Tuesday, March 19, 2024
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वो मीडिया हाउस जिसके लिए लादेन था पिता-पति, विवेकानंद को लिखा – सिगार पीने वाला

मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है।

एक मीडिया संस्थान है, जिसके लिए ओसामा बिन लादेन किसी का ‘पिता-पति’ था। उसी मीडिया संस्थान के लिए स्वामी विवेकानंद ‘सिगार पीने वाला सन्यासी’ है। वामपंथी मीडिया का आतंकियों का महिमामंडन करना किसी से छुपा नहीं है। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई व्यक्ति, मीडिया या मानसिक रूप से स्थिर व्यक्ति ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी का गुणगान करते हुए समाज में यह नैरेटिव गढ़ने की कोशिश करेगा कि वह कैसा पति और पिता था। लेकिन वामपंथी मीडिया गिरोह की ही एक टुकड़ी- ‘द क्विंट’ (The Quint) ने तो ऐसा ही किया है। और इसी दी क्विंट की हिंदू धर्म के प्रकाश को विदेशों तक पहुँचाने वाले स्वामी विवेकानंद एक ‘सिगार पीने वाले सन्यासी’ लगते हैं।

पाकिस्तान पोषित आतंकी संगठन हिजबुल मुजाहिदीन के सरगना रियाज नायकू का परिचय गणित शिक्षक के रुप में कराने वाले ‘दी क्विंट’ को स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन पर यह बताने की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस हुई कि वह एक ‘सिगार पीने वाले सन्यासी’ थे। ‘दी क्विंट’ ने 12 जनवरी को विवेकानंद के जन्मदिन पर एक लेख अपडेट और दोबारा शेयर किया है, जिसका शीर्षक Swami Vivekananda Jayanti: Cigar-Smoking Monk Is Still Relevant है। इस लेख में उन्होंने स्वामी विवेकानंद को ‘अपरंपरागत सन्यासी’ करार देते हुए ‘सिगार पीने वाला’ बताया।

हैरानी की बात ये है कि नि:स्वार्थ भाव से अपने राष्ट्र ‘भारत’ और अपनी संस्कृति से अत्यंत स्नेह और प्रेम करने वाले विवेकानंद को दी क्विंट ने सिर्फ एक ‘सिगार पीने वाले भिक्षु’ के रुप में प्रदर्शित किया। हालाँकि, क्विंट ने स्वामी विवेकानंद के जीवन और विचार की कुछ सकारात्मक बातें भी बताई हैं, लेकिन उनका मुख्य ध्यान इसी पर था और ऐसा लगता है कि उनकी एकमात्र पहचान सिर्फ उनकी सिगार थी।

क्विंट ने स्वामी विवेकानंद का जन्मदिन ही उनकी इस ‘खूबी’ के बारे में चर्चा के लायक समझा जबकि लादेन और रियाज नाइकू जैसे आतंकियों के महिमामंडन के लिए दी क्विंट जैसे मीडिया गिरोहों को शायद ही कोई विशेष दिन की जरुरत महसूस होती हो। खैर, आतंकियों का महिमामंडन करने वाले मीडिया गिरोहों का इस तरह से लिखना अचंभित करने जैसा बिलकुल भी नहीं है।

‘द क्विंट’ में प्रकाशित लेख का अंश

9/11 आतंकी हमले को करीब दो दशक का वक्त बीत चुका है लेकिन आज भी उसका नाम आते ही दहशत का मंजर आँखों के सामने छा जाता है। अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन ने आतंकी हमले को अंजाम दिया था। साल 2011 में अमेरिका ने अपने ऊपर हुए आतंकी हमले का बदला ले लिया और ओसामा बिन लादेन मारा गया।

पूरी दुनिया में आतंक की कहानी लिखने वाले ओसामा बिन लादेन के परिवार को लेकर ‘द क्विंट’ की सहानुभूति देखने लायक रही है। लादेन की मौत की छठी सालगिरह पर मीडिया हाउस ने जीन सैसन की पुस्तक ‘Growing Up Bin Laden: Osama’s Wife and Son Take Us Inside Their Secret World’ के कुछ अंश छापे थे। जिसमें ओसामा की पत्नी और बेटे ने बताया था कि लोग आतंकवादी पैदा नहीं हैं औ न ही वे एक ही झटके में आतंकवादी बन जाते हैं। इस पूरे लेख का लब्बोलुआब यही था कि ओसामा यूँ ही आतंकवादी नहीं बना था, ये तो परिस्थितियों ने उसे मजबूर किया, वरना वो शर्मीला, विनम्र और शरारती बच्चा था।

आश्चर्य सिर्फ यह है कि पता नहीं आतंक के इस सरगना का गुणगान करने वाले ये मीडिया गिरोह ऐसा कुछ लिखने में क्यों शरमा गए कि वह निर्दोष-निहत्थे लोगों की हत्या के बाद पश्चाताप से भर उठता था और जोर-जोर से रोता था? 9/11 हमले के बाद तो वो अपनी माँ की आँचल में छुप-छुप कर रोता था।

