Tuesday, April 30, 2024
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जब ममता बनर्जी के सिर पर लालू ने बरसाई लाठियाँ, 16 टाँके लगे थे: क्या कार्यकर्ताओं के खून पर खड़ी होगी BJP?

वैसे तो बंगाल में राजनीतिक हिंसा नई बात नहीं है। लेकिन यह हैरान इसलिए करती है, क्योंकि मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद इसकी पीड़ित रही हैं। आज उनकी सरपरस्ती में ही इसके परवान चढ़ने के आरोप लग रहे हैं। तो सवाल उठता है कि क्या राज्य में बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं के खून पर ही खड़ी होगी?

पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी में सत्ताधारी तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) के खिलाफ आयोजित मार्च के दौरान जान गँवाने वाले बीजेपी कार्यकर्ता का शव 9 दिन बाद जलपाईगुड़ी स्थित उनके घर पहुँचा। उलेन राय की मौत को लेकर बीजेपी ने बंगाल पुलिस पर टीएमसी गुंडों की तरह काम करने का आरोप लगाया था।

बंगाल में राजनीतिक हिंसा की भेंट चढ़ने वाले उलेन राय अकेले बीजेपी कार्यकर्ता नहीं है। संडे गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जनवरी से 11 सितंबर तक बंगाल में कम से कम 14 बीजेपी कार्यकर्ताओं ने कथित तौर पर टीएमसी के हमलों में अपनी जान गँवाई। अक्टूबर के अंत में प्रकाशित एक मीडिया रिपोर्ट में बीजेपी बंगाल के महासचिव सायंतन बसु के हवाले से बताया गया है कि 2013 के बाद से राज्य में 123 पार्टी कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है।

पत्रकार से बीजेपी नेता बने स्वप्न दासगुप्ता ने अक्टूबर की शुरुआत में यह संख्या 110 बताई थी। जुलाई 2020 में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने एक बुकलेट जारी की थी, जिसमें बीते 7 साल में राजनीतिक हिंसा में मारे गए 93 कार्यकर्ताओं का उल्लेख था। इनमें 5 महिलाएँ भी थीं। इस बुकलेट के हिसाब से सबसे ज्यादा बीजेपी कार्यकर्ता 2018 में मारे गए जब राज्य में पंचायती चुनाव होने थे।

राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और एक बार फिर राजनीतिक हिंसा का सिलसिला तेज हो गया है। इसी 8 दिसंबर को स्वप्न दास नामक बीजेपी कार्यकर्ता का शव तूफानगंज के एक स्कूल बिल्डिंग में लटका मिला था। अपने हालिया बंगाल दौरे के दौरान बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि तृणमूल कॉन्ग्रेस की राजनीतिक हिंसा के कारण पार्टी के 130 कार्यकर्ता अपनी जान गँवा चुके हैं, जिनमें से 100 कार्यकर्ताओं का तर्पण उन्होंने स्वयं किया है। दिलचस्प यह है कि इसी दौरे के दौरान नड्डा के काफिले को भी निशाना बनाया गया था। इस दौरान पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय की गाड़ी का शीशा चकनाचूर हो गया था।

वैसे तो बंगाल में राजनीतिक हिंसा नई बात नहीं है। लेकिन यह हैरान इसलिए करती है, क्योंकि मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद इसकी पीड़ित रही हैं। आज उनकी सरपरस्ती में ही इसके परवान चढ़ने के आरोप लग रहे हैं। तो सवाल उठता है कि क्या राज्य में बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं के खून पर ही खड़ी होगी?

इस सवाल का जवाब तलाशने से पहले 16 अगस्त 1990 की उस घटना पर नजर डालते हैं जिसमें ममता बनर्जी मरते-मरते बचीं थीं। यह जिस समय की बात है उस समय तृणमूल कॉन्ग्रेस का अस्तित्व नहीं आया था। ममता कॉन्ग्रेस (आई) की नेता थीं। तब कलकत्ता भी कोलकाता नहीं हुआ था और बंगाल में वामपंथियों का एकछत्र राज था। कॉन्ग्रेस (आई) ने सरकारी बस-ट्राम किराए में वृद्धि के खिलाफ 12 घंटे के कलकत्ता बंद का ऐलान किया था। इसी दौरान सत्ताधारी सीपीएम के गुंडों ने हमला किया। ममता बनर्जी को इतनी बेरहमी से पीटा गया कि उनके सिर में 16 टाँके लगे। बाँह पर प्लास्टर चढ़ा। ममता के सिर पर लाठियों की बरसात करने का आरोप सीपीएम के बाहुबली वर्कर लालू आलम पर लगा, जो तत्कालीन सरकार के नंबर दो बुद्धदेव भट्टाचार्य (जो बाद में मुख्यमंत्री भी बने) का खास बताया जात था।

दिवंगत सुषमा स्वराज ने 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार की विश्वास प्रस्ताव पर बहस के दौरान इस घटना का जिक्र करते हुए लोकसभा में कहा था, “मुझे वह दृश्य जस का तस याद है। मेरी आँखों में वह दृश्य बसा हुआ है। एक व्हीलचेयर के ऊपर ममता बनर्जी को लाया गया। यहीं बैठी हुई थीं वो। चोटों से आए बुखार के कारण काँप रहीं थी। बराबर में बैठी दो सांसद महिलाओं ने उन्हें लाल कंबल ओढ़ाया था।”

वामपंथियों की राजनीतिक हिंसा से लड़ते-लड़ते जब ममता बनर्जी 2011 में सत्ता में आई तो उम्मीद थी कि यह सिलसिला बंद होगा। वो तस्वीरें भी सामने आईं थी, जिसमें लालू आलम मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से 1990 की अपनी गलती के लिए गिड़गिड़ाकर माफी माँग रहा था। 2019 में इस मामले में आलम को अदालत ने आरोप मुक्त भी कर दिया था। इसके बाद आलम ने कहा था कि उस समय सीपीएम ने उसे बलि का बकरा बनाया था।

यह बात भी सामने आई थी कि बाद में ममता खुद इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहती थीं। लेकिन, ऐसा लगता नहीं कि 16 अगस्त 1990 की उस घटना से उन्होंने कोई सबक सीखा। बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने इसे राजनीतिक विरोधियों को कुचलने का हथियार ही बना लिया है।

कई मायनों में इस मोर्चे पर वह वामपंथियों से भी आगे निकलती नजर आ रही हैं। 16 अगस्त 1990 की उस घटना के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने यह भी माना था कि बंद असरदार रहा और हिंसा करने वालों पर पुलिस को तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए थी। इसके उलट नड्डा के काफिले पर हमले के बाद ममता ने केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा तलब किए गए अधिकारियों को भेजने से इनकार कर दिया था। हिंसा को जायज ठहराने की कोशिश करते हुए कहा था, “उनके (बीजेपी) पास कोई और काम नहीं है। अकसर गृह मंत्री यहाँ होते हैं, बाकी समय उनके चड्डा, नड्डा, फड्डा, भड्डा यहाँ होते हैं। जब उनके पास कोई दर्शक नहीं होता है, तो वे अपने कार्यकर्ताओं को नौटंकी करने के लिए कहते हैं।”

सत्ता में रहते चीजों को देखने का नजरिया बदल जाता है। संभव है कि ममता बनर्जी भी उन लाठियों को भूल गई हों जिन्हें खाकर बाद में उनका नेतृत्व चमका था। हिंसा का यह सिलसिला बीजेपी के उभार की वजह बन सकता है। वैसे भी इतिहास खुद को दोहराता ही है।

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अजीत झा
अजीत झा
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