ब्रिटेन के अखबार ‘द टेलीग्राफ’ ने भारत को ‘शत्रु राष्ट्र’ कहकर सनसनी फैला दी। लेखक टॉम शार्प ने सोमवार (1 जुलाई 2025) भारत के रूस से सस्ता तेल और हथियार खरीदने पर सवाल उठाए, इसे पश्चिम के खिलाफ बताया। टॉम की मानें तो रूस से अपनी उर्जा जरूरतों और सैन्य साजोसामान खरीदने वाला भारत पश्चिमी देशों का दोस्त नहीं है, बल्कि दुश्मन है। वो ऐसा करके दूसरे पक्ष के साथ खड़ा है।
उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना यह कहते हुए किया कि भारत ने सस्ता रूसी तेल खरीदकर पुतिन के युद्ध को बढ़ावा दिया है। लेख में यह भी कहा गया कि रूस से भारत की रक्षा खरीद एक रणनीतिक खतरा है और भारत की तटस्थता को ‘दोहरेपन’ के रूप में दिखाया गया।
लेकिन लेखक यह भूल गए कि भारत बार-बार साफ कर चुका है कि वह अपने फैसले अपने राष्ट्रीय हित में ही लेता है न कि किसी और के दबाव में। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने स्पष्ट कहा की, “यूरोप को यह सोचना बंद करना होगा कि उसकी समस्याएँ ही दुनिया की समस्याएँ हैं, लेकिन दुनिया की समस्याएँ उसकी नहीं हैं।”
भारत तटस्थ नहीं है, वह अपनी रणनीतिक स्वायत्तता (Strategic Autonomy) का उपयोग करता है, जिससे वह अपने लोगों के हित में सस्ती ऊर्जा और सुरक्षित रक्षा आपूर्ति सुनिश्चित करता है।
लेख में यह सवाल नहीं उठाया गया कि वास्तव में रूस को फंड कौन कर रहा है? और जब लंदन खुद रूसी अमीरों का पैसा साफ करने की जगह बन चुका है और भारत से वांछित आर्थिक अपराधियों को शरण देता है, तो ब्रिटेन भारत पर सवाल उठाने की नैतिक स्थिति में है भी क्या? इस पूरी बहस में असली मुद्दा भारत की आलोचना नहीं, बल्कि पश्चिम की दोहरी नीति और भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को समझने की जरूरत है।
टेलीग्राफ की आलोचना और असली सच्चाई
टेलीग्राफ की नाराजगी की एक वजह रूस के यंतर शिपयार्ड में बने स्टेल्थ युद्धपोत आईएनएस तमाल का भारत में शामिल किया जाना भी है। लेखक ने इसे भारत का रूस के साथ मिलकर काम करने पर सवाल उठाते हुए ‘विश्वासघात’ जैसा बताया, जैसे यह कोई गलत फैसला हो।
लेकिन हकीकत तो ये है कि भारत और रूस के बीच रक्षा सहयोग बहुत पुराना और भरोसेमंद रहा है। जब पश्चिमी देश जैसे ब्रिटेन और अमेरिका ने भारत को आधुनिक हथियार देने से मना कर दिया था, तब सोवियत संघ (रूस) ने भारत को सस्ते, भरोसेमंद और बिना शर्त हथियार दिए।
INS Tamal – F 71#IndianNavy's Latest Stealth Frigate, Commissioned on date – 01 July 2025 https://t.co/vjeSZQP6RW pic.twitter.com/FWOZSFXCvo
— SpokespersonNavy (@indiannavy) July 1, 2025
आईएनएस तमाल कोई नई या अनोखी बात नहीं है, बल्कि यह उसी लंबे रिश्ते का हिस्सा है। यह भारत की रणनीतिक जरूरत और भरोसे पर आधारित है, ना कि किसी पश्चिमी देश की नाराजगी से तय होता है।
अगर आज भारत रूस से हथियार खरीदता है तो यह उसकी अपनी सुरक्षा और हित को ध्यान में रखकर होता है। भारत अब अलग-अलग देशों से हथियार लेता है, लेकिन यह उसका स्वतंत्र फैसला होता है।
