड़ंगा डालने की कोशिश कर रहा है।

साल 1991 में जब पूजास्थल अधिनियम लोकसभा में पेश किया गया था, तब मध्य प्रदेश के खजुराहो से भाजपा की तत्कालीन सांसद उमा भारती (Uma Bharati) ने इसका जमकर विरोध किया था। इस कानून से अयोध्या के तत्कालीन बाबरी ढाँचे और श्रीराम जन्मभूमि विवाद को अलग रखा गया था, लेकिन उमा भारती और भाजपा नेताओं ने वाराणसी के ज्ञानवापी ढाँचा-काशी विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के ईदगाह ढाँचा-श्रीकृष्म जन्मभूमि जैसे विवादित स्थलों को भी अपवाद रखने की माँग की थी।

पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम का उमा भारती ने किया था विरोध

पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम को 9 सितंबर 1991 को लोकसभा में पेश किया गया था। बहस के दौरान उमा भारती ने इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा था कि इसमें जिस तरह से अयोध्या को छूट दी गई है, उसी तरह काशी के विश्वनाथ मंदिर और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को भी छूट मिलनी चाहिए। उन्होंने इस बिल को महाभारत के ‘द्रौपदी चीरहरण’ बताते हुए सदन के सभी सदस्यों से इसका विरोध करने का आग्रह किया था।

बिल का लोकसभा में विरोध करते हुए उमा भारती ने कहा था, “मैं ज्ञानवापी के दर्शन के लिए वाराणसी गई थी। मैंने मंदिर के अवशेषों पर बनी मस्जिद को देखा तो मेरे शरीर में क्रोध की लहर दौड़ गई। मुझे अपने पूर्वजों के भाग्य पर शर्मिंदगी महसूस हुई, जो मुझे लगता है कि मेरी नारीत्व को चुनौती दे रहे थे और मुझसे पूछ रहे थे कि औरंगजेब का इरादा केवल एक मस्जिद बनाने का था तो मंदिर के अवशेष क्यों छोड़े गए?”

उन्होंने इतिहास के पन्ने पलटते हुए कहा था, “क्या औरंगजेब का इरादा मंदिर के अवशेषों पर मस्जिद को खड़ा करके हिंदुओं को उनके ऐतिहासिक भाग्य की याद दिलाते रहना और मुस्लिमों की आने वाली पीढ़ियों को उनके अतीत के गौरव और शक्ति की याद दिलाना नहीं था?”

उमा भारती ने तर्क दिया था कि गाँवों में बैलगाड़ियों के मालिक बैलों की पीठ पर घाव बना देते हैं और जब वे चाहते हैं कि उनकी बैलगाड़ी तेज चले तो वे घाव पर वार करते हैं। इसी तरह, ये विवाद ‘भारत माता’ पर घाव और गुलामी के निशान हैं। जब तक बनारस में ‘ज्ञानवापी’ अपनी वर्तमान स्थिति में बनी रहेगी, तब तक यह हिंदुओं को औरंगजेब द्वारा किए गए अत्याचारों की याद दिलाती रहेगी।

भाजपा ने बिल के विरोध में सदन से किया था वॉकआउट

लोकसभा में इस बिल के पेश होने पर बहस में सिर्फ 21 सांसदों ने हिस्सा लिया था, जिनमें 4 सांसदों ने विरोध किया था। विरोध करने वालों में भाजपा के तीन और शिवसेना के सांसद शामिल थे। भाजपा की ओर तत्कालीन सांसद लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, राम नाईक और मदन लाल खुराना और शिवसेना की ओर से अशोक आनंदराव देशमुख शामिल थे।

लोकसभा में बिल के पेश होने के बाद भाजपा नेता संसद से वॉकआउट कर गए थे। उनका नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने किया था, जबकि राज्यसभा में भाजपा नेता सिकंदर बख्त ने भाजपा की ओर विरोध की कमानी संभाली थी। हालाँकि, 9 सितंबर के अगले दिन यानी 10 सितंबर को यह बिल लोकसभा में पास हो गया। यह बिल राज्यसभा में भी 12 सितंबर 1991 को ही पास हो गया।

तब भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आवाणी ने कहा था, “मुझे नहीं पता कि यह विधेयक कितना मददगार बनेगा, लेकिन मैं इतना जरूर जानता हूँ कि हम उन समस्याओं को हल नहीं कर रहे हैं, जो सभी तनावों के पीछे हैं। हम इस विधेयक को उन जगहों पर तनाव पैदा करने के लिए पारित कर रहे हैं, जहाँ यह समस्या नहीं है।”

क्यों लाया गया था यह बिल?

