Thursday, March 28, 2024
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नेताओं में ‘हिन्दू’ दिखने की होड़, क्षेत्रीय क्षत्रपों का PM ख्वाब टूटा: 7 साल में बदल दी पूरी सियासत

नरेंद्र मोदी ने अपनी हिन्दू पहचान को लेकर कभी समझौता नहीं किया और सितंबर 2011 में सद्भावना उपवास में इस्लामी टोपी को नकार कर उन्होंने अपनी मंशा जाहिर कर दी।

वो सितम्बर 13, 2013 का दिन था, जब भारत की राजनीति में अगले कई वर्षों के लिए होने वाले बदलाव की औपचारिक शुरुआत हुई थी। उसी दिन गोवा में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को पार्टी का प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किया था। तब मीडिया उन्हें ‘हिंदुत्ववादी नेता’ कह कर सम्बोधित करता था। इंटरव्यूज में उनसे 2002 के गुजरात दंगों को लेकर ही सवाल पूछे जाते थे।

नरेंद्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में कार्य किया था और राज्य में उद्योग-धंधों को बढ़ाने के साथ-साथ वहाँ सड़क और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं को जन-जन तक पहुँचाया था, उसने जनता का भरोसा ‘गुजरात मॉडल’ पर कायम हुआ। तभी नरेंद्र मोदी ने देश भर में जहाँ भी रैली की, वहाँ भारी भीड़ जुटी और लोगों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। अब भी उनकी लोकप्रियता का आलम ये है कि कॉन्ग्रेस पार्टी के टूलकिट में भी लिखा था कि प्रधानमंत्री की अप्रूवल रेटिंग पर कोई असर नहीं पड़ा है।

आखिर क्या कारण है कि पिछले 7 वर्षों से देश के प्रधानमंत्री और उससे पहले 12 वर्षों तक गुजरात का मुख्यमंत्री रहे नेता से जनता का लगाव अभी तक हूबहू है? अपनी सांगठनिक क्षमता का लोहा मनवा कर चुनावी राजनीति में उतरे नरेंद्र मोदी की रैली जहाँ भी हो, लगभग हर मीडिया चैनल इसका लाइव प्रसारण ज़रूर करता है क्योंकि उसे पता है कि जनता क्या देखना चाहती है। ये वो चेहरा है, जिससे लोग बोर नहीं होते।

‘राजनीति मेरे लिए एक व्यवसाय नहीं, सेवा है’ – नरेंद्र मोदी

इसका कारण है नई किस्म की राजनीति। सन् 2014 के बाद से भारत की राजनीति बदल गई है। अब भाजपा की स्थिति ये है कि अगर वो हैदराबाद के नगरपालिका चुनाव में जान लगा दे, तो वो चुनाव भी किसी राज्य के विधानसभा चुनाव की तरह महत्वपूर्ण हो जाता है। भाजपा को 116 से सीधे 282 और फिर 303 लोकसभा सीटों तक पहुँचाने वाले नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल भारत में राजनीति का एक नया युग है।

राष्ट्रीय राजनीति से गायब हो गया PM बनने का सपना देखने वाला हर क्षेत्रीय क्षत्रप

2014 से पहले के चुनावों में कई अघोषित प्रधानमंत्री के उम्मीदवार हुआ करते थे। बिहार के लालू यादव और नीतीश कुमार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में शरद पवार जैसे नेता आए दिन प्रधानमंत्री बनने के सपने देखते थे और खंडित जनादेश की स्थिति में ये असंभव भी नहीं था। 90 के दशक में जनता ने देखा था कि कैसे 1989-99 तक 10 वर्षों 8 बार प्रधानमंत्री का शपथ ग्रहण हुआ।

