14 साल की चार, 16 साल की तीन बच्चियाँ कैसी दिखती हैं? हमने अपनी बहनों को देखा है, दोस्तों की बेटियों को देखा है, कितनी मासूम, अनजान और सामाजिकता से परे होती हैं ये बच्चियाँ। ये छः बच्चियाँ कानपुर SIT की उस रिपोर्ट का हिस्सा हैं जो 2019-20 के कुछ मामलों को आधार बना कर उसमें ‘लव जिहाद’ का पैटर्न खोजने के लक्ष्य से जारी की गई हैं।
इससे पहले की इसकी गंभीरता और वामपंथी मीडिया पोर्टलों द्वारा इसी रिपोर्ट को गलत तरीके से रिपोर्ट करने की बात पर बात हो, कुछ बातें स्पष्ट करना आवश्यक है। इस अन्वेषण के लिए कानपुर इलाके के मात्र 14 मामले ही लिए गए थे, वो भी सिर्फ 2019-20 से जो कि मीडिया में चर्चित हुए थे। तात्पर्य यह है कि इसमें कानपुर जैसे वृहद इलाके का हर मामला नहीं लिया गया था। अतः, इसे वैसे चश्मे से कोई दिखाना चाह रहा है, तो वो विशुद्ध धोखाधड़ी है।
दूसरी बात, ‘लव जिहाद’ को बार-बार समझना आवश्यक है क्योंकि कुछ लम्पट वामपंथी पोर्टल और बकैत एंकर (पढ़ें रवीश कुमार व अन्य) इसे ‘अंतरधार्मिक विवाह‘ का मसला और ‘प्रेम पर सरकार का पहरा’ मान कर स्थापित करने में सत्तू-पानी बाँध कर बैठ गए हैं।
‘लव जिहाद’ की प्रचलित या स्वीकार्य परिभाषा में निम्नलिखित में से एक या कई बिंदुओं का सत्य पाया जाना आता है:
- प्रेम की शुरुआत में ही लड़के की पहचान का छुपाना, स्वयं को हिन्दू धर्म का बताना
- दूसरे धर्म की लड़की को बहलाना, फुसलाना, बिना सहमति के निकाहनामे पर हस्ताक्षर लेना
- कथित लड़की का जबरन मतपरिवर्तन करवाना, या ऐसा करने के लिए दवाब बनाना
- निकाह/शादी के बाद उसे सिर्फ शारीरिक उपभोग की वस्तु मान कर अपने परिवार के मर्दों, दोस्तों के साथ जबरन सोने का मजबूर करना
- लड़की को सबक सिखाने के लिए उसका बलात्कार, सामूहिक बलात्कार
- लड़की को बदनाम करने के लिए प्रेम के ढोंग के बाद उसकी तस्वीरें, वीडियो वायरल करने की धमकी दे कर ब्लैकमेलिंग
- लड़के की धोखाधड़ी का हिस्सा न बनने पर, इस्लाम न अपनाने पर बलात्कार, हत्या
- ऐसा कोई भी कुकृत्य जहाँ मकसद लड़की का धर्मांतरण हो, न कि प्रेम या शादी
तीसरी बात, यह है कि इस SIT को गठित करने का कारण ही ‘लव जिहाद’ जैसे अपराध को पहचानना था, न कि सिर्फ इसमें किसी के द्वारा फंडिंग हो रही है या नहीं। वामपंथी पोर्टलों ने इस बिंदु पर भी खूब हल्ला किया है कि SIT को फंडिंग के सबूत नहीं मिले। चौदह मामलों में फंडिंग का सबूत न मिलना, इसके (लव जिहाद के) संगठित अपराध न होने की पुष्टि नहीं करता, बल्कि सिर्फ इन मामलों में ऐसा न होने की बात कहता है।
अब बात करते हैं कि इन चौदह मामलों में क्या वाकई आठ मामलों में लड़कियों की सहमति थी, जैसा कि ‘द वायर‘ और NDTV आदि ने रिपोर्ट किया? जबकि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने सामने आ कर कहा कि 14 में से 11 मामलों में ऐसे सबूत मिले हैं, जिनमें धोखाधड़ी, नाबालिग को भगाना, नाबालिग से रेप, नाबालिग से गैंगरेप, ब्लैकमेलिंग, नाम बदल कर दोस्ती का ढोंग, दूसरी पहचान से आधार कार्ड बनवाने, जबरन धर्मांतरण की बात, जबरन धर्मांतरण का दवाब से ले कर सहमति के बगैर जबरन संबंध बनाने जैसी बातें हैं।
