Tuesday, June 3, 2025
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दुनिया के कई देशों में लागू में है ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’, जानिए भारत में इसे लागू करने के रास्ते में क्या हैं मुश्किलें

देश में आजादी के बाद लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। देश में पहली बार जब 1951-52 में चुनाव हुए तो पूरे देश में एक साथ चुनाव हुए थे। ये सिलसिला 1957, 1962 और 1967 के आम चुनाव तक चला। साल 1968 और 1969 में समय से पहले कई राज्यों में विधानसभाएँ भंग हो गईं। वहीं, साल 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई।

भारत सरकार ने पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ की संभावनाओं पर विचार करने के लिए एक कमेटी की घोषणा की गई है। यह कमेटी सुझाव देगी कि क्या देश में एक साथ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव कराए जा सकते हैं। इस बीच, केंद्र सरकार 18-22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है। इन दोनों चीजों के साथ शुरू होने के बाद कयास लगने शुरू हो गए हैं।

ये पहली बार नहीं है कि ‘एक देश-एक चुनाव’ की बात हो रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस मुद्दे को कई बार उठा चुके हैं। चुनाव आयोग कई बार इस मुद्दे को उठा चुका है। केंद्र सरकार भी चुनाव आयोग, नीति आयोग और लॉ कमीशन से इस बारे में सवाल पूछ चुकी है। कई समितियाँ भी इसके पक्ष में अपने सुझाव सरकार को सौंप चुकी हैं। ऐसे में ये मुद्दा अचानक से सामने आ है, ऐसा भी नहीं है।

अब चूँकि सरकार ने इसकी संभावनाओं की जाँच के लिए पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में पैनल बनाया है तो ये जानना जरूरी हो जाता है कि क्या ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ संभव है भी? अगर संभव है तो क्या 2024 में ही इसे अमल में लाया जाएगा? क्या इसके लिए देश की सभी एजेंसियाँ तैयार हैं? इस खास लेख में हम इन्हीं सवालों के जवाब आपको दे रहे हैं।

क्या देश में एक साथ सभी चुनाव कराना संभव है?

केंद्र सरकार ने साल 2015 में चुनाव आयोग, नीति आयोग और विधि आयोग से इस बारे में जानकारी माँगी थी कि क्या ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ संभव है? इसके बाद तीनों एजेंसियों ने अपने जवाब सरकार को सौंप दिए थे। इस विषय पर सभी एजेंसियों ने कहा था कि ये बिल्कुल संभव है।

चुनाव आयोग ने कहा था कि इसके लिए संविधान में कुछ परिवर्तन करना होगा। जनप्रतिनिधित्व कानून में कुछ परिवर्तन करने होंगे। अतिरिक्त ईवीएम, वीवीपैट खरीदने या बनवाने के लिए अतिरिक्त धनराशि देनी होगी और एक साथ चुनाव कराने के लिए जो मैन पॉवर चाहिए, जो फोर्स चाहिए उसे बढ़ाना होगा।

लोकसभा चुनाव और 2023 में 5 राज्यों में चुनाव प्रस्तावित, एक साथ कैसे जुड़ेंगे?

पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने इंडिया टीवी से बातचीत में बताया कि इस बारे में चुनाव आयोग और नीति आयोग ने कई सुझाव दिए हैं। ये एक राजनीतिक मुद्दा है। चुनाव आयोग और नीति आयोग विकल्प दे सकती है। इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को साथ बैठकर चुनना होगा कि किस सुझाव को माना जाएगा।

इसमें एक सुझाव था कि जिन राज्यों की विधानसभा का कार्यकाल 2.5 साल से ज्यादा हो गया है, उन्हें भंग कर दिया जाए। जिनका समय 2.5 साल से कम है, उन्हें आगे बढ़ाया जाए और अगले चुनाव के साथ जोड़ा जाए। भविष्य को लेकर कुछ समस्याएँ भी हैं।

