देश में लॉकडाउन की घोषणा हुए दो महीने होने को हैं। कोरोना के शुरुआती दौर में केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों की प्राथमिकता थी कि संक्रमण की रफ्तार कैसी तोड़ी जाए।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के अनुसार बिना लॉकडाउन वाली स्थिति में 15 अप्रैल तक भारत में संक्रमितों की संख्या संभवतः 8.5 लाख के क़रीब होती। लॉकडाउन की नीति ने सरकारों की प्राथमिक आशय को पूरा किया है। यही कारण है कि विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या होने के बावजूद भारत में संक्रमण की रफ़्तार विश्व के कई देशों से कम है।
लेकिन आर्थिक गतिविधियों के बंद होने की वजह से देश में अन्य कठिनाइयाँ उभर कर सामने आ गई हैं। इनमें गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, पलायन इत्यादि प्रमुख हैं।
भारत में कुल रोजगार में 93% भागीदारी असंगठित क्षेत्र की है, जो इस लॉकडाउन से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है। रिक्शा-ठेला चालक, सब्जी बेचने वाले, ड्राइवर-गार्ड, माली, दूध-अखबार पहुँचाने वाले, मंडी से लेकर कल-कारखानों में दिहाड़ी पर काम करने वाले, घरेलू कार्यों में सहयोग करने वाले और इसी तरह के अन्य कार्यों में लिप्त वर्ग के लोग जो गाँव की गरीबी और बेरोजगारी से भागकर शहरों में अपना भविष्य तलाशने आए थे, आज उनमें से अधिकांश मजदूर बेरोजगार होकर वापस गाँव जाने को प्रयत्नशील हैं।
सैकड़ों मील की दूरी पैदल तय करने की मजबूरी और उनसे होने वाली मौतों ने सोती हुई राज्य सरकारों को भी नींद से जगा दिया है। वर्तमान परिस्थिति में प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुँचाना, उनमें संक्रमण की जाँच करना, उनके इलाज का प्रबंध करना वगैरह सरकारों के लिए चुनौती बनी हुई है।
प्रवासी मजदूरों की इस दुर्दशा ने एक बार फिर देश में विभिन्न राज्यों के आर्थिक विकास की असमानता पर गंभीर बहस छेड़ दी है। एक तरफ विकास की सीढ़ी पर आगे खड़े गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, दिल्ली, पंजाब, हरियाणा जैसे राज्य हैं। दूसरी ओर बिहार, झारखंड, उड़ीसा, बंगाल जैसे राज्य हैं, जहाँ से पलायित लोग अन्य राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की संभावनाएँ तलाशते हैं।
अब कोरोना जनित आर्थिक मंदी से प्रभावित यह वर्ग घर वापसी कर रहा है। ऐसे में इनके गृह राज्य की सरकारें स्थानीय स्तर पर रोजगार पैदा करने के प्रयासों में जुट गई हैं। इस मंदी में सरकारों के राजस्व का भी नुकसान हुआ है। लिहाजा विभिन्न राज्य सरकारों ने केंद्र से अपने लिए आर्थिक सहायता की माँग की है।
प्रवासियों के वापस आने से अन्य राज्यों की तुलना में बिहार ज्यादा प्रभावित हो रहा है। बिहार मुख्यतः कृषि आधारित राज्य है। उत्तर बिहार में बाढ़ और दक्षिण बिहार में सुखाड़ से प्रभावित रहने की वजह से कृषि क्षेत्र वापस आए प्रवासियों को रोजगार देने में बहुत सक्षम नहीं है। ऐसे में बिहार सरकार के आर्थिक सलाहकारों ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की माँग एक बार पुनः छेड़ दी है।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अत्यंत करीबी माने जाने वाले एडीआरआई संस्थान के निदेशक ने हालिया प्रकाशित अखबारी लेखों के माध्यम से यह माँग बिहार की जनता तक पहुँचा दी है। हालाँकि इसकी शुरुआत तो स्वयं नीतीश कुमार ने 28 फरवरी 2020 को अमित शाह की अध्यक्षता वाली पूर्वी जोनल काउंसिल की बैठक में ही कर दी थी।
वस्तुतः यह माँग तो हर चुनाव के पहले बिहार की सभी राजनैतिक दलों का प्रमुख मुद्दा बन जाता है। लेकिन सभी पार्टियों के चुनावी मुद्दे में शामिल होने के वावजूद बिहार आज तक विशेष राज्य के वर्ग में शामिल होने में असफल रहा है। तो फिर से इसकी माँग उठाना क्या आगे आने वाले चुनावी समर का सूचक है? या वित्तीय संसाधन जुटाने का एक सार्थक प्रयास, जिससे बिहार आर्थिक मंदी के असर से निकलने और लोगों को रोजगार देने में सक्षम हो?
