Sunday, November 17, 2024
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यूपी में नेता, नीति, संगठन और कार्यकर्ता विहीन कॉन्ग्रेस, इसलिए प्रियंका खेल रही हैं ‘घोषणाबाजी’ का सियासी जुआ

प्रियंका गाँधी की इन घोषणाओं से एक सवाल यह भी उठता है कि उनकी पार्टी यह घोषणाएँ पंजाब, उत्तराखंड, गोवा या मणिपुर जैसे अन्य चुनावी राज्यों में क्यों नहीं कर रही है? क्या वहाँ की महिलाओं, किसानों और गरीबों को इसकी जरूरत नहीं है?

फरवरी 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में जीत के लिए कॉन्ग्रेस पार्टी ने अपनी राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा पर दाँव लगाया है। स्वयं प्रियंका इस चुनावी वैतरणी से पार उतरने के लिए ‘घोषणाबाजी’ की लोक-लुभावन राजनीति का जुआ खेल रही हैं। उन्होंने पिछले एक-डेढ़ महीने में लोक-लुभावन घोषणाओं की झड़ी लगाकर लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की है।

उन्होंने उत्तर प्रदेश विधानसभा की 403 सीटों पर 40 फीसद महिला उम्मीदवार लड़ाने की घोषणा के साथ इसकी शुरुआत की। इसके बाद उन्होंने कॉन्ग्रेस की सरकार बनने पर किसानों के कर्ज और और बिजली बिल माफ करने की घोषणा की। तीसरी बड़ी घोषणा लड़कियों को स्मार्टफोन और स्कूटी देने की और चौथी घोषणा नागरिकों को 10 लाख रुपए तक के मुफ्त इलाज की सुविधा देने की है।

उन्होंने महिलाओं के लिए तीन रसोई गैस सिलेंडर और बस पास मुफ्त देने और बिजली बिल आधा करने जैसी घोषणाएँ भी की हैं। शिक्षा, रोजगार, व्यापार के सम्बन्ध में भी वे बहुत जल्द ऐसी कुछ लोक-लुभावन घोषणाएँ करने वाली हैं। लेकिन इन घोषणाओं के बारे में आम मतदाताओं और अधिकांश चुनाव विश्लेषकों की स्वाभाविक प्रतिक्रिया यह है कि ‘न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी’, अर्थात् न तो कॉन्ग्रेस की सरकार बनेगी, और न ही इन हवा-हवाई घोषणाओं को पूरा करने की नौबत आएगी।

ऐसा नहीं है कि स्वयं प्रियंका या उनकी पार्टी इस सच्चाई से अवगत नहीं हैं। फिर यह प्रश्न उठता है कि वे यह जुआ क्यों खेल रही हैं? दरअसल, यूपी में मरणासन्न कॉन्ग्रेस की जान बचाए रखने के लिए उनके पास इस तरह का जुआ खेलने के अलावा और कोई उपाय नहीं है। लेकिन जुए की तरह इस दाँव का खतरा यह है कि ‘छब्बे बनने चली कॉन्ग्रेस कहीं दुबे’ बनकर न रह जाए!

प्रियंका गाँधी की इन घोषणाओं से एक सवाल यह भी उठता है कि उनकी पार्टी यह घोषणाएँ पंजाब, उत्तराखंड, गोवा या मणिपुर जैसे अन्य चुनावी राज्यों में क्यों नहीं कर रही है? क्या वहाँ की महिलाओं, किसानों और गरीबों को इसकी जरूरत नहीं है? जरूरत तो है लेकिन वहाँ कॉन्ग्रेस चुनावी गुणा-गणित में है। इसलिए जुआ खेलने से परहेज कर रही है।

