Friday, November 22, 2024
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‘हमारे बारह’ पर जो बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा, वही हम भी कह रहे- मुस्लिम नहीं हैं अल्पसंख्यक… अब तो बंद हो देश के सबसे बड़े ‘मजहब’ का तुष्टिकरण

अदालत ने इस पूरी सुनवाई के दौरान एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी दी कि निर्माताओं को सावधान रहना चाहिए कि वो पेश क्या कर रहे हैं। वे किसी भी धर्म को ठेस पहुँचाने का काम नहीं कर सकते हैं। मुस्लिम इस देश की दूसरी सबसे बड़ी आबादी हैं।

‘हमारे बारह’ फिल्म को लेकर उठे विवाद पर बॉम्बे हाईकोर्ट में पीठ ने सुनवाई करते हुए कुछ टिप्पणी की हैं। कोर्ट ने कहा है कि ‘हमारे बारह’ फिल्म उन्होंने देखी और उन्हें इस फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। फिल्म का उद्देश्य वास्तव में महिलाओं का उत्थान है।

जस्टिस बीपी कोलाबावाला और फिरदौस पूनीवाला की खंडपीठ ने कहा कि फिल्म का पहला ट्रेलर आपत्तिजनक था, लेकिन उन्होंने (निर्माताओं ने) उसे हटा दिया और साथ ही फिल्म से आपत्तिजनक सीन भी हटा दिए गए हैं।

अदालत ने कहा कि ये एक ऐसी फिल्म है जिसे देख विचार किया जाए, न कि ऐसी फिल्म है जिसे लेकर दर्शकों से अपेक्षा की जाए कि वो अपना दिमाग घर पर रखकर इसे देखें।

हाई कोर्ट ने कहा कि इस फिल्म में मौलाना को कुरान की गलत व्याख्या करते दिखाया गया, और एक मुस्लिम व्यक्ति उसी दृश्य पर आपत्ति जताता है… लोगों से यही अपेक्षा की जाती है कि लोगों को अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहिए और ऐसे मौलानाओं की बातें आँख मूँदकर नहीं माननी चाहिए।

कोर्ट ने कहा कि उन्हें फिल्म देखखर नहीं लगा कि कोई ऐसी चीज है इसमें जो हिंसा भड़काने वाली है। अगर लगता, तो पहले ही इस पर आपत्ति जता देते। भारत की जनता इतनी भोली या मूर्ख नहीं है कि उसे ये सब समझ न आए।

मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह भी गौर किया कि फिल्म निर्माताओं ने सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र पाने के पहले ही फिल्म का ट्रेलर रिलीज कर दिया था, इसलिए अदालत ने उनपर जुर्माना लगाया। साथ ही कहा कि ट्रेलर रिलीज करके उल्लंघन तो किया गया है इसलिए याचिकाकर्ता की पसंद की चैरिटी के अनुसार भुगतान करना होगा।

कोर्ट ने कहा कि बिन प्रमाण पत्र हासिल किए जो ट्रेलर रिलीज किया गया वो थोड़ा परेशान करने वाला था। अदालत ने निर्माताओं को सावधान रहकर काम करने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि रचनात्मक स्वतंत्रता की आड़ में किसी भी मजहब की भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाले संवाद और दृश्य नहीं जोड़े जाने चाहिए।

अदालत ने इस पूरी सुनवाई के दौरान एक महत्वपूर्ण टिप्पणी यह भी दी कि निर्माओं को सावधान रहना चाहिए कि वो पेश क्या कर रहे हैं। वे किसी भी धर्म को ठेस पहुँचाने का काम नहीं कर सकते हैं। मुस्लिम इस देश का दूसरा सबसे बड़ा मजहब है।

अदालत ने माना मुस्लिम देश का दूसरा सबसे बड़ा धर्म हैं

मालूम हो कि अदालत द्वारा कि गई यह महत्वपूर्ण टिप्पणी आज के समय में इसलिए भी इतनी जरूरी है क्योंकि आजकल राजनीति में मुस्लिमों को अल्पसंख्यक बताकर खूब तुष्टिकरण किया जाता है। कभी उनके लिए आरक्षण माँगा जाता है तो कभी उनके लिए अलग से कानून की बातें होती हैं। अगर इन माँगों पर सुनवाई न हो तो कहा जाता है कि देश में तानाशाह आ गया है जो देश के अल्पसंख्यकों को कुचलने और दबाने के प्रयास हो रहे हैं। हकीकत जबकि यह है कि भारत में मुस्लिमों की संख्या सिर्फ हिंदुओं से कम है, बाकी वो अन्य किसी भी धर्म के मुकाबले ज्यादा आबादी है. इसलिए उन्हें अल्पसंख्यक कहना सिर्फ उन लोगों के अधिकार को मारने जैसा है जो हकीकत में इस देश में कम आबादी में हैं और मुस्लिमों से ज्यादा आरक्षण जैसी सुविधाओं की उनको ज्यादा जरूरत है।

2011 में हुई जनगणना के अनुसार, देश के 19.3% अल्पसंख्यकों में से मुसलमानों की जनसंख्या 14.2% है। वहीं ईसाई 2.3%, सिख 1.7%, बौद्ध 0.7%, जैन 0.4% और पारसी 0.006% हैं। इसके अलावा संख्या की भी बात करें तो पीआईबी पर प्रकाशित जानकारी बताती है कि उस समय मुस्लिमों की संख्या 17 करोड़ 22 लाख 45 हजार 158 के आसपास थी जो आज के समय में कहा जाता है 23-24 करोड़ तक पहुँच गई है। जबकि सिखों की संख्या तब 20 लाख 833 हजार 116 थी, ईसाइयों की 27 लाख 819 हजार 588 थी, जैन की 4,451,753, बौद्धों की 8,442,972 संख्या थी।

आँकड़े सामने होने के बावजूद भी समय-समय पर मुस्लिमों को अल्पसंख्यक कहकर उनके लिए सहानुभूति इकट्ठा करने का काम होता रहा है। हमारे बारह जैसी फिल्में आती हैं तो उनपर विचार करने से पहले ये ऐलान कर दिया जाता है वो अल्पसंख्यकों की भावनाओं को आहत करेंगी। ये नहीं सोचा जाता कि फिल्म का मूल संदेश क्या है और क्या वजह रही कि उस मुद्दे को पर्दे पर उठाना जरूरी हो गया। मामला चाहे तीन तलाक का हो या फिर हलाला का हो… ये मुद्दे कभी समुदाय विशेष से जुड़े नहीं होते बल्कि महिलाओं को अधिकार दिलाने के लिए उठाया जाता है और इन पर बोला जाता है। इस पर केवल अल्पसंख्यक की भावनाएँ आहत हो जाएँगी जैसी बात करना राजनीति का हिस्सा का हो सकता है, सामाजिक उत्थान का नहीं।

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