कोरोना संकट के बीच मोदी सरकार के ख़िलाफ़ बोलने के लिए मीडिया को कुछ नहीं मिल रहा तो उसका एक धड़ा श्रमिक ट्रेनों पर अपने झूठों, अटकलों और भ्रमित करने वाली रिपोर्टिंग से सवाल उठा रहा है।
28 मई को सुप्रीम कोर्ट में एक केस की सुनवाई हुई। केस मुख्यत: उन श्रमिकों से संबंधित था, जिन्हें लॉकडाउन के कारण काफी परेशानियों का सामना कर पड़ा रहा है। लेकिन, सुप्रीम कोर्ट में हुई इस केस की सुनवाई पर जो रिपोर्टिंग हुई, उसने केवल इस बात का खुलासा किया कि आखिर द प्रिंट विपक्षी दलों को फेक न्यूज फैलाने की सलाह देने के बाद खुद भी इस हथकंडे को आजमा रहा है।
दरअसल, गुरुवार (28 मई 2020) की रात प्रिंट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इस लेख में बताया गया कि मोदी सरकार ने आखिरकार इस बात को स्पष्ट कर दिया है कि वह श्रमिक ट्रेन का खर्चा नहीं उठा रही। इसका भुगतान राज्य कर रही है।
इस लेख से द प्रिंट की मंशा साफ थी। वह कहना चाहता है कि मोदी सरकार ने पहले लोगों को भ्रमित किया और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने इस बात का स्पष्टीकरण दिया है कि वे श्रमिक एक्सप्रेस के किराए का भुगतान नहीं कर रहे, बल्कि पूरा बिल भरने का दारोमदार राज्य पर है। ध्यान रहे कि यहाँ पर ‘Entire (सम्पूर्ण)’ शब्द का प्रयोग किस तरह प्रवर्तनशील मूल्य (operative value) के लिए किया गया है। इस बात की चर्चा हम आगे लेख में करने वाले हैं।
इस लेख के पहले पैराग्राफ से ही दिख गया कि द प्रिंट अपने पाठकों को ये बताना चाहता है कि मोदी सरकार ने पहले झूठ बोला था कि वह श्रमिक ट्रेनों का 85% प्रतिशत किराया चुकाएगी और राज्यों को 15% चुकाना होगा। अपने पहले पैराग्राफ में द प्रिंट ने केंद्र सरकार की ओर से दिए बयान को स्पष्टीकरण बताया और लिखा कि प्रवासी मजदूरों की टिकटों का भुगतान केंद्र सरकार नहीं कर रही, बल्कि इसका जिम्मा राज्य सरकारों पर है।
कुल मिलाकर किसी भी साधारण पाठक के लिए द प्रिंट ने अपने आर्टिकल में दो बातें मुख्यत: बताई है:
- केंद्र सरकार ने झूठ बोला।
- प्रवासी मजदूरों के लिए चलाई जा रही श्रमिक ट्रेनों के टिकट का ‘सम्पूर्ण’ खर्चा राज्य सरकार दे रही हैं।
हालाँकि, बाद में द प्रिंट ने अपने आर्टिकल के आखिरी में रेलवे मंत्रालय के स्पष्टीकरण वाला हिस्सा भी जोड़ा। उन्होंने लिखा कि रेलवे ने द प्रिंट को बताया कि केंद्र सरकार सरकार ने हमेशा कहा कि वह प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य भिजवाने के लिए चलाई गई श्रमिक ट्रेनों के लिए रेलवे को 85% भुगतान करेगी और किराया संबंधी भुगतान राज्यों द्वारा किया जाएगा।
अब, इस व्याख्या के बाद भी, जिससे श्रमिक ट्रेनों के किराए पर कोई प्रश्न ही नहीं बचता, उसे लेख में द प्रिंट ने एकदम आखिर में लिखा और उसके बाद विपक्षियों के कुछ झूठे बयानों को एजेंडा चलाने के लिए रिपोर्ट में जोड़ दिया। जबकि लेख की शुरुआत में वह अपना झूठ बोलता रहा कि सरकार ने श्रमिक ट्रेनों पर अब स्पष्टीकरण दिया है।
द प्रिंट की तरह अन्य मीडिया संस्थानों ने भी फैलाया झूठ
द प्रिंट ने अपनी रिपोर्ट में बिजनेस स्टैंडर्ड का लिंक लगाया, जिसमें इसी खबर को ऐसे ही झूठ के साथ फैलाया जा रहा था, बस उसे पेश करने का तरीका अलग था। रिपोर्ट की हेडलाइन थी, “विवादों के बाद सरकार ने श्रमिकों के लिए ट्रेन का 85% किराया रेलवे को अदा किया।”