एक युद्धपोत से देश की नीयत नहीं तय होती, लेकिन ब्रिटेन की तीखी प्रतिक्रिया ये दिखाती है कि वह आज भी भारत से वही पुराने रवैये की उम्मीद करता है। पश्चिम का असहज महसूस करना भारत की सोच को नहीं बदल सकती।
भारत पर उंगली उठाने वाले ब्रिटेन को खुद के गिरेबान में झाक लेना चाहिए
भारत को रूस से सस्ता तेल खरीदने पर ‘दुश्मन’ कहने वाले टेलीग्राफ और ब्रिटेन को पहले अपने गिरेबान में झाँकना चाहिए। लंदन सालों से रूस के अवैध पैसे को छिपाने की जगह बना हुआ है।
ढीले कानून, रियल एस्टेट में छूट और ‘गोल्डन वीजा’ जैसी नीतियों ने रूसी अमीरों को अरबों की संपत्ति यूके में लगाने का मौका दिया। 2020 की यूके संसद की रिपोर्ट में माना गया कि लंदन गंदे रूसी पैसे का लॉन्ड्री सेंटर बन चुका है।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल ने बताया कि 1.5 अरब पाउंड (17487 करोड़ रुपए) से ज्यादा की संपत्ति भ्रष्ट या क्रेमलिन से जुड़े रूसियों से जुड़ी है और इसका बड़ा हिस्सा लंदन में है। यू.के. की राष्ट्रीय अपराध एजेंसी ने भी माना है कि रूसी फर्जी लेन-देन में आधे से ज्यादा यू.के. से जुड़े हैं।
ऐसे में, जब खुद ब्रिटेन ने सालों रूस के पैसों से अपनी अर्थव्यवस्था को फायदा पहुँचाया, तो भारत को सिर्फ सस्ता तेल खरीदने पर ‘दुश्मन’ कहना पूरी तरह से गलत और दोहरा रवैया है। भारत तो बस अपने लोगों के लिए सस्ता ईंधन चाहता है, इसमें दुश्मनी कैसी?
यूरोपीय संघ का ऊर्जा संबंधी पाखंड, वही तेल खरीदते समय भारत को उपदेश देना
भारत को रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदने पर आलोचना का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन अगर सही देखा जाए तो पश्चिम खुद इसमें पीछे नहीं है। रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद भी, यूरोप ने रूसी तेल का आयात बढ़ाया। मार्च 2022 में विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने बताया था कि यूरोप ने हर महीने 15% ज्यादा तेल मँगवाया।
युद्ध के पहले 9 महीनों में यूरोपीय संघ ने भारत से 6 गुना ज्यादा रूसी ऊर्जा खरीदी। जर्मनी, इटली और नीदरलैंड इसमें सबसे आगे थे। आज भी, जबकि रूस पर प्रतिबंध लगे हैं, यूरोपीय देश तीसरे देशों के जरिए रूस का रिफाइन्ड तेल खरीद रहे हैं और इसमें भारत सबसे बड़ा सप्लायर है।
भारत सस्ता रूसी कच्चा तेल खरीदता है, उसे अपने रिफाइनरियों में साफ करता है और फिर वही तेल यूरोप को बेचता है। 2024 में भारत ने सऊदी अरब को पीछे छोड़कर यूरोप का सबसे बड़ा ईंधन सप्लायर बन गया और ये ज्यादातर ईंधन रूसी तेल से ही बना था।
यूरोपीय कानून रूस से सीधे कच्चा तेल लेने से रोकते हैं, लेकिन अगर तेल भारत जैसे देश में रिफाइन हो जाए, तो वह साफ माना जाता है। यानी तेल वही है, बस रास्ता बदल गया है। तो बात ये है कि यूरोप की कारें रूसी तेल से ही चल रही हैं, फर्क बस इतना है कि वह तेल भारत की रिफाइनरियों के जरिए आ रहा है।
जब टेलीग्राफ भारत को दोहरा कहता है, तो वह यह भूल जाता है कि भारत आज पश्चिम के लिए एक ऊर्जा केंद्र बन चुका है। यूरोप रूस पर दिखावे के प्रतिबंध लगाता है, लेकिन हकीकत में उसी तेल को भारत से खरीदकर अपनी जरूरतें पूरी करता है।
रूस से हथियार खरीदने पर भारत की आलोचना का असली सच क्या है?
