Thursday, October 3, 2024
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जैसे-जैसे फूटा लेफ्ट-कॉन्ग्रेस-इस्लामी इकोसिस्टम का बुलबुला, वैसे-वैसे बढ़ता गया ‘जय श्रीराम’ पर प्रोपेगेंडा 

जैसे मोदी विरोध में इकोसिस्टम कब भारत विरोध पर उतर आया, यह उसे पता ही नहीं चला, ठीक उसी तरह जय श्रीराम का विरोध करते हुए वह कब हिन्दू विरोधी हो गया, इसकी खबर उसे नहीं लगी।

पिछले सात वर्षों में विपक्ष के राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक विमर्शों में फेक न्यूज़ का शेयर लगातार बढ़ता रहा है। दर्जनों उदहारण रहे हैं जब लेफ्ट-कॉन्ग्रेसी इकोसिस्टम की ओर से न केवल फेक न्यूज़ फैलाने का काम किया गया, बल्कि उसके फेक न्यूज़ साबित हो जाने के बाद भी उसे सही ठहराने के प्रयास किए गए। संपादक, पत्रकार, कलाकार, न्यूज़ वेबसाइट, बुद्धिजीवी, आन्दोलनजीवी वगैरह ने तालमेल बनाए रखा, एक-दूसरे की सहायता की और तमाम विषयों पर फैलाए गए प्रोपेगेंडा में फेक न्यूज़ का इस्तेमाल किया और उसे सही साबित करने के लिए फैक्ट चेकिंग जैसे आधुनिक मीडिया टूल का बेझिझक इस्तेमाल किया। इकोसिस्टम के इस कार्य प्रणाली में ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का भी योगदान रहा जिसने वैचारिक आधार पर इस इकोसिस्टम के फेक न्यूज़ पर लगाम लगाने के लिए कुछ नहीं किया।

राजनीतिक लड़ाई में प्रोपेगेंडा का इस्तेमाल कोई नई बात नहीं है। राजनीतिक दल, उनके नेता और अलग-अलग क्षेत्रों से आनेवाले उनके सहयोगी इसका इस्तेमाल करते रहे हैं पर सोशल मीडिया के फैलाव के परिणाम स्वरुप प्रोपेगेंडा के इस खेल में फेक न्यूज़ की मात्रा बढ़ती गई है। यह शायद इसलिए भी हुआ है कि फेक न्यूज़ को राजनीतिक दलों ने हमेशा एक वैचारिक दृष्टिकोण सामने रखकर देखा। फेक न्यूज़ यदि लेफ्ट-कॉन्ग्रेसी इकोसिस्टम द्वारा फैलाई गई है तो बड़ी बेशर्मी से उसे डिफेंड किया जाता रहा है। ऐसा इसलिए भी हो सका कि अधिकतर सरकारें फेक न्यूज़ के विरुद्ध सार्वजनिक तौर पर कार्रवाई करने से बचती रही हैं। कभी यदि उत्तर प्रदेश सरकार ने कोई कार्रवाई करने की कोशिश की तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताकर नए सिरे से झूठ फैलाने का काम किया गया।

विमर्शों और प्रोपेगेंडा में फेक न्यूज़ के लगातार इस्तेमाल के पीछे कई कारणों में से एक कारण यह भी रहा है कि पिछले वर्षों से विपक्षी दलों, खासकर कॉन्ग्रेस ने, अपनी राजनीतिक लड़ाई बिना किसी झिझक के मीडिया आधारित इकोसिस्टम को आउटसोर्स कर रखी है। जिन्हें यह लड़ाई आउटसोर्स की गई है उनके लिए राजनीति दांव-पेंच न्यूज़ से शुरू होकर न्यूज़ में ही खत्म होता है। मेरे विचार से इतने बड़े पैमाने पर फेक न्यूज़ के इस्तेमाल के पीछे इकोसिस्टम की यह सोच रही है कि उनके अनुकूल सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और फैक्ट चेकर हर झूठ को उचित ठहराने में इनकी लगतार मदद करते रहेंगे। यही कारण है कि पिछले ढाई-तीन वर्षों में फेक न्यूज़ के इस मकड़जाल को देसी से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाने का काम तेज़ी से हुआ है। इकोसिस्टम का हिस्सा रहे संपादकों, पत्रकारों, बुद्दिजीवियों और नेताओं को विदेशी अखबारों और मीडिया में मिलने वाला स्पेस इस बात का सबसे बड़ा उदहारण है।

