नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने आज सात वर्ष हो रहे हैं। इन सात वर्षों में उनकी सरकार ने बहुत सारे काम किए जिनका असर व्यक्ति, समाज और राष्ट्र पर पड़ा। कुछ ऐसे काम भी रहे जिनके किए जाने की आशा लोगों को थी पर वे नहीं हो सके। ढेरों लोग उनसे संतुष्ट हैं तो कुछ असंतुष्ट भी। कुछ बिना शर्त समर्थन देते दिखते हैं, कुछ सशर्त समर्थन के पक्ष में रहते हैं तो कुछ धुर विरोध में रहते हैं। पर इसमें कुछ भी नया नहीं है। समर्थन और विरोध का यह प्रतिरूप लगभग हर नेता के बारे में देखा और सुना जाता है। वैसे भी मोदी अपने सौभाग्य या दुर्भाग्य से ऐसे युग के राजनेता हैं जिसमें बदलाव की रफ्तार बहुत तेज है। जिसमें राजनीतिक समर्थन से राजनीतिक विरोध तक की यात्रा कभी-कभी क्षणों में पूरी कर ली जाती है।
जब राजनीतिक या सामाजिक प्रतिक्रियाएँ इतनी अप्रत्याशित होती हैं कि उन्हें समझने के लिए मिला समय अक्सर कम पड़ जाता है। वे ऐसे युग में देश के प्रधानमंत्री हैं जब विपक्ष के विरोध का स्वरुप न तो राजनीतिक परंपराओं का मोहताज है और न ही लोकतान्त्रिक मूल्यों का। वे ऐसी सरकार के प्रधानमंत्री हैं जिसे विपक्ष के रूप में राजनीतिक दल और उनके नेता ही नहीं बल्कि लोकतंत्र मापने वाली देशी-विदेशी संस्थाएँ, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया, संपादक, पत्रकार, कलाकार, बुद्धिजीवी, प्रोपेगेंडाजीवी, आन्दोलनजीवी, नेतानुमा ऐक्टिविस्ट और ऐक्टिविस्टनुमा नेता मिले हैं।
पिछले सात वर्षों में जैसे-जैसे विपक्ष की सूरत बदलती रही उसी तरह से मोदी विरोध के उसके तरीके भी बदलते रहे। यह बात और है कि मोदी को ऐसे विपक्ष और उसके विरोध की आदत तब से लगी हुई थी जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अंतर केवल इतना था कि मुख्यमंत्री रहने तक इस विपक्ष का स्वरुप इतना बड़ा नहीं था। तब उनके विरोध में विदेशी व्यक्तियों और संस्थाओं की भूमिका बहुत छोटे स्तर पर थी। उसे भी प्राप्त करने के लिए विपक्ष के नेताओं को बड़ी मशक्कत करनी पड़ती थी।
यह उन दिनों की बात है जब उनका अमेरिकी वीजा रोकने के लिए विपक्ष के लगभग साढ़े पाँच दर्जन सांसदों को एक ही पत्र पर अपने-अपने हस्ताक्षर करने पड़ते थे। पर प्रधानमंत्री बनने के बाद विदेशी व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा उनके विरोध ने एक नया रूप ले लिया। शायद विपक्षी राजनीतिक दलों, उनके नेताओं और उनके देशीय सहयोगियों ने राष्ट्रीय राजनीति में विदेशियों को लाने में कोई समस्या नहीं दिखी। उन्हें शायद इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि राष्ट्रीय राजनीति में बाहर वालों को लाना एक स्वस्थ और अच्छी राजनीतिक परंपरा का द्योतक नहीं था।
प्रश्न यह उठता है कि 2014 के बाद विपक्षी राजनीतिक दलों को अपनी सहायता के लिए राजनीति के बाहर के लोगों को क्यों लाना पड़ा? मीडिया, मीडियाकर्मी, संपादक, पत्रकार, कलाकार, देशी-विदेशी संस्थाओं, व्यक्तियों और बुद्धिजीवियों को विपक्ष की सहायता में क्यों उतरना पड़ा? इस प्रश्न का उत्तर शायद राजनीति के परंपरागत तरीकों में मोदी द्वारा लाए गए बदलाव में है। 2014 से पहले भारतवर्ष का राजनीतिक विमर्श परसेप्शन प्रधान था। राजनीतिक दलों का इस दर्शन में विश्वास था कि राजनीति के लिए काम करना आवश्यक नहीं है बल्कि काम करते दिखना आवश्यक है। इंदिरा गाँधी द्वारा दिया गया ‘गरीबी हटाओ’ नारा इसी राजनीतिक दर्शन के तहत दिया गया नारा था। 2014 से पहले चुनाव के पहले जारी किया जाने वाले घोषणा पत्र राजनीतिक औपचारिकता की मिसाल थे।
