चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ समझौते को लेकर आजकल कॉन्ग्रेस सुर्खियों में है। उसकी अध्यक्ष सोनिया गॉंधी की स्वामित्व वाली राजीव गाँधी फाउंडेशन को चीन से समय-समय पर वित्तीय मदद मिलने की बात भी सामने आई है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के जमाने में अलग-अलग सरकारी खजाने से भी इस फाउंडेशन को ‘दान‘ देने के तथ्य सामने आए हैं।
लेकिन विदेश मुल्कों खासकर कम्युनिस्टों से पैसा लेना कॉन्ग्रेस और उसके नेताओं की नई आदत नहीं है। इंदिरा गाँधी के जमाने से ऐसा धड़ल्ले से होने के तथ्य सार्वजनिक हैं। इन पन्नों को पलटने से पहले हम साठ और सत्तर के दशक में कॉन्ग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार रहे ललित नारायण मिश्रा की बात कर लेते हैं।
मिश्रा बिहार से आते थे। इंदिरा की सरकार के कद्दावर मंत्री थे। 3 जनवरी 1975 को उनकी मौत हो गई। इससे एक दिन पहले बिहार के समस्तीपुर में उन पर बम फेंका गया था। आनंदमार्गियों को इस हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। लेकिन, इस पर ज्यादातर लोग, जिसमें ललित बाबू के परिजन भी शामिल हैं, ने कभी यकीन नहीं किया। आज भी जब ललित नारायण मिश्रा को लेकर चर्चा होती है तो साजिशों के तमाम पन्ने उधेड़े जाते हैं। बड़े-बुजुर्ग बताते हैं कि उस समय एक नारा भी लगा था- मिश्रा की हत्या में केजीबी का हाथ है।
केजीबी (KGB) यानी सोवियत संघ की खुफिया एजेंसी कोमितेत गोसुदर्स्त्वेन्नोय बेज़ोप्स्नोस्ति। इसका गठन 13 मार्च 1954 को हुआ था और 1991 में सोवियत संघ के बिखराव तक इसका अस्तित्व बना रहा है। शीत युद्ध के दौर में कम्युनिस्ट शासन वाला सोवियत संघ केजीबी का इस्तेमाल विदेशी नेताओं को साधने के लिए भी करता था और कथित तौर उन्हें रास्ते से हटाने के लिए भी। अमेरिकी राष्ट्रपति जानएफ कैनेडी की हत्या में भी उसका नाम आया था। हालॉंकि संलिप्तता के सबूत कभी नहीं मिले।
इसी केजीबी के मार्फत इंदिरा गाँधी के जमाने में कॉन्ग्रेसी नेताओं को पैसा दिया जाता था। 2017 की शुरुआत में अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के कुछ पुराने गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक किए गए थे। इससे पता चलता है कि इंदिरा गाँधी के जमाने में कॉन्ग्रेस के 40 फीसदी सांसदों को सोवियत संघ से पैसा मिला था। 2005 में केजीबी के ही एक पूर्व जासूस वासिली मित्रोकिन (Vasili Mitrokhin) की किताब आई थी। इसमें तो बकायदा बताया गया है कि खुद इंदिरा गाँधी को सूटकेसों में भरकर पैसे भेजे गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर ने ऑपइंडिया को बताया कि जो तथ्य सार्वजनिक हैं उससे जाहिर होता है कि 1967 के आम चुनाव के वक्त कॉन्ग्रेस सहित देश के ज्यादातर राजनीतिक दलों को विदेश से पैसा मिला था। उन्होंने बताया कि शीत युद्ध के जमाने में कम्युनिस्ट देश जहाँ भारत में साम्यवाद के फैलाव के लिए पैसे खर्च कर रहे थे, तो पूँजीवादी देश साम्यवाद को रोकने के लिए। ऐसे में जब सत्ताधारी दल का नेता ही बिकने को तैयार हो तो विदेशी ताकतों के लिए चीजें आसान हो जाती है।
किशोर ने ऐसी कुछ घटनाओं का जिक्र करते हुए एक फेसबुक पोस्ट भी लिखा है। इसमें उन्होंने बताया है कि विदेश से पैसा लेने के मामले की जाँच भी कराई गई थी, लेकिन उसकी रिपोर्ट दबा दी गई। जब कुछ विपक्षी सांसदों ने इसे सार्वजनिक करने की माँग की तो तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री यशवंत राव चव्हाण ने संसद में कहा कि जिन दलों और नेताओं को विदेशों से धन मिले हैं, उनके नाम जाहिर नहीं किए जा सकते, क्योंकि इससे उनके हितों को नुकसान पहुँचेगा।
