Saturday, July 27, 2024
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असली गिद्ध कौन है? आपकी संवेदना बस एक नकली ब्यूटी फ़िल्टर है, और कुछ नहीं

आसान है यह लिख देना कि बच्चे मर रहे हैं और मोदी जी को योग सूझ रहा है। इससे आप संवेदनशील होते भी दिख जाते हैं, और आपकी राजनैतिक प्वाइंट स्कोरिंग भी हो जाती है। फिर तो मोदी अपना मुँह छुपाता फिरता है। और आपसे वो आँखें तो बिलकुल नहीं मिला पाएगा, लेकिन क्या आप अपनी गिद्धों वाली इन करतूतों के बाद, खुद से आँखें मिला पाते हैं?

‘मैं बंद कमरे में बैठ कर चिल्लाना चाहता हूँ, रोना चाहता हूँ’, ‘मैं इतनी पेरशान हूँ कि रातों को रोते-रोते सोई’, ‘इस घटना ने मुझे इतना विचलित कर दिया है कि मैं किसी से गले लग कर बस रोना चाहता हूँ’ आदि से लेकर ‘मोदी के पास एक ट्वीट करने का समय नहीं है?’, ‘चाँद पर आदमी भेजने वाले देश को अपने चाँद के टुकड़ों की चिंता नहीं’, ‘बच्चे मर रहे हैं और मोदी को योग सूझ रहा है’ आदि तक आप संवेदनशील होने से ज़्यादा संवेदनशील होता दिखना चाहते हैं।

अभिव्यक्ति के माध्यमों की बाढ़ आने से हर व्यक्ति, हर विषय पर राय देना चाहता है। कई बार ऐसा होता है कि जिस विषय को हम जानते भी नहीं, वहाँ भी हमारी राय होती है। जब एक खाली डिजिटल डिब्बा आपसे यह पूछता रहे कि ‘आपके दिमाग में क्या चल रहा है’ तो इसका कम्पल्शन, जो कि दिन में औसतन दो सौ बार फोन उठाने से आता है, कुछ न कुछ लिखने या ग्रहण करने के रूप में फलित होता है।

चूँकि, आप एक विषय पर कुछ पढ़ते हैं, और वो इतना सरल होता है, तो आपको लगता है कि आपको भी उस पर कुछ लिखना चाहिए। फिर आप लिख देते हैं कि ‘मुज़फ़्फ़रपुर में बच्चे मर रहे हैं और मोदी को योग के आसन सूझ रहे हैं’। आपको न तो संदर्भ पता है, न ही आपको मुज़फ़्फ़रपुर के बच्चों से कोई खास मतलब है, या आप इस बात से अनभिज्ञ हैं कि प्रधानमंत्री करता क्या है।

जब आप ऐसे मुद्दों पर इस तरह की बचकानी बातें करते हुए सीधा प्रधानमंत्री तक पहुँच जाते हैं तो आपके मन में संवेदना नहीं, उस व्यक्ति के खिलाफ लिखने की लालसा होती है क्योंकि वो करना सबसे आसान है। जो लोग लिख रहे हैं कि उनका जी रोने का कर रहा है, छाती पर हाथ मार कर चिल्लाने का कर रहा है, रात में रोते-रोते सोने का कर रहा है, बेशक कर रहा होगा, लेकिन आप ये फेसबुक पर क्यों बता रहे हैं? ताकि यह पता चले कि ये आदमी बिहार के एक जिले की त्रासदी पर फेसबुक के माध्यम से संवेदनशील हो रहा है? अगर आपका उद्देश्य लोगों को यह बताना नहीं है, और आप बिलकुल वैसा ही महसूस कर रहे हैं जैसा उस बच्चे की माँ या पिता, तो फिर आप फेसबुक पर टाइप कैसे कर रहे हैं?

आप वो इसलिए कर रहे हैं ताकि लोगों को लगे कि आप भी संवेदनशील हैं। आपको भी बहुत कष्ट पहुँचा है। जबकि कष्ट पहुँचने का सीधा-सा समीकरण है: सामयिकता और दूरी। वह घटना किस समय हुई और आपसे कितनी दूर है, इस हिसाब से मानव संवेदनशील होता है। तुरंत हुई, किसी ने फोटो लगाए, किसी ने उसकी भयावहता पर लिखा और हम तक पहुँचा तो हमें ‘शॉक’ लगता है। हम अचंभित होते हैं कि यह क्या हो गया। चूँकि ये तुरंत होता है तो यह एक सहज मानवीय प्रक्रिया होती है।

