एक समय था जब पूरा का पूरा पंजाब भारत का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन विभाजन के बाद इसका एक बड़ा भाग पाकिस्तान में भी चला गया। उस समय पंजाब के ही एक ईसाई नेता थे, दीवान बहादुर सिन्हा। अंग्रेजों के काल में वो पंजाब विधानसभा के स्पीकर हुआ करते थे। 1947-48 में वो पंजाब विधानसभा के सदस्य थे। उनका जन्म सन् 1893 में सियालकोट के पसरूर में हुआ था। उनके दादा बिहार और दादी बंगाल से सम्बन्ध रखते थे। उनकी माँ पंजाबी थीं, जिन्होंने एक अंग्रेज से शादी की।
भारत के विभाजन और पाकिस्तान की स्थापना में दीवान बहादुर सिन्हा का बड़ा योगदान था, जिन्हें वहाँ के ईसाई आज भी याद करते हैं। उन्होंने उत्तर प्रदेश की एक महिला से शादी की थी। आगे पढ़ने की इच्छा से वो लाहौर पहुँचे। इसके बाद उन्हें पंजाब विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार की नौकरी मिली। कहा जाता है कि उनके प्रयासों के बाद ही मीट्रिक एग्जामिनेशन सिस्टम और इंटरमीडिएट लेवल डिग्रीज की शुरुआत हुई, जिसका आज भी अनुसरण किया जाता है।
उन्हें अंग्रेजों ने ‘दीवान बहादुर’ की उपाधि से नवाज़ा था। उन्होंने ही ये नैरेटिव फैलाया था कि उस समय के भारत में ईसाईयों की स्थिति ठीक नहीं थी और न ही उनके लिए गाँवों में कब्रगाह थे। साथ ही कुंओं से पानी भरने में उनके लिए पाबंदियों की बात कही गई। ये अलग बात है कि तब भारत पर राज करने वाले अंग्रेज ईसाई ही हुआ करते थे। पंजाब में इसे धर्मांतरण के पीछे मिशनरियों ने ‘हिन्दुओं द्वारा दलितों को अछूत मानना और उन पर अत्याचार करना’ जैसे कारण दिए गए।
तो दीवान बहादुर सिन्हा का मानना था कि मुस्लिम समुदाय दलितों के प्रति ज्यादा उदार है और ज्यादा सेक्युलर भी है, इसीलिए इस्लामी मुल्क के साथ जाना ईसाईयों का एक सही निर्णय रहेगा। उन्होंने ईसाईयों की बेहतरी की बातें करते हुए भले ही पाकिस्तान जाने का रास्ता चुना, लेकिन असली बात ये थी कि इसका उन्हें और पूरे ईसाई समुदाय को दुष्परिणाम झेलने पड़े। 21 नवंबर, 1942 को दीवान बहादुर ने मोहम्मद अली जिन्ना के समर्थन में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया।
तब वो पंजाब यूनिवर्सिटी में रजिस्ट्रार हुआ करते थे। इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान और भारत विभाजन को लेकर भी पूर्ण समर्थन की घोषणा की। लाहौर स्थित फोरमैन क्रिस्चियन कॉलेज (अब चार्टर्ड यूनिवर्सिटी) ने भी खुद को इस गठबंधन का हिस्सा बनाया। उसी साल 25 जुलाई को पूरे भारत के ईसाईयों का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने बयान दिया कि विभाजन के वक्त ईसाई समुदाय को भी मुस्लिमों के साथ ही गिना जाए। इसके बाद ईसाईयों में पाकिस्तान को लेकर माहौल बनाया गया।
इसके लिए 1945-46 में विभाजन की माँग को और मजबूती देते हुए ‘ऑल इंडिया क्रिस्चियन एसोसिएशन’ और ‘ऑल इंडिया क्रिस्चियन लीग’ ने ‘लॉन्ग लिव पाकिस्तान’ का नारा दिया। खुद दीवान बहादुर सिन्हा ने गुरदासपुर और पठानकोट जैसे जिलों में जाकर वहाँ के ईसाईयों से पाकिस्तान के पक्ष में प्रस्ताव पास कराया। 20 नवंबर, 1946 को तो उन्होंने जिन्ना को ईसाईयों का नेता घोषित कर डाला। जिन्ना ने भी कहा कि वो ईसाईयों के इस समर्थन और त्याग को कभी नहीं भूलेंगे।
यूनियनिस्ट पार्टी के समर्थन से वो अखंड पंजाब की विधानसभा में स्पीकर के पद तक पहुँचे। 17 अगस्त, 1947 को जब ‘पंजाब बाउंड्री कमीशन’ ने पंजाब के एक हिस्से को भारत में रखा तो दीवान बहादुर सिन्हा ने इसका विरोध किया। उनकी माँग थी कि गुरदासपुर और फिरोजपुर को पाकिस्तान में शामिल किया जाए। ‘अकाली दल’ के नेता तारा सिंह ने तो यूनाइटेड पंजाब विधानसभा के सामने तलवार निकाल कर ऐलान किया था कि पाकिस्तान में मिलने की माँग करने वालों के गर्दन काट दिए जाएँगे।
