शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, स्वतंत्रता… कोई भी पैमाना उठा लीजिए और उस पर मुस्लिमों औरतों की स्थिति तौलिए। हालात बेहद निराशाजनक मिलेंगे। बावजूद इनकी स्थिति में सुधार के लिए कोई आवाज, कोई आंदोलन आपको नहीं दिखेगा। इस्लामी कानून, रवायत और कठमुल्ले किसी के लिए उनकी आवाज का मोल नहीं। उलटे मुल्लों की तकरीरों में उन्हें इस तरह पेश किया जाता है जैसे ‘भोग की वस्तु’ से अधिक औरतों का मोल न हो।
शाहबानो केस जैसे प्रकरणों से जब अदालतों ने उनकी मुक्ति का रास्ता दिखाने के प्रयास किए तो उनका भी गला ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ की राजनीति के कारण घोंट दिया गया। केंद्र की मोदी सरकार ने भले कानून बनाकर तीन तलाक को अवैध बना दिया हो पर हकीकत यही है कि आज भी मुस्लिम महिलाओं से ‘तलाक तलाक तलाक’ कहा जा रहा। ऐसे कुछेक मामलों का पता हमें तब चल पाता है कि जब कोई मुस्लिम महिला हिम्मत कर इसके खिलाफ शिकायत करने पुलिस तक पहुँच जाती है। शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाने या समान नागरिक संहिता (UCC) जैसे वे प्रयास जिनसे उनकी स्थिति में सुधार आ सकता है कि सुगबुगाहट सुनते ही कट्टरपंथी इस्लामी रवायतों का हवाला देते हुए अपनी खोल से निकल आते हैं।
कई इस्लामी रवायतें तो ऐसी हैं जिनकी आम लोगों को जानकारी तक नहीं है और उसके कारण मुस्लिम महिलाओं का दम घुट रहा है। ऐसी ही एक रवायत निकाह के लिए लड़की वालों के घर ‘पैगाम’ भेजने की है। यदि पैगाम न आए तो लड़की की निकाह की उम्र बीत जाती है, क्योंकि जिस लड़की के परिजनों ने खुद से रिश्ता खोजने की कोशिश की मुस्लिम समाज के लिए वह लड़की ‘चालू’ हो जाती है।
पैगाम वाली रवायत की मारी कुछ युवतियों से बातचीत पर आधारित एक रिपोर्ट दैनिक भास्कर ने प्रकाशित की है। ऐसी युवतियों से दैनिक भास्कर के रिपोर्टर पूनम कौशल की मुलाकात बिहार के किशनगंज इलाके में हुई। इन्हीं लड़कियों में से एक 26 साल की दिलनूर है। निकाह की प्रतीक्षा करती उसकी बहन आरजन बेगम 40 साल की हो गई है। दिलनूर के 5 भाई हैं। लेकिन इनमें से कोई भी अपनी बहन के लिए रिश्ता नहीं खोजता, क्योंकि रवायत के अनुसार दिलनूर और आरजन को उनका समाज ‘चालू लड़की’ मान लेगा।
शेरशाहबादी समाज से आने वाली दोनों बहनें इस इंतजार में बैठी हैं कि कब कोई आकर उनके भाई के सामने उनसे रिश्ते की इच्छा जताएगा। पर बढ़ती उम्र के साथ उनकी यह उम्मीद दम तोड़ती जा रही है। अब तो भाभी भी ताने देते हुए कहती है- कोई मर्द तुझ जैसी काली कलूटी से क्यों शादी करेगा, तेरे साथ तो कोई बकरा भी नहीं रहेगा।
इस रवायत की शिकार केवल दो बहनें ही नहीं हैं। न ही यह रवायत मुस्लिमों के शेरशाहबादी समाज तक सिमटी है। सुरजापुरी मुस्लिमों की लड़कियाँ भी इस रवायत के कारण निकाह की प्रतीक्षा में बूढ़ी होती जा रही हैं। दैनिक भास्कर की रिपोर्टर ने कई युवतियों से बात की है। सबका दर्द एक जैसा ही है। एक स्थानीय व्यक्ति के अनुसार इस इलाके में यदि कोई लड़की 25 साल की उम्र पार कर ले तो यह मान लिया जाता है कि उसकी निकाह की उम्र बीत गई है। ज्यादातर ऐसी लड़कियाँ गरीब परिवार की होती हैं। इसके कारण रिश्ता करवाने में अगुवा बनने वाले मुल्ले भी इनसे कन्नी काटते हैं।
बांग्लादेश की सीमा से सटा किशनगंज वह इलाका है, जिसकी डेमोग्राफी घुसपैठियों ने पूरी तरह बदल रखी है। जो पूरी तरह से इस्लामी कट्टरपंथ की जकड़ में है। लेकिन इस्लामी रोशनी में भी इन लड़कियों की मुक्ति का मार्ग तलाशने की कोई कोशिश नहीं हो रही। उन्हें उसी रवायत से दबाया जा रहा जिसे कभी औरतों के दमन के लिए कुछ कठमुल्लों ने थोप दिया होगा।
एक तरफ रवायत के कारण निकाह की प्रतीक्षा करती मुस्लिम लड़कियाँ, दूसरी ओर वह इस्लामी परिभाषा जो पीरियड आते ही मुस्लिम लड़कियों के निकाह को जायज मान लेता है। जिसका हवाला देकर छोटी उम्र की बच्चियों को भी किसी खूँटे से बाँध दिया जाता है, जबकि भारत का कानून 18 साल से कम उम्र की लड़कियों को अवैध मानता है। इसी समाज का एक स्याह पक्ष वह भी है जिसके अनुसार लिंग प्रवेश छोड़कर दूध पीती बच्ची से भी हर कामुक हरकत जायज है।
सवाल केवल कानूनों के होने या न होने का नहीं है। सवाल यह है कि बाबा आदम जमाने की रवायतों से मुस्लिम महिलाओं को मुक्ति दिलाने की पहल कौन करेगा, क्योंकि स्वयंभू नारीवादियों को तो आज भी बुर्के में ही मजहब मजबूत होता दिखता है। इन नारीवादियों का छद्म ही दिलनूर जैसों का जख्म नासूर बना देता है और कठमुल्ले हर मरहम को इस्लाम पर हमला बता देते हैं।