इन ‘वायर‘ वालों का शायद फ्यूज उड़ गया होगा क्योंकि हमारे पास जो रिपोर्ट है उसमें तो बाकायदा टेबल बना कर ऐसे 11 मामलों में 13 लड़कियों के साथ जो-जो अपराध हुए, उनकी धाराएँ और केस की प्रगति का ब्यौरा दिया हुआ है जिसे ‘द वायर’ या NDTV के मंदबुद्धि पत्रकार भी उसे समझ सकें। इन दोनों संस्थाओं ने यहाँ तक लिख दिया कि आठ मामले में सहमति थी, और छः मामले में जाँच जारी है।
इनकी बात मान भी लें, तो भी ‘शारीरिक संबंध’ की सहमति हो और जबरन इस्लाम कबूल कराने की बात हो, तो क्या उसे अपराध नहीं मानेंगे क्योंकि लड़की ने सहमति से संबंध बनाए थे? सहमति प्रेम की हो सकती है, लेकिन क्या ‘द वायर’ यह मान कर चलता है कि लड़की ने लड़के से बातचीत की, और यह स्वीकारा कि वो उसके साथ सहमति से भागी थी, तो कालांतर में उसके साथ उस लड़के के दोस्त बलात्कार करेंगे तो उसे अपराध न माना जाए?
‘द वायर’ का तर्क बिलकुल ऐसा ही है क्योंकि हमने हर मामले को विस्तार से पढ़ा और पाया है कि भले ही कुछ मामलों में लड़कियों ने यह बयान दिया है कि वो अपनी सहमति से लड़के के साथ गई थीं, लेकिन उसके बाद जो हुआ वह भारतीय दंड विधान की धाराओं में अपराध की ही श्रेणी में आता है। ऐसे मामले हैं जहाँ लड़की को पता भी नहीं है कि उससे जिस कागज पर वकील ने हस्ताक्षर कराया वो ‘निकाहनामा’ था।
ये वामपंथी इतने गिरे हुए और ज़लील हैं कि इन्हें ऐसे सात मामले नहीं दिखे जिसमें 14 और 16 साल की बच्चियों के बयान हैं कि उनके साथ या तो रेप हुआ या ब्लैकमेलिंग या जबरन धर्मपरिवर्तन का दवाब? इन बच्चियों में से कई बच्चियाँ दलित हैं। इनके साथ भागने वाले सारे लड़के बालिग हैं, और इनका रेप और गैंगरेप करने वाले भी। क्या घर के सामने रहने वाले लड़के को पता नहीं होगा कि लड़की की उम्र क्या है और नाबालिग को भगाना स्वतः एक अपराध है?
इतनी नीचता किस पत्रकार में होगी कि वो इन छः बच्चियों की हालत पर विचार करना तो दूर, उनके अस्तित्व को ही नकार रहा/रही है? ‘द वायर’ या NDTV अगर वाकई इस रिपोर्ट को पढ़ कर समझने की कोशिश न भी करते, तो भी एक कॉलम में ‘बालिग/नाबालिग’ लिखा होना उनकी रिपोर्ट के लिए काफी होना चाहिए था कि यहाँ मजहब विशेष के लड़के क्या कर रहे हैं।
किसी भी वामपंथी संस्था ने इस तथ्य को देखा ही नहीं कि न सिर्फ 14 मामलों में से 11 मामलों में 13 लड़कियों ने (दो मामलों में दो-दो लड़कियाँ पीड़िता हैं) स्वयं को पीड़िता बताया है, और इन सारे लड़कों पर एक से ज्यादा अपराधों की धाराएँ चल रही हैं। पता नहीं किस रिपोर्ट से ‘आठ मामलों में सहमति’ की बात ले आए। साथ ही, यह बात जानना भी आवश्यक है ‘छः मामले में जाँच जारी है’ कहने से वो छः मामले गायब नहीं हो जाते। वो आने वाले समय में सही भी साबित हो सकते हैं।
यह लिख देना कि योगी की SIT तो योगी के उन दावों को सही नहीं ठहरा पाया कि ‘लव जिहाद’ के मामले बढ़ रहे हैं, अलग स्तर की धूर्तता है। क्या इस SIT का उद्देश्य यह जाँचना था कि ‘लव जिहाद’ के मामले बढ़ रहे हैं या नहीं? जी नहीं। इस जाँच का एक उद्देश्य यह था कि कानपुर के एक ही इलाके से, जूही कॉलोनी, लगातार ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं, क्या इसमें कुछ सच्चाई है?