बिहार में नीतीश कुमार शुरू से राजग के साथ थे, लेकिन उन्होंने नरेंद्र मोदी के आगमन को ठीक से भाँपने में गलती कर दी और मुस्लिम वोटों के लिए भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू का ये हाल हुआ कि उसकी सीटों की संख्या 18 से सीधे 2 पर आ गई। अगले साल राजद के साथ मिल कर उन्होंने राज्य में सरकार ज़रूर बनाई, लेकिन उन्हें वापस NDA में आकर अपनी भूल का पश्चाताप करना पड़ा।

लालू यादव जैसे नेता, जिनके बिना एक समय बिहार की राजनीति की कल्पना नहीं की जा सकती थी, का प्रभाव एकदम से कम हो गया। 2014 के लोकसभा चुनाव में भीषण चुनाव प्रचार अभियान के बावजूद उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। आज बीमारी और जेल की सज़ा के कारण उनकी प्रासंगिकता ही ख़त्म सी हो गई है। इतनी ख़त्म, कि राजद को अपना संस्थापक और अध्यक्ष की तस्वीर भी पोस्टर पर नहीं चाहिए।

मुलायम सिंह यादव का प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब पुराना है, लेकिन 2014 में जिस तरह से भाजपा ने उत्तर प्रदेश में लगभग क्लीन स्वीप किया, उससे उनकी और मायावती की लुटिया डूब गई। दलित वोटों के सहारे रहने वाली मायवती से भाजपा की जन-कल्याणकारी नीतियों ने वो भी छीन लिया, ऊपर से चंद्रशेखर आज़ाद उर्फ़ ‘रावण’ जैसों ने उनके जनाधार को नुकसान पहुँचाया। आज मुलायम जहाँ अस्वस्थ हैं, मायावती की राजनीति ट्वीट्स तक ही सीमित है।

इसी तरह शरद पवार जैसे नेता भी महाराष्ट्र में तीसरे नंबर की पार्टी बन कर खुश हैं। राष्ट्रीय राजनीति से वो गायब हो चुके हैं। इन सबका एक ही कारण है कि नरेंद्र मोदी के उदय ने इन नेताओं की सालों की घिसी-पीटी और ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर जाति-मजहब और क्षेत्र के नाम पर की जाने वाली राजनीति का अंत कर दिया। मोदी ने एक Unifier की तरह कार्य करते हुए जनता को बताया कि विकास भी एक मुद्दा हो सकता है।

राजनीति में तकनीक की एंट्री, डिजिटल हुआ पॉलिटिक्स

आज कोरोना काल में वर्चुअल बैठकों से लेकर ऑनलाइन रैलियाँ हुई हैं। अगर यही स्थिति रही तो आगे भी चुनाव प्रचार अभियान हमें डिजिटल रूप में ही दिखाई देगा। लेकिन, क्या आपको पता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में किस तरह से नरेंद्र मोदी ‘3D अवतार’ के जरिए जनता के बीच पहुँचते थे? गुजरात में वो ये प्रयोग 2012 में ही कर चुके थे और 2013-14 में दिल्ली से लेकर कई इलाकों में उनकी 3D रैलियाँ हुईं।

ट्विटर और फेसबुक पर वो पहले से ही सक्रिय थे। देश के अन्य नेताओं के मन में जनता की छवि तकनीक से दूर ‘अनपढ़’ लोगों की बनी हुई थी, तब मोदी ने डिजिटल युग का भविष्य पहचाना और हर प्लेटफॉर्म के जरिए जनता तक पहुँचे। आज भाजपा की तर्ज पर कई पार्टियों के IT सेल हैं, यहाँ तक कि तेजस्वी यादव की पार्टी का भी। आज पीएम मोदी का अपना एप और वेबसाइट है, वो डिजिटली जनता से जुड़े रहते हैं।

टीवी की दुनिया में रेडियो के जरिए ‘मन की बात’ करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 90 के दशक में उन विरले लोगों में थे, जो अपना पर्सनल कम्प्यूटर रखा करते थे। उससे पिछले दशक में उनके पास डिजिटल कैमरा था। आज करोड़ों भारतीय विभिन्न ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स पर जुड़े हुए हैं और उन्हें नज़रअंदाज़ करना किसी भी पार्टी या नेता के लिए असंभव है। यूट्यूब से लेकर इंस्टाग्राम तक राजनीतिक दलों और राजनेतओं की उपस्थिति है।

