Friday, March 29, 2024
Homeविचारसामाजिक मुद्देविश्व की 15% जनसंख्या का समाप्त होना निश्चित: विनाश से सृजन का बीज है...

विश्व की 15% जनसंख्या का समाप्त होना निश्चित: विनाश से सृजन का बीज है चीनी कोरोना वायरस

इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि हमें इस कोरोना वायरस के साथ ही जीना है। हमारे लिए यह वायरस नहीं बदलेगा बल्कि हमको बदलना होगा और यह बदलाव व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में होगी। जो बदलेगा, वही जीवित रहेगा और जीवन दे पाएगा।

जबसे चीनी कोरोना वायरस का भारत में एक वैश्विक महामारी के रूप में प्रदार्पण हुआ है, तब से जीवन थम गया है। इस महामारी ने पूरे मानव समाज को जकड़ लिया है। आज, हमारे दैनिक जीवन का केंद्र बिंदु भारत के विभिन्न अंचलों में कारोना वायरस के प्रसार, उससे संक्रमित लोगों की संख्या व परिणामस्वरूप हो रही लोगों की मृत्यु की संख्या है।

आज हम सब, सामान्य जीवन यापन की उत्कंठा लिए हुए एक सांख्यिकी बन चुके हैं। यद्यपि यह वैश्विक महामारी जिसे कोविड-19 भी कहा जाता है, मानव जीवनकाल में आई पहली वैश्विक महामारी नहीं है लेकिन 21वीं सदी में आई यह वैश्विक महामारी, अब तक की आई सभी महामारियों से ज्यादा विश्व की जनसंख्या के साथ, उसकी मूलभूत समाजिक, राजनैतिक व आर्थिक संरचना में परिवर्तन लाने वाली है।

मैं जब लॉकडाउन के एकांत में कोरोना वायरस से होने वाले परिवर्तनों को लेकर आत्मचिंतन कर रहा हूँ तो उन वैश्विक महामारियों का भी स्मरण हो जा रहा है, जिनके बारे में मैंने अपने युवाकाल में पढ़ा था। उसमें सबसे कुख्यात यूरोप का ब्लैक प्लेग था, जो 14वीं शताब्दी में फैला था।

अपने संक्रमण के प्रथम दौर में इससे हुई मृत्यु ने नगरों की दो-तिहाई से तीन-चौथाई तक की आबादी साफ कर दी थी। इतिहासकारों का मत है कि इस चक्र में यूरोप में 2.5 करोड़ (अर्थात कुल आबादी का चौथाई) लोगों की मृत्यु हुई थी। इससे भारत मे सन् 1898 से 1918 के बीच 1 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी।

इसके बाद ही 1918 में 20वीं शताब्दी की सबसे भयावह वैश्विक महामारी स्पैनिश फ्लू फैला, जिससे विश्व की एक-तिहाई जनता संक्रमित हुई थी और बहुत कम अंतराल में लगभग 2.5 करोड़ लोग मृत्यु को प्राप्त हुए थे। विशेषज्ञों का आकलन है कि इस महामारी में 4 से 5 करोड़ लोग मरे थे। इससे अकेले भारत मे 1.75 करोड़ लोग मरे थे, जो उस वक्त भारत की 6% जनसंख्या थी।

इसके बाद भारत में 1940 के दशक में हैजा फैला था, जिसकी भयावहता आज भी ग्रामीणांचल की स्मृतियों में है। इसके बारे में तो स्वयं अपने बुजर्गों से सुना है कि जब यह फैला था तो हर तरफ मृत्यु का नाद ही सुनाई देता था। भारत उस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता का संघर्ष कर रहा था और ब्रिटेन द्वितीय विश्वयुद्ध में फँसा था। ऐसे में पूरा का पूरा परिवार और कहीं-कहीं गाँव के गाँव साफ हो गए थे।

