Wednesday, June 11, 2025
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OBC को पहले दादी-पापा ने ठगा, अब राहुल गाँधी समझ रहे मूर्ख: पिछड़ों का हिस्सा मुस्लिमों को दिया, अब दलितों का हक ईसाइयों को देने की तिकड़म भिड़ा रही कॉन्ग्रेस

अब सवाल ये है कि क्या कॉन्ग्रेस ने जातिगत जनगणना के आँकड़ों को इसलिए जारी नहीं किया, क्योंकि इससे उसके वोट बैंक के खिसकने का डर था? अगर ऐसा नहीं भी है, तो साल 2014 तक ये आँकड़े क्यों नहीं जारी किए गए? इस जनगणना की याद कॉन्ग्रेस को अभी क्यों आई है? इसका सवाल राजनीतिक है।

कॉन्ग्रेस और राहुल गाँधी के साथ पूरा I.N.D.I. गठबंधन जातिगत जनगणना और ‘जिसकी जितनी संख्या, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का राग अलाप रहे हैं। बिहार में जातिगत जनगणना के आँकड़े सामने आ चुके हैं। इस बीच, राहुल गाँधी कुछ समय से बार-बार ये दावा कर रहे हैं कि कॉन्ग्रेस सरकार ने पूरे देश में जातिगत जनगणना कराई थी, मोदी सरकार उसके आँकड़े जारी करे। राहुल गाँधी ऐसे ही कुछ दावे लगातार कर रहे हैं, जिसका पोस्टमॉर्टम आवश्यक है।

राहुल गाँधी का दावा नंबर 1: कॉन्ग्रेस ने कराई जातीय जनगणना, मोदी सरकार करे सार्वजनिक

सच्चाई: कॉन्ग्रेस ने ऐसी कोई जनगणना नहीं कराई। राहुल गाँधी का दावा है कि साल 2010-11 की जनगणना के दौरान जातिगत आँकड़े भी दर्ज किए गए थे। कॉन्ग्रेस की सरकार 2014 तक रही। वहीं, जनगणना के आँकड़े 2011 में जारी कर दिए गए थे। ऐसे में सवाल ये है कि जातिगत जनगणना का प्रोसेस कब पूरा हुआ? किस नियम के तहत जातीय जनगणना कराई गई? जातीय जनगणना के लिए नोटिफिकेशन कब जारी हुआ?

यहाँ ध्यान देने वाली बात ये है कि जनगणना एक सतत प्रक्रिया है, जिसके लिए संवैधानिक प्रावधान हैं। साल 1931 के बाद आधिकारिक तौर पर जातिगत जनगणना नहीं कराई गई। अगर ऐसा कॉन्ग्रेस की सरकार ने कराया भी, तो भी उसके आँकड़े क्यों जारी नहीं किए?

अब बता देते हैं साल 2010 की जनगणना के नोटिफिकेशन की बात, तो उसमें कहीं भी OBC का जिक्र नहीं है। हम उस जनगणना के प्रारूप की कॉपी यहाँ उपलब्ध करा रहे हैं।

वैसे, कॉन्ग्रेस जिस सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 (एसईसीसी) की बात कर रही है, उसके आँकड़े गलत हैं। उन आँकड़ों का कहीं उपयोग नहीं किया जा सकता है। इस बारे में केंद्र सरकार ने 2021 में सुप्रीम कोर्ट को हलफनामा भी दिया था। महाराष्ट्र सरकार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामे में केंद्र ने कहा है कि सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 में जाति/जनजाति डेटा त्रुटिपूर्ण है और उपयोग योग्य नहीं है।

रही बात जातीय जनगणना की, तो बिहार की जातीय जनगणना से पहले साल 2015 में कर्नाटक की कॉन्ग्रेस सरकार ने कर्नाटक में भी ऐसी ही जनगणना कराई थी। हालाँकि, उस जनगणना के आँकड़े क्यों नहीं जारी हुए, ये किसी को नहीं पता। ऐसे में माना जा सकता है कि कॉन्ग्रेस की टॉप लीडरशिप उस आँकड़े को दबाकर बैठ गई, क्योंकि वो उसके अनुकूल नहीं थी।

अब सवाल ये है कि क्या कॉन्ग्रेस ने जातिगत जनगणना के आँकड़ों को इसलिए जारी नहीं किया, क्योंकि इससे उसके वोट बैंक के खिसकने का डर था? अगर ऐसा नहीं भी है, तो साल 2014 तक ये आँकड़े क्यों नहीं जारी किए गए? इस जनगणना की याद कॉन्ग्रेस को अभी क्यों आई है? इसका सवाल राजनीतिक है।

