द वायर की प्रोपेगेंडाबाज पत्रकार आरफा खानम शेरवानी ने शनिवार (05 जून) को ट्वीट करके कहा कि तालिबान ने ‘हिन्दुत्व के गुंडों’ से प्रेरित होकर बामियान बुद्ध की विशाल मूर्ति को विस्फोटक से उड़ा दिया था। शेरवानी ने ट्वीट में लिखा कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस ने ही अफगानिस्तान में बौद्ध स्मारक के तालिबान द्वारा विनाश को प्रेरित किया था।
इस पूरी चर्चा के कई पहलू हैं। सबसे पहले तो यह ध्यान देना चाहिए कि बामियान में बौद्ध स्मारकों के साथ जो हुआ वह कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा का नतीजा था जो हिन्दू, बौद्धों और जैनों के धर्म स्थानों के विनाश का कारण बनी। औरंगजेब तो आज भी हिन्दू मंदिरों को नष्ट करने के लिए जाना जाता है। जिस बाबरी मस्जिद की बात शेरवानी ने की वह उसी जगह बनी हुई थी जहाँ पहले राम मंदिर था।
हालाँकि, तालिबान की जिहादी गतिविधियाँ नई नहीं हैं। तालिबानी तो सिर्फ अपने वैचारिक आकाओं के बनाए रास्ते पर ही चल रहे हैं। शेरवानी यह सोचती हैं कि मुस्लिम आक्रान्ताओं के जुल्म सदियों पहले हुए थे तो उन्हें इतिहास के पन्नों में दफन कर देना चाहिए। लेकिन हिन्दू धर्म एक सजीव धर्म है और हिंदुओं को उनके पूर्वजों के बलिदान याद हैं जिनके कारण आज हम अपने देवी-देवताओं की पूजा कर पा रहे हैं।
जहाँ एक ओर तालिबान का किया इस्लामिक जिहाद का एक अंग है वहीं बाबरी मस्जिद का विध्वंस बैस्टिल की उस घटना की तरह है जिसने फ्रांसीसी क्रांति को जन्म दिया था। बाबरी विध्वंस उस पुनर्जागरण का कारण बना जो आज भी हिन्दू समाज में व्याप्त है।
बामियान के बौद्ध स्मारकों को नष्ट किया जाना कोई अलग घटना नहीं है बल्कि पहले ही बताया गया है कि हिन्दू और बौद्ध स्मारक हमेशा से ही इस्लामिक कट्टरपंथ की भेंट चढ़ते रहे हैं। आज भी पाकिस्तान में हिन्दू मंदिरों की स्थिति को देखा जा सकता है जो सात दशक पहले भारत ही था। वहाँ हिन्दू अपने पैसे से भी मंदिर नहीं बना सकते हैं और इस्लाम के नाम पर इस दमन को जायज ठहराया जाता है।
इस पूरी चर्चा का एक पहलू यह भी है कि बामियान में तालिबान ने निसहाय अल्पसंख्यकों पर खूब जुल्म किया जबकि बाबरी विध्वंस किसी समुदाय के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं थी। यह मात्र हिंदुओं द्वारा अपनी राम जन्मभूमि प्राप्त करने की एक प्रक्रिया थी और बाद में सुप्रीम कोर्ट में संविधान के दायरे में यह सिद्ध भी हुआ कि उस विवादित ढाँचे पर हिंदुओं का ही अधिकार है। जबकि ऐसा बामियान बौद्ध स्मारकों के साथ संभव नहीं है।
यह केवल आरफा खानम शेरवानी की बात नहीं है। पूरा लिबरल समुदाय ही ऐसी चर्चाओं में अक्सर ही इस्लामिक जिहादियों और कट्टरपंथियों को क्लीनचिट देता फिरता है और अंत में इन इस्लामिक आतंकियों को नैतिक तौर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से श्रेष्ठ घोषित कर देता है।