लेकिन आप इसे पढ़ने के बाद क्या करते हैं? आप सब्जी काटती हैं, नॉवेल पढ़ती है, पावर प्वाइंट प्रेजेन्टेशन बनाते हैं, लेख लिखते हैं, फ़ाइलों पर दस्तखत करते हैं, कुदाल चलाते हैं, बरामदा धोते हैं, कूलर में पानी भरते हैं, खाना खाते हैं… यानी, आप हर वो चीज करते हैं जो आप कल भी कर रहे थे। आपकी प्रतिक्रिया सहज थी, स्वाभाविक थी क्योंकि आप उस ख़बर से विचलित होते हैं।

लेकिन, अगर यह घटना आपके घर में होती तो सब काम रुक जाता, पड़ोस में होती तो थोड़े समय के लिए सब काम रुक जाता। गाँव या मुहल्ले में होती तो आप वहाँ जा कर देख आते और फिर इस पर घर में बात कर के अपने काम पर चले जाते। जिले में होती तो आप पढ़ लेते इसके बारे में और इस पर चकित होने के साथ-साथ कपड़ों में आयरन करते हुए ब्रेड का स्लाइस खा रहे होते कि ‘देश में हो क्या रहा है’। आपके राज्य में होती तो आप फेसबुक आदि जैसे माध्यमों पर लिख कर खानापूर्ति करते हुए आगे चले जाते। देश में होती तो सारे काम करते हुए समय मिलने पर चर्चा करते। देश से बाहर होती तो अपनी विचारधारा के हिसाब से उस पर लिखते।

खुद से पूछिए कि क्या आप इस दायरे से बाहर हैं? क्या हर घटना पर, जो कि भारत जैसे विशाल देश में हर सप्ताह नए रूप में आती है, आप यही पैटर्न नहीं दिखाते? क्या हमारी या आपकी संवेदनाओं के अभिव्यक्त हो जाने के बाद, हम अपने कार्य में मशगूल नहीं हो जाते? क्या यही फेसबुक स्टेटस लगाने के बाद अपनी प्रेमिका से शाम को मिलने का वादा नहीं करते? क्या दूसरे मज़ाक़िया स्टेटस पर ‘हा-हा’ वाला रिएक्शन नहीं देते? क्या हम दूसरे विषय पर नहीं लिखते, किसी के द्वारा शेयर किए गए मीम पर स्टिकर नहीं चिपकाते?

हो सकता है कि हम में से कोई एक व्यक्ति ऐसा हो जो ऐसा न करता हो। हो सकता है वो आप हों। हो सकता है कि आप बिलकुल ही असहज हो गए हों इस घटना से क्योंकि आप एक माँ हैं, एक पिता हैं, भाई या बहन हैं, जिसके घर में ऐसे ही छोटे बच्चे हैं। हो सकता है कि हम में से एक को ऐसी घटनाओं के बारे में जानने पर तेज धड़कनों के साथ ऐसा महसूस हुआ हो कि ये मेरी भी बिटिया हो सकती थी। हो सकता है कि हममें से किसी एक ने आँसू बहाए हों। हो सकता है कि आप संवेदनशील हों और आप का दिल बैठ गया हो इस त्रासदी से। इससे इनकार नहीं है।

मैं यह नहीं मानता कि हमारी संवेदनाएँ मर चुकी हैं। लेकिन मैं यह ज़रूर मानता हूँ कि आज के दौर में उस एक को छोड़ कर निन्यानवे व्यक्ति अपने विचारों को लिखने से पहले यह देखता है कि उसकी विचारधारा के अनुरूप है वह बात या नहीं। इसलिए, जब आप बताते हैं कि आप को नींद नहीं आ रही और आप रोते-रोते सो रहे हैं, तो आप लोगों को ठग रहे हैं। आप बस यह बताना चाह रहे हैं कि इस त्रासदी पर भी आप संवेदनशील हुए जैसे आपने ‘जे सुई शार्ली’ करते हुए नीस आतंकी हमलों के बाद फ़्रांस के झंडे का फ़िल्टर प्रोफाइल पिक्चर पर लगाया था।

मोदी योग कैसे कर रहा है?

आप भोजन कैसे ग्रहण कर रहे हैं? आप पानी कैसे पी रहे हैं? आप ऑफिस कैसे जा रहे हैं? आपने तो जिस हिसाब की बातें लिखी हैं, उससे तो प्रतीत होता है कि आपने सब कुछ छोड़ रखा है, और आप हर सप्ताह नई घटना पर ऐसे ही सब कुछ छोड़ देते हैं, फिर तो वैज्ञानिक रूप से आपका लिखने लायक स्थिति में होना असंभव दिखता है!

