ऐसे बहुत कम दिन बचे हैं जिस दिन पत्रकारिता के नाम पर कोई कॉमेडी नहीं होती। पत्रकारिता पर बकैती का भार हर दिन बढ़ता ही जा रहा है, अब बिना रवीश की बकवास के सोमवार या बुधवार आता ही नहीं है। कोई दिन ऐसा नहीं आता जब फेसबुक या टीवी पर रवीश कुमार देश में बन रहे कानून, कानून के ड्राफ्ट, ड्राफ्ट के पन्ने, पन्नों की इंक, इंक की क्वालिटी, क्वालिटी आइसक्रीम, आइसक्रीम की डंडी, डंडी के झंडे, झंडे का रंग, रंगीन झंडे वाला मंदिर, मंदिर के शिलान्यास, प्रधानमंत्री के कुर्ते, केन्द्रीय मंत्री के बयान, रेलगाड़ी के पहिए, रफाल की कीमत, कोविड के आँकड़े, वित्त मंत्रालय के डेटा, सरकारी पोस्टर, शौचालय, मूत्रालय, रवीशालय आदि पर अपने सारगर्भित विश्लेषण देने से चूकते हों।
विश्लेषणों का दायरा और भी लम्बा हो सकता है। आने वाले दिनों में NDTV में कौन किसका काट कर भाग गया से ले कर, कौन अपना कटवाने के बाद भी प्रेमिका की शादी में सिलिंडर ढो रहा है, इस पर भी रवीशचर्चा की जा सकती है। मैग्सेसे पर पड़ती धूल से ले कर चेहरे पर छाती कालिमा की परत, जिसे घर आया मेकअप एक्सपर्ट फाउंडेशन या बीबी क्रीम मार कर भी सही नहीं कर पाता, इस पर भी रवीशचर्चा की जा सकती है और मोदी को जिम्मेदार बताया जा सकता है। झड़ते बालों और उड़ते टीआरपी पर भी रवीशरोना रोया जा सकता है। रविष अनंत, विषकथा अनंता।
हम मुद्दों को बहुत कम उनकी महत्ता से याद रखते हैं। एंकरों में पतित, पतिताधिराज और पतितखंती एंकरों के फेसबुक और ट्विटर टाइमलाइन पर जाएँ, इतने अच्छे कार्यों और योजनाओं के बीच भी, वो सरकार को किसी भी तरह से घेर लेना, कभी भी नहीं भूलते। मैं हैरान होता हूँ कि उन्हें इतने प्रपंची ख्याल आते कैसे हैं? 29 जून से 29 जुलाई के बीच रवीश ने कुल अनगिनत बार रवीशरोना रोया है।
सुबह में भी प्रोपेगेंडा ठेलते हैं, शाम में भी। मुझे एक गीत याद आ गया: सुबह को लेती है, शाम को लेती है, दिन में लेती है, रात में लेती है, क्या बुरा है, उसका नाम लेती है… गीत की अगली पंक्तियाँ हैं: रात को मोहे नींद न आए, मोदीघृणा मेरे तन को जलाए, तेरा तो हाल बुरा है, प्रपंच का रोग लगा है, चुपके से चोरी-चोरी, कॉन्ग्रेस से मिल ले गोरी… बस में लेती है, लोकल में लेती है, स्टूडियो में लेती है, टीवी पर लेती है… पूरा गाना अश्लील है, शब्द पर कम ध्यान दीजिए, भावनाओं को पकड़िए।
उन दिनों को भी याद करें जब रवीश कुतर्क के सहारे सुषमा स्वराज की मृत्यु के बाद उसमें राजनीति ढूँढ लाए थे। उन दिनों को भी याद करें जब रवीश का चैनल जुलाई के अंत तक 30 से 40 करोड़ लोगों के कोरोनाग्रस्त होने के दावे कर रहा था। वैसे पोस्टों को भी याद करें जब रवीश हर दिन ‘अहमदाबाद में टेस्टिंग नहीं हो रही है’ पर रोता था, लेकिन उसे मुंबई, दिल्ली या तमिलनाडु के आँकड़े सही लगते रहे।