इसी रिपोर्ट के आखिरी पन्ने पर स्पष्ट तौर पर लिखा हुआ है कि ‘कई मामलों में अपना नाम बदल कर दूसरे समुदाय की लड़कियों से मित्रता कर, उनसे निकाहनामा किया गया’, ‘निकाहनामा में नाम परिवर्तन के अलावा और कोई विधिक प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, न ही किसी के द्वारा स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत विवाह किया गया है।’
साथ ही, आर्थिक सहयोग की बात को नकारते हुए स्पष्ट शब्दों में यह लिखा गया है कि ‘उक्त प्रकरण हिन्दू-मुस्लिम जैसे दो अलग-अलग समुदाय से संबंधित है जिसमें कानून एवम् शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु पर्याप्त सतर्कता बरतने की आवश्यकता है।’
या तो इन कथित पत्रकारों को हिन्दी समझ में नहीं आती या ये लोग धूर्त और बेईमान हैं जो पहले तय करते हैं कि उन्हें क्या रिपोर्ट बनानी है, भले ही वास्तविकता कुछ और ही हो। एक तरफ तो यही गिरोह यह भी कहता है कि ‘लव जिहाद’ की कानूनी परिभाषा ही नहीं है, और दूसरी तरफ ये यह भी कह रहे हैं कि योगी का दावा खारिज हो गया कि ‘लव जिहाद’ के मामलों में वृद्धि हुई है। जब परिभाषा है ही नहीं, और दो साल के मात्र 14 चर्चित, मीडिया द्वारा ज्यादा रिपोर्ट की घटनाओं की ही जाँच हुई है, तो फिर यह किस हिसाब से साबित हो गया कि ‘लव जिहाद’ के मामले घट रहे हैं, या बढ़ रहे हैं?
चूँकि भाजपा-शासित राज्य कानून बना रहे हैं, इसलिए इनकी सुलगी हुई है
मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों ने ‘लव जिहाद’ पर न सिर्फ चर्चा शुरु की है, बल्कि योगी आदित्यनाथ की कैबिनेट ने तो अध्यादेश भी पारित कर दिया है। जो नेता कल तक इस शब्द पर बात टाल देते थे, वो अब मुखर होकर मान रहे हैं और जन समर्थन जुटा रहे हैं कि हिन्दू बच्चियों को गलत मंशा वाले मजहबी लड़कों से बचाना उनका उद्देश्य है।
यह राजनीतिक बदलाव समाज के लिए नई धारा सदृश है जो कि देर से आई, पर आई तो है। इस मसले को देखने का दृष्टिकोण बदलना आवश्यक था क्योंकि अभी तक ऐसे मुद्दे लगातार उपेक्षित हो रहे थे, और इन्हें मौन सहमति मिली हुई थी। पिछले कुछ सालों से जब इस मुद्दे पर चर्चा होने लगी, तभी से वामपंथी गिरोह इसका उपहास वैसे ही करता था जैसे इस्लामी आतंक लिखने पर करता है।
2014 के आम चुनावों में इस मुद्दे को छुआ भर गया था और सोशल मीडिया के त्वरित प्रादुर्भाव ने ऐसे मामलों को आम जनता के सामने लाना शुरु किया। जब कानपुर में एक घटना रिपोर्ट होती तो पटना वाला कहता कि ऐसा तो उसकी गली में भी हुआ है, भोपाल वाला भी सहमति देता और लोकल मीडिया का लिंक भी। तब लोगों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान ने वृहद् जनचेतना पर दस्तक दी और लोगों में इसकी स्वीकार्यता बढ़ी।
यह वही दौर था (2014-18) जब गैरवामपंथी मीडिया या तो शैशवावस्था में थी, या उन्हें लोगों ने पढ़ना शुरु ही किया था, अतः ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग स्थानीय अखबारों के भीतरी पन्नों में तीन इंच के कॉलम में, बिना ऐसी शब्दावली के हुआ करती थी। इस दौर के बाद इस घटना को प्रमुखता से डिजिटली रिपोर्ट किया जाने लगा, हेडलाइन में मोहसिनों, शाहरुखों, सलमानों, अब्दुलों के नाम के साथ कुकृत्यों को लिखा जाने लगा।