अगर किसी राज्य की विधानसभा या लोकसभा भंग हो जाती है, यानि मध्यावधि चुनाव की नौबत आई तो उसके लिए भी सुझाव दिए गए हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के संबंधित प्रावधानों में संशोधन के बार इस बार बात साफ हो जाएगी। हालाँकि इस बारे में सार्वजनिक तौर पर जानकारी कम ही मौजूद है।

इसे लागू करने के लिए कानून में बदलाव की जरूरत पड़ेगी, जिसके लिए सबसे पहले जरूरी है कि सभी राजनीतिक पार्टियों में इसके लिए सहमति बने। सहमति के बगैर चुनाव आयोग पुराने ढर्रे पर ही चलने को मजबूर रहेगा। इसके लिए राज्यों की भी सहमति लेनी पड़ेगी, जिसके लिए कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों की सहमति जरूरी है।

साल 2024 में एक साथ चुनाव कराने में सबसे बड़ी समस्या ?

साल 2018 के आँकड़ों के मुताबिक, चुनाव आयोग के पास लगभग 25 लाख ईवीएम-वीवीपैट हैं। फिलहाल इससे भी काम चल जाता है, क्योंकि अभी पूरे देश में एक साथ चुनाव नहीं होते हैं। अगर पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बारी आएगी तो हर मतदान केंद्र पर दो-दो ईवीएम और 2-2 वीवीपैट एक साथ लगाने होंगे।

ईवीएम-वीपीपैट तुरंत ऑर्डर देने पर बनाए नहीं जा सकते। उसके लिए एक-दो साल का समय लगेगा। अभी जितने भी ईवीएम-वीवीपैट हैं, उससे दोगुने यानि 50 लाख ईवीएम-वीवीपैट की जरूरत होगी। इस सीमा तक पहुँचने में एक से दो साल लग जाएँगे। वहीं, उनकी ट्रेनिंग से लेकर हैंडलिंग तक बड़ी संख्या में मैनपॉवर की जरूरत होगी, जिसकी व्यवस्था करनी पड़ेगी।

विधि आयोग की क्या है राय?

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ को लेकर विधि आयोग ने साल 2018 में अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। आयोग ने रिपोर्ट में कहा था कि देश में बार-बार चुनाव कराए जाने से धन और संसाधनों की जरूरत से अधिक बर्बादी होती है। संविधान के मौजूदा ढाँचे के भीतर एक साथ चुनाव करना संभव नहीं है, इसलिए कुछ जरूरी संवैधानिक संशोधन के सुझाव दिए गए हैं।

विधि आयोग ने कहा कि लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराए जाने से जनता का पैसा बचेगा, प्रशासनिक भार कम होगा और साथ में सरकारी नीतियाँ बेहतर तरीके से लागू होंगी। एक साथ चुनाव कराए जाने से स्टेट मशीनरी पूरे साल चुनाव की तैयारियों में जुटे रहने के बजाए, विकास के कार्यों में जुट सकेंगी।

देश के शुरुआती चार चुनाव हुए थे साथ

देश में आजादी के बाद लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। देश में पहली बार जब 1951-52 में चुनाव हुए तो पूरे देश में एक साथ चुनाव हुए थे। ये सिलसिला 1957, 1962 और 1967 के आम चुनाव तक चला। साल 1968 और 1969 में समय से पहले कई राज्यों में विधानसभाएँ भंग हो गईं। वहीं, साल 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई।

इसके साथ ही ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ का ये सिलसिला टूट गया। इसके बाद साल 1999 में विधि आयोग ने एक साथ चुनाव की सिफारिश की थी। साल 2015 में संसदीय समिति ने भी इसके लिए सुझाव दिया। इसके बाद केंद्र सरकार ने विधि आयोग, चुनाव आयोग और नीति आयोग से इस संबंध में राय माँगी थी।

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के फायदे और नुकसान (पक्ष और विपक्ष)

वन नेशन, वन इलेक्शन के पक्ष में जाने वाली बातें

पैसे और समय की बचत: एक साथ चुनाव कराने से बहुत सारे पैसे बचेंगे क्योंकि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए अलग-अलग चुनाव होने वाले चुनाव समाप्त हो जाएँगे। यह समय भी बचाएगा, क्योंकि सरकार को पाँच साल के भीतर कई चुनावी चक्र से होकर नहीं गुजरना पड़ेगा। ऐसे में सरकार को शासन पर ध्यान केंद्रित करने के लिए अधिक समय देगा।