सरकार की ज़िम्मेदारी तो आत्महत्या करते हुए व्यक्ति के जान बचाने की भी है। सरकार की ज़िम्मेदारी तो घोड़े ती टाँग टूटने को लेकर भी है, सड़क दुर्घटना में मरने वाले उस व्यक्ति की भी है जिसने हेलमेट नहीं पहना या कोहरे के बीच एक्सप्रेसवे पर सौ की स्पीड से गाड़ी चला रहा था। सरकार की ज़िम्मेदारी हर अप्राकृतिक मौत की है क्योंकि वो मौत अप्राकृतिक है और वो जान बचाई जा सकती थी।

ध्यान रहे वो ज़िम्मेदारी सरकार की है, जिसका मुखिया प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री होता है। उसके नीचे मंत्री होते हैं, डिपार्टमेंट होते हैं, अधिकारी होते हैं, पूरा तंत्र होता है जिससे सब कुछ एक तय तरीके से चलता है। इसलिए, कभी भी किसी त्रासदी के बाद कोई देश या राज्य रुकता नहीं। कई बार कुछ सरकारें इन मामलों में उदासीन रवैया अपनाती हैं, उनके मंत्री बेहूदा बयान देते हैं, और बहुत देर से प्रतिक्रिया होती है। ये दुःखद है, लेकिन यही वास्तविकता है हमारे राजनैतिक तंत्र की।

जो लोग ‘मोदी के पास समय नहीं है एक ट्वीट का’, ‘मोदी शिखर धवन को ट्वीट कर रहा है’, ‘मोदी योग करने में व्यस्त है’ आदि कह रहे हैं, वो अपनी जगह से सही भी हैं, और गलत भी। ये बात सच है कि मोदी ने ट्वीट नहीं किया, और अगर वो शिखर धवन की उँगली के लिए ट्वीट कर या करा सकता है तो एक लाइन इस त्रासदी पर भी लिख या लिखवा सकता है।

लेकिन, उसके ऐसा न करने से यह साबित नहीं होता कि उसे इस त्रासदी की फ़िक्र नहीं है, या उसने स्थिति का जायज़ा नहीं लिया। चूँकि स्वास्थ्य व्यवस्था राज्य सरकार के ज़िम्मे है, और वहाँ की निकम्मी सरकार अब हरकत में आ गई है, और यहाँ से केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री भी वहाँ पहले ही जा चुके हैं तो फिर मोदी के जाने, या न जाने, से क्या फ़र्क़ पड़ेगा मुझे नहीं पता। हमारे पास यह साबित करने का कोई तरीक़ा नहीं है कि मोदी ने कहा हो कि ‘जो हो रहा है होने दो, हमें क्या। हमें तो कल योग के आसन करने हैं।’

लेकिन हम में से कुछ लोग हैं जिन्हें लगता है कि मोदी को मानवीयता के कारण एक बयान तो देना ही चाहिए क्योंकि इतनी बड़ी घटना हो गई। दुर्भाग्य यह है कि अगर मोदी ने एक ट्वीट किया होता तो यही फेसबुक पोस्ट करने वाले कुछ इस तरह से प्रतिक्रिया देते:

  • ट्वीट करने से क्या होता है?
  • बस ट्वीट कर लिया मोदी जी ने और सारे बच्चे ज़िंदा हो गए
  • अरे देखो, मोदी की नींद टूटी
  • ट्वीट में बस ये लिखा कि वो स्थिति की जानकारी ले रहे हैं, अपनी सरकार को फटकार भी नहीं लगाई
  • फटकार लगाने से क्या होगा, ये तो बस दिखावा है
  • उस मंत्री को बर्खास्त क्यों नहीं किया अब तक
  • हॉस्पिटल क्यों नहीं बनवाया एक भी, डॉक्टरों को नौकरी से क्यों नहीं निकाला

इन प्रतिक्रियाओं का कोई अंत नहीं है। अंत इसलिए नहीं है कि हमें मोदी के ट्वीट या बयान से मतलब है ही नहीं, हमें मतलब है ये चिल्लाने से कि मोदी ने क्या नहीं कहा। और मोदी तब तक आपकी बातों पर खरा नहीं उतरेगा जब तक वो आपसे फोन पर पूछ न ले कि फ़लाँ विषय पर वो ट्वीट करने जा रहा है, क्या-क्या लिखना सही रहेगा। क्या वो एक ट्वीट करे या पूरा थ्रेड लिखे? हर व्यक्ति फेसबुक पर उस ट्वीट या बयान का अलग मतलब निकाल कर, उसमें क्या रह गया, यह बताने पर आ जाएगा। ये पहले हो चुका है, और आगे भी हम इसी तरह करते रहेंगे।

तो क्या हम प्रतिक्रिया देना बंद कर दें?