यूपी में कॉन्ग्रेस की दुर्दशा जगजाहिर है। इसीलिए जुआ खेला जा रहा है। यह सवर्ण मतदाताओं को फुसलाकर भाजपा को कमजोर करने की सुचिंतित रणनीति भी है। उल्लेखनीय है कि कॉन्ग्रेस के परंपरागत वोट बैंक रहे सवर्ण मतदाता 1989 में उसके क्रमिक अवसान के बाद भाजपा की ओर चले गए हैं। भाजपा के उभार में हिंदुत्ववादी राजनीति और सवर्ण जातियों के ध्रुवीकरण की निर्णायक भूमिका रही है।

उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी की बैसाखी के सहारे कॉन्ग्रेस 7 सीट और 5 फीसद मत प्राप्त कर सकी थी। इस बार समाजवादी पार्टी ने उसे झटक दिया है। 2019 के लोकसभा चुनाव में सिर्फ सोनिया गाँधी चुनाव जीत सकी थीं। तत्कालीन कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी तक कॉन्ग्रेस परिवार की परम्परागत सीट से बड़े अंतर से चुनाव हार गए थे। इस तरह के निराशाजनक चुनाव परिणामों के बावजूद कॉन्ग्रेसियों द्वारा पिछले 4-5 साल में जमीनी स्तर पर संगठन खड़ा करने या फिर जनता के बीच जाने की जहमत नहीं उठाई गई।

पार्टी की इसी निष्क्रियता और किंकर्तव्यविमूढ़ता से त्रस्त होकर जितिन प्रसाद जैसे बड़े नेता कॉन्ग्रेस से किनारा करके सत्तारूढ़ भाजपा की नैया पर सवार हो गए हैं। कॉन्ग्रेस के निराशाजनक वातावरण के चलते कॉन्ग्रेस के अनेक छोटे-बड़े नेता अपने भविष्य की चिंता में अलग-अलग राजनीतिक दलों की ओर खिसक रहे हैं। वे सब अपने राजनीतिक भविष्य के प्रति आशंकित हैं।

आज यूपी में कॉन्ग्रेस की हालत यह है कि उसके पास न तो नेता है, न नीति है, न संगठन है, न ही कार्यकर्ता है। लल्लू के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस आज भाजपा, सपा, बसपा जैसी पार्टियों के बाद दूरस्थ चौथे स्थान पर है। राष्ट्रीय लोकदल, आम आदमी पार्टी, पीस पार्टी और एआईएमआईएम जैसे छोटे दल आगामी चुनाव में उससे आगे निकल कर चौथे स्थान पर आने की फिराक में हैं। इस परिस्थिति में प्रियंका के पास ‘घोषणाबाजी’ के जुए के अलावा विकल्प ही क्या बचता है?

प्रियंका गाँधी वाड्रा द्वारा की जा रही इन घोषणाओं के वास्तविक मायने क्या हैं? दरअसल, किसी जमाने में दक्षिण भारत से शुरू हुई लोक-लुभावन घोषणाओं और मुफ्तखोरी की यह राजनीति आज दिल्ली तक पैर पसार चुकी है। वोट के बदले फ्री साड़ी, टीवी, फ्रीज और बिजली-पानी देने की रणनीति यदा-कदा और यत्र-तत्र सफल भी हुई है। संभवतः प्रियंका की प्रेरणा भी यही है। 

प्रियंका ने महिलाओं को लुभाने के लिए उन्हें 40 फीसदी पार्टी टिकट देने का जो दाँव खेला है, उससे न तो महिलाओं का भला होने वाला है, न ही कॉन्ग्रेस पार्टी को कुछ लाभ मिलने वाला है। कॉन्ग्रेस पार्टी के लिए चुनाव लड़ सकने वाली 161 महिला प्रत्याशियों का जुगाड़ करना टेढ़ी खीर साबित होने वाली है। जो पार्टी ‘न तीन में है, न तेरह में है’, उसके टिकट पर चुनाव लड़ कर कोई महिला अपने राजनीतिक भविष्य को भला क्यों कर स्वाहा करेगी!