नरेंद्र मोदी ने 2009 में ही अपना ट्विटर हैंडल बना लिया था। 2014 लोकसभा चुनाव से भी पहले से उनकी वेबसाइट चल रही थी। इसीलिए, आज जब राहुल गाँधी जैसे नेता ‘ट्वीट’ करते हैं और उस पर खबर बनती है तो इसके पीछे भाजपा की वो रणनीति है जिसके पीछे चलते हुए सारे दल अपनी डिजिटल उपस्थिति को और मजबूत करने में लगे हुए हैं। पीएम मोदी आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा फॉलो किए जाने वाले नेताओं में से एक हैं।

जब बाकी दल और नेताओं ने डिजिटल होना शुरू किया, तब तक भाजपा बूथ स्तर पर संगठन को मजबूत करने में लगी हुई थी, क्योंकि उसे पता था कि RSS के कैडर का लाभ तो मिलता रहेगा लेकिन साथ ही निचले स्तर पर संगठन की उपस्थिति मजबूत होनी चाहिए। सत्ता में आते ही उनकी सरकार ने MyGov पोर्टल लॉन्च किया। मोबाइल गवर्नेंस पर भी उनका शुरू से जोर रहा है। बाकी दलों को ये चीज देर से समझ आई।

राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के बिना आज की राजनीति अधूरी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हिंदुत्ववादी होने की बात मीडिया और विपक्षी नेता आज से नहीं बल्कि 2002 से ही कहते आ रहे हैं। गुजरात दंगों में इन नेताओं ने उन पर पक्षपात का आरोप लगाया और सोनिया गाँधी जैसे नेताओं ने तो उन्हें ‘मौत का सौदागर’ तक कह दिया। लेकिन, नरेंद्र मोदी ने अपनी हिन्दू पहचान को लेकर कभी समझौता नहीं किया और सितंबर 2011 में सद्भावना उपवास में इस्लामी टोपी को नकार कर उन्होंने अपनी मंशा जाहिर कर दी।

राम मंदिर का भूमिपूजन करने में उन्होंने कोई संकोच नहीं दिखाया। नए संसद भवन का भूमिपूजन हिन्दू रीति-रिवाज से हुआ, जिसके बाद सर्वधर्म प्रार्थना हुई। जम्मू के वैष्णो देवी मंदिर से लेकर तमिलनाडु के मदुरै के मिनाक्षी मंदिर तक, वो जहाँ भी गए उन्होंने ईश्वर के सामने मत्था टेका। तिलक लगाने, धोती पहनने और हिन्दू पर्व-त्यहारों को मनाने से उन्होंने कभी गुरेज नहीं किया। यहीं से बाकी नेताओं ने उनकी नकल शुरू की।

आज पप्पू यादव जैसे नेता खुद को श्रीकृष्ण का वंशज बताते हैं। लालू यादव के आवास के बाहर उनके श्रीकृष्ण का अवतार होने के पोस्टर लगाए जाते हैं। उनके बेटे तेज प्रताप कभी श्रीकृष्ण तो कभी भगवान शिव की वेशभूषा में घूमते रहते हैं। अरविंद केजरीवाल जैसे नेता मंदिर में घंटों पूजा-पाठ और आरती पर करोड़ों खर्च करते हैं। राहुल गाँधी भी मंदिर-मंदिर घूमते हैं। ममता बनर्जी चंडी पाठ करती हैं।

