राजनीति आपको सांख्यिकी शास्त्र का ज्ञाता बना देती है, कभी आप विचारक हो जाते हैं, कभी दार्शनिक और कभी-कभी तो खुल्लमखुल्ला आतंकवादी कि पंद्रह मिनट के लिए पुलिस हटा लो, देखता हूँ कितने हिन्दू बचते हैं। 1 नवंबर 2019 को इंडियन एक्सप्रेस ने एक रिपोर्ट छापी और बताया कि भारत में कथित अल्पसंख्यकों की हालत तो SC (यानी अनुसूचित जाति, या कथित निचली जातियाँ), ‘हिन्दू’ OBC (अन्य पिछड़ी जातियाँ) और ‘हिन्दू’ अपर कास्ट (यानी कथित ऊँची जातियाँ) से बदतर है।
इसके लिए रिसर्च की ज़रूरत क्यों पड़ी, यह मेरी समझ में नहीं आया, लेकिन नौ साल पुराना आँकड़ा है, साम्प्रदायिकता चल रही है, कमलेश तिवारी को मार दिया गया है, हिन्दू मुखर हो कर लिख-बोल रहे हैं कि कथित अल्पसंख्यकों में इस हत्याकांड को ले कर मौन स्वीकृति है, तो ये नैरेटिव सही रहेगा कि दूसरे मजहब वाले कथित अल्पसंख्यक तो अशिक्षित और पिछड़े हैं, इसलिए आप देख लीजिए…
कई बार जो लिखा जाता है, वो बस उतना ही नहीं होता। उसमें और कुछ नहीं लिखा होता लेकिन उसे इस्तेमाल करने वाले अपने हिसाब से कर लेते हैं। समुदाय विशेष का शिक्षित न होना, पिछड़ा होना, अचानक ही उनके द्वारा आतंकी गतिविधियों में संलिप्त होने, कमलेश तिवारी जैसे हत्याकांड को अंजाम देने, एवम् अपराधियों को पनाह देने की प्रवृत्ति को धो कर, बात को भुलाने की कोशिश भर है।
दंगाई अकबरुद्दीन ओवैसी के बौद्धिक दंगाई भाई असदुद्दीन ओवैसी ने इस खबर को ट्वीट करते हुए लिखा है, “ये ‘हमारे’ सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन का पहाड़ जैसा बड़ा सबूत है लेकिन मुसलमानों को ऊपर लाने के लिए किसी भी नीति को तुष्टीकरण कह कर खारिज कर दिया जाता है। यह हमारे लिए न्याय का मुद्दा है और भारत की जमीनी हकीकत यह है कि बिना राजनैतिक शक्ति के कोई भी न्याय संभव नहीं।”
अंग्रेजी में ट्वीट लिखने से प्रभाव तो बड़ा भारी पड़ता है लेकिन उससे जमीनी हकीकत बदल नहीं जाती। ओवैसी की जमीनी हकीकत यह है कि वो समुदाय विशेष की राजनीति से कभी ऊपर उठ ही नहीं सके। उसमें भी समस्या यह है कि अपने मजहब के पिछड़ेपन की वजह भी वो अपने समुदाय में खोजने की जगह कहीं और ढूँढ रहे हैं। इस लेख में ओवैसी के विचारों और एक्सप्रेस की खबर, दोनों पर, दो भागों में चर्चा होगी।
There’s a mountain of proof indicating our social & educational backwardness. But sny policy made to uplift Muslims is dismissed as appeasement
— Asaduddin Owaisi (@asadowaisi) November 1, 2019
It’s an issue of justice for us & the crude reality of India is that without political power there’s no justice https://t.co/t31m6BdER0
समुदाय विशेष की तुलना हिन्दुओं से करो, हिन्दुओं की जातियों से नहीं
