कुछ ही वर्ष पहले तक मार्च की दस तारीख के आसपास गर्मियों का मौसम शुरू हो चुका होता था। होली के वक्त बदन पर पानी पड़ जाना सुखद होता था। मौसम के चक्र का समय बदलना हम लोग हाल के वर्षों में देख चुके हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से जो होगा वो सब अब किताबों और अंग्रेजी फिल्मों की कल्पना से निकलकर हकीकत की जमीन पर उतर आई घटनाएँ हैं।
हाल के वर्षों के समाचारों में लातूर दिखा। महाराष्ट्र में इस नाम की कोई जगह है, इसके बारे में ज्यादातर भारतीय लोग जानते भी नहीं होंगे। जब वहाँ रेल और टैंकर से पानी भेजे जाने की जरूरत पड़ने लगी तो ये अज्ञात सा इलाका अचानक सुर्ख़ियों में आ गया। जैसा कि हम अक्सर कहा करते हैं, मीडिया के पत्रकारों लिए “अच्छी खबर वो है जो बुरी खबर हो”, वैसा ही इस घटना में भी देखने को मिला।
जब सूखा पड़ा और ट्रेन से पानी भेजा जाने लगा, तब तो लातूर की ख़बरें खूब छपीं। आज वहाँ हालात बदले हैं, या नहीं, ये झाँकने कोई नहीं गया। क्या लोगों को वहाँ बारिश का पानी बचाना सिखाया गया? क्या जल संरक्षण के परम्परागत उपायों को जीवित किया गया? क्या अनुपम मिश्र की “आज भी खरे हैं तालाब” जैसी किताबों से निकाल कर कोई योजना वहां की जमीन पर उतरी? ऐसी कहानियां ढूँढने किसी को भेजा नहीं जाता।
एक दिन की होली को पानी की बर्बादी घोषित करने वाले लोग आपको ये नहीं बताते कि तथाकथित शुद्ध जल आरओ (रिवर्स ओसमोसिस) से निकालना हो तो एक लीटर पानी निकालने में कम से कम नौ लीटर पानी बर्बाद होता है। स्कूलों में जो बच्चों को सूखी होली खेलने के प्रण दिलवा रहे थे, उन्होंने आरओ में इस वर्ष कितना पानी बर्बाद किया, इसका हिसाब उनसे कोई पूछने ही नहीं गया।
हाल के दौर में भारत के प्रधानमंत्री ही नहीं, बिहार के मुख्यमंत्री भी पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर अपनी ओर से पहल करते नजर आये हैं। बिहार में हाल ही में, शराब की ही तरह, प्लास्टिक को भी प्रतिबंधित कर दिया गया है। बिहार के आधे हिस्से के लिए पानी की समस्या सूखा-ग्रस्त क्षेत्रों वाली ही है, लेकिन बाकी आधा ज्यादातर बाढ़ से जूझ रहा होता है। ऐसे में प्लास्टिक से निपटना जरूरी भी था।
पानी के निकास के लिए बनी नालियाँ, ज्यादातर वक्त कचरे, ख़ास तौर पर प्लास्टिक से जाम रहती हैं। पटना शहर मामूली सी बारिश में ही बाढ़-ग्रस्त सा दिखने लगता है। सिर्फ प्लास्टिक रोक देने से ये ठीक हो जाएगा ऐसा भी नहीं है, लेकिन फिर भी, कुछ ना करने से बेहतर ये एक शुरुआत तो है। पर्यावरण को सुरक्षित रखने के प्रयासों में बोतलबंद पानी पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
एक समस्या तो ये है कि इस तरह के बोतलबंद पानी के उत्पादन में, एक लीटर पानी निकालने के लिए कम से कम नौ लीटर पानी पूरी तरह बर्बाद हो रहा है। ये होली में हुई पानी की बर्बादी से कई सौ गुना ज्यादा है। होली में फेंका गया पानी तो जमीन सोख लेगी और वो फिर से पर्यावरण के चक्र में जाएगा। आरओ से खराब हुए पानी को दोबारा कृषि, सिंचाई इत्यादि में भी इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
बोतलबंद पानी से होने वाली दूसरी समस्या है उस पानी की बोतल। स्लमडॉग मिलियनेयर फिल्म जैसा उस पानी की बोतल का दोबारा इस्तेमाल ना हो, इसलिए तोड़ मरोड़ के प्लास्टिक की बोतल को फेंक दिया जाता है। शहरों के लिए ये कचरा कितना भारी होता है, इस बात का अंदाजा दिल्ली में हुई कुछ मौतों से लगाया जा सकता है। हाल ही में दिल्ली में चार लोग कचरे के ढेर के निचे दब कर मर गए थे जिन्हें देखने के लिए वहां के मुख्यमंत्री को जाना पड़ा था।
अगली पीढ़ी के लिए सोचना हो तो याद रखिये कि सबसे ज्यादा जहाँ बर्बादी होती हो, पहले उसपर नजर डालनी होगी। बाकी होली पर पानी की बर्बादी का रोना रोने से मिलने वाली जो टीआरपी है, उसका लालच तो कुछ किराये की कलमों को रहेगा ही।