साल 1986 में अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि का ताला खोले जाने के बाद भाजपा ने अपने राम मंदिर आंदोलन को गति देना शुरू कर दिया था। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए देश भर के लोगों का समर्थन जुटाने के लिए रथयात्रा का ऐलान किया गया। इस रथयात्रा के संयोजक वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे।

लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर में पूजा कर अपनी रथयात्रा की शुरुआत की। यह रथयात्रा दिल्ली सहित 8 राज्यों से होते हुए 30 अक्टूबर को अयोध्या में खत्म होनी थी। देश भर में राम नाम का गुणगान हो रहा था और बच्चे-बच्चे की जुबान पर राम का नाम था। गाँव के आखिरी व्यक्ति तक राममंदिर को लेकर उत्साह था।

लेखक उस दौरान किशोरावस्था में प्रवेश करने की ओर अग्रसर था और ग्रामीण और कस्बाई इलाकों की स्थिति को बहुत नजदीक से देखा था। गाँवों-शहरों में लोगों ने अपने घर की दीवारों पर ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’, ‘एक ईंट राम के नाम’ जैसे नारे लिखे थे। लोगों के उत्साह के कारण भाजपा को अपार जनसमर्थन मिल रहा था। इसको देखकर कॉन्ग्रेस और वामपंथियों में खलबली मच गई। 

इसी बीच तत्कालीन प्रधानममंत्री राजीव गाँधी की हत्या हो गई और सहानुभूति की लहर पर सवार कॉन्ग्रेस को 1991 के लोकसभा चुनावों में 232 सीटें मिलीं। पहली बार गाँधी-नेहरू परिवार अलग हटकर दक्षिण भारत के कॉन्ग्रेसी नेता पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस ने केंद्र में सरकार बनाई। सरकार बनने के बाद कॉन्ग्रेस सरकार ने इस बिल को सदन में लाने का निर्णय लिया।

बिल का समर्थन करते हुए तत्कालीन गृहमंत्री और कॉन्ग्रेस नेता एसबी चव्हाण ने कहा था, “पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर होने वाले विवादों को देखते हुए इसके लिए उपाय करना आवश्यक है, ताकि भविष्य में सांप्रदायिक माहौल ना खराब हो।”

तब भाजपा नेता उमा भारती ने तर्क दिया था कि यह कानून बिल्ली-कबूतर की स्थिति जैसी है। उन्होंने कहा था कि बिल्ली को आता देख कबूतर अपनी आँखें बंद कर लेता है और सोचता है कि वह सुरक्षित हो गया, लेकिन ऐसा नहीं होता। उन्होंने कहा कि 1947 की तरह धार्मिक स्थलों पर यथास्थिति बनाए रखना, बिल्लियों के आगे बढ़ने के खिलाफ कबूतरों की तरह आँखें बंद करने जैसा है। यह आने वाली पीढ़ियों के बीच तनाव को बनाए रखेगा।

इस बिल का कॉन्ग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर और गुलाम नबी आजाद ने खुलकर समर्थन किया था। मणिशंकर अय्यर ने कहा था कि इस बिल का पेश होना धर्मनिरपेक्ष ताकतों को एक साथ आने और सांप्रदायिक ताकतों से लड़कर सांप्रदायिकता की राजनीति से छुटकारा पाने का अवसर है।

क्या है पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991

पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस सरकार द्वारा लाए गए पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम में कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 तक अगर किसी धर्म का कोई पूजास्थल है तो उसे दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता। कानून में इसके लिए एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना का प्रावधान किया गया है। इस कानून में अयोध्या को अलग रखा गया है, क्योंकि उस समय यह मामला कोर्ट में था।

इस कानून की धारा-2 में कहा गया है कि अगर 15 अगस्त 1947 में मौजूद किसी धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर अगर किसी अदालत, न्यायाधिकरण या अन्य प्राधिकरण में कोई याचिका लंबित है तो उसे रद्द किया जाएगा। कानून की धारा-3 में कहा गया है कि किसी पूजास्थल को पूरी तरह या आंशिक रूप से दूसरे धर्म के पूजास्थल में नहीं बदला जा सकता है।

वहीं, इस कानून के धारा-4(1) में कहा गया है कि किसी भी पूजास्थल का चरित्र देश की स्वतंत्रता के दिन का वाला ही रखना होगा। इस कानून का धारा-4(2) उन मुकदमों, अपीलों और कानूनी कार्यवाहियों पर रोक लगाता है, जो पूजास्थल कानून के लागू होने की तिथि पर लंबित थे।

पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को कोर्ट में चुनौती

भाजपा और दक्षिणपंथी संगठनों के लिए यह कानून शुरू से ही विवाद का विषय रहा है। भाजपा ने कानून के पहले दिन से ही इसका विरोध किया है। भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने इस कानून को निरस्त करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की है। इसके अलावा, इस कानून के खिलाफ याचिका लखनऊ के विश्व भद्र पुजारी पुरोहित महासंघ ने भी दायर की है।

इन याचिकाओं में कहा गया है कि पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है, जो कि संविधान की बुनियादी विशेषता है। इसके साथ ही यह कानून जो तिथि निश्चित करता है, वह हिन्दू, जैन, बुद्ध और सिख धर्मावलंबियों के अधिकारों को सीमित करता है।

अश्विनी उपाध्याय द्वारा मार्च 2021 में दायर की गई याचिका में कहा गया है कि इस कानून के प्रावधान मनमाने और असंवैधानिक हैं। यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध लोगों को उनके पूजास्थलों पर हुए अवैध अतिक्रमण के खिलाफ कोर्ट जाने से रोकता है। उन्होंने कहा है कि यह कानून संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21, 25, 26, 29 और 49 का उल्लंघन करता है।

असंवैधानिक है पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991: अश्विनी उपाध्याय

ऑपइंडिया से बात करते हुए भाजपा नेता और कानूनविद अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि इस कानून को बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास नहीं है। यह कानून पब्लिक ऑर्डर (कानून व्यवस्था) बनाए रखने की आड़ में बनाया गया, जबकि कानून-व्यवस्था स्टेट सब्जेक्ट है, केंद्र का सब्जेक्ट नहीं।

उन्होंने कहा, “यह कानून धार्मिक स्थान की यथास्थिति के नाम पर बनाया गया है। भारत से बाहर के धार्मिक स्थल केंद्र सरकार का विषय है, भारत के अंदर के नहीं। जैसे पाकिस्तान स्थिति नानकाना साहिब, चीन स्थित कैलाश मानसरोवर, कंबोडिया स्थित मंदिर, हज आदि से संबंधित कानून बनाने का अधिकार भारत सरकार के पास है। भारत के अंदर तीर्थ स्थानों को लेकर कानून बनाने का अधिकार राज्य के पास है।”

एडवोकेट उपाध्याय ने कहा कि पार्लियामेंट कानून बनाकर अवैध काम को वैध नहीं बना सकता। कानून बनाकर वह ऐतिहासिक गलतियों को सही नहीं ठहरा सकता। ऐतिहासिक गलतियों को सुधारना सरकार का काम है, उस पर ठप्पा लगाना सरकार का काम नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर धार्मिक स्थलों की स्थिति के लिए अगर इस कानून में कटऑफ तय करना ही था तो वह 15 अगस्त 1947 नहीं हो सकता। कायदे से कटऑफ डेट इसकी 1192 ईस्वी होनी चाहिए।

हिंदू-बौद्ध-जैन-सिखों के धार्मिक अधिकारों का उल्लंघन

ऑपइंडिया से बातचीत में अश्विनी उपाध्याय ने बताया कि न्यायिक समीक्षा संविधान की मूल संरचना है। पूजास्थल कानून कहता है कि धार्मिक स्थलों को लेकर जो मुकदमा चल रहा है, वह खत्म हो जाएगा और आगे से कोई मुकदमा दर्ज नहीं होगा। यह कानून न्यायिक समीक्षा को ही खत्म कर रहा है। संविधान का एक स्तंभ न्यायपालिका है, यह उसी पर चोट कर रहा है। उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक देशों में विवाद का समाधान कोर्ट के जरिए नहीं होगा तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा और भीड़तंत्र हावी हो जाएगा।

अश्विनी उपाध्याय ने आगे कहा, “न्यायिक समीक्षा संविधान के अनुच्छेद 14 का हिस्सा है। हमारे देवी-देवता ज्यूरिस्टिक पर्सन हैं। इनको भी वैधानिक अधिकार है, संपत्ति का अधिकार है। इस कानून के जरिए राम और कृष्ण के बीच भेद करना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, क्योंकि यह कानून (पूजास्थल कानून, 1991) कहता है कि अयोध्या का मामला इस कानून के दायरे में नहीं आएगा, लेकिन मथुरा पर लागू होगा। इस तरह राम और कृष्ण के बीच में भेदभाव लागू कर दिया गया।”