नोबेल विजेता अर्थशास्त्री रोनल्ड कोएज़ ने लिखा था कि आँकड़ों को अगर आप उचित समय तक टॉर्चर करते रहेंगे तो वो कुछ भी स्वीकार कर लेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि आप आँकड़ों से खेल सकते हैं और मनमाफिक परिणाम उससे कबूल करवा सकते हैं। जैसे कि, आपने मन बना लिया है कि राहुल द्रविड़ सचिन से बेहतर बल्लेबाज़ हैं, तो आप उपलब्ध आँकड़ों में से सिर्फ वही चुनेंगे जहाँ द्रविड़ बेहतर हों। उसके बाद आप उन्हीं मानदंडों के बारे में लिख देंगे कि पिच पर ज्यादा गेंदें रोकना ही बेहतर बल्लेबाज की पहचान है।
इंडियन एक्सप्रेस के इस लेख में यही हुआ है। बड़ी ही सूक्ष्मता से यह दर्शाया गया है कि मुस्लिम एक पूर्ण और एक ही तरह का समुदाय है, जबकि हिन्दुओं को आप तीन तरह से बाँट सकते हैं। उसमें भी एक और चालाकी यह है कि लिखने वाले ने हिन्दू OBC का प्रयोग किया है, हिन्दू सवर्ण का प्रयोग किया है लेकिन SC के पहले ‘हिन्दू’ शब्द नहीं लिखा गया है। जबकि मुस्लिमों में भी दलित हैं, OBC हैं और लोगों की अनभिज्ञता के परे, ऊँची जातियाँ हैं।
इसके बाद एक्सप्रेस ने बताया कि कहाँ-कहाँ मुस्लिम समुदाय पिछड़ा है और किस जाति के कितने लोग स्कूल जा रहे हैं, स्नातक हैं, आगे की पढ़ाई कर रहे हैं। सब में मजहब विशेष नीचे चल रहा है। यहाँ समस्या यह है कि जब मजहब विशेष में भी जातियाँ हैं, उनमें भी ‘पॉजिटिव डिस्क्रिमिनेशन’ के आधार पर दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग हैं, तो फिर सारे समुदाय विशेष की तुलना हिन्दुओं के अलग-अलग हिस्सों से क्यों?
यह भी दिखाते कि कैसे समुदाय विशेष में जो बेहतर आर्थिक और सामाजिक स्थिति में हैं, उनके बच्चों में शिक्षा का स्तर क्या है। फिर आँकड़े देते कि दलित मुस्लिमों की स्थिति, ओबीसी मुस्लिमों और उच्च जाति के मुस्लिमों के समक्ष कैसी है। उसके बाद, सारे मुस्लिमों की स्थिति, सारे हिन्दुओं की स्थिति से मिलाते। या, दोनों ही समुदायों के परस्पर समूहों की स्थिति पर चर्चा करते।
लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि उससे पता चल जाता कि आर्थिक और सामाजिक रूप से अगड़े मुस्लिमों की स्थिति तो बेहतर है। फिर आपको यह भी पता करना पड़ता कि आखिर ऐसा क्यों है? फिर आप यह नहीं दिखा पाते कि हिन्दू और मुस्लिम में भेदभाव है। क्योंकि इन सारे आँकड़ों का सत्य यह है कि जिसके पास पैसे नहीं हैं, वो पिछड़ा है। कथित निचली जातियों में भी जिसके पास थोड़े पैसे होते हैं, वो अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजते है, या शिक्षा को ले कर जागरूक होते हैं।
मुस्लिमों में जाति व्यवस्था
दूसरी बात यह है कि जिन्हें इस बात का भ्रम है कि इस्लाम में जातियाँ नहीं होतीं, वो डॉ. अम्बेडकर का लिखा और (अगर भारतीय लोगों की बात पर विश्वास न हो तो) हेनरी मायर्स एलियट, जॉन नैसफील्ड, विलियम क्रूक, डेनज़िल इब्बेटसन, हॉबर्ट होप रिस्ले आदि की तहरीर अवश्य पढ़ें। आपको पता चलेगा कि अशरफ़ कौन हैं, ऐलाफ़ कौन हैं, और अरज़ल किसे कहा जाता है। आपको पता चलेगा कि मतपरिवर्तन करने वाले हिन्दुओं को ऐलाफ कह कर हिकारत भरी निगाहों से क्यों देखा जाता है।
