कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने अब जब पंजाब के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते हुए कॉन्ग्रेस आलाकमान पर उन्हें अपमानित किए जाने का आरोप लगाया है, आइए 79 वर्षीय नेता के राजनीतिक सफर व जीवन पर एक नजर डालते हैं। उन्होंने ही अपने नेतृत्व में 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस को जीत दिलाई थी। 11 मार्च, 2017 – जब उनका जन्मदिन था, उसी दिन उन्हें पंजाब में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ और राज्य में कॉन्ग्रेस के लिए सत्ता का सूखा ख़त्म हुआ।
2002 से 2007 तक पंजाब के मुख्यमंत्री रहे कैप्टेन अमरिंदर सिंह इस बार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और उन्हें साढ़े 4 वर्ष सरकार चलाने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। ये भी जानने लायक बात है कि राजनीति में आने से पहले अमरिंदर सिंह भारतीय सेना में ‘कैप्टेन’ रहे हैं, जिसके बाद ये उनके नाम के साथ ही जुड़ गया। 1942 में जन्मे अमरिंदर सिंह ने 21 वर्ष की उम्र में 1963 में सेना जॉइन की थी।
हालाँकि, भारतीय सेना में उनका कार्यकाल सिर्फ 2 वर्षों का ही रहा और उन्होंने 1965 में सेना छोड़ दी। हालाँकि, जब भारत-पाकिस्तान युद्ध आरंभ हुआ तो पटियाला राजघराने से ताल्लुक रखने वाले कैप्टेन अमरिंदर सिंह ने फिर से सेना में सेवा दी और युद्ध की समाप्ति के साथ ही सेना की नौकरी भी छोड़ दी। उन्होंने राजनीति में कदम रखा और 1980 में पहली बार पटियाला से कॉन्ग्रेस के टिकट पर जीत कर सांसद बने।
1984 में जब सिखों का नरसंहार हुआ और उसमें कॉन्ग्रेस नेताओं के नाम शामिल हुए, तब अमरिंदर सिंह ने पार्टी छोड़ दी और ‘अकाली दल’ का दामन थाम लिया। ‘अकाली दल’ ने उन्हें राज्यसभा भी भेजा। बाद में उन्होंने फिर से कॉन्ग्रेस का रुख किया। 1999-2002 की अवधि में वो पंजाब में कॉन्ग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे। 2007 में बतौर मुख्यमंत्री उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। फिर लगातार 2 बार पंजाब में भाजपा और ‘अकाली दल’ की गठबंधन सरकार बनी।
उनकी पत्नी परनीत कौर केंद्रीय विदेश राज्यमंत्री रही हैं और फ़िलहाल पटियाला से सांसद हैं। उनका ये पूरा कार्यकाल विवादों से भरा रहा, जहाँ उन्हें शुरू से ही नवजोत सिंह सिद्धू से चुनौती मिलती रही। मंत्री पद छोड़ने के बाद सिद्धू कुछ दिन वनवास में रहे, लेकिन फिर अचानक सक्रिय हो गए और उन्हें हाईकमान ने प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। अब कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री का पद छोड़ना पड़ा।
पंजाब एकलौता राज्य है, जहाँ गाँधी परिवार की जगह पर कॉन्ग्रेस को कैप्टेन अमरिंदर सिंह के नाम पर ही वोट पड़ते रहे हैं। ऐसे में पार्टी का भविष्य भी अब वहाँ अधर में है। स्कूल के समय ही राजीव गाँधी के दोस्त रहे अमरिंदर को राजीव गाँधी ने ही राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया था। ‘अकाली दल’ की लोकप्रियता काटने के लिए उन्हें लाया गया था। 1984 में ‘अकाली दल’ में जाने के बाद सुरजीत सिंह बरनाला की सरकार में उन्हें एग्रीकल्चर, फॉरेस्ट, डेवेलपमेंट और पंचायत मंत्री बनाया गया था।
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— indianhistorypics (@IndiaHistorypic) September 18, 2021
1992 में उन्होंने ‘अकाली दल’ छोड़ दिया। लेकिन, बहुत कम लोगों को पता है कि इस बीच उन्होंने ‘अकाली दल (पंथक)’ नाम की खुद की अलग पार्टी बना ली थी। लेकिन, इस बीच राज्य में तीन बार चुनाव हुए और उनकी पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। वो कॉन्ग्रेस में आ तो गए, लेकिन 1997 में उन्हें और उनकी पार्टी को हार का सामना करना पड़ा। प्रोफेसर प्रेम सिंह चंदूमाजरा ने उन्हें बड़े अंतर से हराया।
स्थिति इतनी खराब थी कि कैप्टेन अमरिंदर सिंह को मात्र 856 मतों से संतोष करना पड़ा। लेकिन, अगले 5 वर्षों में उन्होंने राज्य में कॉन्ग्रेस के मुखिया के रूप में जमीन पर जबरदस्त कार्य किया और नतीजा ये हुआ कि 2002 के चुनाव में कॉन्ग्रेस ने बहुमत से ज़्यादा 62 सीटें जीत कर सरकार बनाई। 2008 में उन पर जमीन लेनदेन में हेराफेरी के आरोप लगे। इसी तरह 2017 में उन्होंने ‘मोदी लहर’ के बीच एक दशक बाद राज्य में सरकार बनाई।