भारत की पत्रकारिता में यह रवीश का सबसे बड़ा योगदान है। अच्छी योजनाओं और सरकारी कार्यों में भी, खोज-खोज कर कमियाँ बताई जाने लगी हैं। देखा-देखी बाकी वामपंथी एंकरों और पुराने चावल पत्रकारों ने भी, अपनी गिरती लोकप्रियता बनाए रखने के लिए, अपने दैनिक शौच से पहले और फेफड़ों से चढ़ते हर खखार (हिन्दी में बलगम) के बाद, मोदी और सरकार को गरियाना अपना परम कर्तव्य बना लिया है।
पत्रकारिता अब वैसी पत्रकारिता नहीं रही कि शाम में एक शो किया और चले गए। अब तो पत्रकारिता की शुरुआत रवीश जैसे लोग फेसबुक पर बकैती से करने लगे हैं। पत्रकारिता के नाम पर बकैती होती है, या बकैती के नाम पर पत्रकारिता, प्रोपेगेंडा के टाइम में ‘ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे, मधुकर निकर करंबित कोकिल कूँजति कुंज कुटीरे’ करने से कोई फायदा नहीं।
पत्रकारिता को बकैती की फैक्ट्री से निकालने वाले पत्रकार इन दिनों दिन गिन रहे हैं। वो दिन वाकई बदकिस्मत होगा जिस दिन रवीश ने कोई बकैती न की हो। बल्कि NDTV को रवीश के प्राइम टाइम को दिन भर चलाना चाहिए ताकि पता चलता रहे कि कौन-कौन से ऐसे घंटे बचे हैं, जिस घंटे रवीश ने पत्रकारिता के नाम पर बकैती न की हो! ऐसे अभागे घंटों को भी हमें प्रोपेगेंडा और बकैती के प्राइम टाइम में बदलना चाहिए। अगर आप भी ऐसे किसी दिन या घंटे को जानते हों जब रवीश ने बकैती न की हो, तो ट्विटर पर ट्रेंड करवाइए, क्या पता रवीश अपना मलिनप्रभ चेहरा और म्लान आवाज ले कर आए और कुछ प्रोपेंगेडा चला दे!
कुछ एंकर इंटरनेट पर, या ऑफिस फोन कर ये पता करते रहते हैं कि उनके प्राइम टाइम की टीआरपी कितनी है। वो सोचते हैं कि बाकियों की इतनी बढ़ रही है, वो भी तो नौ बजे का ही स्लॉट छेंक कर बैठे हुए हैं, और कोरोना के समय में डर के मारे घर की लाइब्रेरी में गाँधी की फोटो लगा कर अपने प्रपंच को उनकी सत्यवादिता से बैलेंस भी कर रहे हैं, फिर भी बाकियों के प्रोग्राम टीवी के बाद यूट्यूब और ट्विटर पर भी देखे जाते हैं, जबकि उनका सिर्फ मजाक के लिए आँखों से नीले रंग निकलने वाले इमोजी की गिनती के लिए शेयर किया जाता है। आँकड़ों की बात मानें तो मैसूरपाकप्रेमी आनंद रंगनाथन के दो मिनट के क्लिप की दैनिक व्यूअरशिप लाखों में जाती है, रवीश के पूरे प्राइम टाइम को देखने वाले बैसाखनंदनों के समूह की गिनती आसपास भी नहीं फटकती।
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जो लोगों के बुरे दिनों में चिढ़ाते हैं कि तुमसे आधी उम्र का, दोपहर में प्रोग्राम करने वाला फलाँ एंकर भी तुमसे ज्यादा देखा और सुना जा रहा है, तुम टॉप टेन में कब आओगे? बल्कि मैं तो रवीश द्वारा घर में बैठ कर अपने ही प्राइम टाइम के प्रपंची यूट्यूब वीडियो को रिपीट मोड पर लगा कर ‘हें हें हें, क्या बात कह दी मैंने, मोदी डर गया होगा, इसीलिए मुझे इंटरव्यू नहीं देता’ कह कर ठहाके लगाने और फिर यह पाने पर कि इस आत्ममुग्धता में उन्हें सुनने वाला अपने घर में भी कोई नहीं है, मजाक नहीं बनाता।