आपको जान कर आश्चर्य होगा कि चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली सल्तनत के राजनीतिक विचारक ज़ियाउद्दीन बरानी ने कहा था कि मोहम्मद के बेटों, यानी अशरफों को नीच पैदाइश वाले ऐलाफों से बेहतर सामाजिक ओहदा मिलना चाहिए। उसने यह नियम भी विकसित किया जहाँ मुस्लिमों को राजकीय ओहदों पर, अफसरशाही में, जाति के आधार पर प्रोन्नति और पदावनति (प्रमोशन और डिमोशन) का प्रावधान था।
ये नीच पैदाइश वाले ऐलाफ और अरज़ल हैं कौन? अशरफों में कौन आता है? 1960 में ग़ौस अंसारी बताते हैं कि अशरफ वो हैं जो कहते हैं कि वो तो विदेशी मूल के हैं जिनमें वो स्वयं को अफगानी, अरब, फारसी, तुर्क आदि बताते हैं। इसके नीचे हिन्दुओं की उच्च जाति से मजहब परिवर्तन कर आए लोग आते हैं जैसे कि मुस्लिम राजपूत। उसके बाद ‘साफ जातियों’ के कन्वर्ट आते हैं जिसमें दर्जी, धोबी, नाई, कुम्हार, कुंजरा, तेली आदि आते हैं। और सबसे नीचे ‘अछूत’ आते हैं। अशरफ को छोड़ कर नीचे के दो ‘ऐलाफ़’ कहलाते हैं, और सबसे नीचे वाले ‘अछूत’, मुस्लिम बनने के बाद भी अछूत ही रहते हैं, जिन्हें अरज़ल कहा जाता है। 1901 में सेंसस के सुपरिन्टेंडेंट ने अरज़ल में भानर, हलालखोर, हिजरा, कासबी, लालबेगी, मौगता, मेहतर आदि को रखा था।
एक्सप्रेस ने आखिर नौ साल पुराने आँकड़े उठा कर क्यों लिखा यह लेख? थोड़ी मेहनत कर लेते तो असली कहानी सामने आ जाती कि इस्लाम में जो अशरफ हैं, जो स्वयं को सीधा अफगानी और तुर्क मानते हैं, वो बेहतर कर रहे हैं। वो ओवैसी की तरह लंदन जा कर पढ़ रहे हैं और निचली जातियों के कन्वर्ट मुस्लिमों को हिन्दुओं के खिलाफ भड़का कर अपनी राजनीति चला रहे हैं। लेकिन इतना समय न तो एक्सप्रेस के पास है, न ही यह समुदाय स्वयं इस पर सोचना चाहता है।
ओवैसी की राजनीति और मजहब की जमीनी सच्चाई
ओवैसी की पूरी राजनीति इस्लाम के समर्थकों को इकट्ठा करने, एकमुश्त वोट देने और वो वोट भी अपने ही मजहब को देने की घोषित नीति पर आधारित है। मजहब का ध्रुवीकरण करते हुए ओवैसी ने हाल ही में हुए उपचुनावों में बिहार के मुस्लिम बहुल किशनगंज में एक सीट जीती, और महाराष्ट्र चुनावों में भी दो सीटें पाईं। यहाँ भी वोट पाने का एक ही मुद्दा था: इस्लाम।
इसलिए, हर समय मुस्लिम और इस्लाम के नाम की राजनीति करने वाले ओवैसी को अपने समुदाय के पिछड़ेपन का भार भारत पर नहीं फेंकना चाहिए। उसे अपने समुदाय के साथ होने वाली सभाओं में इस्लाम के समर्थकों से पूछना चाहिए कि उन्होंने अपनी बेहतरी के लिए, दुनिया के साथ चलने के लिए, क्या-क्या कदम उठाए हैं? क्या माता-पिता बच्चों को इलाके के मौलवियों की समझदारी के विपरीत, सरकारी या प्रायवेट स्कूलों में भेजना चाहते हैं?
आखिर हर सरकारी बात में उन्हें साजिश कियों नजर आती है? मेरे बगल के गाँव के लोगों ने कई बार पोलियो की दवा देने वालों को यह कह कर लौटा दिया था कि उसमें मुस्लिमों को नपुंसक बनाने वाली दवाई है! ये विचित्र सोच कहाँ से आती है कि हिन्दू बच्चे उस दो बूँद से नपुंसक नहीं होंगे, दूसरे मजहब विशेष वाले हो जाएँगे?