इसके बाद बाकी लोगों को लगा कि रिपोर्टिंग ऐसे भी होती है। अगर हमने ऐसा नहीं किया होता और इन पापियों के नाम छापने न शुरु किए होते तो ये अपराधी, जो हिन्दू बच्चियों के साथ तमाम दुष्कर्म करते रहते हैं, राहुल (बदला हुआ नाम) और आरोपित का समुदाय स्पष्ट रूप से लिखने की जगह ‘समुदाय विशेष से ताल्लुक रखते हैं’ लिख कर टाइम पास करते रहते।
अब समय यह है कि आम जनता अपने-अपने जन-प्रतिनिधियों पर लगातार दवाब बनाए और इन कानूनों के बनने की सिर्फ चर्चा न हो बल्कि वो कानून बनें और ऐसे राक्षसों को कड़ी से कड़ी सजा के प्रावधान हों।
वामपंथी गिरोह जैसे कि जानते हैं कि आतंकवाद का मजहब है, और इस्लामी आतंक से पूरा विश्व परेशान है, फिर भी ‘कोई मजहब नहीं होता है की डुगडुगी बजाते रहते हैं, वैसे ही वो जानते हैं कि मजहब विशेष के लड़के संगठित तरीके से ‘लव जिहाद’ को ले कर सक्रिय हैं, इसलिए ही वो अचानक से इस कानून की आहट सुन कर ही तत्पर हो उठे हैं। वो यह जानते हैं कि भाजपा को जनसमर्थन भी है, और आम बोल-चाल के विषयों में ‘लव जिहाद’ जगह पा चुका है।
ग्रूमिंग जिहाद अपने पैर पसार रहा है
अगर बेगूसराय के किसी गाँव में पचास साल का कोई व्यक्ति इस बात को देख कर आश्चर्यचकित होता है कि बगल के गाँव के लड़के शाम में, कान में फोन चिपकाए, हिन्दू गाँव में क्यों टहलते हैं, तो उन्हें यह परिभाषा मदद करती है इस अपराध को समझने में। वो यह पूछते हैं कि साप्ताहिक हाट पर मजहब विशेष के लड़के सब्जी खरीदते नहीं, तो वो आते क्यों हैं? वो यह पूछते हैं कि दुर्गा पूजा के मेले में मूर्तिपूजकों को अपना जन्मजात दुश्मन समझने वाले लौंडे लुंगी में टहलते हुए क्यों आते हैं?
ऐसा नहीं है कि उन्हें यह वास्तविकता पता नहीं कि आज के दौर में उनके गाँव में वो लड़के क्या करने आते हैं। वो जानते हैं कि उन्हीं के गाँव की लड़कियाँ ही उन्हें उधर आमंत्रित करती हैं। वो इस बात को ले कर भी चिंतित होते हैं कि उनके माँ-बाप क्यों नहीं इन बातों का संज्ञान लेते हैं कि उनके घरों कि नाबालिग लड़कियाँ फोन पर किन्हें बुला रही हैं, और क्यों एक मजहब विशेष का लड़का उनके घर के आस-पास मँडराता है।
ये प्रेम नहीं है, ये ‘ग्रूमिंग जिहाद‘ है जिसके दायरे के भीतर ‘लव जिहाद’ आता है। आपकी नाबालिग या बालिग लड़कियों को ये लड़के ब्रेनवॉश करते हैं, और वो कुछ ही दिनों में सर ढकने से ले कर खजूर खाने पर आ जाती है। आपको पता भी नहीं होता और आपकी बेटी व्रत की जगह दिन में एक बार खा कर रोजे रखने लगती है। कहने के लिए ये संवैधानिक मूल अधिकार, वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत आता है, लेकिन इन अधिकारों का पटाक्षेप कई बार एक सूटकेस में बंद मुड़ी-तुड़ी लाश, या फिर नहर में बहते मानव मांस के टुकड़ों को रूप में भी होता है। इसकी परिणति अपने ससुर और देवर, पति के दोस्तों द्वारा बलात्कार किए जाने के रूप में भी होती है।