इसके जवाब देते हुए ईसाई नेता दीवान बहादुर सिन्हा ने कहा था, “सीने पर गोली खाएँगे, पाकिस्तान बनाएँगे।” उस समय कुछ इस्लामी संगठन भी विभाजन के खिलाफ थे, लेकिन ईसाई संगठनों ने दीवान बहादुर के नेतृत्व में एकता दिखाई। ईसाईयों के कारण ही पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा बना। विधानसभा में पाकिस्तान और भारत के पक्ष में जब मतदान कराया गया तो दोनों तरफ से 88-88 का आँकड़ा सामने आया। तब जिन्ना भी इस बात को लेकर अनिश्चित थे कि अब पश्चिमी पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा बन पाएगा या नहीं।
तब पंजाब का भविष्य 4 ईसाई सदस्यों के हाथ में थे और उन चारों के चारों ने पाकिस्तान का पक्ष लिया। जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी और सरदार पटेल जैसे नेताओं के प्रभाव के बावजूद दीवान बहादुर सिन्हा ने सुनिश्चित किया कि ये चारों पाकिस्तान के पक्ष में वोट डालें। 23 जून, 1947 को जब मतदान हुआ तो सिन्हा ही विधानसभा के स्पीकर थे। उनके अलावा फज़ल इलाही और सीई गिबन जैसे ईसाई सदस्यों ने भी उनका साथ दिया। इस तरह पंजाब के पक्ष में 91 और भारत के पक्ष में 88 वोट पड़े।
क्या आप जानना चाहते हैं कि जिस पाकिस्तान की स्थापना में दीवान बहादुर एसपी सिन्हा ने बड़ी भूमिका निभाई थी, उस पाकिस्तान में उनका क्या हश्र हुआ? जिन्ना की मौत के बाद उनके खिलाफ विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया और और कहा गया कि केवल एक मुस्लिम को ही इस्लामी मुल्क में स्पीकर बनने का हक़ है। उन्हें इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि वो एक ईसाई थे। 22 अक्टूबर, 1948 को उनकी मौत हो गई। जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान में उनकी सुनने वाला कोई नहीं था।
उनकी पत्नी और बेटी को पाकिस्तान छोड़ कर भारत का रुख करना पड़ा। 1958 में इन दोनों ने इस्लामी मुल्क छोड़ दिया। हालाँकि, मार्च 2016 में दुनिया के सामने खुद को अल्पसंख्यक हितैषी दिखाने के लिए पाकिस्तान की सरकार ने दीवान बहादुर एसपी सिन्हा के सम्मान में 10 रुपए का डाक टिकट जारी किया। आज स्थिति ये है कि पाकिस्तान में ईसाई खुल कर क्रिसमस तक नहीं मना सकते। वहाँ ईसाई तभी खबर में आते हैं जब भीड़ उनकी लिंचिंग करती है या इस समुदाय की किसी लड़की का अपहरण कर जबरन धर्मांतरण और निकाह कर दिया जाता है।
After 1947 partition, majority of Christians in undivided Punjab went to Pakistan as their leader, Dewan Bahadur Singha, supported Jinnah. Soon, Singha was made to step down from Pakistani Punjab Assembly as speaker as he wasn’t a Muslim. Reports say his family shifted to India
— Swati Goel Sharma (@swati_gs) December 25, 2021
ईसाई महिलाओं से आज पाकिस्तान में साफ़-सफाई का काम लिया जाता है। पाकिस्तान के सफाईकर्मियों में अधिकतर ईसाई ही हैं। पाकिस्तानी मुस्लिमों में जातिवाद हावी है। जिन दलितों का अंग्रेज मिशनरियों ने हिन्दू जाति व्यवस्था का डर दिखा कर धर्मांतरित किया और दीवान बहादुर सिन्हा पाकिस्तान ले गए, उनकी जनसंख्या उस मुल्क में मात्र 1.27% रह गई है। पख्तून, सिंधी, बलूच और उसके कई जातियों में बँटे पाकिस्तान में आज ईसाईयों का हाल बेहाल है।
ये भी जानने लायक बात है कि विभाजन के समय दीवान बहादुर एसपी सिन्हा के पास दो वोट थे, एक सदस्य के रूप में और एक स्पीकर के रूप में। इस तरह तीन ईसाई सदस्यों के 4 वोटों से पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा बना। 1949 उसी पाकिस्तान में प्रस्ताव पारित कर मुस्लिम के स्पीकर बनने का नियम तय हुआ और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। ‘पंजाब कार्डियोलॉजी हॉस्पिटल’ ने सितंबर 2015 में एक विज्ञापन निकाला था कि केवल ईसाईयों की ही सफाईकर्मी के रूप में भर्ती होगी।