बीते कुछ सालों में एक पैटर्न बहुत नॉर्मल हुआ है- हिंदू त्योहारों के आते ही हिंदू मान्यतों पर प्रहार करने का। पहले ये काम बॉलीवुड वाले अपनी फिल्मों के जरिए करते थे, फिर ये सब सोशल मीडिया पर होना शुरू हुआ और अब हाल ये है कि कुछ सेकेंडों वाले विज्ञापनों में भी हिंदूफोबिक कंटेंट क्रिएटिविटी के नाम पर परोस दिया जाता है।
हिंदू परंपराओं में आमिर खान चाहते हैं बदलाव
हाल में ये कारनामा लाल सिंह चड्ढा वाले आमिर खान ने किया। फिल्म के पर्दे पर बुरी तरह पिटने के बाद आमिर खान ने एयूबैंक (AU Bank) का एड किया। अब बैंक का एड है तो उस क्षेत्र में ग्राहकों को आने वाली समस्याओं पर चर्चा होनी चाहिए, विज्ञापन में ये बताया जाना चाहिए कि कैसे एयू बैंक अन्य बैंकों से अलग सुविधा देगा…।
लेकिन नहीं! एड में दिखाया क्या गया? एक विवाह का सीन, जिसमें बिदाई लड़के की होती है और गृह प्रवेश में पहला कदम लड़की की उससे रखवाया जाता है। ये सब ड्रामा केवल इसलिए क्योंकि बैंक की टैगलाइन थी कि ‘बदलाव हमसे हैं।‘
इसी टैगलाइन को चरितार्थ करने के लिए आमिर खान और कियारा आडवाणी ने हिंदू रीति-रिवाजों में बदलाव दिखा दिया जैसे एक लड़के का घर जमाई होना क्रांति है जबकि हकीकत यह है कि जरूरत पड़ने पर पति का पत्नी के घर पर रहना हमेशा से एक सामान्य बात रही है। फिर भी विज्ञापन में इस बिदाई के कॉन्सेप्ट को ऐसे दर्शाया कि सालों से एक गलत प्रथा चलती आई है और अब इसमें बदलाव के लिए मुहिम उन्होंने छेड़ी है।
I just fail to understand since when AU Bank have become responsible for changing social & religious traditions⁉️
— 🚩K K Sharma🙏 (@SanakkSharma2) October 12, 2022
Why only Hinduism is selected for such advertisements,& if ad makers dare to make such ads considering Nikaah‼️#AamirKhan_Insults_HinduDharma pic.twitter.com/OhKt76NJfQ
दिलचस्प चीज ये है कि बॉलीवुड के लिए ‘मिस्टर पर्फेक्ट’ आमिर खान अपनी फिल्मों में हिंदू देवी-देवताओं के अस्तित्व पर सवाल उठा देते हैं, विज्ञापन में रीति-रिवाजों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, मगर जब उनसे सवाल मजहब को लेकर पूछा जाता है तो वो इसे ‘पर्सनल मैटर’ कहकर किनारा कर लेते हैं। उनकी फिल्मों या एड में भी कभी तीन तलाक पर या हलाला पर सवाल नहीं उठता जबकि ये मुद्दे वो हैं जिनसे वाकई मुस्लिम समाज की महिलाएँ त्रस्त हैं और सालों से इसके कारण पीड़ित होती रही हैं।
पटाखे सड़क पर जलाने के लिए नहीं होते
ये पहला एड नहीं है जहाँ वो हिंदू रिवाज पर ज्ञान देते नजर आए। कुछ साल पहले भी आमिर खान ने ‘सीट टायर्स’ का एड दिया था जिसमें दिखाया था कैसे रोड गाड़ी चलाने के लिए होती है, वहाँ पटाखे नहीं जलाए जाते। अब कोई उनसे अगर जाकर पूछे कि जब रोड पटाखे जलाने के लिए सही नहीं होती तो क्या नमाज पढ़ना वहाँ उचित हो सकता है? वो इस बारे में आखिर क्यों कुछ नहीं बोलते या उन्हें ऐसा लगता ही नहीं कि सड़क किनारे नमाज पढ़ने से यातायात बाधित हो सकते हैं?