अब सामान्य बकैती नहीं होती, बल्कि एक बात को पकड़ कर गन्ने की तरह सिट्ठी निकाल कर, उस सिट्ठी को भी आग लगा कर तापने और हाथ गर्म करने वाली बकैती आती है। 5 अगस्त के शिलान्यास के उल्लास से हर्षित हिन्दू जनता की प्रसन्नता में जब भारत डूबा होगा, तब इस अभागे पत्रकार की मनोदशा जो होगी, सो होगी, पर परसों के प्राइम टाइम में ‘याँ से उठता है कि, वाँ से उठता है, देख वो धुआँ कहाँ से उठता है’ की तर्ज पर जो राष्ट्र ने देखा, वो दृश्य अद्भुत था। ये बात और है कि जहाँ से वो प्राइम टाइम करता है, उसी कमरे में गाँधी की तस्वीर के नीचे वाले टेबल पर बर्नोल के साथ-साथ, जलन के अतितीव्र और आपातकालीन स्थिति में चले जाने के लिए कच्चे पीसे हुए आलू के पेस्ट की भी व्यवस्था रहती है।
पाँच रफाल और पाँच अगस्त के कारण, आप देखिए पाँच की किस्मत कि दिन चाहे 29 जुलाई हो, 5 अगस्त, बर्नोल के कुल पाँच ट्यूब की व्यवस्था रवीश के कोट की हर जेब में रहती है, क्या पता कब, क्या, और कैसे जल जाए। यही वो पाँच-पाँच की रट लगाने वाले प्रपंची प्रणाली है, जिसे सुन कर रवीश के फैन्स व्हाट्सएप्प में स्खलन और शीघ्रपतन का शिकार होते रहते हैं कि काश रवीश का प्राइम टाइम टॉप फाइव में न सही, टॉप टेन में ही आ जाए!
एनीवे! आपने अपनी सोच में रवीश की बकैती का दायरा छोटा कर लिया है, जबकि वो फेसबुक से आगे, प्राइम टाइम में भी ऐतिहासिक स्तर की बकैतियाँ हर दिन करता पाया जाता है। जैसे कि बंगाल में ममता के राज में एक भी दंगे नहीं हुए, जैसे कि रोहित वेमुला की मौत का कारण भाजपा है, जैसे कि कन्हैया और उमर खालिद द्वारा देश के टुकड़े होने की तमन्ना डिसेंट है, जैसे कि अरविंद केजरीवाल ने कोरोना को नियंत्रण में ला दिया, जैसे कि बंगाल में सारी नौकरियों की नियुक्तियाँ सही हो रही हैं, जैसे कि कमलनाथ के मध्यप्रदेश और गहलोत के राजस्थान के लोगों ने रवीश को ‘रवीश जी आपसे उम्मीद है’ हैशटैग के साथ कभी कोई चिट्ठी नहीं लिखी, जैसे कि इन राज्यों में बेरोजगारी भत्ता भी मिला और किसानों के कर्जे भी माफ हो गए…
इस प्राइम टाइम में बकैतश्रेष्ठ रवीश का पूरा टैलेंट ‘दिन’ शब्द को कितने ज्यादा बार प्रयोग किया जा सके इस पर था। अतः, उन्होंने अभागे दिन, ऐतिहासिक दिन, बदकिस्मत दिन, सुख भरे दिन, और पता नहीं कौन-कौन से दिन गिनाने के चक्कर में शो को इतना खींच दिया कि वो महीने जितना लम्बा हो गया। महीने से मुझे 1997 का एक बहुचर्चित गीत याद आ रहा है, स्वर दिया था श्री अल्ताफ राजा ने, और झूमा पूरा इंडिया था:
जब तुम से इत्तेफ़ाकन मेरी नज़र मिली थी
अब याद आ रहा है, शायद वो जनवरी थी
तुम यूँ मिलीं दुबारा, फिर माह-ए-फ़रवरी में
जैसे कि हमसफ़र हो, तुम राह-ए-ज़िंदगी में
कितना हसीं ज़माना, आया था मार्च लेकर
राह-ए-वफ़ा पे थीं तुम, वादों की टॉर्च लेकर
