दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा ने शानदार जीत हासिल की है। पार्टी 27 वर्षों के सूखे के बाद दिल्ली की सत्ता में लौटी है। उसने 10 साल से दिल्ली की गद्दी पर काबिज आम आदमी पार्टी (AAP) को बुरी तरह हराया है।
भाजपा को दिल्ली में 48 सीट मिली हैं जबकि AAP इस चुनाव में 22 सीटों पर सिमट गई है। उसके मुखिया केजरीवाल तक अपनी सीट नहीं बचा पाए। इस चुनाव में कॉन्ग्रेस ने अपना पुराना प्रदर्शन दोहराया है, वह लगातार तीसरी बार एक भी सीट पाने में विफल रही है।

कुछ दिनों तक AAP को 50 से अधिक सीटें दे रहे लिबरल और वामपंथी पत्रकार इस जीत को नहीं पचा पा रहे हैं। कई कथित विशेषज्ञ इस जीत को कम करके आंकने का प्रयास कर रहे हैं। स्पष्ट जनादेश को लेकर अलग-अलग तरह के प्रपंच बताए जा रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषण की दुकान खोलने वालों का दावा है कि AAP की यह हार इसलिए हुई है, क्योंकि इस बार उसे पीछे के दरवाजे से भाजपा को कॉन्ग्रेस का साथ मिल गया। जम्मू कश्मीर के नेता उमर अब्दुल्ला ने एक मीम तक पोस्ट किया है, जिसका इशारा है कि AAP-कॉन्ग्रेस की लड़ाई से भाजपा जीती है।
AAP की हार के पीछे भाजपा के कार्यकर्ताओं की मेहनत, उसका मजबूत संगठन और रणनीति को श्रेय ना देकर यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि यदि कॉन्ग्रेस और AAP मिलकर लड़ते तो भाजपा सत्ता में नहीं आती।
कुल मिलाकर भाजपा की जीत का सेहरा कॉन्ग्रेस के माथे बाँधने की कोशिश हो रही है। कॉन्ग्रेस भी इसी आत्ममुग्धता में खुश है कि वह भले नहीं जीती लेकिन अरविन्द केजरीवाल को नीचे लाने में उसका योगदान रहा। उसके दफ्तर से नाचने-भंगड़ा करने के वीडियो आ रहे हैं।
भाजपा की इस जीत की सच्चाई पूरी तरह अलग है। भाजपा की इस जीत का सबसे बड़ा कारण दिल्ली में 10 वर्षों से काबिज AAP के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी है। इस एंटी इनकम्बेंसी का सीधा फायदा भाजपा को मिला है। उसका वोट प्रतिशत लगभग 8% बढ़ा है।
जबकि इसी दौरान AAP का वोट प्रतिशत राज्य में 10% घटा है। केजरीवाल से त्रस्त दिल्ली की जनता उन्हें वोट नहीं देना चाहती थी। ऐसे में उसके पास भाजपा का ही विकल्प था। कॉन्ग्रेस को AAP की हार और भाजपा की जीत में मदद करने वाला बताने वालों को देखना चाहिए कि कॉन्ग्रेस का खुदका वोट प्रतिशत इस बार भी कुछ ख़ास नहीं बढ़ा।

2020 चुनावों में 4.26% वोट लाने वाली कॉन्ग्रेस खूब प्रयास करके भी 2025 में दहाई आँकड़ा तक नहीं छू पाई। उसे इस बार 6.3% वोट से संतोष करना पड़ा है। स्पष्ट है कि दिल्ली में कॉन्ग्रेस के जो मतदाता AAP की तरफ गए थे, वह अब भी कॉन्ग्रेस को एक विकल्प के तौर पर नहीं देखते।
उन्हें AAP के जवाब में भाजपा ही बेहतर लगती है। कॉन्ग्रेस इसी के चलते लगातार तीसरी बार एक भी सीट नहीं जीत पाई। कॉन्ग्रेस के वोट में जो हलकी सी बढ़ोतरी हुई भी है, वह एंटी इनकम्बेंसी वाले वोट का ही एक हिस्सा है।
जो लोग यह चर्चा कर रहे हैं कि अगर AAP और कॉन्ग्रेस मिल जाते तो दिल्ली में भाजपा नहीं आती, जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं हैं। दरअसल, AAP इसलिए नहीं हारी है क्योंकि कॉन्ग्रेस उसके खिलाफ थी, बल्कि इसलिए हारी है क्योंकि दिल्ली की जनता उससे नाराज थी।
अगर कॉन्ग्रेस उसके साथ मिलकर भी लड़ती तो भी नतीजा लगभग यही रहता। क्योंकि इस गठबंधन से एंटी इनकम्बेंसी का फैक्टर नहीं खत्म होने वाला था। जिन चुनावों में सरकार के खिलाफ प्रबल एंटी इनकम्बेंसी का फैक्टर होता है, वहाँ उस पार्टी की भी दुर्गति होती है, जो सत्ताधारी पार्टी के साथ गठबंधन करती है।
2017 के उत्तर प्रदेश के चुनाव इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। कॉन्ग्रेस ने 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा से गठबंधन किया था। लेकिन दोनों ही पार्टियाँ बुरी तरह हारीं और भाजपा रिकॉर्ड 300+ सीटों के साथ सत्ता में आई। और इस चुनाव में भी AAP को अखिलेश यादव तथा ममता बनर्जी ने समर्थन दिया था, उनका कोई भी असर चुनाव पर नहीं दिखा।
दूसरी तरफ भाजपा की जीत में एंटी इनकम्बेंसी के अलावा उसके दिल्ली के अपने वोटबैंक का भी बड़ा हाथ है। दिल्ली में भाजपा का लगातार 35%-40% वोट प्रतिशत हर चुनाव में बना रहा है। यह उसे निश्चित तौर पर मिलता है। इस जीत में उसका यह निश्चित वोटबैंक और साथ ही एंटी इनकम्बेंसी के चलते उसकी तरफ आए दिल्ली वालों का वोट शामिल है।
कॉन्ग्रेस ने पिछले चुनावों में कोई असर डाल पाई थी और ना इस बार कुछ कर पाई है। अगर AAP+कॉन्ग्रेस गठबंधन हो भी जाता तो भी नतीजा कोई ख़ास अलग नहीं होता, दोनों पार्टियों के गठबंधन का हश्र कुछ ही महीने पहले देश भर ने दिल्ली में देखा है।
यदि तर्क यह दिया जाए कि AAP और कॉन्ग्रेस मिलकर भाजपा से ज्यादा वोट ले आते और सरकार बन जाती तो उन्हें लोकसभा चुनाव याद करना चाहिए। लोकसभा में दोनों पार्टियों के गलबहियाँ करने के बावजूद भाजपा ने लगातार तीसरी बार 7 की 7 सीट जीत ली थीं।
और यहाँ याद रखना होगा कि लोकसभा और विधानसभा का चुनाव एकदम अलग होता है। ऐसे में गठबंधन के समय जो व्यक्ति AAP से गुस्सा होकर वोट देता तो भाजपा की तरफ जाता ना कि कॉन्ग्रेस के साथ होने के चलते रुकता।
ऐसे में बेहतर होगा कि कॉन्ग्रेस को इस जीत का श्रेय देने के बजाय विश्लेषक भाजपा की एक संगठन के रूप में प्रशंसा करें। उसके चुनावी मैनेजमेंट को समझें। साथ ही वह कॉन्ग्रेस को उसकी खामियाँ बताएँ, जिसके चलते उसे लोग सत्ता देना तो दूर, एक सीट भी देने को राजी नहीं थे।