सही उम्मीदवार, पार्टी का चुनाव: एक साथ चुनाव मतदाताओं के लिए उम्मीदवारों को चुनना आसान बनाएगा, क्योंकि वे एक ही समय में राष्ट्रीय और राज्य सरकारों के लिए मतदान करेंगे। इससे मतदाताओं को यह तय करने में मदद मिलेगी कि किसे वोट देना है।

संघीय प्रणाली होगी मजबूत: एक साथ चुनाव संघीय प्रणाली को मजबूत करेगा, क्योंकि यह राज्यों को राष्ट्रीय राजनीति में अधिक कहने का अधिकार देगा। यह सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि सभी राज्यों के हितों का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व हो।

वन नेशन, वन इलेक्शन के खिलाफ जा सकने वाली बातें:

एक साथ चुनाव कठिन काम: एक साथ चुनाव कराना मुश्किल होगा, क्योंकि इसके लिए संविधान में संशोधन और केंद्र एवं राज्य सरकारों के बीच समन्वय की आवश्यकता होगी। यह एक जटिल और समय लेने वाली प्रक्रिया होगी।

मतदान प्रतिशत में गिरावट : एक साथ चुनाव मतदान में गिरावट का कारण बन सकता है, क्योंकि लोग अपने स्थानीय प्रतिनिधियों के लिए मतदान नहीं कर रहे होंगे तो वे कम प्रेरित हो सकते हैं। यह एक वैध चिंता है और इसे एक साथ चुनाव लागू किए जाने पर सावधानी से संबोधित करने की आवश्यकता होगी।

राष्ट्रीय दलों को हो सकता है फायदा : राष्ट्रीय दलों के पास क्षेत्रीय दलों की तुलना में अधिक संसाधन, नाम और पहचान है। यह उन्हें एक साथ चुनावों में फायदा दे सकता है, क्योंकि वे अधिक प्रभावी ढंग से प्रचार कर सकते हैं।

दुनिया के कई देशों में ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ सिस्टम

भारत में ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ को लेकर चर्चा तेज हो गई है तो बताते चलें कि यह व्यवस्था दुनिया के कई देशों में पहले से लागू है। स्वीडन में संसदीय चुनाव के साथ ही काउंटी और म्यूनिसिपल इलेक्शन होते हैं। साउथ अफ्रीका, होंडुरस, स्पेन, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड में भी यही व्यवस्था है।

ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स, लोकल इलेक्शन और मेयर इलेक्शन एक साथ होते हैं, तो इंडोनेशिया में राष्ट्रपति और संसदीय चुनाव। इनके अलावा जर्मनी, फिलिपींस, ब्राजील, बोलीविया, कोलंबिया, कोस्टा रिका, ग्वाटेमाला, गुआना, और बेल्जियम जैसे देशों में भी ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ सिस्टम काम करता है।

आखिरकार, एक साथ चुनाव कराने या न कराने का निर्णय एक राजनीतिक निर्णय है। सरकार को पक्ष और विपक्ष को सावधानी से तौलने की आवश्यकता होगी, इससे पहले कि वह कोई निर्णय ले। इस विषय पर सभी राजनातिक पार्टियों का साथ आना भी जरूरी है। हालाँकि आगामी लोकसभा चुनाव यानि 2024 से ही इसे लागू कर दिया जाए, फिलहाल ऐसा होता संभव नहीं दिख रहा है।

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श्रवण शुक्ल
श्रवण शुक्ल
I am Shravan Kumar Shukla, known as ePatrakaar, a multimedia journalist deeply passionate about digital media. Since 2010, I’ve been actively engaged in journalism, working across diverse platforms including agencies, news channels, and print publications. My understanding of social media strengthens my ability to thrive in the digital space. Above all, ground reporting is closest to my heart and remains my preferred way of working. explore ground reporting digital journalism trends more personal tone.

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