हाल ही में टेलीग्राफ ने ऑपरेशन सिंदूर के दौरान भारत की सैन्य ताकत को नजरअंदाज कर दिया, जहाँ ब्रह्मोस मिसाइल और S-400 सिस्टम जैसे रूसी हथियारों ने अहम भूमिका निभाई। इसके बजाय अखबार ने भारत की रूस पर रक्षा निर्भरता का मजाक उड़ाया।
लेकिन वो ये भूल गया कि भारत ने रूस से रक्षा संबंध तब शुरू किए थे, जब पश्चिमी देशों ने भारत को हथियार देने से मना कर दिया था। सोवियत संघ और बाद में रूस ने भारत को सस्ते, भरोसेमंद और बिना शर्त हथियार दिए। यही वो कारण थे जिनकी वजह से भारत ने रूस के साथ मजबूत रक्षा साझेदारी बनाई और यही साझेदारी आज भी काम आ रही है।
भारत अपने 60% हथियार भंडार को एक दिन में नहीं बदल सकता और ना ही ऐसा करना सही होगा, खासकर किसी बाहरी दबाव में। भारत अब अमेरिका, फ्रांस, इजरायल से भी हथियार ले रहा है और साथ ही तेजस फाइटर जेट, ड्रोन, मिसाइल सिस्टम और वायु रक्षा जैसी स्वदेशी तकनीकों में भी निवेश कर रहा है।
भारत के पास दो दुश्मन पड़ोसी हैं, एक तरफ पाकिस्तान दूसरी ओर चीन। ऐसे में भारत को भरोसेमंद और समय पर मिलने वाली सैन्य सप्लाई चाहिए और रूस अब भी अपने वादे निभाता है।
पश्चिमी देशों से हथियार खरीदना अक्सर राजनीतिक शर्तों जाँच और वीटो जैसे मामलों से जुड़ा होता है। भारत इन चीजों का जोखिम नहीं उठा सकता। कारगिल युद्ध के वक्त अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ दिया था और ईरान जैसे देश को भी वही अमेरिका बाद में रोकने लगा, जिसकी उसने पहले मदद की थी।
भारत ने हमेशा शांति और बातचीत का समर्थन किया है, इसलिए रूस से सहयोग का मतलब ये नहीं कि भारत युद्ध का समर्थन करता है। रूस के साथ भारत का रिश्ता सिर्फ व्यापार नहीं बल्कि सोचा समझा रणनीतिक सुरक्षा कवच है, जो भारत के राष्ट्रीय हितों की रक्षा करता है।
भारत की ऊर्जा जरूरतें नहीं हैं अनैतिक
पश्चिमी देश अक्सर भारत की व्यावहारिक सोच को अनैतिक बता देते हैं। लेकिन विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने एकदम साफ शब्दों में कहा है, “अगर यूरोप अपनी देखभाल कर सकता है, तो हम भी कर सकते हैं।”
उन्होंने याद दिलाया कि भारत की प्रति व्यक्ति आय करीब 2,000 डॉलर है, जबकि यूरोप की 60,000 डॉलर। ऐसे में अगर यूरोप अपने लिए एलएनजी जमा करता है, तो भारत से ये उम्मीद करना कि वह सस्ता रूसी तेल न खरीदे, ये न्याय नहीं बल्कि पाखंड है।
भारत रूस से तेल इसलिए खरीदता है क्योंकि उसके 140 करोड़ लोगों को सस्ती ऊर्जा की जरूरत है, न कि युद्ध को समर्थन देने के लिए। जैसा कि डॉ. जयशंकर ने कहा, “हम भू-राजनीतिक फायदा पाने के लिए अपने लोगों को मंदी में नहीं झोंकते।”