बाँधा जो अहद-ए-उल्फ़त अप्रैल चल रहा था
दुनिया बदल रही थी मौसम बदल रहा था
लेकिन मई जब आई, जलने लगा ज़माना
हर शख्स की ज़ुबाँ पर, था बस यही फ़साना
दुनिया के डर से तुमने, बदली थीं जब निगाहें
था जून का महीना, लब पे थीं गर्म आहें
जुलाई में जो तुमने, की बातचीत कुछ कम
थे आसमां पे बादल, और मेरी आँखें पुरनम
माह-ए-अगस्त में जब, बरसात हो रही थी
बस आँसुओं की बारिश, दिन रात हो रही थी
कुछ याद आ रहा है, वो माह था सितम्बर
भेजा था तुमने मुझको, तर्क़-ए-वफ़ा का लेटर
तुम गैर हो रही थीं, अक्टूबर आ गया था
दुनिया बदल चुकी थी, मौसम बदल चुका था
जब आ गया नवम्बर, ऐसी भी रात आई
मुझसे तुम्हें छुड़ाने, सजकर बारात आई
बे-कैफ़ था दिसम्बर, जज़्बात मर चुके थे
मौसम था सर्द उसमें, अरमां बिखर चुके थे
लेकिन ये क्या बताऊं, अब हाल दूसरा है
अरे वो साल दूसरा था, ये साल दूसरा है
क्या करोगे तुम आखिर कब्र पर मेरी आकर
थोड़ी देर रो लोगे और भूल जाओगे
परदेसी लोग साथ नहीं निभाते, ये बात और है कि परदेसी लोग बकैत एंकर की प्रिय पार्टी को डेढ़ करोड़ दे देते हैं, लेकिन बकैत एंकर उस पर चूँ भी नहीं करता, चूँ में तो खैर तीन अक्षर हैं, रवीश ‘च’ पर भी नहीं जाता। इसलिए, ‘इट्स बीन लॉन्ग, तेरी बीन सुने परदेसी, नागिन दिन गिन गिन गिन गिन गिन गिन गिन गिन गिन गिन (कै बार है भाई, दिमाग का घिरनी बना दिया… 11 बार है), हाँ तो नागिन के बाद दिन, फिर 11 बार ‘गिन’ के बाद पता चला नागिन मर गई! छः बार बोलते तो हो सकते हैं बच जाती। रवीश भी ‘दिन’ पर थोड़ा कम बोलते, तो शो बच जाता, टॉप टेन से बाहर नहीं जाता!
विकिपीडिया से फैक्ट उठाने वाले रवीश दूसरों पर इतिहास के बारे में तंज करते हैं तो एकदम रवीश लगते हैं! जिस देश का पूरा इतिहास ही रोमिला थापर, इरफान हबीब, रामचंद्र गुहा जैसे उपन्यासकारों ने लिखा हो, वहाँ तो कुंजी पढ़ने वाले सबसे अच्छे निकले कि उनके दिमाग में राष्ट्र को ले कर हीनभावना और आक्रांताओं के नाम सुन कर ऑर्गेज्मिक होने वाले हॉर्मोन्स नहीं दौड़े।
रवीश की बकैती पर इतना लम्बा लेक्चर क्यों दिया है? अभी तक मैं 1857 शब्द बोल चुका हूँ।
1857 वही दौर था जब देश में स्कोडा-लहसुन तहजीब की नौटंकी शुरू हुई थी, जिसे हम आज तक फैजाबाद के अयोध्या होने और वहाँ वापस फैज खान के मिट्टी लाने वाली सेकुलर नौटंकी के रूप में झेल रहे हैं।
रवीश की कोरोना बकैती मार्च से ही जारी है। लोगों में निराशा, हताशा और मरने का डर भरने की प्रचुर कोशिशों के उपरांत भी, लोग सड़कों पर दंगा करने नहीं उतरे, इससे बकैताधिपति रवीश को आश्चर्यातिरेक हुआ, वो अचंभित रह गए कि लोग थाली पीटने से ले कर, टॉर्च जलाने और लॉकडाउन का पालन करने में मोदी के साथ कैसे हैं। रवीश ने हर दिन बिना किसी समाधान की बात किए, संख्या के आधार पर पैनिक बाँटा, वो यह उम्मीद लगाता रहा कि एक दिन उसकी मेहनत रंग लाएगी और लोग सड़कों पर निकल जाएँगे।