कन्यादान पर सवाल उठाने वाली आलिया भट्ट
याद रहे कि ये दोमुँहा रवैया सिर्फ केवल आमिर खान का नहीं हैं। वो अकेले इस दौर में हिंदू परंपराओं में बदलाव के पक्षकार नहीं बने बैठे। पिछले साल याद है आपको जब आलिया भट्ट एक ए़ड में कन्यादान के कॉन्सेप्ट को बदलने की अपील करती आई थीं। अपने एड में आलिया भट्ट ने दिखाया था कि हिंदू किस तरह सालों से लड़कियों को दान करने की चीज बताकर दान करते आए हैं जबकि असल में लड़कियाँ मान करने की चीज हैं।
उनका यह एड एक पूरे धड़े को उत्कृष्ट सोच का उदाहरण लगा था। वहीं हिंदुओं ने इस पर सवाल उठाकर आलिया को समझाया था कि हिंदू धर्म में कन्या दान के मायने क्या होते हैं और जिन्हें देश का राष्ट्रपति का नाम तक एक समय में नहीं पता था वो हिंदू धर्म पर ज्ञान न ही दें।
तनिष्क का प्रोपेगेंडा
आलिया भट्ट हों या आमिर खान… बॉलीवुड वालों ने हमेशा से ज्ञान देने के नाम पर हिंदू रिवाजों पर प्रश्न लगाया है और एक विशेष समुदाय को शांत, शालीन और सभ्य दिखाया है।
याद करिए तनिष्क के उस उदाहरण को जिसमें एक हिंदू दुल्हन के लिए गोदभराई का पूरा प्रोग्राम मुस्लिम परिवार द्वारा आयोजित किया जाता है और ऐसे दर्शाया जाता है कि हिंदू औरतें अगर मुस्लिम परिवार में जाती हैं तो उन्हें ऐसा ही सम्मान मिलता है।
हास्यास्पद बात ये है कि तनिष्क का यह एड उस समय में आता है जब हिंदू समाज लव जिहाद जैसी घटनाओं पर लगातार जानकारी दे रहा होता है और इस बात पर चर्चा तेज होती है कि आखिर कैसे हिंदू महिलाओं को फँसाकर, उनका धर्मांतरण कराया जाता है, उनसे निकाह होता है और फिर उन्हें प्रताड़ित किया जाता है।
मालूम रहे कि स्क्रीन पर हिंदूघृणा परोसने का काम पहले फिल्मों के जरिए धड़ल्लले से हो पाता था। मगर पिछले कुछ समय से हिंदू जागरूक हुए और उन्होंने सवाल उठाकर फिल्मों का बॉयकॉट शुरू किया तो ऐसे लोगों में चिंता बढ़ गई कि अब कैसे प्रोपेगेंडा फैलाया जाए। ऐसे में इन्होंने ये नया तरीका खोजा- विज्ञापनों का।
विज्ञापन का काम वैसे अपने दर्शकों को अपना उपभोक्ता बनाना है, लेकिन उसमें भी प्रोपेगेंडा का तड़का मिले तो इनके लिए वही सबसे बेस्ट एड हो जाता है। आजकर विज्ञापन बनाते हुए ध्यान रखा जाता है कि कैसे भी मुस्लिम समुदाय नेगेटिव शेड में न दिखा दिया जाए और गलती से भी हिंदू सरल, शांत न नजर आए।
रेड लेबल की हिंदू घृणा
नहीं यकीन तो याद करिए रेड लेबल के कुछ पुराने विज्ञापनों को। चायपत्ती की इतनी बड़ी कंपनी ने एक नहीं दो बार अपने विज्ञापनों में हिंदू विरोधी कंटेंट दिखाया था।
एक एड से बताया गया कैसे हिंदू गणेश मूर्ति लेने आता है लेकिन उससे ज्यादा ज्ञान मुस्लिम को होता है। मुस्लिम जैसे ही अपनी टोपी सिर पर पहनता हिंदू उससे भागने लगता है। फिर मुस्लिम व्यक्ति इतना अच्छा होता है कि उसे बुलाकर चाय पिलाता और हिंदू की बुद्धि बदलती है, वो उन्हीं से मूर्ति खरीदता है।
ऐसे ही दूसरे एड में हिंदू दंपती हैं जो अपने घर की चाबी भूल गए हैं। उनके घर के बगल में मुस्लिम औरत उन्हें चाय के लिए बुला रही है। पर हिंदू अपनी सोच के कारण उनके पास जाने से मना करते हैं। फिर चाय की खुशबू आती है, उन्हें एहसास कराती है कि हिंदू-मुस्लिम कुछ नहीं होता..।
बच्चों का इस्तेमाल
विज्ञापनों के जरिए हिंदुओं रीति-रिवाजों पर हमला, मान्यताओं को ठेस पहुँचाने का काम, त्योहारों पर सवाल उठाना….बेहद आम होता जा रहा है। अपने प्रोपेगेंडे को फैलाने के लिए ये लोग बच्चों को भी प्रयोग में लाते हैं। सर्फ एक्सेल के एड में दिखता है कि हिंदू लड़की मुस्लिम लड़के को रंगों से बचाते हुए मस्जिद ले जाती है। वहीं दूसरे एड में संदेश दिया जाता है कि शरादों के समय खाना ब्रह्माण को खिलाओ या फिर मौलवी को बात एक ही है।
ऐसे तमाम विज्ञापनों के उदाहरण आज इंटरनेट पर मौजूद हैं जिनका उद्देश्य केवल और केवल हिंदू घृणा का प्रचार-प्रसार करना है। बच्चों से बुजुर्गों का प्रयोग करते दिखाया जा रहा है कि हिंदू हमेशा गलत ही रहे। ऐसा लगता है कि आज के समय में विज्ञापन बनाने का मानक ही यह रह गया हो कि या तो हिंदू परंपराओं पर सवाल उठाकर उन्हें बदलने का संदेश दो, वरना ये दिखाओ की कैसे देश के हिंदुओं की सोच मुस्लिमों के प्रति बदली जानी चाहिए।