मोदी ने प्रधानमंत्री बनकर इस राजनीतिक दर्शन को उलट कर रख दिया और विपक्ष शायद ऐसी किसी स्थिति के लिए तैयार नहीं था। विपक्ष के लिए मोदी अपने व्यक्तित्व में एक और सरप्राइज लेकर आए और वह था कुछ मुद्दों पर पहले लिए गए अपने स्टैंड को भूलकर उस पर पुनर्विचार करना। इसका सबसे बड़ा उदाहरण आधार कार्ड, मनरेगा और जीएसटी पर उनका पुनर्विचार रहा। उसके अलावा सफाई अभियान, जनधन अकाउंट, उज्ज्वला योजना, घर-घर बिजली पहुँचाने के उनके संकल्प जैसी महत्वाकांक्षी सरकारी योजनाओं को जिस रफ़्तार से लागू किया गया, उसने विपक्ष को लगातार अपनी रणनीति बदलने पर विवश कर दिया। उसका असर यह हुआ कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय राजनीति ‘परसेप्शन बनाम परसेप्शन’ की राजनीति न रहकर ‘परसेप्शन बनाम रियलिटी’ की राजनीति हो गई।
हाँ, विपक्ष की समस्या जो शुरू में थी वही आज भी है और वह समस्या यही है कि विपक्ष आज भी राजनीतिक लड़ाई को केवल परसेप्शन की लड़ाई समझता है और इसीलिए अपने ही बनाए राजनीतिक विमर्श से निकल कर आगे देखना उसके लिए अब एक कठिन काम हो गया है। विपक्ष को 2014 में भी लगता था कि मोदी से लड़ाई का एकमात्र तरीका है मोदी की छवि को ध्वस्त करना और आज भी उसे यही लग रहा है।
कहते हैं लोकतान्त्रिक राजनीति में विपक्ष का रहना इसलिए आवश्यक होता है क्योंकि विपक्ष का काम राजनीति, सरकार और शासन का एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत करना है। ऐसे में यदि कोई मोदी के विपक्षियों का वैकल्पिक मॉडल जानने बैठे तो उसे एक ही मॉडल मिलेगा और वह है कुछ भी करके मोदी की छवि ध्वस्त करने का मॉडल। यह ऐसा मॉडल है जिस पर उनके विरोधी लगभग दो दशक से काम कर रहे हैं।
जब मोदी को उनके दल ने प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बताया उसी समय इस मॉडल का एक रूप बुद्धिजीवियों द्वारा उनके विरोध और बाद में जनता से की गई उनकी अपील के रूप में सामने आया। कुछ लोगों ने भविष्यवाणी की कि यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो देश में सांप्रदायिक विभाजन तय है।
शायद इसी भविष्यवाणी को सच साबित करने के लिए विपक्ष और उसके इकोसिस्टम ने देश में पहली बार ईसाई समुदाय पर मँडराने वाले तथाकथित खतरे को लेकर प्रोपगैंडा किया जिसमें दिल्ली में एक चर्च के दरवाजे पर मारे गए पत्थर और टूटे हुए काँच को आगे रखकर देश भर के ईसाइयों को खतरे में बताया गया। इसी प्रोपेगेंडा का एक और रूप पश्चिम बंगाल में दिखाई दिया जब बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाके में ननों के बलात्कार में बिना किसी जाँच के हिंदुत्व के लोगों को जिम्मेदार बता दिया गया। यह और बात थी कि उस अपराध में जो लोग पकड़े गए वे बांग्लादेशी मुसलमान थे। प्रोपेगेंडा का यही स्वरूप मुसलमानों पर होने वाले तथाकथित अत्याचार के रूप में देखा गया।
चूँकि 2014 के लोकसभा चुनावों में कॉन्ग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था इसलिए इकोसिस्टम के लिए राहुल गाँधी को मोदी के मुकाबले खड़ा करना असंभव सा काम था। इसी वजह से अगले चार वर्षों में पूरा इकोसिस्टम एक अदद नेता की तलाश करता रहा ताकी उसे नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा किया जा सके। हालत यह थी कि इस प्रक्रिया में 2019 तक अरविन्द केजरीवाल, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, कन्हैया कुमार, उमर खालिद और जिग्नेश मेवानी तक को नेता के रूप में प्रोजेक्ट करने की कोशिश की गई। प्रोपेगेंडा के तहत ही जेएनयू से लेकर आईआईटी मद्रास, हैदराबाद विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, बीएचयू, अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जादवपुर विश्वविद्यालय तक में टुकड़े-टुकड़े के खेल किए गए।
