Sunday, November 17, 2024
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‘वायर’ कहता है हिन्दू अपने बच्चों को घृणा न सिखाएँ, ‘क्विंट’ चाहता है हिन्दुओं की लाश पर समुदाय विशेष नाचे

वो बच्चे किस स्कूल में पढ़ते हैं जो रात के एक बजे, काँवरियों के उनके इलाके से गुजरने पर घात लगा कर बैठते हैं और पत्थर-ईंट फेंकते हैं? किसी स्कूल में तो वो बच्चे भी जाते होंगे जो मस्जिद के पास से विसर्जन की भीड़ पर पत्थर फेंकते हैं?अगर वो स्कूल नहीं जाते तो कहीं से तो ऐसी उत्तम शिक्षा पाते होंगे।

कभी ये समुदाय विशेष हो जाते हैं, कभी ये राघव बहल जैसों के क्विंट के लिए ‘दो समूह’ हो जाते हैं, कभी इनके पाँच साल के बच्चे को कोई पाकिस्तान जाने को कह देता है जिससे ‘वायर’ हिन्दू माता-पिता को नसीहत देते हैं कि उन्हें अपने बच्चों को घृणा और साम्प्रदायिकता नहीं सिखानी चाहिए… लगता है कि हिन्दुओं ने बड़ा आतंक मचा रखा है भाई, इनको जल्दी से देश से निकालो।

लेकिन सच्चाई तो इससे कोसों दूर कुछ और ही है। मदरसों में रेप मौलवी और मुल्ला करें, काँवरिया पर पत्थरबाजी समुदाय विशेष करें, दुर्गापूजा पंडालों पर पत्थर समुदाय विशेष फेंकें, रामनवमी के जुलूस पर चप्पल समुदाय विशेष फेंके, विसर्जन की राह में मांस फेंके जाएँ, काफिरों से धरती खाली करने की बात एक किताब में हो, लेकिन किसके बच्चों को ‘घृणा और पूर्वग्रह’ से बचना सीखना चाहिए स्कूलों में? हिन्दुओं के!

पिछले दो दिन में, कम से कम आठ जगहों से दुर्गा विसर्जन पर पथराव, या पंडालों को भीतर मूर्तियों को तोड़ने, जलाने या सर तोड़ कर फेंक देने की बातें सामने आई हैं। ज़ाहिर है कि बलरामपुर में मस्जिद के पास विसर्जन का जुलूस गुजरा तो उस पर जो पथराव हुआ वो हिन्दुओं ने ही किया होगा ताकि ‘शांतिप्रियों’ का नाम फँसाया जा सके। वहीं, बस्ती नामक जगह पर कॉमन सेंस तो यही कहता है कि साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने को उतावले हिन्दुओं ने अपनी ही माँ दुर्गा के विसर्जन के रास्ते में मांस के टुकड़े फेंक दिए होंगे।

बदायूँ में मूर्ति भी खुद हिन्दुओं ने तोड़ी होगी ताकि इलाके के ‘शंतिप्रियों’ को बदनाम किया जा सके। रफीकुल की शक्ल का मास्क लगा कर, सर पर तिलक लगा कर, कोई हिन्दू ही असम के बारपेटा में लक्ष्मी की मूर्ति तोड़ रहा होगा ताकि एक मजहब के किसी शांत स्वभाव के नवयुवक को इस घटना का आरोपित बनाया जा सके। अरुणाचल के दोईमुख बाजार में देवी दुर्गा की मूर्ति भी बनाने वाले ने ही तोड़ी होगी क्योंकि इलाके के ईसाई से उनकी जाती दुश्मनी है और ऐसा करने के बाद इल्जाम लगाना आसान हो जाता है। बंगाल के केतुग्राम में देवी माँ की मूर्ति का सर भी हिन्दुओं ने स्वयं तोड़ा होगा ताकि बेचारे शांतिदूतों को नकारात्मक तरीके से दिखाया जा सके।

गया में मूर्ति विसर्जन पर पथराव तो वहाँ के भूमिहारों ने किया होगा ताकि शान्तिप्रियों का नाम मीडिया में आए और इस्लामोफोबिया फैलाया जा सके। क्योंकि ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा तो हिन्दुओं ने ही लगाया और तब आप के विसर्जन पर पथराव हुआ क्योंकि आप किसी के देश के खिलाफ नारा नहीं लगा सकते, बुरा लगता है। जहानाबाद में विसर्जन के दौरान पत्थरबाजी हिन्दुओं ने ही की होगी ताकि डर के माहौल में जी रहे शान्तिप्रियों को पूरे देश में पत्थरबाजी करने वाला बताया जा सके।