फिर बात आती है कि आम आदमी क्या करे? आम आदमी हमेशा यह ख़्याल रखे कि तंत्र कैसे चलता है और वो जो माँग रहा है, वो पूरा हो सकता है या नहीं। जब हमारे पास यह जानने का ज़रिया नहीं है कि प्रधानमंत्री ने इस पर संज्ञान लेकर अपने स्वास्थ्य मंत्री को बिहार भेजा या नहीं, तो हमें यह कहने का हक़ नहीं है कि उसकी मानवता मर गई है, अपना बच्चा मरता तो शायद पता होता आदि।

एक पूरा समूह ऐसा है जो गिद्ध की तरह ऐसे मौक़ों पर पूरी सरकार को नाकाम बताने में लगा रहता है। ये पूरा गिरोह हर ऐसी त्रासदी पर सीधा इस्तीफा माँगने से लेकर, सरकारों के हर अच्छे काम को भी नकार देता है, पर वह यह नहीं बता पाता कि चलो भाजपा सरकार इस्तीफा दे देगी लेकिन ऐसी कौन-सी सरकार है जिसमें ऐसी त्रासदी न हुई हो, और उसने बाकी काम करना बंद कर पूरे मंत्रीमंडल के साथ घटनास्थल पर टेंट लगा कर डेरा डाल दिया हो कि इसको सही करो तभी जाएँगे।

अगर आप इतनी संवेदना उड़ेलने के बाद भी ऑफिस जाते हैं क्योंकि आपकी मजबूरी है, तो मोदी के भी ऑफिस की भी तो मजबूरी है जिसके सर पर पूरे देश की ज़िम्मेदारी है! एक ही व्यक्ति तो पूरे तंत्र का हर हिस्सा नहीं देख रहा, वरना मंत्रियों की, राज्य सरकारों की, उनके मंत्रियों की, विभागों की, कर्मचारियों की, अफ़सरों की क्या ज़रूरत है?

मोदी की जवाबदेही कॉन्ग्रेस शासित सरकारों के राज्य में हो रही किसानों की आत्महत्या की भी उतनी ही है जितनी भाजपा शासित राज्यों में हो रही इन बच्चों की मौतों की। त्रासदी आने पर देश न तो रुकता है, न रुकना चाहिए। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता कि उसके भीतर की संवेदना मर चुकी है या उसे पता ही नहीं है कि वहाँ सौ से ज़्यादा बच्चे मर गए। चूँकि मोदी ने हमें फेसबुक लाइव के ज़रिए नहीं बताया कि वो इस स्थिति पर नजर जमाए हुए है, और रिपोर्ट ले रहा है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वो काम हो ही नहीं रहा। हम मोदी के कितने ट्वीट पढ़ते हैं, और कितनी देर की बातें जानते हैं? क्या उन चंद मिनटों के अलावा मोदी सोता रहता है?

फिर आप क्या कर रहे हैं? हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था बेकार है। लेकिन पिछले पाँच सालों में जागरुकता और बचाव के तरीके अपना कर क्या हमने बाल मृत्यु दर नहीं घटाई? क्या स्वच्छता अभियान के कारण बीमारियों में कमी नहीं आई? क्या हरियाणा जैसे राज्य में लैंगिक अनुपात बढ़ा नहीं? क्या ज़्यादा बच्चे स्कूल नहीं जा रहे? क्या कुपोषण आदि से बचने के लिए हर स्तर पर आँगनबाड़ी से लेकर सस्ते दामों पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए सरकारों ने प्रयास नहीं किए?

लेकिन, फिर भी चूक होती है। मुज़फ़्फ़रपुर में बच्चों की मौत दो वजहों से हुई हैं। पहला यह कि सरकार ने जागरुकता अभियान नहीं चलाया ताकि लोगों को पता चले कि सीज़न की शुरुआत में सफ़ाई रखनी है, पानी कहाँ से पीना है, क्या खाना है, कहाँ सोना है आदि। दूसरा यह कि बीमारी के लक्षण दिखते ही उन्हें हॉस्पिटल ले जाना। साथ ही, प्राइमरी हेल्थ सेंटर नाम की चीज़ें बस काग़ज़ों में ही हैं। डॉक्टरों की कमी है, मेडिकल शिक्षा महँगी है, सरकारी जगहों पर सीट बहुत कम है, जनसंख्या बहुत ज़्यादा है। ये सारी ज़िम्मेदारी सरकार की ही है।

