Friday, April 26, 2024
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‘बॉस’➔यशपाल कपूर➔इंदिरा गाँधी… 1975 में हुई जिस ललित नारायण मिश्र की हत्या उनके परिवार को आज भी ‘न्याय’ का इंतजार

1974 के मध्य तक आते-आते दोनों के संबंधों में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही थी। इंदिरा पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोप लग रहे थे। अब उनके लिए मिश्र बोझ की तरह हो गए थे और कथित तौर पर अपनी अपनी छवि बचाने के लिए वे उनसे पीछा छुड़ाना चाहती थीं।

आपातकाल का साल आ चुका था। लेकिन भारतीय लोकतंत्र की हत्या की तारीख अभी कुछ महीने दूर थी। उससे पहले एक सर्द शाम बिहार के समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर ग्रेनेड ब्लास्ट होता है। इस धमाके में एक ऐसे शख्स की मृत्यु हो जाती है जो उस वक्त बिहार कॉन्ग्रेस के सबसे बड़े नेता थे, जिन्हें कॉन्ग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में नंबर दो माना जाता था। हम बात कर रहे ललित नारायण मिश्र (LN Mishra) की।

मिश्र की जब हत्या की गई तब वे इंदिरा गाँधी की कैबिनेट में रेल मंत्री हुआ करते थे। 2 जनवरी 1975 को उन पर हमला हुआ और अगले दिन यानी 3 जनवरी को उनकी मृत्यु हो गई। इस मामले की तह तक जाने के लिए दो आयोग (मैथ्यू और तारकुंडे) बने। पर दोनों की रिपोर्टें एक-दूसरे से बिल्कुल उलट। सीबीआई जाँच हुई। उस जाँच के आधार पर 2014 में चार लोगों को ट्रायल कोर्ट ने सजा सुनाई। लेकिन इस पर पीड़ित परिवार को ही भरोसा नहीं है। भरोसा उनको भी नहीं है जो एलएन मिश्र की राजनीति को जानते-समझते हैं। उस इलाके के लोगों को भी इस पर यकीन नहीं जहाँ मिश्र की हत्या हुई या फिर जिस क्षेत्र से राजनीति करते हुए वे राष्ट्रीय फलक पर छाए।

लिहाजा हाल ही में मिश्र के पोते वैभव मिश्र ने दिल्ली हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। इस याचिका पर सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने सीबीआई को एलएन मिश्रा हत्याकांड की दोबारा जाँच पर विचार करने का निर्देश दिया है। इसके लिए एजेंसी को छह सप्ताह का समय दिया गया है। वैभव ने ऑपइंडिया को बताया कि इस संबंध में हमने नवंबर 2020 में सीबीआई से आग्रह किया था, लेकिन हमें कोई जवाब नहीं मिला। इसके बाद उन्होंने हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया।

जिस मामले में ट्रायल कोर्ट सजा सुना चुकी है, उस मामले में दोबारा जाँच का आग्रह करने के पीछे की वजह के बारे में पूछे जाने पर ​वैभव स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जिन लोगों को दोषी बताया गया है उनका इस मामले से कोई लेना-देना नहीं है। यह वह तथ्य है जिसका दावा इस मामले में आनंदमार्गियों की गिरफ्तारी के बाद से लगातार होता रहा है।

वीएम तारकुंडे और इंडियन एक्सप्रेस की जाँच रिपोर्टों पर आधारित किताब ‘हू किल्ड एलएन मिश्र’ का हवाला देते हुए इस वैभव हत्या को ‘राजनीतिक साजिश’ बताते हैं। पॉपुलर प्रकाशन से 1979 में आई हू किल्ड एलएन मिश्र भी इसके पीछे बड़ी राजनीतिक षड्यंत्र की बात करती है। तारकुंडे की रिपोर्ट भी यही कहती है। लेकिन, फरवरी 1975 में जस्टिस केके मैथ्यू के नेतृत्व वाली जाँच आयोग और सीबीआई की जाँच इससे उलट राय रखती है।