विशेष दर्जा देने का प्रावधान पाँचवें वित्त आयोग द्वारा सुझाई गई थी। इसके अनुसार राष्ट्रीय विकास परिषद निम्नलिखित 5 कारणों से किसी भी राज्य को विशेष राज्य का दर्जा प्रदान कर सकती थी;
- पर्वतीय और दुष्कर बहुलता क्षेत्र वाले राज्य
- अत्यधिक कम जनसंख्या घनत्व अथवा अनुसूचित जनजाति बहुलता वाले राज्य
- सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अंतराष्ट्रीय सीमा वाले राज्य
- आर्थिक और अवसंरचना की दृष्टि से पिछड़े राज्य
- वित्तीय संकट परिस्थिति
वर्तमान में 11 राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है। ये राज्य हैं: असम, नागालैंड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा और उत्तराखंड। ये सारे राज्य या तो हिमालय की गोद में हैं या अनुसूचित जनजाति बहुल राज्य हैं।
विशेष राज्य का दर्जा होने के कारण इन्हें कुल केंद्रीय सहयोग राशि का 30% सीधा-सीधा मिल जाता है। विशेष दर्जे वाले राज्य को केंद्रीय सहयोग राशि का 90% भाग अनुदान और 10% भाग कर्ज के रूप में मिलता है। वहीं, अन्य राज्यों के लिए यह क्रमशः 70% और 30% होता है। केंद्रीय योजनाओं के कार्यान्वयन में भी विशेष दर्जे वाले राज्यों को बस 10% साझेदारी करनी होती है।
लेकिन, 14वें वित्त आयोग ने इस विशेष राज्य के दर्जे वाले वर्ग को ही रद्द करने की अनुशंसा की, जिसे सरकार ने मान लिया था। केंद्र सरकार ने वित्त आयोग की उस अनुशंसा को भी स्वीकार कर लिया था, जिसके तहत केंद्रीय राजस्व में राज्य सरकारों की हिस्सेदारी 32% से बढ़ा कर 42% करनी थी। इन अनुशंसाओं के पालन करने के बाद किसी भी राज्य को आर्थिक सहायता के लिए विशेष दर्जा देने का प्रावधान समाप्त हो चुका है।
ऐसे में राज्यों का ‘विशेष दर्जा’ देने की माँग राजनीति से प्रेरित दिखती है, वह भी तब जब केंद्रीय आर्थिक सहायता राशि बिना विशेष दर्जा प्रदान किए भी दी जा सकती है।
जब मध्य प्रदेश बिना विशेष राज्य के दर्जे के बावजूद स्वयं का संसाधन विकसित करते हुए विकास के मापदंडों पर आगे निकल सकता है। जब पंजाब जैसा छोटा और कृषि प्रधान राज्य भी बिना किसी विशेष सहायता के बिहार को हर क्षेत्र में पछाड़ सकता है। फिर प्रश्न उठता है कि बिहार ऐसा क्यूँ नहीं कर पाया? ऐसा न कर पाने की जिम्मेदारी किसकी है?
बिहार के मुख्यमंत्री का तीसरा कार्यकाल पूरा होने जा रहा है और बिहार विकास के अनेक मानकों पर नीचे खड़ा है। बिहार बँटवारे के बाद से अभी तक के समयकाल में तीन चौथाई समय नीतीश कुमार का शासन रहा है। ऐसे में विशेष राज्य के दर्जे की माँग के भरोसे 15 वर्ष के कार्यकाल तक बैठे रहना कहाँ तक उचित है? वह भी तब जब बिहार सरकार केंद्र द्वारा आवंटित विकास राशि का भी पूर्ण व्यय और सदुपयोग नहीं कर पाती।
इन परिस्थितियोंऐसे में विशेष दर्जा की माँग उठना न सिर्फ चुनावी जुमला दिखता है, बल्कि यह वर्तमान सरकार की राज्य के विकास के प्रति उदासीनता और अपनी अकर्मण्यता छिपाने की एक सोची-समझी रणनीति भी है।
राजनीतिक तौर पर भी इस मुद्दे को बिहार की जनता सिरे से खारिज कर चुकी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़े थे तो उन्होंने विशेष राज्य के दर्जे को एक प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाया था। उस चुनाव के नतीजों से स्पष्ट है कि जनता इसे बिहार के विकास के लिए मुद्दा मानती ही नहीं है। ऐसे में पुनः इस माँग को उठना अपने नाकारेपन और नाकाबिलियत से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता।
अब जब कोरोना संक्रमण के दौरान प्रदेश के लोगों को रोज़गार के अवसर देने होंगे और विदेशी औद्योगिक इकाइयाँ भी भारत में निवेश के नए अवसर ढूँढ रही है, ऐसे में राज्य सरकारों को अपनी उदासीनता और अकर्मण्यता त्याग कर इस चुनौती को अवसर में बदलना होगा। बिहारवासी इस चुनौती को अवसर के रूप में देख रहे हैं।
पटना स्थित सीएसआरए नामक शोध संस्थान के द्वारा चलाए जा रहे विशेषज्ञों के वक्तव्य ऋंखला में भी बिहार के विकास के लिए कृषि और उद्योग के क्षेत्र में कई अवसरों को चिह्नित किया गया है। सीएसआरए विशेषज्ञों के अनुसार बिहार में कम लागत वाली लघु-मध्यम उद्योग की असीम संभावनाएँ हैं। इनमें मखाना आधारित उद्योग, गन्ना मिल, दुग्ध आधारित उद्योग, आम, लीची, और केला संबंधित फूड प्रोसेसिंग उद्योग, जूट, सिल्क और कपास आधारित कुटीर उद्योग, कृषि आधारित उद्योग वगैरह शामिल हैं।
लेकिन बिहार सरकार और एएडीआरआई निदेशक जैसे आर्थिक सलाहकारों के रवैए से तो यही लगता है कि वे प्रदेश को अभी भी ‘जंगलराज’ बनाम ‘सुशासन’ की घुट्टी पिलाते हुए जनता को विशेष दर्जे की माँग से बरगलाना चाहते हैं।
बदकिस्मती यह है कि प्रमुख विपक्षी दल जैसे राजद और कॉन्ग्रेस भी इसी इसी माँग के सहारे अपनी राजनीति साधना चाहते हैं। ऐसे में यह प्रश्न तो स्वाभाविक ही है कि कब तक बिहार की बदहाली का हवाला देते हुए उसके नेता और राजनीतिक दल केंद्र से विशेष राज्य के दर्जे की भीख माँगते रहेंगे। वो भी तब जब उन्हें पता है कि यह भीख मिलने वाली नहीं है और बिना इस दर्जे के भी बिहार का विकास किया जा सकता है।