इसके बाद जिस वैश्विक महामारी ने विश्व को प्रभावित किया वह एड्स/एचआईवी है, जिसका सबसे पहला प्रभाव हमारी पीढ़ी पर पड़ा था। हालाँकि इसका उदय 1970 के मध्य में हो गया था लेकिन भारत में इसके बारे में 1980 के दशक में पता चला था। मुझे आज भी याद है कि इसके बारे में मैंने सबसे पहले इंडिया टुडे के एक अंक में पढ़ा था। यह लेख न्यूयॉर्क में उनके गेस्ट कॉरेस्पोंडेंट ने लिखा था।

इस लेख में उस वक्त अमेरिका में उसको लेकर वहाँ के नागरिकों की चिंता व वहाँ के समाज का एड्स पीड़ित को लेकर पूर्वग्रहों को, चित्रण किया गया था। इस महामारी ने विश्व भर में समलैंगिकता को न सिर्फ सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान कराई बल्कि कंडोम के प्रयोग को यौन-जीवन की अनिवार्यता भी बना दी।

एड्स के उपचार को ढूँढने में विश्व अब तक अरबों डॉलर खर्च कर चुका है लेकिन अभी तक विज्ञान इसकी कोई भी रामबाण औषधि या उपचार सामने लाने में समर्थ नहीं हो पाया है। इससे पीड़ित व्यक्ति का उपचार तो किया जाता है लेकिन इसका समूल निवारण अभी तक संभव नहीं हुआ है। भारत में एड्स की महामारी ने समाज के ढाँचे को प्रभावित नहीं किया। शायद यही कारण है कि हमें इसका संज्ञान ही नहीं है कि पिछले 4 दशकों में करीब 4 करोड़ व्यक्ति इससे मर चुके हैं।

इन सब वैश्विक महामारी को देखते हुए मैं समझता हूँ कि चीनी कोरोना वायरस द्वारा फैली वैश्विक महामारी इन सबसे अलग है। यह पहली महामारी है, जिसके प्राकृतिक रूप से उत्पन्न होने पर ही संदेह है। इस महामारी की भयानकता ने मनुष्य व उसके राजनैतिक नेतृत्व को इतना किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया है कि उसे मानुषिक सहज व्यवहार की शरण लेते हुए, इस महामारी से छुपने के लिए स्वयं को ही बंदी बनाना श्रेयस्कर लगा है।

वैसे तो विश्व भर के वैज्ञानिक कोरोना वायरस के रोकथाम के लिए वैक्सीन बनाने की होड़ में लगे हैं लेकिन मेरा आकलन है कि निकट भविष्य में इसके आने की संभावना नहीं है। यदि आ भी गई तो पूरे विश्व के वैक्सिनकरण में दशक लग जाएँगे।

मैं समझता हूँ कि कारोना महामारी को रोकने के लिए हर राष्ट्र ने अपनी तरफ से सद्प्रयास ही किए हैं। किसी भी राष्ट्र के पास इस तरह की महामारी को रोकने का न पूर्व अनुभव था और न ही इतिहास में उनके पास कोई उदाहरण था। ऐसे में हर्ड इम्युनिटी से लेकर लॉकडाउन तक सभी प्रयास, आलोचना के पात्र नहीं हो सकते हैं।

जिन लोगों ने यह सब निर्णय लिए हैं, उन सबने यह कटु सत्य स्वीकार कर लिया था कि चीनी कोरोना वायरस का कोई तोड़ नहीं है और इसी के साथ अब जीना है। जिन राष्ट्रों की स्वास्थ्य सेवाएँ विकसित हैं, उन्होंने इस वायरस से अपनी जनता की 3% से 5% की मृत्यु होना कठोर हृदय से स्वीकारा हुआ है।

भारत ऐसे राष्ट्र जहाँ की स्वास्थ्य सेवाएँ अविकसित हैं और उसकी जनता भी स्वयं में अनुशासित नहीं है, उसके लिए लॉकडाउन ही उपाय था। पीएम मोदी द्वारा यह लॉकडाउन का निर्णय, लोगों को मृत्यु से बचाने के लिए नहीं बल्कि इस वैश्विक महामारी के प्रसार की गति को धीमी करने के लिए और उस मिले हुए कम समय में अधिकतम रूप से इससे बचने के साधनों व उपचार की व्यवस्था के निर्माण करने के लिए लिया गया।