और तो और, ईश्वर को मानने का दावा करने वाले वामपंथियों के नेता पिनराई विजयन कहते हैं कि भगवान अयप्पा समेत सभी देवी-देवता लेफ्ट के साथ हैं। फारूक अब्दुल्लाह से चुनाव प्रचार करवाने वाले चंद्रबाबू नायडू मंदिरों में चोरी और प्रतिमाओं के विखंडित किए जाने पर आवाज़ उठाते हैं। तमिलनाडु में ब्राह्मण विरोध पर खड़ी पार्टी के मुखिया स्टालिन भगवान मुरुगन का नाम लेते हैं। प्रियंका गाँधी राम मंदिर का स्वागत करती है।

हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की ये भावना राजनीति में लंबी टिकने वाली है। मुस्लिम तुष्टिकरण कर-कर के जिस तरह आज तक सभी दलों ने हिन्दुओं का शोषण किया, उसका नरेंद्र मोदी ने अंत कर दिया। सोचिए, क्या आज कोई नेता ये बोलने की हिम्मत कर सकता है कि देश की संपत्ति पर पहला हक़ मुस्लिमों का है? मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते ये बयान दिया था। नरेंद्र मोदी के आने के बाद सब हिन्दू होने चले हैं।

अजीबोगरीब गठबंधनों का दौर: जानी दुश्मन भी मोदी को हराने के लिए हुए एक

इसमें सबसे बड़ा उदाहरण बिहार का ही है, जहाँ नीतीश कुमार ने उस लालू यादव के साथ मिल कर सरकार बनाई, जिन्हें हटाने की बात करके और जिनका डर दिखा कर उन्होंने अपना पूरा राजनीतिक करियर बनाया था। 1994 में लालू यादव के खिलाफ एक रैली के साथ नीतीश कुमार ने अपनी अलग पहचान की जो राजनीति शुरू की थी, मोदी लहर के कारण वो भी दाँव पर लग गई। सरकार बनी, पर टिकी नहीं। नीतीश को वापस भाजपा के पाले में आना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में गेस्ट हाउस कांड आपको याद होगा, जिसने मुलायम सिंह यादव और मायावती के बीच ऐसी लकीर खींची थी कि दोनों एक-दूसरे के सिर्फ राजनीतिक ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत दुश्मन भी बन बैठे। नरेंद्र मोदी के कारण सपा-बसपा ‘बुआ-भतीजा’ के नेतृत्व में एक हुई पर परिणाम ढाक के तीन पात ही रहा। दोनों की राहें फिर जुदा हो गईं। जिस माया-मुलायम के टक्कर की लोग मिशाल देते थे, मोदी के कारण वो बची ही नहीं।

जम्मू कश्मीर को देख लीजिए। किसे पता था कि दशकों से एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाला अब्दुल्लाह और मुफ़्ती परिवार एक हो जाएगा? कर्नाटक में HD कुमारस्वामी के शपथग्रहण समारोह में ममता बनर्जी भी जुटीं और लेफ्ट के नेता भी आए। पश्चिम बंगाल में हुए एक शक्ति प्रदर्शन में कई नेता जुटे। दिल्ली में भी इसी तरह का एक शक्ति प्रदर्शन हुआ। ये नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ही है कि आपस में दशकों से लड़ने वाले दल आज भी दिल्ली में एक हैं।

कल को अगर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और लेफ्ट एक हो जाते हैं या फिर DMK और AIADMK तमिलनाडु में गठबंधन करते हैं तो शायद ही किसी को आश्चर्य हो क्योंकि इस मोदी युग ने ऐसे कई उदाहरण दिखा दिए हैं। यही कॉन्ग्रेस केरल में लेफ्ट की जानी-दुश्मन है और पश्चिम बंगाल में उसके साथ गठबंधन में है। नरेंद्र मोदी ने इन राजनीतिक दलों के बीच ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ वाला भाव पैदा कर दिया है।