तब उसे याद नहीं आता कि उसने जो पिता के द्वारा दर्ज करवाई गई प्राथमिकी के विरोध में वीडियो बना कर कहा था कि ‘मैं सरताज के साथ अपनी इच्छा से रह रही हूँ और मेरे पिता ने हम पर झूठा केस किया है’ कितना बड़ा झूठ था। ‘ग्रूमिंग’ का मतलब है तैयार करना। इंग्लैंड में पिछले 50 सालों में हिन्दू, सिक्ख और वहीं की गोरी लड़कियों के बलात्कार के हजारों मामले सामने आए, लेकिन वहाँ की पुलिस स्वयं को नस्लभेदी कहलाने से बचने के चक्कर में इसे नकारती रही।
ये सारे मामले इसी तरह की ब्रेनवॉशिंग और खास कर नाबालिग बच्चियों के पाकिस्तानी मूल के समुदाय विशेष वालों द्वारा रेप या शारीरिक शोषण से जुड़े थे। इन सब में एक पैटर्न है और उसे स्वीकारना ही समय की माँग है वरना यह एक महामारी बन कर समाज के ताने-बाने को तोड़ देगा।
‘लव जिहाद’ पर सख्त कानून समय की माँग
अगर इस अपराध को वामपंथियों के चश्में से देखता रहा जाए, तो हम कभी भी इसे समझ भी नहीं पाएँगे। रवीश कुमार जैसों का कहना है कि जब धोखाधड़ी का कानून है ही तो नए कानून की क्या जरूरत है। कानून तो बलात्कार के लिए भी है, फिर निर्भया एक्ट की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या पॉकेटमारी और हजारों करोड़ के घोटाले को एक ही कानून से निपटाया जाना चाहिए?
जब एक अपराध में, कई अपराधों की छाप दिखने लगे, तो उसे वर्गीकृत करना अत्यावश्यक हो जाता है। अपराध विज्ञान को जानने वाले यह बात कहते हैं कि अपराधी की मंशा अपराध को सही आयाम देती है। जब कोई फतेह खान अपना नाम आर्यन मल्होत्रा बता कर एक चौदह साल की लड़की को भगाता है, रेप करता है, तो उसकी मंशा प्रेम की तो बिलकुल नहीं होती। इसलिए उसे नई कैटेगरी में डालना ही उचित है।
वामपंथी चाहे लाख बिलबिलाएँ, हमें पॉलिटिकली करेक्ट होना बंद करना पड़ेगा। जैसे इस्लामी आतंक को ‘रेडिकल इस्लामी आतंक’ कहने की जगह फ्रांस और जर्मनी की सरकारों ने सीधा इस्लामी आतंक कहना शुरु किया है, वैसे ही जहाँ मंशा काफिर लड़कियों को रेप, जबरन धर्म-परिवर्तन, धोखे से नाम बदल कर प्रेमजाल में फँसाने की हो, वहाँ हम ‘लव’ नहीं जता सकते।
बात साफ है कि नए अपराधों की नई परिभाषा न सिर्फ तय होनी चाहिए बल्कि उसे हर सामान्य नागरिक की बोल-चाल में शामिल कराने की मुहिम चलनी चाहिए। बेगूसराय के किसी गाँव के पचास साल के व्यक्ति के पास एक शब्द होना चाहिए इस संगठित अपराध को समझने की। बात यह है कि हर मामले में मजहब विशेष का लड़का ही क्यों होता है? ईसाई या सिक्ख लड़के आखिर किसी हिन्दू लड़की को अपना नाम हिन्दू वाला बता कर प्रेम करते क्यों नहीं पाए जाते?
जब हर बार एक खास मजहब वाला ही नाम बदल रहा है, हर ऐसी घटना में हिन्दू लड़की, पत्नी या कथित प्रेमिका को अपने बाप, भाई या दोस्तों के साथ सोने को मजबूर करने या सामूहिक बलात्कार के मामले में मजहबी नाम ही सामने आता है, तो फिर इसके लिए नई परिभाषा तो चाहिए ही। अगर यह परिभाषा सरकार तय करे तो बेहतर है, वरना मीडिया को और इस समाज को, जो कि सोशल मीडिया के दौर में स्वयं ही वैकल्पिक मीडिया बन कर उभरा है, यह बीड़ा उठाना होगा क्योंकि अब हमारे पास इसकी जड़ों में सघन अम्लवृष्टि के अलावा और कोई विकल्प बचा नहीं है।