आप कल्पना कर सकते हैं कि यदि आज केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार नहीं होती तो राजीव गाँधी फाउंडेशन को चीन से मिले दान और कॉन्ग्रेस से उसके समझौते की बात शायद ही सार्वजनिक चर्चा का हिस्सा बन पातीं।
लेकिन, सालों तक जिन तथ्यों को कॉन्ग्रेस छिपाती रही उसे मित्रोकिन ने 2005 में दुनिया के सामने ला दिया। वे सोवियत संघ जमाने के हजारों गोपनीय दस्तावेज चुराकर देश से बाहर ले गए थे। बाद में इसके आधार पर क्रिस्टोफर एंड्रयू (Christopher Andrew) के साथ मिलकर किताबें लिखी। द वर्ल्ड वॉज गोइंग आवर वे (The World Was Going Our Way) नामक किताब में कहा गया है कि केजीबी ने 1970 के दशक में पूर्व रक्षा मंत्री वीके मेनन के अलावा चार अन्य केंद्रीय मंत्रियों को भी चुनाव प्रचार के लिए फंड दिया था।
2017 में सामने आई दिसंबर 1985 की सीआईए की रिपोर्ट में बताया गया है कि सोवियत संघ ने भारतीय कारोबारियों के साथ समझौतों के जरिए कॉन्ग्रेस पार्टी को रिश्वत दी थी। सोवियत संघ का दूतावास कॉन्ग्रेस नेताओं को छिपकर रकम देने सहित कई खर्चों के लिए बड़ा रिजर्व रखता था। इसके मुताबिक कॉन्ग्रेस के अलावा सीपीआई और सीपीएम को भी सोवियत संघ से काफी पैसा मिलता था। ऐसा नहीं है कि सभी को पैसे ही दिए गए थे। कुछ के साथ तो सोवियत संघ ने बकायदा समझौता भी किया था। कुछ-कुछ वैसा ही जैसा 2008 में कॉन्ग्रेस और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बीच होने की बात सामने आई है।
इन दस्तावेजों से पता चलता है कि केजीबी के पैसे की वजह से भारत के ढेरो नेता सोवियत संघ की मुट्ठी में थे और वे भारतीय राजनीति को अपने हितों के हिसाब से प्रभावित करते थे। मित्रोकिन की किताब में भी यह बात कही गई है। केजीबी के लीक दस्तावेजों में भारत को तीसरी दुनिया की सरकारों में केजीबी के घुसपैठ का एक मॉडल बताया गया था। इन दस्तावेजों में साफ तौर पर भारत सरकार में केजीबी के बहुत से सूत्र होने की बात कही गई थी।
ऐसा भी नहीं है कि इंदिरा के बाद विदेश से पैसा लेने की कॉन्ग्रेस की आदत छूट गई। दस्तावेज बताते हैं कि सोवियत संघ से पैसा लेने का जो सिलसिला इंदिरा गाँधी के जमाने में शुरू हुआ था वह राजीव गाँधी के जमाने में भी जारी रहा है। हालॉंकि इस दौर में सोवियत संघ का प्रभाव कुछ सीमित करने की कोशिश भी हुई थी।
ये दस्तावेज मीडिया में भी केजीबी की घुसपैठ के बारे में बताते हैं। इसके अनुसार सोवियत संघ ने अपने प्रोपेगेंडा के प्रचार के लिए भारत के बड़े मीडिया संस्थानों के साथ व्यापक पैमाने पर साँठगाँठ कर रखी थी। वे उसकी जरूरत के हिसाब से लेख लिखते थे। यहाँ तक की संपादकीय में भी सोवियत संघ की धुन बजाते थे। जिन संस्थानों का जिक्र है, उनमें से कुछ के नाम हैं- टाइम्स आफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, द स्टेट्समैन, द हिंदू वगैरह।
मित्रोकिन ने अपनी किताब में बताया है कि सोवियत संघ ने इस काम के लिए भारत में 40-50 पत्रकार रखे थे। बाद के सालों में इनकी संख्या बढ़कर 200 से 300 हो गई थी।
अब आप समझ गए होंगे कि मुख्यधारा की मीडिया में वामपंथी लिबरल प्रोपेगेंडा का शोर इतना क्यों सुनाई पड़ता है। सोवियत संघ के पतन के बाद इन्होंने मालिक भले बदल लिया हो, लेकिन उसके इशारे पर भारत विरोधी धुन बजाने की पुरानी आदत बनी हुई है।
चलते-चलते: कहा जाता है कि मौत से पहले ललित नारायण मिश्रा चंदा उगाही के कॉन्ग्रेसी सरगना थे। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि वे इंदिरा के लिए ही चुनौती बन गए थे। जिंदा रहते तो प्रधानमंत्री भी बनते। आपातकाल नहीं लगने देते। वगैरह, वगैरह। आपातकाल मिश्रा के मौत के साल ही 25 जून को लगा था। इसमें भी केजीबी की भूमिका बताई जाती है। ऐसे मिश्रा की हत्या से केजीबी को क्या फायदा हुआ होगा? सोचिए!!!