जैसा कि सबको पता है कि नरेंद्र मोदी की अगुवाई में एनडीए खासकर भाजपा ने आम चुनावों (2014 और 2019) में बेहतरीन प्रदर्शन किया है। नरेंद्र मोदी की आँधी के आगे जातिवादी दलों की दाल गल ही नहीं पाई। अब तक विपक्ष नरेंद्र मोदी के विकास और राष्ट्र प्रथम की नीति का कोई काट नहीं ढूँढ पाया है। ऐसे में वो सिर्फ जातिगत बँटवारे के नाम पर नरेंद्र मोदी की आँधी को चैलेंज करना चाहते हैं, जो कि संभव होता नहीं दिख रहा है, भले ही कॉन्ग्रेस जातिवादी और परिवारवादी पार्टियों के साथ कितने भी घमंडिया गठबंधन क्यों न कर ले।

राहुल गाँधी का दावा नंबर – 2: केंद्रीय सचिवालय के 90 में सिर्फ 3 ओबीसी

राहुल गाँधी कुछ समय से केंद्रीय सचिवालय में तैनात 90 अधिकारियों में से सिर्फ 3 के ओबीसी होने का मामला उठा रहे हैं। ऐसे में सबसे पहले उन्हें ही जवाब देना चाहिए कि साल 2004 से 2014 तक यूपीए के शासनकाल में कितने ओबीसी अधिकारी केंद्रीय सचिवालय में तैनात थे?

आइए, अब बताते हैं कि ये संख्या कम क्यों हैं और क्यों इसे सरकार से जोड़ना गलत है। इस मामले की तह तक जाना है, तो इसके तार देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से जुड़ते हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष JP नड्डा ने ये बात संसद में भी रखी। उन्होंने संसद में ओबीसी को लेकर कहा कि पंडित नेहरू के कार्यकाल में काका कालेलकर की रिपोर्ट आई। उसके बाद इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी के समय में मंडल कमीशन की रिपोर्ट आई, लेकिन उसे लागू ही नहीं किया गया। ये लागू हुआ 1990 में, जबकि इंदिरा-राजीव के समय में ये रिपोर्ट धूल फाँकती रही।

जेपी नड्डा ने आगे कहा कि साल 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने सर्विसेज में ओबीसी को रिजर्वेशन के लिए कहा, तब जाकर 1995-1996 से ऑल इंडिया सर्विसेज में ओबीसी-एससी-एसटी रिजर्वेशन मिलना शुरू हुआ। इस कारण से अभी जो भी कैबिनेट सेक्रेटरी हैं, वो 1992 से पहले के लोग हैं, लेकिन आने वाले समय में OBC सेक्रेटरियों की संख्या बढ़ेगी। इसे इस बात से भी समझ सकते हैं कि कैबिनेट सेक्रेटरी स्तर के अधिकारी सबसे ऊपर के और वरिष्ठ अधिकारी होते हैं।

कोई कनिष्ठ इस पद पर सीधे तो पहुँच नहीं सकता। ऐसे में समय बीतने के साथ ही लोग वरिष्ठ होकर उन पदों पर पहुँचेंगे, यही बात नड्डा ने संसद में भी कही है। ऐसे में राहुल गाँधी का ये दावा कि मोदी सरकार ओबीसी लोगों को कैबिनेट सेक्रेटरी बना नहीं रही है, ये पूरी तरह से बेबुनियाद है।

राहुल गाँधी का दावा नंबर 3: कॉन्ग्रेस है ओबीसी वर्ग की हितैषी

राहुल गाँधी के इस दावे की सच्चाई है – कॉन्ग्रेस का ओबीसी वर्ग का सबसे बड़ा विरोधी होगा। जब भी आरक्षण का सवाल आता है, तो जिक्र उठता है मंडल कमीशन का। ये मंडल कमीशन किसने बनवाया था? जवाब है – साल 1979 में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार ने मंडल कमीशन बनाया। इसकी रिपोर्ट 1980 में आ गई थी। अब सवाल ये उठता है कि इंदिरा गाँधी के समय में 1980 से 84 तक क्यों लागू नहीं हुआ मंडल कमीशन? इसके बाद राजीव गाँधी के कार्यकाल में 1984 से 1989 तक क्यों लागू नहीं हुआ मंडल कमीशन?