अपनी याचिका में दिए गए तथ्यों पर बात करते हुए उन्होंने आगे बताया, “अनुच्छेद 15 कहता है कि हमारे यहाँ (हिंदू धर्म) में जो मंदिर या मठ की जमीन होती है, वह उस देवता के नाम पर होती है। जो जमीन मंदिर के देवता के नाम पर एक बार चली गई, वह हमेशा मंदिर के देवता के नाम पर रहती है। उसे छीन नहीं सकते। उस संपत्ति को मैनेजमेंट कमिटी मैनेज तो करती है, लेकिन उसका मालिकाना हक मैनेजमेंट कमिटी के पास नहीं होता। जैसे कि अयोध्या मंदिर की जमीन को कोई पुजारी या महात्मा नहीं बेच सकता। वह भगवान राम के नाम पर जमीन है।”

एडवोकेट उपाध्याय ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 में राइट टू जस्टिस (न्याय का अधिकार) है। कोर्ट जाना, वहाँ दलील देना और वहाँ से न्याय लेना इसमें आता है। लेकिन यह कानून कोर्ट का दरवाजा ही बंद कर दे रहा है। इसलिए इसमें संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन हो रहा है।

पूजास्थल कानून को धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन करने वाला बताते हुए उन्होंने कहा, “संविधान के अनुच्छेद 25 में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार है। इसके तहत हमें (हिंदू), बौद्ध, जैन, सिख को भी अपने धर्म का पालन करना, उसका प्रचार-प्रसार करना, पूजा करना, परिक्रमा करना, रीति-रिवाज मानने आदि का अधिकार है। जब हमारे महादेव या कृष्ण या किसी देवता का स्थान ही कब्जे में होगा तो हम अपने अनुच्छेद 25 का पालन कैसे कर पाएँगे? इसलिए इस कानून से हमारे अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है।”

इसके साथ ही उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 26 का हवाला दिया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 26 अपने धार्मिक स्थानों के रख-रखाव का अधिकार देता है। उन्होंने पूछा कि जब मंदिर का मालिकाना हक ही हिंदुओं के पास नहीं है तो उसका रख-रखाव कैसे होगा। उन्होंने इसे संविधान के अनुच्छेद 26 का खुला उल्लंघन बताया।

भाजपा नेता उपाध्याय ने कहा, “संविधान का अनुच्छेद 29 कहता है कि इस देश में हमें अपनी संस्कृति को बचाने व उसका संरक्षण करने का अधिकार है। यह राइट टू कल्चर कहलाता है। कृष्ण जन्मभूमि दुनिया में एक ही है, मथुरा में। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों का कोई स्थानापन्न (सब्सिट्यूट) नहीं है। कृष्ण का कोई दूसरा मंदिर, मथुरा का सब्सिट्यूट नहीं हो सकता। इस तरह यह कानून हमें अपने कल्चर को फॉलो करने से रोक रहा है।”

उन्होंने कहा कि संविधान का आर्टिकल 49 कहता है कि सरकार की ये जिम्मेदारी है कि वह सांस्कृतिक धरोहरों को संजोए, उनका रख-रखाव करे। काशी, मथुरा, भद्रकाली, भोजशाला आदि सब सांस्कृतिक धरोहर हैं। ये सब धार्मिक के साथ-साथ सांस्कृतिक विषय भी हैं।

इस्लामिक कानून के तहत साबित करना होगा कि वहाँ मस्जिद थी

मथुरा, काशी, भोजशाला जैसे मंदिरों की चर्चा करते हुए अश्विनी उपाध्याय ने ऑपइंडिया को बताया, “ये सब स्थान मस्जिद हैं नहीं। इन्हें मस्जिद प्रूव करने के लिए सबसे पहले इस्लामिक लॉ से प्रूव करना पड़ेगा। मंदिर है या नहीं है, ये हिंदू लॉ से प्रूव करना है। कोई भी स्थान ऐसा नहीं हो सकता कि वह मंदिर भी हो और मस्जिद भी हो। वह या तो मंदिर होगा या मस्जिद। अगर यह मस्जिद है तो आपको (मुस्लिम पक्ष को) चार बातें साबित करनी पड़ेंगी।”