इसके बाद, लेख के दूसरे पैराग्राफ में उन्होंने भी द प्रिंट की तरह रेलवे प्रशासन के बयान को कोट किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि श्रमिक ट्रेनों की लागत का 85% केद्रीय सरकार द्वारा वहन किया जा रहा है।
मंत्रालय के प्रवक्ता को कोट करते हुए बिजनेस स्टैंडर्ड ने लिखा, “हमने राज्यों के अनुरोध पर विशेष ट्रेनें चलाने की अनुमति दी है। हम मानदंडों के अनुसार लागत को 85-15 प्रतिशत (रेलवे: राज्यों) में विभाजित कर रहे हैं। हमने राज्यों से कभी नहीं कहा कि वे फँसे हुए मजदूरों से पैसा वसूलें।”
अब ये भी साफ है कि बिजनेस स्टैंडर्स ने भी मामले में सारी जानकारी रखते हुए, लेख के भीतर सच्चाई को बताते हुए, हेडलाइन के जरिए पाठकों को भ्रमित करने का प्रयास किया।
केंद्र द्वारा श्रमिक ट्रेनों के लिए दिया जा रहा 85%?
अगर कोई व्यक्ति आम स्थिति में ट्रेनों की टिकटों को देखता है, तो उसे मालूम चलेगा कि उसमें ये साफ लिखा होता है कि उसे चार्ज की गई राशि यात्रा के लिए खर्च की गई लागत का केवल 57% है।
मगर, श्रमिक ट्रेनों के लिए, यात्रा के दौरान सामाजिक दूरी सुनिश्चित करने के लिए केवल 2/3rd सीटें भरी जाएँगी। यानी दाई और बाई ओर की सीटें भरी जाएँगी, लेकिन बीच की सीट खाली रहेगी। इसी प्रकार टॉप और बॉटम बर्थ भी यात्रियों को दिए जाएँगे। मगर मिडिल बर्थ खाली रखा जाएगा। इनके कारण इनका शुल्क घटकर 38% हो जाएगा।
अब चूँकि, श्रमिकों के लिए चलाई गई ये विशेष ट्रेनें हैं और पूरी तरह से खाली होकर वापस होंगी, इसलिए यात्री की लागत को आधे से विभाजित किया गया है, जो कि 19% होगी। मगर बावजूद इसके भोजन और स्वच्छता जैसी यात्री सेवाओं को ध्यान में रखते हुए, राज्य सरकारों को कुल लागत का 15% भुगतान करने के लिए कहा गया था, शेष 85% केंद्र सरकार द्वारा वहन किया गया था।
बता दें, 15% चार्ज जो राज्य सरकार पर लगाया गया है, उसका उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि राज्य सरकार भी इस मामले पर गौर करें। अगर, यात्रा को रेलवे और केंद्र सरकार मुफ्त करवा देगी तो प्रवासी मजदूरों के अलावा कई ऐसे लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाएगी जो एक राज्य से दूसरे राज्य में सफर करना चाहते हैं। बीते दिनों हमने ऐसे नजारे महाराष्ट्र में बांद्रा के एक मस्जिद के पास और दिल्ली में आनंद विहार में देखे। अगर 15 प्रतिशत से राज्य सरकार की भागीदारी श्रमिकों को भेजने में रहती है, तो वे इसकी जिम्मेदारी लेंगे और प्रवासी मजदूरों की स्क्रीनिंग के बाद उनकी लिस्ट के साथ सामने आएँगे। ताकि उन्हें टिकट मिल सके।
सॉलिस्टर जनरल से आखिर क्या कहा था, जिनके बयान के आधार पर द प्रिंट ने झूठ बोला
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट में केस की सुनवाई के दौरान सॉलिस्टर जनरल ने कुछ चुनिंदा सवालों के जवाब दिए।
Initially, lockdown was announced and movement was stopped to control the spread of the #COVID19 contagion from urban to rural areas. Now the situation has changed. 3700 special trains for transporting migrants have operated between May 1-27, says Solicitor General Tushar Mehta.