निजी अनुभव की नौटंकी जो लिबरपंथी करते रहते हैं

इसलिए, जब ‘वायर’ में यह लिखा जाता है कि ‘मैं अपने बच्चे के दोस्त के यहाँ पार्टी में गई और यह सुन कर सन्न रह गई कि उसका दोस्त उसे पाकिस्तान जाने की बात कहता है’, तो आपको तुरंत विश्वास हो जाएगा क्योंकि हिन्दू बच्चे तो गर्भ में चक्रव्यूह तोड़ना सीख लेते हैं, यहाँ तो फिर भी पाँच साल का परिपक्व, समझदार और चालाक बालक है जो स्कूलों में और घरों में यही सब तो सीखता है।

अंग्रेजी में बताया गया है कि हिन्दू माता-पिता बच्चों की अज्ञानता, घृणा और पूर्वग्रह का पता लगाते रहना चाहिए कि वो ये सब कहाँ से सीख रहे हैं

आप जरा सोचिए कि यही बात कोई भी व्यक्ति किसी भी मजहब विशेष के बच्चे के बारे में लिख दे कि… खैर, बच्चा तो छोड़िए, आप ये कह दीजिए कि एक नवयुवक यह बोल रहा था कि उसे पाँच काफिरों का धर्मांतरण करना है। या, यह कि मुगलों ने यहाँ के हिन्दुओं पर राज किया है, और आगे भी करेंगे। तो आप पर लिबरपंथी और कामभक्त वामपंथी लम्पट गिरोह तुरंत ‘बिगट’ और ‘कम्यूनल’ का ठप्पा वैसे ही चिपका देगा जैसे किसी प्रेमिका के गले पर पहले मिलन की रात में प्रेमी ‘लव बाइट’ जिद कर के चिपका देता है।

वामपंथी लम्पटों का यह सबसे पसंदीदा तरीका है जहाँ उन्हें किसी भी तरह के सबूत की ज़रूरत नहीं पड़ती, वो बस ‘निजी अनुभव’ के नाम पर दुनिया भर की विचित्र बातें लिख देते हैं। आप सोचिए कि कोई कितना नीचे गिरा होगा कि एक आर्टिकल लिखने के लिए उसे अपने बच्चे का ‘इस्तेमाल’ करना पड़ा होगा। जब कोई किसी भी घटना में पाँच साल के बच्चे को ले आते हैं तो मकसद यही होता है कि उस बच्चे की निश्छलता, दुनिया के तमाम विचारों से उसका अनजान होना, उस बिन्दु में कही जा रही बात को पूरी तरह से सत्य साबित कर दे।

इसलिए, जब कोई अपने होशो-हवास में इस तरह से किसी मासूम का इस्तेमाल करता है, ताकि वो सात-आठ सौ शब्दों का कोई लेख लिख सके, तो तरस आता है कि ये लोग किस तरह के समाज का निर्माण करना चाह रहे हैं? हर लेख में इसी तरह के विचित्र निजी अनुभव, जो आपको या मुझे कभी नहीं होता, बताते हैं कि कुछ लोग लेख लिखने के लिए अपने हिसाब के सामाजिक विकृतियों के उदाहरण ढूँढने में असफल रहने पर, अपने बच्चे तक को खींच लाते हैं।

लेकिन इसकी जरूरत है क्या? आप एक सामान्य विचार कब रखते हैं? आप ऐसा कब कहते हैं कि आतंक का मजहब है? आप ऐसा कब कहते हैं कि फलाँ जगह तो नकली नोट छापने के लिए कुख्यात है? जब हम किसी घटना को, व्यवहार को, तरीके को समाज में इस तरह से दिखाना चाहते हैं कि ये नया नॉर्मल है, ये अब सामान्य हो गया है, तो उसके लिए हमारे पास सिर्फ एक उदाहरण नहीं होना चाहिए, वो भी निजी!

ऐसा साबित करने के लिए, या समाज के ध्यानाकर्षण के लिए, हमारे पास उन बीस जिलों के नाम होने चाहिए जो बंगाल में है, और दंगे हुए हैं। तब हम कह सकते हैं कि ममता बनर्जी का बंगाल जल रहा है। ऐसा नहीं होता कि बिहार में एक जगह बम फटे, और हम कहने लगें कि बिहार इस्लामी आतंक के धमाकों से दहल रहा है। ये नहीं होता कि आप पार्क में जाएँ और एक दिन आप पर किसी का कुत्ता भौंके, तो आप आ कर ये लिखने लगें कि दिल्ली के पार्कों में कुत्तों ने मॉर्निंग वॉक पर जाना मुहाल कर दिया है।