आज भारत की जनता को अपनी तन्द्रा से उठ कर इस कटु सत्य को स्वीकार करना होगा कि हमें इस कोरोना वायरस के साथ ही जीना है। हमारे लिए यह वायरस नहीं बदलेगा बल्कि हमको बदलना होगा और यह बदलाव व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में होगी। जो बदलेगा, वही जीवित रहेगा और जीवन दे पाएगा।

यदि आज भी जो यह सोच कर कोई चलेगा कि भविष्य के समीकरण, भूतकाल के पहिए पर चलेंगे, वह अंधकूप की तरफ जाएगा। यह इसलिए क्योंकि कोरोना तो अब रहेगा ही और उसके साथ ही पूर्व की सामाजिक से लेकर वाणिज्य व्यवस्था में इतना ज्यादा परिवर्तन आने वाला है कि यदि इस पर कल्पना के घोड़े भी दौड़ाए जाएँ तब भी मनीषियों के लिए, सही-सही 2020/30 के दशक का आकलन कर पाना संभव नहीं है।

इस दशक में हमारी-आपकी ज़िंदगी में आने वाले बदलाव, अब तक आए बदलावों से ज्यादा व्युत्क्रमण होंगे। इस बदलाव में, इन सब के साथ हमारे आगे बढ़ने के सभी प्रयोग सही ही होंगे, यह भी संभव नहीं है। मैं देख रहा हूँ कि अगले 10 वर्षों में कोरोना वायरस एवं उसके म्युटेंट्स से जनित विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं के कारण व इसको लेकर राष्ट्रों के बीच टकराव एवं उससे उत्पन्न आर्थिक विभीषका के परिणामस्वरूप, विश्व की 15% जनसंख्या का समाप्त होना निश्चित है। भारत मे यह संख्या 20% तक पहुँच जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।

आज के हम भारतीय, युग मंथन दशक के यात्री हैं। मुझको यह बराबर आभास हो रहा है कि आज जो मेरे प्रिय, मित्र और साथी यहाँ पर या व्यक्तिगत जीवन में हैं, उनमें से एक-तिहाई लोग 2031 नही देख पाएँगे। मैं इस कटु सत्य को स्वीकार करके ही आगे की संभावना टटोल रहा हूँ। मेरे लिए जीवन का मूलमंत्र यही है कि हमे स्वयं ही सुरक्षित रहना है। हमें इस आपदा से निकलने का स्वयं ही प्रयास करना है क्योंकि किसी भी वैचारिक विलासिता के पास इसका कोई समाधान नहीं है।

मेरा दृढ़ विश्वास है कि कारोना वायरस का वैश्विक महामारी रूप में आना संपूर्ण विश्व के स्वरूप व व्याप्त व्यवस्थाओं, मर्यादाओं और मान्यताओं में मूलभूत परिवर्तन का प्रारंभ है। यह वायरस नहीं बल्कि विनाश से सृजन का बीज है।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

‘अब्बा ने 10 दिनों से नहीं किया था पैखाना, दिल्ली AIIMS के डॉक्टर करें पोस्टमॉर्टम’: मुख्तार अंसारी के बेटे की डिमांड, मौत की न्यायिक...

5 डॉक्टरों के पैनल ने किया मुख़्तार अंसारी के शव का पोस्टमॉर्टम। कोर्ट ने दिया न्यायिक जाँच का आदेश। बेटे उमर ने कहा - प्रशासन पर भरोसा नहीं।

‘जो बहन-बेटी का भाव लगाएँ वो…’ : मंडी में ‘राष्ट्रवादी आवाज’ बनकर कंगना रनौत ने किया मेगा रोड शो, माँ ने भी सुप्रिया श्रीनेत...

कंगना रनौत मंडी से इस बार चुनावी मैदान में हैं। आज उन्होंने मंडी में अपना रोड शो भी किया। इस दौरान उन्होंने खुद को मंडी की जनता की बहन-बेटी बताया।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
418,000SubscribersSubscribe