फेक न्यूज़ में जय श्रीराम 

प्रोपेगेंडा में फेक न्यूज़ के बढ़ते शेयर का एक ख़ास पहलू यह रहा है कि इसे चलाने वालों ने अक्सर बॉलीवुडिया फिल्मों के स्क्रीनप्ले में इस्तेमाल होने वाले फॉर्मूले के प्रति बड़े जोर-शोर से अपना विश्वास दिखाया है। दर्जनों फेक न्यूज़ में जय श्रीराम का इस्तेमाल कई तरह से किया गया। कभी किसी चोर की पिटाई को लेकर यह झूठ फैलाया गया कि हिन्दू उसे जय श्रीराम बोलवाना चाहते थे और नहीं बोलने पर पिटाई की तो कभी किसी अल्पसंख्यक के साथ किसी हिन्दू के साधारण झगड़े में भी जय श्रीराम को जानबूझकर बीच में लाया गया। पिछले सात-आठ वर्षों में कई बार झूठ के खुलासे के बाद भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से ट्वीट या वीडियो नहीं हटाए गए। मजाल है कि जिन्होंने झूठ फैलाया उन्होंने जरा भी शर्म दिखाते हुए अपने फेसबुक या ट्विटर पोस्ट डिलीट किया हो। सबसे बड़ी विडंबना यह हुई है कि बार-बार उन्होंने झूठ फैलाया जो फैक्ट चेकर होने का दावा करते हैं। 

हाल ही में ग़ाज़ियाबाद में हुई घटना का जो वीडियो वायरल किया गया उसमें भी जय श्रीराम को जानबूझकर जोड़ा गया, वो भी तब जब ऐसे कोई सबूत नहीं थे कि जिस अब्दुल समद नामक जिस बुजुर्ग की पिटाई आदिल एंड कंपनी ने की, उससे जय श्रीराम बोलवाने की कोशिश की गई थी। पर इकोसिस्टम के इस विश्वास ने उससे इस वीडियो को वायरल करवाया कि एक बार फैक्ट चेकिंग की मुहर लगने के बाद वह कुछ भी कर सकता है। इस बार भी वीडियो वायरल कराने का काम फैक्ट चेकर ज़ुबैर ने किया।

यह इकोसिस्टम का ही खेल है कि पुलिस के वक्तव्य के बाद जब सब समझ रहे थे कि अब दूध का दूध और पानी का पानी हो चुका है और मामला शांत हो जाएगा तभी राहुल गाँधी ने पुलिस के वक्तव्य की परवाह किए बिना एक ट्वीट कर इस घटना को जय श्रीराम से जोड़ दिया। इसका असर यह हुआ कि राहुल गाँधी के ट्वीट के आधार पर इस मामले को अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जगह मिल गई और एक बार फिर से इकोसिस्टम हिन्दुओं के विरुद्ध माहौल बनाने में कामयाब रहा। यह एक ऐसी कार्य प्रणाली है जिसे लेकर लेफ्ट-कॉन्ग्रेस का यह इकोसिस्टम जरा भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करता। 

जय श्रीराम के पीछे क्यों पड़ा है लेफ्ट-कॉन्ग्रेस-इस्लामिक इकोसिस्टम?

