रेख्ता ने दीपावली के त्योहार पर भी अपने मजहबी मानसिक मवाद को साहित्य का रंग देने की कोशिश करते हुए इसे ईद बताया है। रेख्ता ने एक पोस्टर के जरिए दिवाली और इससे जुड़े कुछ प्रचलित शब्दों को उर्दू शब्दकोश देने की कोशिश की और इसी बहाने इसमें मजहबी अजेंडा को साध लिया।
रेख्ता ने इस पोस्टर में जो शब्द दिए वो दिवाली, उपहार, उत्सव, छुट्टियाँ…. तो थे ही, साथ ही इनमें सबसे आखिर में ‘वायु प्रदूषण’ भी था। बड़ी ही चालाकी से रेख्ता ने यह पोस्टर बाजार में उतारा और दिवाली को ईद बताने के साथ ही इससे जुड़े शब्द में ‘एयर पॉल्यूशन’ भी जोड़ा गया। लेकिन रेख्ता के इस पोस्टर में अभी एक अधूरापन है।
जो एक शब्द रेख्ता इस पोस्टर में जोड़ना भूल गया वह था- मजहबी अजेंडा! रेख्ता को अजेंडा शब्द को भी उर्दू शब्दकोश में जगह देनी चाहिए। इसके साथ ही, ऐसी कई शब्द और भी हैं, जिन्हें उर्दू शब्दकोश में जगह चाहिए मगर फतवे और कट्टरपंथियों के भय से शायद रेख्ता ऐसा करने से डरता है।
मजहबी चेतना के ध्वजवाहकों को इसमें कुछ कट्टर मजहबी टार और पशुओं के खून से सने हुए ‘आयोजनों’ को भी लोगों को समझाने योग्य बनाना चाहिए। कुछ ऐसे त्यौहार, जिनसे मिलता-जुलता शब्द ‘दरिया-ए-ख़ूँ’ हो सकता है। और यदि रेख्ता ऐसा नहीं कर सकता, तो इसे हिंदी में ‘खून की नदी बहाने का त्योहार’ बताया जाना चाहिए। लेकिन ऐसा करने से गंगा-जमुनी तहजीब को ठेस लगने का भी भय है। गंगा-जमुनी तहजीब की गली बेहद संकरी और इकतरफा ही रही है। दिवाली की अमावस को ईद बताना सेक्युलर और प्रोग्रेसिव है जबकि किसी एक मजहबी त्योहार की साहित्यिक व्याख्या इस देश के सेक्युलर फेब्रिक को तहस-नहस करने के लिए काफी है।
वास्तव में, रेख्ता का मकसद दीपावली की शुभकामना देने का कभी नहीं रहा। यह हर त्योहार के इस्लामीकरण की ही एक कड़ी है। यह उसी विचारधारा की विष्ठा है, जो इस बात पर जोर देने का प्रयास करती है कि अकबर के शासन में यहाँ दीपावली मनाई जाती थी। मगर इस बात पर जोर देना वह भूल जाते हैं कि दिवाली तो भारत में तब भी मनाई जाती थी जब अकबर भ्रूण की अवस्था में भी नहीं रहा होगा। दिवाली इस देश में अकबर से पहले भी थी और उसके बाद भी हमेशा मनाई जाती रहेगी। हिन्दुओं का यह पवित्र त्योहार रेख्ता की कलाबाजी से पहले भी मौजूद था, और रेख्ता के बाद भी रहेगा। इसके बीच मजहबी और वाम-उदारवादी प्रोपगेंडा के लिए कोई जगह नहीं रहती।
इसी तरह, हिंदी भी उर्दू के बिना कहीं श्रेष्ठ और सम्पन्न भाषा रही है और आगे भी रहेगी। भारत को उर्दू ने नहीं बल्कि उर्दू को भारत ने शरण दी है यह बात दिमाग से निकाली नहीं जानी चाहिए। ताजमहल का महिमामंडन, बिरयानी, रसगुल्ले से लेकर जलेबी तक का ‘मुगलीकरण’ कर सांस्कृतिक वर्चस्व की जंग को अब भाषा के वर्चस्व में बदलने का कारनामा लेफ्ट-लिबरल्स को भी खूब लुभाता है।
उर्दू-हिंदी को मौसेरी बहनें बताने वालों के शब्दकोश में दीपावली के लिए भी एक शब्द नहीं है। जिस संस्कृति का झंडाबरदार बनने रेख्ता निकला है, वह ‘संस्कृति’ होली से लेकर दिवाली तक में अपनी मौजूदगी ठूँसकर किसी तरह प्रासंगिक बने रहना चाहती है।
अगर दीपावली ‘ईद-ए-चरागाँ’ है तो फिर रेख्ता इस बात का जवाब क्यों नहीं देता कि अमावस की रात कौन सा चाँद निकलता है जो दीपावली को ईद बता दिया गया? जिस उर्दू का शब्दकोश इकलौते त्योहार के ही इर्दगिर्द शुरू होने से पहले ही समाप्त हो जाता है, उसे किसी हिमालयी सभ्यता के कंधे से कंधा मिलाने की ठरक को शांत करने से पहले अपने खुद के विकास पर मेहनत करनी चाहिए।
इसके अलावा, दिवाली के मिलते-जुलते शब्दों में ‘एयर पॉल्यूशन’ को जगह देने से पहले ‘खून से सनी गलियों’ के लिए एक दूसरी आसमानी किताब तैयार की जानी चाहिए। वह ‘सभ्यता’ और संस्कृति के क्रूर उदाहरण मिलता-जुलता भी नहीं बल्कि उस आयोजन का ही परिचय भी है, रेख्ता को उस पर गर्व होना चाहिए क्योंकि आखिर वह उस संस्कृति का हिस्सा है। यह भी स्पष्ट किया जाना आवश्यक है कि दिवाली से अगर प्रदूषण होता है तो बकरियों को रेतने से कौन सी आकशगंगा की ओजोन परत आकर पृथ्वी के चारों और सुरक्षा कवच खड़े कर देते हैं?
दिवाली की बधाई के बहाने अपने मजहबी अजेंडा को परोसने पर रेख्ता की खूब फजीहत भी हुई। यही वजह है कि रेख्ता ने भरपूर गालियाँ खाने के बाद अपना ये पोस्टर भी हटा लिया। हालाँकि, उस पोस्टर में एक अधूरापन है। अभी कुछ मजहबी त्योहारों के नामकरण की कमी रेख्ता के शब्दकोश में बनी हुई है। अगले सीजन से पहले रेख्ता को उनके नामकरण पर मेहनत करनी चाहिए।