इस दावे का जवाब है कि साल 1990 में जनता दल की सरकार, जिसे भाजपा ने बाहर से समर्थन दिया, उसने मंडल कमीशन लागू किया। ऐसे में राहुल गाँधी का दावा इस बार भी गलत ही निकला।

हकीकत ये है कि ओबीसी के रिजर्वेशन में से मुस्लिमों को आरक्षण देकर उनका हिस्सा कॉन्ग्रेस सरकार खा गई। कॉन्ग्रेस सरकार ने कर्नाटक, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में तय सीमा से ज्यादा आरक्षण दिया। उसमें भी ओबीसी के हिस्से के आरक्षण का फायदा मुस्लिमों (भाजपा ने कोटा खत्म किया, तो कोर्ट पहुँच गई कॉन्ग्रेस सरकार) को दिया गया। इन राज्यों में ओबीसी के आरक्षण में से 4 फीसदी आरक्षण मुस्लिमों को दे दिया गया, जो ये बताता है कि ओबीसी वर्ग की हितैषी नहीं, बल्कि सबसे बड़ी दुश्मन साबित हुई है कॉन्ग्रेस सरकार। ये सवाल आप खुद से पूछिए कि क्या वाकई ओबीसी वर्ग की हितैषी है कॉन्ग्रेस?

राहुल गाँधी की ‘बाँटो और खाओ’ राजनीति के पीछे का खेल क्या है?

इस सवाल का जवाब जनता जानना चाहती है। ये सवाल जितना सीधा सा है, उसका ही उलझा इसका जवाब है। देश की जनसंख्या में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। बड़ी संख्या में हिंदुओं को ‘छल से, बल से और धन से’ इस्लाम और ईसाई बनाने का खेल काफी समय से चल रहा है। लेकिन, इसमें एक पेंच है। धर्म परिवर्तन करने वाले लोग तो धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम और ईसाई बन जा रहे हैं, लेकिन कागजों पर वो खुद को दलित और ओबीसी ही दिखा रहे हैं।

इसका मतलब समझ में आ रहा है? इसका मतलब समझने के लिए आपको मद्रास हाईकोर्ट के एक फैसले को जानना बहुत जरूरी हो जाता है, जो कन्याकुमारी में जनसांख्यिकी परिवर्तन और आरक्षण की मलाई खाने से जुड़ा है।

साल 2022 की शुरुआत में मद्रास हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था, “धार्मिक तौर पर कन्याकुमारी की जनसांख्यिकी में बदलाव देखा गया है। 1980 के बाद से जिले में हिंदू बहुसंख्यक नहीं रहे। हालाँकि, 2011 की जनगणना बताती है कि 48.5 फीसदी आबादी के साथ हिंदू सबसे बड़े धार्मिक समूह हैं। पर यह जमीनी हकीकत से अलग हो सकती है। इस पर गौर किया जाना चाहिए कि बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोग धर्मांतरण कर ईसाई बन चुके हैं, लेकिन आरक्षण का लाभ पाने के लिए खुद को हिंदू बताते रहते हैं।”

चूँकि कॉन्ग्रेस की पहचान ही इस्लामी कट्टरपंथियों का तुष्टिकरण और ईसाई मिशनरियों को पोषित करने वाले की रही है। ये उस इकोसिस्टम के महत्वपूर्ण अंग हैं, जिनके कारण कॉन्ग्रेस इतने सालों तक देश की सत्ता पर काबिज रही और आज भी भारत विरोधी वैश्विक दुष्प्रचार में उसके काम आते हैं। ऐसे में जातीय जनगणना में उन लोगों को शामिल कराने की कोशिश हो रही है, तो क्रिप्टो क्रिश्चियन बन तो चुके हैं, लेकिन जातीय आधार पर आरक्षण का लाभ भी ले रहे हैं। ऐसे में जातीय जनगणना के माध्यम से उन्हें अलग-अलग वर्गों में शामिल करके असली हिंदू ओबीसी-एससी-एसटी लोगों का हक मारने की आज़ादी देना है।

ये भी जानने वाली बात है कि 1931 में जातिगत जनगणना हुई थी, लेकिन 1951 में जातियों वाले कॉलम को हटा कर सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की संख्या ही गिनी है। ऐसा इसीलिए, क्योंकि उन्हें आरक्षण देने की बाध्यता थी और इसीलिए उनकी संख्या जाननी ज़रूरी थी।

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
I am Shravan Kumar Shukla, known as ePatrakaar, a multimedia journalist deeply passionate about digital media. Since 2010, I’ve been actively engaged in journalism, working across diverse platforms including agencies, news channels, and print publications. My understanding of social media strengthens my ability to thrive in the digital space. Above all, ground reporting is closest to my heart and remains my preferred way of working. explore ground reporting digital journalism trends more personal tone.

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