— Live Law (@LiveLawIndia) May 28, 2020
ये सवाल केवल किराए ये संबंधित थे। सॉलिस्टर जनरल ने कहा कि इनका भुगतान सरकार द्वारा किया जाएगा। अब ध्यान रहे कि राज्य सरकार द्वारा दिए जा रहे 15% खर्चे में ही ये किराए का खर्चा आता है। लेकिन, फिर भी द प्रिंट ने फर्जी नैरेटिव गढ़ने के लिए और अपना एजेंडा चलाने के लिए बयानों को तोडा-मरोड़ा और हमेशा की तरह झूठी खबरें फैलाने का काम किया।
द प्रिंट को अपनी रिपोर्टों को पढ़ना चाहिए और उन्हें समझना चाहिए
अब आइए द प्रिंट के शेखर गुप्ता और एटिडर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के प्रेसिडेंट के सामने उनकी ही वेबासइट से एक तर्क रखें- जिनका एक लंबा और कथित तौर पर सम्मानजनक कैरियर समाचार पत्रों के साथ रहा है।
एक बहुत पुराना अखबार, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया, जिसमें 48 पेज होते हैं और उसकी कीमत 5 रुपए होती है और इसमें भी 40% डिस्ट्रिब्यूटर्स द्वारा ले लिया जाता है। बाद में मीडिया संस्थान को केवल 2.40 रुपए मिलते हैं। अब पेज छपने की लागत 0.25 है और जब 48 पेज छपते हैं, तो कुल लागत 12 रुपए की आती है। ऐसे में कर्मचारियों और समाचार एजेंसियों का आदि भुगतान करने के लिए कुल लागत 3 रुपए है। सब मिलाकर एक अखबार 15 रुपए में तैयार होता है। तो क्या, उपभोक्ता से केवल 5 रुपए लेना, किसी भी रूप में तार्किक है क्या? जाहिर है नहीं।
बता दें, ये उक्त जानकारी द प्रिंट के ही एक हालिया आर्टिकल में पब्लिश हुई है। इसलिए ये बात साफ है कि शेखर गुप्ता इन बातों को अच्छे से जानते हैं कि अखबारों को विज्ञापनों के जरिए पैसा आता है और सरकार भी अप्रत्यक्ष रूप से न केवल उन्हें एड के लिए पैसे देती है, बल्कि सब्सिडी इत्यादि से अखबारों को आर्थिक मदद देती है। और, अगर अखबार खुले में बिकता है, तो उसके प्रमोटर उसके लिए उसे भुगतान करते हैं।
अब यही तर्क, जो अखबार के लिए आता है, वही ट्रेनों के मामले में भी लागू होता है। बावजूद इसके शेखर गुप्ता की वेबसाइट मानती है कि यात्रा का किराया ही ट्रेन का आखिरी किराया होता है। इसका इस्तेमाल ट्रेन संचालित करने के लिए किया जाता है और जो पार्टी उस किराए की भरपाई करती है, वही पार्टी या सरकार पूरी किराए का भुगतान करती है।
श्रमिक ट्रेनों के मामले में, टिकटों की अंतिम कीमत कुल परिचालन लागत का सिर्फ 15% है, जैसे अखबार की अंतिम कीमत कुल परिचालन लागत का सिर्फ 33% है। फिर भी, शेखर गुप्ता की वेबसाइट बेईमानी से बताती है जैसे कि अंतिम कीमत केवल एक चीज है जो मायने रखती है।
यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि कुछ दिनों पहले शेखर गुप्ता के द प्रिंट ने स्पष्ट रूप से सुझाव दिया था कि विपक्षी दल मोदी सरकार के बारे में फर्जी खबरें फैलाएँ ताकि वे नरेंद्र मोदी सरकार के ‘झूठों’ को काट सकें।
पर, अब द प्रिंट की हरकतों को देखकर ऐसा लगता है कि शेखर गुप्ता की अगुवाई में मीडिया संस्थान ने जो बिंदुवार तरीके विरोधियों को बताए थे, उन पर अब वह खुद अमल करने लगा है। ताकि न केवल मोदी सरकार को बदनाम किया जा सके, अपितु विरोधियों को इसका फायदा पहुँचाया जा सके।