बाहरहाल, यह कोई नई कोशिश नहीं है। क्या कोई भूल सकता है कि आतंकी याकूब मेमन की फाँसी के बाद लिखा गया था- ‘एंड दे हैंग्ड याकूब’ और बुरहान वानी के मारे जाने के बाद उसे हेडमास्टर का बेटा बताया गया था- कुछ इस अंदाज में कि वह तो एक सुदर्शन सा युवक था, जिसे बंदूकों के साथ फोटो खिंचाने का शौक लग गया था।

खूँखार आतंकियों का महिमामंडन किसी शरारत का नतीजा नहीं, सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इस रणनीति का एक अनिवार्य तत्व खूँखार से खूँखार आतंकी के चित्रण में इस बात को जोड़ना होता है कि किशोरावस्था में तो वह बड़ा ही शर्मीला, किंतु मेधावी किशोर था, लेकिन एक दिन बाजार से, बाग से, स्कूल से लौटते हुए पुलिस ने उसे पीट दिया तो वह क्रोध से भर उठा और उसने बंदूक उठा ली। इसी तरह की कहानियाँ शातिर पत्थरबाजों के बारे में गढ़ी जाती हैं। कश्मीर में जब कभी पत्थरबाज पुलिस की सख्ती का शिकार होते हैं तो कई समाचार माध्यम यह साबित करने में जुट जाते हैं कि वह तो घर के छज्जे में चुपचाप खड़ा था या फिर ट्यूूशन पढ़कर लौट रहा था।

कश्मीर में सक्रिय आतंकियों के महिमामंडन की रणनीति के वाहक भले ही विदेशी समाचार माध्यम हों, लेकिन उसे खाद-पानी देने का काम भारतीय ही करते हैं। यह एक तथ्य है कि आतंकियों को लेकर संवेदना जगाने और भारत के प्रति परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जहर उगलने वाली खबरें भारतीय पत्रकारों ने ही लिखीं। 

अब फर्जी, अधकचरी, अपुष्ट-एकपक्षीय समाचार लिखना बड़ा आसान हो गया है। किसी भी अप्रिय या अस्वाभाविक घटना पर पुलिस, प्रशासन और सरकार की निंदा-भर्त्सना करने या उन्हें गलत बताने वाला एक बयान चाहिए होता है। किसी ऐरे-गैरे-नत्थू खैरे का ऐसा कोई बयान सहज उपलब्ध हो ही जाता है। कुछ मुश्किल होती है तो आरोपित, आतंकी, आक्रांता के परिजनों की सेवाएँ ले ले जाती हैं। कौन भूल सकता है पुलवामा कांड के आत्मघाती हमलावर के बारे में उसके परिजनों के बयानों को?

मीडिया पर सबसे बड़ा आरोप यही है कि वह अपराध या आतंकवाद के महिमामंडन का लोभ संवरण नहीं कर पाता। यही प्रचार आतंकवादियों के लिए मीडिया आक्सीजन का काम करता है। यह गंभीर चिंता का विषय है। इससे आतंकियों के हौसले तो बुलंद होते ही हैं, आम जनता में भय का प्रसार भी होता है। जाहिर तौर पर देश जब एक बड़ी लड़ाई से मुखातिब है तो खास संदर्भ में मीडिया को भी अपनी भूमिका पर विचार करना चाहिए। आज असहमति के अधिकार के नाम पर देश के भीतर कई तरह के सशस्त्र संघर्ष खड़े किए जा रहे हैं, लोकतंत्र में भरोसा न करने वाली ताकतें इन्हें कई बार समर्थन भी करती नजर आती हैं।

कॉन्ग्रेस शासित यूपीए में मुख्यधारा की मीडिया और लुटियंस पत्रकार खुद को इस देश का भाग्यविधता मानने लगे थे। उन्हें यह गुमान था कि वह जनता को जो सच-झूठ दिखाएँगे, जनता उसे ही मानेगी, उन्हें यह गुमान था कि वह जनता और सरकार के बीच वहीं केवल मध्यस्थ हैं, उन्हें यह गुमान था कि वह एक प्रिविलेस क्लास हैं जो हर वह सुविधा भोगने का अधिकारी है, जो वीआईपी श्रेणी में आता है। ऐसे पत्रकारों और मीडिया हाउसों को मोदी सरकार में निराशा हाथ लगी है, जिस कारण वह देश के प्रधानमंत्री के खिलाफ शत्रुता का भाव बनाए हुए हैं। 

दोहरा चरित्र और एजेंडा आधारित पत्रकारिता के कारण सोशल मीडिया के इस युग में भारतीय मुख्यधारा की मीडिया और पत्रकार आज विश्वसनीयता के संकट से जूझ रहे हैं। हर राष्ट्रविरोधी तत्व, वह चाहे जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाने वाले हों या हिज्बुल का आतंकी बुरहान वानी- उनके साथ लुटियंस पत्रकार व मीडिया हाउस खड़े नजर आते हैं। 

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