असम को भारत से अलग करने की बात कहने वाले शरजील इमाम पर देशद्रोह का मुकदमा दायर होते ही JNU के कुछ छात्र संगठन शरजील के साथ खड़े देखे जा रहे हैं। इनमें से एक नाम जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी यानी जेएनयू की राजनीति में कुछ समय पहले ही कदम रखने वाले बिरसा आंबेडकर फुले स्टूडेंट्स असोसिएशन यानी BAPSA का है।
BAPSA ने अपने फेसबुक अकाउंट पर शरजील इमाम के साथ देने के सम्बन्ध में सूचना शेयर की है। दिलचस्प बात यह है कि स्वयं ‘शाहीन बाग़’ ने आधिकारिक रूप से शरजील इमाम के बयान को विवादास्पद बता कर उससे किनारा कर लिया है। ऐसे में यह देखना हास्यास्पद है कि जब इस CAA-NRC विरोध प्रदर्शन को शुरू करने वाला शाहीन बाग ही शरजील इमाम से पीछा छुड़ाना चाह रहा है, तब यहाँ जेएनयू में अपनी पहचान तलाश रहा बापसा (BAPSA) शरजील के मुस्लिम होने और सताए जाने की बात करते हुए इसमें ब्राह्मणवाद और लहसुनवाद निकाल कर ले आया है।
फेसबुक पर BAPSA द्वारा शेयर किए गए इस पत्र में लिखा है कि ब्राह्मणवादी भाजपा की आईटी सेल ने JNU के मुस्लिम रिसर्च स्कॉलर शरजील इमाम के भाषण की गलत व्याख्या की है। साथ ही, पत्र में यह भी लिखा गया है कि ब्राह्मणवादी भाजपा सरकार के निशाने पर मुस्लिम आसानी से आ जाते हैं। इस पत्र में BAPSA ने मीडिया को भी ब्राह्मणवादी बताया है।
पत्र में देशद्रोह (124 A) को नफरत से भरी हुई सरकारों के द्वारा विरोधियों की आवाज दबाने का हथियार बताया गया है। BASPA ने ‘समझदार लोगों’ से निवेदन किया है कि वे साथ मिलकर UAPA और AFSPA जैसे ‘फासिस्ट’ कानूनों का भी विरोध करें।
मनुवाद और ब्राह्मणवाद की ढपली बजाने तक सीमित है BAPSA
छात्र राजनीति के नाम पर JNU में 2014 में अस्तित्व में आए BAPSA संगठन की हैसियत सिर्फ चुनावों के समय अपना समर्थन दूसरी पार्टी को देने तक सीमित है। यदि BAPSA के इतिहास पर नजर दौड़ाएँ तो पता चलता है कि इस दल ने वैसे तो अपने लिए कुछ भी उल्लेखनीय कार्य नहीं किया है, बस दूसरों को ऐसे ही बिना माँगे ‘समर्थन’ दे-दे कर किसी भी तरह चर्चा में बने रहना ही इनकी जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद है। इस दल की पूरी राजनीति घोर जातिवादी होने और उमर खालिद और लिंगलहरी कन्हैया कुमार जैसे साम्प्रदायिक गुंडों को डिफेंड करने पर ही टिकी हुई है।
JNU में वर्ष 2019 के चुनावों में भी BAPSA की स्थिति यह थी कि 2018 के JNU चुनाव में जहाँ BAPSA संगठन का वोट शेयर 20.2% था, वह 2019 में 13% पर सिमट गया था। ऐसे में लगभग 8000 लोगों वाली यूनिवर्सिटी में महज नैतिक जीत से ही संतोष करने वाली यह ‘बापसा’ पार्टी कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसों के बीच ब्राह्मणों को पानी पी-पी कर कोसने के कारण ही दस-पाँच लोगों के बीच जाना जाती है और आज यही बापसा साम्प्रदायिक भाषण देकर सस्ती लोकप्रियता बटोर रहे लोगों के साथ खड़े होकर सिर्फ अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रही है।
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