ओवैसी ने कभी यह सोचा है कि मदरसों में जो सीमित शिक्षा मिलती है, उसके आधार पर क्या मुस्लिमों को नौकरी मिलेगी? क्या वो मुख्यधारा का हिस्सा बनने को तैयार हैं? क्या मजहबी शिक्षा के साथ-साथ दुनिया के हर कोने में प्रचलित शिक्षा को मजहब स्वीकारेगा? या फिर वो आज भी गणित और विज्ञान को ‘शैतान’ की बातें मान कर आगे बढ़ने की आस लगाए रहेगा?
सत्य तो यह है कि कई बार मदरसे आतंकी तैयार करने की फैक्ट्री बन कर सामने आए हैं। वहाँ के मौलवी बच्चों का बलात्कार और यौन शोषण करते पाए गए हैं। हाल ही में कमलेश तिवारी हत्याकांड समेत कई मामले में मदरसों ने अपराधियों को छुपाया है, उन्हें संरक्षण दिया है। आखिर पंद्रह मिनट में हिन्दुओं को मिटाने की बात करने वाले कहाँ से पाते हैं ऐसी बेहूदी शिक्षा?
समस्या मजहब में है, समाधान भी वहीं से निकालो
अगर हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने के कारण समुदाय विशेष में पिछड़ापन होता तो ये समझ में आता कि ओवैसी की बात तार्किक है, लेकिन ऐसा नहीं है। मजहब विशेष के पिछड़ेपन के पीछे एक अनकही सोच है जहाँ वो बाकियों से कट कर रहना पसंद करते हैं। इस समुदाय के लोग जिन मोहल्लों में रहते हैं, आप उनकी गलियाँ देखिए कि उसकी चौड़ाई कितनी है, वहाँ के बच्चे क्या पढ़ते हैं, कहाँ जाते हैं और क्या करते हैं।
अगर हिन्दुओं में मजहब विशेष को ले कर किसी भी तरह की नकारात्मकता है तो उसके लिए जिम्मेदार कौन है? आपको ‘वंदे मातरम‘ कहने में सकुचाहट होगी, आप ‘भारत माता की जय‘ नहीं बोलेंगे और आपको यह भी याद आता है कि आपको ‘मार्जिनलाइज’ किया जा रहा है। हाशिए पर यह मजहब स्वयं ही रहना चाहता है, क्योंकि इसके किसी नेता ने समस्याओं का समाधान लाने की कोशिश नहीं की, और भीतर से सुधार का आह्वान नहीं किया।
जहाँ समाज की कुरीति पर बात करनी हो वहाँ आपका पर्सनल लॉ सामने आ जाता है। ‘हलाला’ और ‘पॉलिगेमी’ जैसी बेकार और बेहूदी बातों को आप किस तर्क से डिफेंड करते हैं? क्या ये पिछड़ापन नहीं है कि अपनी बीवी को तीन बार तलाक बलने के बाद, अपने ही भाई, पिता या मौलवी के साथ सोने को मजबूर किया जाता है? अगर आज के दौर में ओवैसी को इन बातों पर ‘ये हमारा निजी मसला है’ की याद आती है, तो फिर तुम्हारा पूरा पिछड़ापन भी तुम्हारा निजी मसला ही है, खुद निपटो।
जब तक मजहब विशेष खुद सुधरना नहीं चाहेगा, तंग गलियों वाले मोहल्ले बनाता रहेगा, आतंकवाद पर चुप रहेगा, आतंकियों के जनाजे में टोपी लगा कर दुनिया को यह दिखाता रहेगा कि वो ही उनका आदर्श है, मदरसों की मजहबी शिक्षा के दायरे से बाहर नहीं झाँकेगा, उसे कोई राजनीति नहीं सुधार सकती।
राजनैतिक शक्ति तो लंदन के मेयर को भी मिली, जो कि इस्लाम की ही अनुयाई है, लेकिन वो उस शक्ति का प्रयोग कैसे कर रहा है? पाकिस्तान और बंग्लादेश में तो मुस्लिम ही सत्ता में हैं, उन्होंने क्या उखाड़ लिया वहाँ पर? हिन्दू अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, जबरन मतपरिवर्तन से ले कर उन्हें इतना परेशान किया कि जनसंख्या घट कर पातालोन्मुख हो गई है। बर्मिंघम के पार्कों में नमाज पढ़ना और लंदन की गलियों में बुर्का मार्च ही अगर मुस्लिमों की राजनैतिक शक्ति का प्रतिफल है, तो ओवैसी को जान लेना चाहिए कि उससे कोई फायदा नहीं होने वाला।