अराजनीतिक खिलाड़ियों को एक मात्र उद्देश्य से पोषा गया और वह उद्देश्य था मोदी की छवि को ध्वस्त करना। इसी दिशा में ‘जाट रिजर्वेशन’ और ‘भीमा कोरेगाँव’ जैसे तथाकथित राजनीतिक आंदोलन चलाये गए। इसी उद्देश्य के साथ राहुल गाँधी ने मोदी सरकार को बार-बार सूट-बूट की सरकार बताया। इसी उद्देश्य के साथ राफेल के सौदे में आर्थिक अनियमितता के आरोप लगाए गए और इसी उद्देश्य के साथ ही सेना द्वारा पाकिस्तान में किए गए स्ट्राइक को झूठ बताया गया पर इनमें से किसी रणनीति का मोदी की छवि पर कोई असर नहीं हुआ। नतीजा यह हुआ कि नरेंद्र मोदी 2019 में और भारी जीत के साथ फिर से प्रधानमंत्री बन कर वापस आए।
मोदी के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष, उसके इकोसिस्टम और उसके प्रोपगैंडा का स्वरूप तेजी से बदला है। कारण फिर से वही था। मोदी का अपने फैसलों से विपक्ष को आश्चर्यचकित करना। यदि कुछ विपक्षी नेताओं के पुराने बयानों को देखा जाय तो कहा जा सकता है कि उन्होंने कम से कम जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 के हटाए जाने की कल्पना नहीं की थी और 5 अगस्त 2019 के इस फैसले से विपक्ष को सकते में डाल दिया। चूँकि कॉन्ग्रेस और उसके नेतृत्व ने ही अपने फैसले और संविधान में बदलाव से कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बनाया था लिहाजा उसे अपने प्रोपेगेंडा के लिए विदेशी व्यक्तियों और संस्थाओं के और अधिक सहयोग से कोई समस्या दिखाई नहीं दी।
किसी भी कीमत पर मोदी को हराने के लिबरलों के संकल्प को राम जन्मभूमि पर उच्चतम न्यायालय के फैसले से बड़ा धक्का लगा और उन्होंने नए सहयोगियों के साथ मिलकर अपने प्रयास में तेज़ी लाते हुए नागरिकता संशोधन कानून के बहाने शाहीन बाग़ कर डाला। वहाँ से विरोध की यह यात्रा दिल्ली दंगों से होते हुए अब किसान आंदोलन पर आ रुकी है। विरोध में अब विदेशी व्यक्तियों और संस्थाओं का उपयोग शायद इसलिए बढ़ गया है क्योंकि जिन देसी लोगों से इकोसिस्टम को उम्मीदें थीं वे बार-बार असफल होते गए। ऐसे में अब भारतीय लोकतंत्र की क्वालिटी पर विदेशी छुटभैय्ये एनजीओ की रिपोर्ट हो या किसी तथाकथित विदेशी इतिहासकार के वक्तव्य, इकोसिस्टम उसे अब खूब सेलिब्रेट करता है, इस आशा के साथ कि एक दिन नरेंद्र मोदी की छवि ध्वस्त हो जाएगी।
पर लोकतांत्रिक व्यवस्था की एक खूबी होती है। इस व्यवस्था में राजनीतिक दलों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ती है। विपक्ष में रहकर भी देश के लिए एक वैकल्पिक राजनीतिक या आर्थिक व्यवस्था का मॉडल प्रस्तुत करना पड़ता है जिसे जनता परखती है। कोई राहुल गाँधी इस बात के सहारे नहीं बैठ सकता कि कोई रवीश कुमार रोज फेसबुक पोस्ट लिखकर उसे सत्ता दिला सकता है। कोई रवीश कुमार इस सोच के सहारे नहीं बैठ सकता कि कोई राहुल गाँधी सत्ता में आकर उसे उसकी खोई हुई विश्वसनीयता वापस दिला सकता है। इकोसिस्टम चाहे जितना बड़ा हो और अपना स्वरुप चाहे जिस तेजी से बदले, किसी नेता की छवि केवल प्रोपेगेंडा से न तो बना सकता है और न ही बिगाड़ सकता है।