लगभग चालीस वर्षों तक विकास करते हुए कम्युनिस्ट-कॉन्ग्रेस-मीडिया-बुद्धिजीवियों का जो गठबंधन पुख्ता होकर स्थापित हुआ था उसमें पहली बार अस्सी के दशक में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा चलाए गए श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन और लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा की वजह से एक चोट लगी। यही वह समय था जब जय श्रीराम के नारे ने भारत भर के हिन्दुओं को एक करना शुरू किया। निज व्यक्तित्व और हिंदुत्व की पहचान लिए इस नए नारे ने हिन्दू चेतना पर जो प्रभाव डाला वह काफी हद तक स्थायी साबित हुआ। कालांतर में इसी नारे की वजह से लोकतान्त्रिक राजनीति में हिन्दू एकता का महत्व उजागर हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि एक साधारण हिन्दू भी बिना किसी हिचक के इस नारे का इस्तेमाल करने लगा। 

2010 के बाद सोशल मीडिया के साथ ही जय श्रीराम के बेझिझक प्रयोग का भी फैलाव हुआ। हिंदुओं ने सोशल मीडिया पर जिस तरह से इस नारे का प्रयोग किया उसके कारण इसका राजनीतिक महत्व बढ़ता गया। मेरे विचार से उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत समीकरण के दरकने में इसका एक प्रमुख योगदान रहा है। हिन्दुओं को अभिवादन के लिए भी एक ऐसा संक्षिप्त नारा मिला जिसका प्रसार समय के साथ-साथ बढ़ता गया। दूसरी तरफ राजनीति पर पड़ने वाले इसके असर के कारण विपक्षी दल न केवल इससे दूर होते गए, बल्कि हालत यह हो गई कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री नारे से लगातार सार्वजनिक मंचों पर भी चिढ़ती रहीं। यही कारण है कि लेफ्ट-कॉन्ग्रेस इकोसिस्टम इस नारे के पीछे पड़ा है और हर संभव कोशिश करके न केवल इसे बदनाम करने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता, बल्कि मौका न रहे तो बना लेता है। 

आज हाल यह है कि इकोसिस्टम जय श्रीराम को बदनाम करने के उद्देश्य से इतना आगे जा चुका है, या कहें कि इस स्ट्रेटेजी पर इतना इन्वेस्ट कर चुका है कि उसके लिए इसे छोड़ना अब आसान नहीं है। हर मैन्युफैक्चर्ड प्रोपेगेंडा का शायद यही चरित्र होता है कि शुरू के दिनों में उसे शुरू करने वाले उसे नियंत्रित करते हैं पर कुछ समय बाद प्रोपेगेंडा उसे चलाने वालों को नियंत्रित करने लगता है और तब दोनों के लिए एक-दूसरे से अलग होना लगभग असंभव हो जाता है। 

यही कारण है कि इस्लामिक चरमपंथियों और उनके अपोलॉजिस्ट द्वारा तथाकथित हिन्दू टेरर को इस नारे के साथ जोड़ने की बार-बार कोशिश की गई। यह शायद इस सोच का परिणाम है कि पिछले तीन दशकों में वैश्विक पटल पर इस्लामिक आतंकवाद की घटनाओं के साथ जिस तरह से अल्लाह हु अकबर का प्रयोग किया गया, उसी तरह से तथकथित हिन्दू आतंकवाद से जय श्रीराम को जोड़ दिया जाए तो इस नारे को बदनाम करना आसान हो जाएगा। शायद यही कारण है कि इसे बदनाम करने के उपक्रम बार-बार लगातार किए जाते रहे हैं। यह बात और है कि जैसे मोदी विरोध में इकोसिस्टम कब भारत विरोध पर उतर आया, यह उसे पता ही नहीं चला, ठीक उसी तरह जय श्रीराम का विरोध करते हुए वो हिन्दू विरोधी हो गया, उसे पता नहीं चला। 

उत्तर प्रदेश सरकार ने गाजियाबाद की घटना को लेकर फैलाए गए फेक न्यूज़ और वायरल किए गए वीडियो के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई की शुरुआत कर दी है। इस बार इकोसिस्टम के हिस्सा रहे ट्विटर भी इस कार्रवाई से शायद न बच पाए। देखना यह होगा कि इकोसिस्टम निकट भविष्य में क्या नीति अपनाता है। पूर्व के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि वह पहले से जारी कार्य प्रणाली को आगे बढ़ाने के लिए कोई नई रणनीति अपनाएगा, वह रणनीति क्या होगी, इसका उत्तर शायद जल्द ही पता चले।

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