यह घोषणा खाना-पूर्ति से अधिक कुछ नहीं है। विडम्बनापूर्ण ही है कि जिस मंच से उन्होंने यह घोषणा की थी, उस पर मौजूद 15 लोगों में प्रियंका सहित कुल तीन ही महिलाएँ थीं। अगर कॉन्ग्रेस पार्टी महिला सशक्तिकरण के प्रति वास्तव में गंभीर थी तो उसने यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल में महिला आरक्षण विधेयक पास क्यों नहीं किया? या फिर सांगठनिक पदों की नियुक्तियों में महिलाओं की भागीदारी क्यों नहीं बढ़ाई? अगर ऐसा किया होता तो आज उन्हें 161 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए दमखम वाली प्रत्याशियों का टोटा न पड़ता!

उत्तर प्रदेश मंडल और कमंडल की कोख से निकली जातिवादी और हिंदुत्ववादी आधारित राजनीति की प्रयोगशाला है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों और पिछले विधानसभा चुनाव में जाति का जादू नहीं चला। लोगों ने विकास और बदलाव के लिए मतदान किया। यह देखना दिलचस्प होगा कि आगामी विधान-चुनाव में उत्तर प्रदेश का मतदाता फिर से विकास और सुशासन के लिए मतदान करता है या फिर जातिवादी राजनीति की ओर वापसी करता है।

वर्तमान परिदृश्य में कॉन्ग्रेस के साथ न तो कोई जाति जुड़ती दिखती है और न ही उनके पास विकास एवं बदलाव का कोई विश्वसनीय मॉडल है। प्रियंका को यह समझने की आवश्यकता है कि यूपी में कॉन्ग्रेस शून्य है और उसे किसी निर्णायक भूमिका में आने के लिए दूरगामी नीति और लम्बे संघर्ष की आवश्यकता है। क्या प्रियंका के पास उतना धैर्य, समय और इच्छाशक्ति है? दो-चार महीने मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रिय रहने मात्र से उत्तर प्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से जागरूक राज्य में चुनाव जीतने के मंसूबे ख्याली पुलाव पकाने से अधिक कुछ नहीं हैं।

महज जबानी जमा खर्च से न तो जनता को लुभाया जा सकता है, न ही भरमाया जा सकता है। प्रियंका इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं कि भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, सपा अखिलेश यादव और बसपा मायावती के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है। यह जानते हुए भी वे अपने चुनाव लड़ने के सवाल पर कन्नी काट रही हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि वे स्वयं आगामी चुनाव में होने वाले कॉन्ग्रेस के हश्र से आशंकित हैं। नेतृत्वविहीन कॉन्ग्रेस भला क्या चुनाव लड़ेगी? इसलिए प्रियंका हारते हुए जुआरी की तरह ‘घोषणाबाजी’ का दाँव खेल रही हैं।  

चुनाव लड़ने-न लड़ने को लेकर प्रियंका का ‘दोचित्तापन’ उनके वादों और दावों को संदिग्ध बनाता है। इससे उनकी चुनावी रणनीति कमजोर पड़ती है। उन्हें जल्दी से जल्दी निर्णय लेकर या तो खुद के चुनाव  लड़ने की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए या फिर सपा-बसपा जैसी किसी पार्टी की पूँछ पकड़कर यह चुनावी वैतरणी पार करने का जतन करना चाहिए। प्रियंका के इस ‘दोचित्तेपन’ और सियासी जुए के चलते साख-संकट से जूझती कॉन्ग्रेस शून्य पर सिमट जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए।  

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प्रो. रसाल सिंह
प्रो. रसाल सिंह
प्रोफेसर और अध्यक्ष के रूप में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषा विभाग, जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। साथ ही, विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता, छात्र कल्याण का भी दायित्व निर्वहन कर रहे हैं। इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में पढ़ाते थे। दो कार्यावधि के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद के निर्वाचित सदस्य रहे हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक और साहित्यिक विषयों पर नियमित लेखन करते हैं। संपर्क-8800886847

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