इसके लिए बजट में प्रावधान होते हैं। लेकिन बजट तो सीमित है। इसी बजट से पाकिस्तान और चीन को देखने के लिए भी पैसे चाहिए, प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के शोध के लिए भी पैसे चाहिए, वेलफ़ेयर स्कीम के लिए भी पैसे चाहिए, इन्फ़्रास्ट्रक्चर के लिए भी पैसे चाहिए, रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए लोन के लिए भी पैसे चाहिए… कुल मिला कर बात यह है कि स्वास्थ्य और शिक्षा किसी भी सरकार के लिए युद्धस्तर की प्राथमिकता नहीं रही है। बाकी की क्षति सिस्टम में व्याप्त भ्रष्टाचार कर देती है क्योंकि जिस कुपोषण ने इन बच्चों की जानें ली हैं, उसके लिए कई योजनाएँ हैं लेकिन वो इन तक पहुँच नहीं रही।

इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? प्रधानमंत्री मोदी के साथ-साथ सारे जनप्रतिनिधि। आप इन बातों को तार्किकता के साथ रखिए और कोसिए कि कहाँ का बजट स्वास्थ्य में डाला जाए, कैसे भ्रष्टाचार को रोका जाए, कैसे मेडिकल शिक्षा में बेहतरी की जाए। ये बातें सबकी समझ में आती हैं लेकिन इन पर लिखना मुश्किल है। इसके लिए आपको पता करना होगा कि बजट कितना था, पहले से ज्यादा था कि कम, हॉस्पिटल कितने हैं, कितना पैसा किस योजना में गया, स्वास्थ्य का मुद्दा किस सरकार के अंतर्गत आता है, उसमें कौन सा विभाग ऐसी हत्या के लिए ज़िम्मेदार है।

ये करना बहुत कठिन है। आसान है यह लिख देना कि बच्चे मर रहे हैं और मोदी जी को योग सूझ रहा है। इससे आप संवेदनशील होते भी दिख जाते हैं, और आपकी पोलिटिकल प्वाइंट स्कोरिंग में भी गोल्ड क्वाइन वाली चमक आ जाती है। इससे तुरंत आप मोदी को धोबीपछाड़ दे देते हैं और फेसबुक पर मोदी अपना मुँह छुपाता फिरता है। और आपसे वो आँखें तो बिलकुल नहीं मिला पाएगा, लेकिन क्या आप अपनी गिद्धों वाली इन करतूतों के बाद, खुद से आँखें मिला पाते हैं?

अंततः, वाक्य के आधे हिस्से में संवेदना दिखाते हुए, दूसरे हिस्से में जो आप सिनिकल हो जाते हैं उससे पता चलता है कि आपको बच्चों की मौत से कोई मतलब नहीं। आपको मुद्दा चाहिए ताकि आप आउटरेज करते रहें। आप चौबीस घंटे इसी मोड में रहते हैं, जैसे कि सत्ता के पक्ष में लिखने वाला चौबीस घंटे उसके बचाव में लगा रहता है। दोनों को ही बच्चों की मौत से कोई वास्ता नहीं, क्योंकि दोनों का लक्ष्य एक व्यक्ति है। इसलिए, इन संवेदनशील होते दिखने वाले लोगों को मैं गिद्ध कहता हूँ जो बच्चों की मौतों को अपनी पोलिटिकल लीनिंग्स के हिसाब से भुनाना चाहते हैं।

फेसबुक पर मौजूद लोगों में से एक बहुत बड़ा हिस्सा कभी भी मुद्दे पर विवेचना करना नहीं चाहता क्योंकि उसकी इच्छा चर्चा करने की नहीं है। वो चाहता है कि उसे एक नाम पकड़ा दे कोई और फिर वो जी भर कर उसे कोस दे। ताकि उसकी टाइम लाइन पर आने वाले लोगों को लगे कि ये आदमी सही है, ये सत्ता के विरोध में है, इसकी लेखनी में आग है, ये सीधा सत्ताधीश से सवाल पूछ लेता है, असली काम तो यही कर रहा है, आखिर मोदी योग कैसे कर रहा है! सारा प्रयास खुद को कुछ ऐसा करते दिखाने में है जो आप वास्तव में कर नहीं रहे। चूँकि आपका पूरा जीवन इसी दिखावे की वृत्ति में गुज़रा है तो आपको दरकार होती है प्रधानमंत्री से भी एक दिखावे की कि वो ट्वीट क्यों नहीं कर रहा!

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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