भारत लगातार शांति और बातचीत की बात करता रहा है, जबकि पश्चिमी देश यूक्रेन को हथियार दे रहे हैं और इस युद्ध को और लंबा कर रहे हैं। अब सवाल यह है की वास्तव में तटस्थ कौन है? इसका फैसला लोगों को खुद करना चाहिए।
भगोड़ों के मामले में पाखंडी बना ब्रिटेन, लंदन बना सुरक्षित पनाहगाह
अगर ब्रिटेन वास्तव में नैतिकता की बात करना चाहता है, तो उसे पहले यह जवाब देना होगा कि वह भारत के सबसे बड़े आर्थिक अपराधियों को शरण क्यों दे रहा है। विजय माल्या जो 9,000 करोड़ रुपए की बैंक धोखाधड़ी का आरोपित है, वो 2016 से लंदन में रह रहा हैं।
भारत ने उसका प्रत्यर्पण आदेश (Extradition order) भी जीत लिया है, लेकिन वों अब भी ब्रिटेन में हैं क्योंकि वहाँ की कानूनी प्रक्रिया में बार-बार अपीलें उसको बचा रही हैं। नीरव मोदी जो 14,000 करोड़ रुपए का PNB बैंक घोटाले में आरोपित हैं, 2019 से ब्रिटेन की जेल में हैं।
भारत के पास उसके खिलाफ मजबूत सबूत हैं, फिर भी उसका प्रत्यर्पण अब तक नहीं हो पाया। इसी तरह, संजय भंडारी जैसे आरोपित भी ब्रिटेन में खुलेआम रह रहा हैं। हर बार ब्रिटेन की अदालतें ‘मानवाधिकार’ और ‘भारतीय जेलों की स्थिति’ का हवाला देकर इन अपराधियों के प्रत्यर्पण को रोक देती हैं।
लेकिन यही ब्रिटेन गरीब और मजबूर अवैध प्रवासियों को बहुत जल्दी उनके देश भेज देता है, चाहे वे रवांडा या अल्बानिया से हों। तो क्या यह संदेश दिया जा रहा है कि अगर आप अमीर और भारतीय हैं।
तो आपको ब्रिटेन में सुरक्षा मिलेगी और अगर आप गरीब हैं, तो आपको बाहर फेंक दिया जाएगा? यह दोहरा मापदंड बताता है कि ब्रिटेन आज ‘आर्थिक अपराधियों की पनाहगाह’ बनता जा रहा है। ऐसे में सवाल उठता है, क्या ऐसा देश दुनिया को नैतिकता और सही-गलत का पाठ पढ़ाने लायक है?
‘व्हाटअबाउटइज्म’ या जरूरी हकीकत की जाँच
जब भी भारत पश्चिम के दोहरे मापदंडों को उजागर करता है, तो उस पर अक्सर ‘व्हाटअबाउटिज़्म’ यानी ‘उलटा सवाल पूछने’ का आरोप लगाया जाता है। लेकिन यह ध्यान भटकाने की कोशिश नहीं, बल्कि न्याय और बराबरी की माँग है।
अगर पश्चिम यह कहता है कि रूस से तेल खरीदना युद्ध को बढ़ावा देना है, तो फिर रूस से गैस खरीदने पर क्या कहेंगे? लंदन स्टॉक एक्सचेंज में रूसी कंपनियों की मौजूदगी पर क्या राय है? और यमन युद्ध के दौरान सऊदी अरब को हथियार बेचने के बारे में क्या? ये कुछ ऐसे सवाल है जिनके बारे में वों शायद भूल जाते है।
सच्चाई यह है कि 2015 से ब्रिटेन ने सऊदी अरब को 20 अरब पाउंड से ज्यादा के हथियार बेचे, जबकि सऊदी जेट ने यमन में नागरिकों के ठिकानों पर हमले किए। लेकिन क्या टेलीग्राफ ने कभी इस पर गुस्सा जताया? नहीं, क्योंकि उसका गुस्सा सिर्फ भारत को निशाना बनाने के लिए है, ना कि ब्रिटेन के अपने आकाओं के लिए।