सीबीआई की थ्योरी पर सवाल उठने के कई कारण हैं। इनका तारकुंडे ने अपनी रिपोर्ट में विस्तार से जिक्र किया है। इस रिपोर्ट की माने तो हत्या के तार कॉन्ग्रेस के शीर्ष परिवार और उस समय देश की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गाँधी तक जाती है। पूरे मामले में जिस तरीके से लीपापोती हुई, बिहार पुलिस की जाँच में सामने आए त​थ्यों की अनदेखी हुई, सीबीआई जाँच को लेकर जो हड़बड़ाहट दिखी, कथित तौर पर एक प्रधानमंत्री ने एक जिला जेल के जेलर के प्रमोशन को लेकर जो दिलचस्पी दिखााई, उससे इन तथ्यों को बल मिलता है कि इस मामले की जाँच ही असल गुनहगारों को बचाने के मकसद से की गई।

इंदिरा के साथ एलएन मिश्र

इस हत्याकांड की जाँच पर उठने वाले सवालों और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से इसके तार जोड़े जाने की वजहों को विस्तार से जानने से पहले एलएन मिश्र के राजनीतिक रसूख पर नजर डालते हैं। रेल मंत्री बनने से पहले एलएन मिश्र कॉन्ग्रेस सरकारों में कई जिम्मेदारी सँभाल चुके थे। कुछ लोग उन्हें एक ऐसे नेता के तौर पर याद करते हैं जो संपर्कों और फंड जुटाने की अपनी काबिलियत के कारण कॉन्ग्रेस में तेजी से चढ़े। वहीं बिहार के मिथिला क्षेत्र के लोगों का मानना है कि एलएन मिश्र की आकस्मिक मृत्यु ने पूरे इलाके को पिछड़ेपन की अँधी गली में ढकेल दिया, जहाँ से वह आज भी उबर नहीं पाया है। बिहार के वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने एक इंटरव्यू में बताया था कि मिथिलांचल में कॉन्ग्रेस के पैर उखड़ने की एक बड़ी वजह भी यह हत्या ही थी। यहाँ तक कि एलएन मिश्र के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र को कॉन्ग्रेस द्वारा मुख्यमंत्री बनाए जाने को भी इस मामले को दबाने की नीयत से लिया गया फैसला बताने वाले भी बहुतेरे हैं।

एलएन मिश्र एक समय इंदिरा गाँधी के बेहद करीबी थे। हू किल्ड एलएन मिश्र बताती है कि 1974 के मध्य तक आते-आते दोनों के संबंधों में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही थी। इंदिरा पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के आरोप लग रहे थे। अब उनके लिए मिश्र बोझ की तरह हो गए थे और कथित तौर पर अपनी अपनी छवि बचाने के लिए वे उनसे पीछा छुड़ाना चाहती थीं। यह भी कहा जाता है कि एलएन मिश्र दिसंबर 1974 में जय प्रकाश नारायण से मिले थे। इस तरह के हालात में 2 जनवरी 1975 को उन पर हमला हुआ था।

तारकुंडे रिपोर्ट बताती है कि हमले के बाद गिरफ्तार हुए अरुण कुमार ठाकुर ने इस हत्या का मास्टरमाइंड ‘बॉस’ को बताया था। अरुण कुमार मिश्रा ने ‘बॉस’ की पहचान रामबिलास झा के तौर पर की जो विधानपार्षद थे। वे उस कार्यक्रम में भी मौजूद थे जिसमें मिश्र पर हमला हुआ था। तारकुंडे की रिपोर्ट रामबिलास झा के लिंक यशपाल कपूर से बताती है, जो इंदिरा गाँधी के सचिव थे।

ऑपइंडिया से बातचीत में वैभव मिश्र ने बताया, “मैं किसी का नाम नहीं लेना चाहता। लेकिन सब जानते हैं कि मेरे बाबा बड़ी हस्ती थे। उनकी इस तरह हत्या होना अपने आप में एक बड़ी कॉन्सपिरेसी की तरफ इशारा करती है। उनकी हत्या के 6 महीने बाद इमरजेंसी लागू कर दिया गया था। चीफ जस्टिस रहे एएन रे पर भी उसी दौरान इसी तरह हमला हुआ था। वे बच गए थे, लेकिन मेरे बाबा चल बसे। उस समय का माहौल ही ऐसा था जिससे हमें लगता है कि यह राजनीतिक साजिश थी। तारकुंडे और इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट भी यही कहती है।”

दिलचस्प यह है कि ‘बॉस’ का नाम लेने वाले दोनों अरुण इस मामले में बाद में छोड़ दिए गए। हत्या के लिए जिम्मेदार जिन आनंदमार्गियों को ठहराया गया, उनको लेकर पीड़ित परिवार का मानना है कि उन्हें जान-बूझकर फँसाया गया।

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अजीत झा
अजीत झा
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