गुप्त सूत्रों ने बताया है कि अब से विमल गुटखा अपने विज्ञापनों में 'जुबाँ हरी हरी' कहेंगे। साथ ही, राजस्थानियों का 'केसरिया बालम' अब 'हरिया बालम' या 'करिया बालम' के नाम से पधारने को कहा जाएगा। नारंगी के फलों को पकने से पहले ही तोड़ लिया जाएगा ताकि वो बाहर से हरे और भीतर से सफेद ही दिखें और देश की सेकुलर फैब्रिक टाइट बनी रहे।
अगर मारे गए किसी "समुदाय विशेष" के परिवार को मिले सरकारी मुआवजे को देखें और उसकी तुलना भीड़ द्वारा मार दिए गए डॉ नारंग, रिक्शाचालक रविन्द्र जैसी दिल्ली में हुई घटनाओं से करें तो ये अंतर खुलकर सामने आ जाता है।
आपको सेना के जवानों से सबूत माँगते वक्त लज्जा नहीं आई, आपको एयर स्ट्राइक पर यह कहते शर्म नहीं आई कि वहाँ हमारी वायु सेना ने पेड़ के पत्ते और टहनियाँ तोड़ीं, आपको बटला हाउस एनकाउंटर वाले अफसर पर कीचड़ उछालते हुए हया नहीं आई, लेकिन किसी पीड़िता के निजी अनुभव सुनकर आपको मिर्ची लगी कि ये जो बोल रही है, वो तो पूरी पुलिस की वर्दी पर सवाल कर रही है।
रवीश एक घोर साम्प्रदायिक और घृणा में डूबे व्यक्ति हैं जो आज भी स्टूडियो में बैठकर मजहबी उन्माद बेचते रहते हैं। साम्प्रदायिक हैं इसलिए उन्हें मजहबी व्यक्ति की रिहाई पर रुलाई आती है, और हिन्दू साध्वी के चुनाव लड़ने पर यह याद आता है कि भाजपा नफ़रत का संदेश बाँट रही है।
9 वर्षों तक जेल के सलाखों के पीछे रह चुकीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ने जब अपनी आपबीती सुनाई तो अच्छे-अच्छों के रोंगटे खड़े हो गए। जब उन्होंने मीडिया के सामने आकर बताया कि उन्हें अपना 'अपराध' मानने के लिए किस तरह से टॉर्चर किया गया, तो सुननेवाले भी काँप उठे।
कल दो घटनाएँ हुईं, और दोनों ही पर मीडिया का एक गिरोह चुप है। अगर यही बात उल्टी हो जाती तो अभी तक चुनावों के मौसम में होली की पूर्व संध्या पर देश को बताया जा रहा होता कि भगवा आतंकवाद कैसे काम करता है। चैनलों पर एनिमेशन और नाट्य रूपांतरण के ज़रिए बताया जाता कि कैसे एक हिन्दू ने ट्रेन में बम रखे और समुदाय विशेष को अपनी घृणा का शिकार बनाया।