हर देश अपने रणनीतिक हितों के लिए फैसले लेता है, पश्चिम सदियों से यही करते आ रहा है। अगर भारत ऐसा कर रहा है तो यह धोखा नहीं, समझदारी और परिपक्वता की निशानी है। भारत अपने फैसले अपने लोगों की जरूरतों को प्राथमिकता देकर लेता है, किसी और की मर्जी से नहीं।
पश्चिम को आज्ञाकारिता की अपेक्षा, स्वतंत्रता की नहीं
पश्चिम के कई टिप्पणीकारों को यह बात परेशान करती है कि भारत अब लाइन में नहीं रहता। यह संयुक्त राष्ट्र के मंचों पर सही तरीके से मतदान नहीं करता। यह तेल वहीं खरीदता है जहाँ इसे सबसे अच्छा सौदा मिलता है, प्रेस कॉन्फ्रेंस में बेबाकी से बोलता है और सभी को याद दिलाता है कि इसकी विदेश नीति यहीं रहेगी।
भारत ने पक्ष लेना बंद कर दिया है। यह भारत के साथ खेल रहा है और बदलते गठबंधनों, लेन-देन की कूटनीति और आर्थिक राष्ट्रवाद की दुनिया में यही एकमात्र स्थिर स्थिति है जिसे भारत को बनाए रखना चाहिए।
अपने हितों को हर चीज से ऊपर रखने की भारत की इच्छा को ‘शत्रु व्यवहार’ कहना बेतुका है। यह दर्शाता है कि ब्रिटेन में अभी भी औपनिवेशिक नशा है, जहाँ भारत से एक वफादार की तरह व्यवहार करने की उम्मीद की जाती है, न कि एक भरोसेमंद बराबरी वाले देश की तरह।
यूके जैसे देशों के पास भारत को नैतिकता सिखाने का कोई हक नहीं
यूके को भारत और रूस के प्रति रुख से असहमत हो सकता है, लेकिन उसके पास भारत को नैतिकता सिखाने का कोई हक नहीं है। भारत पर सवाल उठाने से पहले यूके को यह बताना चाहिए कि उसने लंदन में रूसी अमीरों को सालों तक पैसा छिपाने की छूट क्यों दी, क्यों उसके पास आज भी रूस से जुड़ा हुआ एक सक्रिय आर्थिक तंत्र है।
क्यों वह भारत के आर्थिक भगोड़ों को वापस नहीं भेजता और क्यों आज भी भारत जैसे देशों के जरिए रूस से आने वाले रिफाइन्ड तेल का इस्तेमाल कर रहा है। ना तो भारत और ना ही यूके दोनों ही परिपूर्ण नहीं हैं, लेकिन भारत को सिर्फ इसलिए ‘दुश्मन’ कहना, क्योंकि वह अपने लोगों के लिए सस्ता तेल खरीदता है। ये गलत है।
जबकि ब्रिटेन उन्हीं भारतीय धोखेबाजों को शरण देता है, रूसी पैसे से अपने शहर को चलाता है और तेल के लिए चुपचाप नियमों की खामियों का फायदा उठाता है, ये सबसे बड़ा पाखंड है। आज दुनिया बदल रही है, अब रिश्ते दबाव या आदेश पर नहीं, बल्कि आपसी सम्मान पर टिकें है। भारत अपनी स्वतंत्रता, फैसलों और लोगों के हितों की रक्षा करता रहेगा। अब वक्त आ गया है कि ब्रिटेन ये समझे कि आजाद भारत को अब उपदेश नहीं, बराबरी चाहिए।
मूल रूप से यह रिपोर्ट अंग्रेजी में अनुराग ने लिखी है, इस लिंक पर क्लिक कर विस्तार से पढे।