अगर ‘वायर’ यह लिख रहा है कि हिन्दू माता-पिताओं को, अपने बच्चों को स्कूलों से घृणा सीख कर आने से बचाना चाहिए, तो ‘वायर’ को यह बताना पड़ेगा कि कितने हिन्दुओं के बच्चों ने, कितने दूसरे मजहब विशेष वालों को, किस-किस जगह पर, किस-किस बर्थ डे पार्टी में ये कहा कि भारत तुम्हारा देश नहीं। अगर उनके पास किसी फ़र्ज़ी, वानाबी पत्रकार की कल्पनाशील कहानी के सिवा कुछ नहीं है तो लानत है ऐसे मीडिया संस्थान के एडिटर पर जो इस तरह की घटिया बातों को हवा दे कर समाज में साम्प्रदायिकता का जहर बेच रहा है।

पैटर्न तो कुछ और है यहाँ

अब मुझे यह जानने में बहुत ज्यादा रुचि हो गई है कि काँवरियों के जत्थों पर पथराव क्यों होता है? क्या शान्तिप्रियों के इलाकों से गुजरने वाली सड़कें शान्तिप्रियों के बापों की जागीर है? आखिर, किस स्कूल में वो बच्चे पढ़ते हैं जो रात के एक बजे, काँवरियों के उनके इलाके से गुजरने पर घात लगा कर बैठते हैं और पत्थर-ईंट फेंकते हैं? किसी स्कूल में तो वो बच्चे भी जाते होंगे जो मस्जिद के पास से विसर्जन की भीड़ पर पत्थर फेंकते हैं? वो स्कूल नहीं जाते तो कहीं से तो ऐसी उत्तम शिक्षा पाते होंगे।

पिछले दो-तीन सालों में, कश्मीर में होने वाली पत्थरबाजी तो कम हो गई लेकिन दसियों जगह पर ‘शान्तिप्रियों’ ने हर हिन्दू पर्व पर, जिसमें थोड़ा भी बाहर जाने का स्कोप हो, अपनी पत्थरबाजी की छाप ज़रूर छोड़ी है। इनके कारण विचित्र होते हैं, अगर पूछा जाए तो। इनके हिसाब से मस्जिद के सामने से आप जुलूस नहीं ले जा सकते। क्यों? आखिर, मस्जिद के सामने से विसर्जन का जुलूस न निकाला जाए, तो कहाँ से निकाला जाए? दस किलोमीटर घूम कर जाएँ, या फ्लाइओवर बनवा दें?

कुछ जगह पता चला कि समुदाय विशेष के इलाके में ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे लगे, तो वो क्रोधित हो गए। अब मुझे यह कोई समझा दे कि भारत में ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा क्यों नहीं लगेगा? किसी ‘शांतिप्रिय’ को इस नारे से आपत्ति क्यों है? तुम्हारे सामने अगर कोई पाकिस्तान मुर्दाबाद कहता है, तो तुम इकट्ठा हो कर, पत्थर मारने की जगह ‘हिन्दुस्तान जिंदाबाद’ क्यों नहीं कहते? एक बार में हिन्दुओं का मुँह बंद हो जाएगा। तुम जिस देश में रहते हो, खाते हो, सड़क पर चलते हो, सरकार की योजनाओं का लाभ लेते हो, उस देश के नाम का नारा एक बार लगा कर देखो तो सही।

लेकिन नहीं, तुरंत पत्थर उठा लेंगे क्योंकि कश्मीर से ले कर लंदन तक समुदाय विशेष का फेवरेट हथियार यही है। हर जगह से इस प्रागैतिहासिक काल के हथियार का इस्तेमाल ये समुदाय विशेष वाले करते हैं। मौका मिला तो छतों पर इकट्ठा कर के रखते हैं कि कब हिन्दुओं का काफिला निकले तो फेंका जाए। इन घटनाओं से तो यही लगता है कि ये चाहते हैं कि हिन्दुओं की धार्मिक यात्रा, उनका कोई जुलूस, कोई विसर्जन आदि उनके इलाके से गुजरे और उनके हथियार काम में लाए जा सकें। बाकी का काम तो राघव बहल जैसे लोग कर ही देंगे कि बोल्ड अक्षरों में कट्टरपंथियों द्वारा की गई पत्थरबाजी को ‘टू ग्रुप्स’ यानी ‘दो समूह’ के बीच का झगड़ा बता देंगे।