लेकिन खुद अपने घर के एक कमरे में डर कर बैठा यह प्राइम टाइम पत्रकार अगर यह सोचता है कि लोग इसकी प्रपंची बातों में आ जाएँगे, और पूरे देश में तब्लीगियों की तरह, जान-बूझ कर थूकते हुए कोरोना फैलाने पर उतर आएँगे, ताकि मोदी की सरकार गिर जाए, तो रवीश यह जान ले, कि सरकारें न तो ऐसे बनती हैं, न गिरती हैं। वो बर्नोल घिसता रहे, वो 1957 के गीत गाता रहे, वो दूसरे चैनलों के रफाल कवरेज का मजाक बनाता रहे, सत्य यही है कि NDTV को भी पता है कि क्या बिकता है।
दूसरों का मजाक बनाने के चक्कर में अपना ही चैनल न देखने वाला रवीश, जो स्वयं को पत्रकारिता का एकमात्र मानदंड मानने के घमंड में बाल पका कर सनक की सीमाएँ लाँघता जा रहा है, अब अपने ही अच्छे दिनों की एक भद्दी पैरोडी बन कर रहा गया है। रवीश को 29 जुलाई के प्राइम टाइम जैसे स्टंट नहीं करने चाहिए क्योंकि जिनका दैनिक शो स्वयं में एक मजाक है, वो जब मजाक करते हैं तो हास्य का स्तर गिर जाता है। इसे देख कर कुणाल कामरा जैसे सस्ते और टुटपुँजिए स्वघोषित कॉमेडियन कहते होंगे कि इससे बढ़िया जोक तो साल में एक बार वो भी मार लेता है! हें, हें, हें?
रफाल की कवरेज बिलकुल हास्यास्पद रही है, और इसका मजाक रवीश ने प्राइम टाइम में बनाया, लेकिन ऐसा प्रतीत होता कि बकैतशिरोमणि रवीश स्वयं अपना चैनल भी नहीं देखता क्योंकि रफाल की कवरेज में जिस-जिस बात का मजाक रवीश उड़ा रहे थे, वो रफाल के उड़ने की तीव्रता से NDTV पर ही लगातार लैंड हो रहा था।
दूसरी बात, रवीश तो टीवी के एक घिसे-पिटे फॉर्मेट का उपहास कर रहा था कि कैसे एक मुद्दे पर समय बर्बाद किया जाता है, और हाइप बना कर लोगों को ठगा जाता है, लेकिन रवीश के करियर के उत्तरार्ध में उनका पूरा करियर ही एक मुद्दे को खींच कर, हाइप बनाने, डर का माहौल बाँटने, आपातकाल लाने, बागों में बहार खोजने, स्टूडियो से कैम्पेनिंग करने, असफल रहने, दोबारा कैम्पेनिंग करने, हर योजना का एक ही तरह से मजाक बनाने में व्यस्त रहा है, वो क्या दूसरों को उपदेश देंगे!
ढें, ढें, ढें, ढन, ढना, ढन के म्यूजिक के बिना ही रवीश ने अपनी पत्रकारिता का कॉफिन डॉन्स किया है। उसने ‘कड़े सवालों’ के नाम पर ‘कड़े सवालों’ का मतलब ही गौण कर दिया है। अब कड़े सवाल सिर्फ वो हैं जो रवीश पूछता है। उसने जो भी पूछा वही कड़ा सवाल है, उसने जो शो किया वही पत्रकारिता है, उसने जब गंभीर चेहरा बनाया, वही भारतीय जनमानस की सामूहिक चिंता का एकमात्र सटीक परिचायक है।
मैंने रवीश के फेसबुक पोस्ट, प्राइम टाइम और ब्लॉग आदि पर लिखना और बोलना दो महीने पहले ‘बकैत कुमार की रिपोर्ट’ के 32वें संस्करण के साथ ही छोड़ दिया क्योंकि अब इस व्यक्ति की प्रासंगिकता खत्म हो चुकी है। लेकिन कभी-कभी ऐसे सुनहरे मौके आते हैं कि आपको रिटायरमेंट त्याग कर मजे लेने के लिए आना पड़ता है।