महाभारत काल के कर्ण का जो ‘अंग’ प्रदेश होता था, उसे आज का मुंगेर माना जाता है। ऐतिहासिक रूप से ये नगर कितना महत्वपूर्ण रहा होगा, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि 1862 में एशिया का सबसे बड़ा और आज सबसे पुराना रेल कारखाना यहीं के जमालपुर में स्थापित है। इसके अलावा यहाँ आर्म्स फैक्ट्री होती है।
दशकों से हथियारों के निर्माण से जुड़े होने के कारण बिहार में जो देसी कट्टे पकड़े जाते हैं उन्हें भी कभी-कभी ‘मुंगेरी’ ही बुलाया जाता है। ये भागलपुर के पास है और गंगा नदी के बिलकुल किनारे पर बसा हुआ है इसलिए रेल के अलावा सड़क और नदी के रास्तों से भी अच्छी तरह जुड़ा है।
शिक्षा के मामले में भी ये कोई अनपढ़ों का इलाका नहीं कहा जा सकता क्यों सात वर्ष से ऊपर की आयु में यहाँ शिक्षा 81% से ऊपर है। आबादी का हिसाब बाकी भारत जैसा ही लगभग 81% हिन्दू, करीब 18% मोहम्मडेन और बाकी में सिक्ख और इसाई आदि आते हैं।
नगर पुराना है तो परम्पराएँ भी उतनी ही पुरानी है। विसर्जन के वक्त, सबसे पहले बड़ी दुर्गा महारानी, फिर छोटी दुर्गा, फिर बड़ी काली और छोटी काली के जाने की परंपरा है। इनमें से बड़ी दुर्गा, छोटी दुर्गा और बड़ी काली देवी को 32 कहारों के कंधे पर ले जाया जाता है।
एक दशकों से मार्ग तय है जिस पर से ये देवियों की यात्रा निकलेगी और रास्ते में मिलन, आरती इत्यादि के लिए रुकने का स्थान भी निश्चित है। इस बार भी इसमें कोई अंतर नहीं था। हाँ, कोविड-19 की वजह से मेला नहीं लगा तो रौनक कम जरूर थी।
अज्ञात कारणों से शहर के एसपी को ही हिन्दुओं के इस त्यौहार में ‘बड़ी दुर्गा समिति’ का शीर्ष अधिकारी तय कर रखा गया है। शीर्ष अधिकारी से जब समिति के लोगों ने कहा मुंगेर में चुनावों के लिए कोई अलग तारीख रखवाने का प्रयास करें तो वो हुआ नहीं। विसर्जन को भी 29 को रखने का प्रस्ताव किया गया, ताकि मतदान के बाद का वक्त मिले, वो भी ‘शीर्ष अधिकारी’ ने नहीं माना।
इस बार विसर्जन की यात्रा शाम 4 बजे शुरू हुई थी। शहर बीएसएफ और सीआरपीएफ से भरा हुआ था। अधिकारी और उनके नुमाइंदे लोगों से जल्दी करने को भी कह रहे थे। जो बत्तीस लोग कहार की तरह पालकी उठाएँगे, उनके लिए नियम भी तय होते हैं। वो भूखे-प्यासे उपवास में होंगे, शरीर पर चमड़े का कुछ भी नहीं होगा, नंगे पाँव उन्हें पालकी उठाकर चलना है।
रास्ते में पालकी रखने के बाद उठ नहीं रही थी तो प्रशासन ने कहारों के बदले इसे खुद ही उठाने का प्रयास किया। स्थानीय सूत्र ऐसा बताते हैं कि प्रशासनिक कर्मचारियों के 17 बार प्रयास के बाद भी मूर्ती अपनी जगह से नहीं हिली। जब प्रशासन से भी बड़ी दुर्गा उठी नहीं तो दूसरी देवियों को बड़ी दुर्गा से आगे ले जाने का आदेश हुआ।
इस पर लोगों ने विरोध किया और फिर जद (यू) नेता की सुपुत्री, जो वहाँ एसपी भी हैं, उनके आदेश पर आँसू गैस और गोलियाँ चली। देखते ही देखते भीड़ खाली हो गई और लाठी चार्ज के बाद वहाँ देवी को उठा रहे कहार भी नहीं बचे।
परम्पराओं और मान्यताओं को सरकारी बूटों तले रौंदने के बाद बिना आरती इत्यादि के ही दूसरी देवियों के बाद बड़ी दुर्गा को विसर्जित किया गया। जिस भक्त ने देवी को आभूषण पहनाए होते हैं, वही देवी के आभूषण उतारता है। विसर्जन से पहले नकली आभूषण पहना दिए जाते हैं। इस बार वो भी नहीं हुआ। छोटी दुर्गा भी कहारों के कंधे पर आती हैं, इस बार उन्हें किसी मुंसीपाल्टी के ट्रैक्टर में लाया गया। जेसीबी इत्यादि के इस्तेमाल से देवियों का विसर्जन हुआ।
अब कहा जा रहा है कि गलती प्रशासन की नहीं बल्कि स्थानीय लोगों की ही थी। क्या इसी वजह से लोगों पर गोलियाँ चलाने की जरुरत पड़ गई? हिन्दुओं को जो अपनी पूजा विधियों के पालन का अधिकार संविधान देता है, उसे हर बार दरकिनार क्यों किया जाता है, क्या ये पूछा नहीं जाना चाहिए? जो जानें गईं उनके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है?
चुनावों के पहले चरण के मतदान से ठीक पहले हुई इस घटना का राजनैतिक प्रभाव क्या होगा? यहाँ ये भी सोचने लायक है कि मुंगेर की मौजूदा एसपी एक बड़े जद(यू) नेता की पुत्री हैं। मुख्य धारा की मीडिया अगर इस घटना पर चुप्पी साधे रखे और खोजी पत्रकार भी मुद्दे की तह में जाने के बदले मुँह दूसरी तरफ फेर लें, तो भी आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। हाँ ये जरूर है कि मुंगेर संसदीय क्षेत्र से लोजपा उम्मीदवार पहले भी जीत चुकी हैं। विधानसभा चुनावों पर इसका सीधा असर होने से बिलकुल भी इंकार नहीं किया जा सकता।
नोट: मुंगेर हत्याकांड के मद्देनजर ट्विटर पर मुंगेर के ही स्थानीय निवासी अनुपम सिंह (@AnupamS40753639) ने ट्वीट्स की श्रृंखला लिखी है। अनुपम ने इस ट्विटर थ्रेड में मुंगेर में हुई घटना से आहत होकर इस क्षेत्र के छोटे-छोटे पहलुओं को उजागर किया है। लेख में मौजूद अधिकांश बातें भी इस थ्रेड में लिखी गई हैं।