कल लड़ाई प्रधानमंत्री बनने की थी, आज इसकी है कि नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा। जिस राज्य में जिस पार्टी की जीत होती है, उसके नेता को मीडिया इसके योग्य बताने लगता है। राहुल गाँधी की ‘एंट्री’ तो न जाने कितनी बार हो चुकी है। कभी एक छोटे से राज्य के सीएम अरविंद केजरीवाल को विपक्ष का ‘मसीहा’ बता दिया जाता है तो कभी शरद पवार अपने राज्य में तीसरे नंबर की पार्टी का मुखिया होकर मीडिया के दुलारे बन जाते हैं।

दक्षिण, उत्तर-पूर्व और कश्मीर की राजनीति भी मुख्यधारा में आई

क्या आपने हिमंता बिस्वा सरमा का नाम सुना है? असम के मुख्यमंत्री तभी लोकप्रिय होने लगे थे, जब उन्होंने राज्य में भाजपा की सरकार बनवाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। फिर उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में भाजपा को स्थापित करने में अहम रहे। आज उनके बयान लोकप्रिय होते हैं, नॉर्थ-ईस्ट को लेकर बातें होती हैं क्योंकि नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से वहाँ की संस्कृति को आगे बढ़ाने और वहाँ विकास में दिलचस्पी दिखाई है, उससे उपेक्षित लोगों को एहसास हुआ है कि वो भी इस देश की मुख्यधारा का हिस्सा हैं।

इसका अंदाज़ा इसी से लगा लीजिए कि मोरारजी देसाई के बाद नरेंद्र मोदी अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने नॉर्थ-ईस्टर्न काउंसिल की बैठक में हिस्सा लिया। प्रधानमंत्री बनने के बाद वो उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में जा चुके हैं, कुछ में तो कई बार। कोरोना का टीका लगवाते समय भी नरेंद्र मोदी ने असम का गमोछा ओढ़ रखा था। देश के संवेदनशील इलाके के लोगों का दिल जीतने का ख्याल उनके मन में ही आया, इसीलिए मोदी ने राजनीति को बदला।

जम्मू कश्मीर पर आज सभी की नजरें रहती हैं और इसका कारण आतंकी घटनाएँ कम और राजनीतिक वजह ज्यादा हैं। कॉन्ग्रेस को ये बात बखूबी पता है, तभी तो देश की जनता के सामने दिखावा करने के लिए उसे गुपकार गैंग से खुद को अलग किया। ये अलग बात है कि नगरपालिका चुनाव के बाद सत्ता के लिए उसने फिर से समझौता किया। अनुच्छेद-370 हटाए जाने से वहाँ के दलितों को न्याय मिला। आज जम्मू-कश्मीर और लद्दाख देश की राजनीति का अहम हिस्सा हैं।

केरल का सबरीमाला मंदिर मुद्दा हो या फिर हैदराबाद के नगरपालिका चुनाव में भाजपा द्वारा ताकत झोंकना, इस ‘अलग तरह की राजनीति’ ने देश की जनता को दक्षिण के मुद्दों से रूबरू कराया। नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से चीन के राष्ट्रपति का स्वागत तमिलनाडु के ऐतिहासिक मल्लपुरम में किया, जापान के पीएम को बनारस ले गए, चीन के राष्ट्रपति को अहमदाबाद घुमाया – उससे इन जगहों के लोगों के मन में एक भाव पैदा हुआ कि देश सिर्फ दिल्ली से नहीं चलता है।

पश्चिम बंगाल में उपेक्षित मतुआ समुदाय की बात करनी हो या फिर CAA के द्वारा पीड़ित हिन्दू शरणार्थियों को नागरिकता देने की, जो वोट बैंक नहीं हैं उनके बारे में भी सोचना नए युग की राजनीति का नाम है, जो नरेंद्र मोदी करते हैं। अभी तो बस 7 साल ही हुए हैं और इनमें से 2 साल महामारी से निपटने में ही जा रहे हैं, लेकिन फिर भी आगे ‘मोदी युग’ की राजनीति और भी रोचक होने वाली है, नए बदलावों के साथ।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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