अगर ओवैसी को लगता है कि सार्वजिनक जगहों पर अपने वर्चस्व का शक्ति प्रदर्शन सड़क, पार्क में नमाज पढ़ कर, या पाँच बार लाउडस्पीकरों से फुल साउंड पर अजान देने, हिन्दुओं के मंदिरों और मूर्तियों को तोड़ने, कावड़ियों पर पत्थरबाजी करने, कमलेश तिवारी का गला हलाल कर देने और खुलेआम जान मारने की धमकी देने से मुस्लिमों का पिछड़ापन चला जाएगा, तो ओवैसी को यह जान लेना चाहिए कि पिछड़ापन ही तुम्हें ऐसी सोच रखने को मजबूर करता है।
समुदाय विशेष का शख्स जब यह समझ जाएगा कि शांतिपूर्ण तरीके से एक दूसरे के साथ रहना, स्वयं को जगतविजय करने की जबरदस्ती हेतु पैदा होने वाला न मानना, मजहबी किताबों के अलावा दूसरी किताबें भी पढ़ना, आतंकवाद पर मुखर हो कर उसकी निंदा करना, सामाजिक बुराइयों को समूल उखाड़ फेंकना बेहतर विकल्प है, न कि ‘ये तो हमारा निजी मसला है’ की चादर ओढ़ कर चादर को ही दुनिया समझना, तब उनका विकास स्वयं ही होगा।
इस मजहब के करोड़ों लोगों की सामूहिक सोच अभी तक भी आइसिस के रूप में ही दिखती है। चोरों और अपराधियों पर आँख मूँदने की बात, गौरक्षकों के हत्यारे पर चुप हो जाना, पत्थरबाजी को अपना संविधानप्रदत्त अधिकार मानना, आतंकवाद पर मौन साध कर अच्छा और बुरा मुस्लिम कहने लगना, बताता है कि आप मुद्दे को ले कर गंभीर होना तो छोड़िए, सुधरना चाहते ही नहीं हैं।
ओवैसी को अपने कैंसर के लिए दूसरों का स्वस्थ शरीर जिम्मेदार लगता है जैसे कि बाकी लोगों में समस्या कम है तो उन्होंने अपनी समस्या लोगों में पोलियो की दो बूँदों के जरिए पहुँचा दिया। कोई साजिश नहीं कर रहा तुम्हारे खिलाफ, किसी को मजहब विशेष के यहाँ होने से आपत्ति नहीं है। सैकड़ों साल से रह रहे हैं, आगे भी रहेंगे। लेकिन यह चाहोगे कि पूरी धरती पर ख़िलाफ़त आ जाए, सब लोग नमाज पढ़ने लगें, सारे लोग हलाल मांस खाएँ, किसी को लाउडस्पीकर पर से आती आवाज से आपत्ति न हो, तो वो नहीं होगा।
वो इसलिए नहीं होगा क्योंकि अभी के पोलिटिकली करेक्ट स्टेटमेंट की दौर से आगे का दौर वह होगा जहाँ हर देश इस्लामी आतंक को इस्लामी आतंक ही कहेगा। ये कह कर लोग झूठ नहीं बोलेंगे कि आतंक का मजहब नहीं होता क्योंकि आइसिस के झंडे पर जो लिखा है वो तुम्हारा ही मजहबी नारा है, बुरहान वनी, अफजल गुरु, याकूब जैसे आतंकियों के जनाजे में हिन्दू जालीदार टोपी लगा कर नहीं उतरता।
इस सत्य को स्वीकारो ओवैसी, नहीं स्वीकारोगे तो राजनैतिक शक्ति पाने में दशकों बीत जाएँगे। तुम मजहब विशेष से आशा करते हो कि वो अपने ही ‘मजहब’ को ही वोट दें, तो हिन्दू भी तो वही करेगा। फिर किस गणित के हिसाब से खुद को संसद या विधायिकाओं में बहुमत पाते देख रहे हो? ओह सॉरी! गणित से तुम्हारा क्या वास्ता, वो तो शैतानों का काम है न!