इस्लामिक कानून के तहत मस्जिद बनाने के लिए आवश्यक शर्त की बात करते हुए उन्होंने कहा, “मस्जिद बनाने के लिए सबसे पहले यह साबित करना होगा कि ये कि यह जमीन मेरी है या हमने इसे किसी से खरीदा या फिर किसी अपनी इच्छा (बिना डर-भय, लालच के) से इसे दान किया है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि वहाँ पहले कोई स्ट्रक्चर नहीं था। इस्लामिक लॉ में मस्जिद के लिए यह पहली कंडीशन होती है। धार्मिक स्ट्रक्चर तो होना ही नहीं चाहिए। अगर किसी मकान, दलान, दुकान आदि घरेलू ढाँचा है और वहाँ मस्जिद बनाना चाहते हैं…. मान लीजिए हमारे पास एक दुकान है और हम उसे अब नहीं चलाना चाहते और वहाँ एक मस्जिद बनाना चाहते हैं तो सबसे पहले उस दुकान की एक-एक ईंट उखाड़नी पड़ेगी। इस्लामिक लॉ ये कहता है कि नींव में पहले के ढाँचे का एक ईंट भी नहीं होनी चाहिए। पहली ईंट जो लगनी चाहिए, वो मस्जिद के नाम की लगनी चाहिए।”

हिंदू कानून और इस्लामिक कानून के बीच फर्क का जिक्र करते हुए एडवोकेट उपाध्याय ने कहा कि मंदिरों में पहले मंदिर बन जाता है फिर नामकरण होता है, मस्जिदों में पहले नामकरण हो जाता है फिर मस्जिद बनती है। मस्जिद का जो नाम रख दिया जाता है, उसी के नाम की पहली ईंट नींव में रखी जाएगी।

ज्ञावापी मामले में मुस्लिमों को औरंगजेब के इतिसकारों को झूठा साबित करना होगा: उपाध्याय

अश्विनी उपाध्याय ने ज्ञानवापी मामले को लेकर ऑपइंडिया से कहा, “आप (मुस्लिम) कहते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद है तो आपको सबसे पहले औरंगजेब को झूठा साबित करना पड़ेगा। जो उसके इतिहासकार हैं, उनको झूठा साबित करना पड़ेगा। उसके ये भी साबित करना पड़ेगा कि फलाने आदमी ने जमीन दान किया या उससे खरीदा। यह भी साबित करना पड़ेगा कि फलाने बादशाह ने इस मस्जिद की पहली ईंट रखी थी यहाँ पर।”

ज्ञानवापी को मंदिर बताते हुए उन्होंने कहा, “हिंदू लॉ कहता है कि एक बार वहाँ भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा कर दिया, उसके बाद उसकी दीवार तोड़ दीजिए, गुंबद उड़ा दीजिए, नमाज पढ़िए चाहे उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ दीजिए वह मंदिर ही रहेगा। एक बार मंदिर हो गया तो वह किसी भी रूप में हमेशा मंदिर ही रहेगा। जब तक वहाँ से मूर्ति का विसर्जन नहीं होगा, तब तक वह मंदिर ही कहलाएगा।”

मुस्लिम पक्ष को पता है कि कानून गलत है, इसलिए PIL का विरोध नहीं किया: उपाध्याय

अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि उपरोक्त ग्राउंड पर उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में पूजास्थल कानून, 1991 के खिलाफ PIL दाखिल किया है। मुस्लिम पक्ष ने इस PIL का अभी तक विरोध नहीं किया है। अश्विनी उपाध्याय कहते हैं, “उन्हें पता है कि पूजास्थल कानून घटिया है, इसलिए इसका विरोध नहीं किया। जबसे मैंने PIL दाखिल किया है, दो साल में ये लोग सुप्रीम कोर्ट आ गए होते। अगर कोई इसका विरोध नहीं किया तो इसका मतलब है कि मेरे द्वारा दिए गए तथ्यों का कोई जवाब नहीं है।”

बता दें कि एडवोकेट उपाध्याय की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को अपना जवाब दाखिल करने के लिए नोटिस जारी किया है। इसको लेकर उपाध्याय का कहना है कि सरकार ने दो साल से इस नोटिस का जवाब नहीं दिया है। इसका मतलब है कि ऊपर दिए गए जो तथ्य उठाए गए हैं, उसका सरकार के पास कोई जवाब नहीं है। इसलिए जवाब नहीं आया।

उन्होंने बताया कि पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 को संसद में बिल द्वारा खत्म किया जा सकता है या सुप्रीम कोर्ट इस कानून को खत्म कर सकता है। उन्होंने कहा कि उनकी PIL यानी, इस विवादित कानून पर सुनवाई पूरे हुए ज्ञानवापी या मथुरा के ईदगाह मस्जिद को लेकर सुनवाई पूरी नहीं हो सकती।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
इतिहास प्रेमी

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