मस्जिद के सामने से हिन्दू अपनी आस्था का प्रतीक नहीं ले जा सकता। लेकिन हाँ, हर शुक्रवार को, शहरों, गाँवों, कस्बों की मस्जिदों से बाहर, सड़क पर नमाज कौन पढ़ता है? कितनी बार आपने खबर सुनी है कि नमाज पढ़ने वालों पर हिन्दुओं ने पत्थर फेंका? रेल के ट्रैक पर नमाज क्यों पढ़े जाते हैं? ईद की नमाज दिल्ली के जामा मस्जिद में हर तरफ जगह बची होने के बावजूद सड़कों पर क्यों पढ़ी जाती है? कितनी बार इस सुनियोजित अराजकता पर किसी ने पत्थर फेंकना तो छोड़िए, सवाल भी किया है ढंग से? हाँ, इससे भले ही ट्रैफिक जाम लग जाए, कोई बात नहीं। शुक्रवार की नमाज है, सड़कों पर फैलेगी, रेल के ट्रैक पर होगी, बर्मिंघम के पार्कों में होगी…

क्यों? क्योंकि ये मजहबी बात से कहीं ज्यादा शक्ति प्रदर्शन है कि हाँ, हम करेंगे, जो करना है करो। साथ ही, तुम भले ही बहुसंख्यक हो, लेकिन हमारे इलाके से गुजरे तो पत्थरों से बींध देंगे क्योंकि हम अल्पसंख्यक हैं, और चूँकि ‘शांतिप्रिय’ हैं तो हम पहले से ही विक्टिम बन जाएँगे। हम किसी हिन्दू को विशुद्ध मजहबी कारणों से भी छुरा मारेंगे तो भी हमारे समर्थन में मीडिया का एक हिस्सा कहेगा कि जरूर हिन्दू ने कुछ किया होगा। हाँ, किया था हिन्दू ने कुछ, वो समुदाय विशेष से नहीं था इसलिए कभी प्रशांत पुजारी, कभी डॉक्टर नारंग, कभी अंकित सक्सेना, कभी भारत यादव के रूप में वह कट्टरपंथियों द्वारा मारा जाता रहा।

लेकिन सुधार किसमें चाहिए? हिन्दुओं में

अब बात आती है कि ये जो ‘वायर’ वाले और ‘क्विंट’ वाले, हिन्दुओं को ही आतंकी बताने लगते हैं। एक घटना में कोई ‘जय श्री राम’ की बात करता दिखता है, तो ये लोग एक महीने तक हर टुच्चे झगड़े में ‘जय श्री राम’ घुसा देंगे, और वो हर घटना बाद में झूठी साबित होगी। फिर भी, ये रुकते नहीं क्योंकि इनका उद्देश्य दूसरे मजहब वालों में यह दुर्भावना फैलाने की होती है कि देखो, अब तो जय श्री राम महीं बोलोगे, तब भी हिन्दू तुम्हें पीटेगा।

अब सवाल यह है कि ये लोग हर बार, कट्टरपंथियों की आतंकी वारदातों पर, मजहबी पत्थरबाजी पर, शान्तिप्रियों की गौतस्करी पर, बीफ माफिया के ‘शान्तिप्रियों’ द्वारा बीस हिन्दुओं की बीस महीने में हुई हत्या पर, चुप क्यों रह जाते हैं। अगर फेसबुक या एक-दो दक्षिणपंथी पोर्टल इन खबरों की रिपोर्टिंग न करें, तो ये लोग मजहबी बलात्कारियों तक को ‘राम (बदला हुआ नाम)’ कह कर छुपा लेते हैं।

कट्टरपंथियों द्वारा की गई लिंचिंग पर चुप्पी और हिन्दुओं द्वारा किए गए सामाजिक अपराधों को भी साम्प्रदायिक रंग दे कर रिपोर्ट करना ही इस वामपंथी मीडिया गिरोह और पाक अकुपाइड पत्रकारों की पहचान है। दोनों ही सूरतों में, एक मजहब को शांतिप्रिय बता कर उसे उसके उद्गम के साल से ही पीड़ित दिखाने की जिद और दूसरे धर्म को आक्रांता बता कर अल्पसंख्यकों के मन में डर और जहरीले विचारों को रखना, इनके वृहद अजेंडे के लिए सूटेबल है।

इनका असली अजेंडा है कि भारत में गृहयुद्ध की स्थिति बने और किसी भी तरह से एक खास पार्टी और विचारधारा की सरकार को हटाया जा सके। इनकी उम्मीद के विपरीत जब दो बार भाजपा की बहुमत वाली सरकार भी नहीं आ पाई, तो अब इनका अजेंडा है लोगों को भड़काना, साम्प्रदायिकता का ज़हर घोलना।

यही कारण है कि हर आतंकी हमले में कट्टरपंथियों की संलिप्तता के बावजूद, रट यही लगाई जाती है कि आतंक का कोई मजहब नहीं होता। हिन्दुओं के हर त्योहार पर शांतिप्रियों द्वारा व्यवधान से लेकर, मूर्तियों को तोड़ने, शिवलिंग पर पेशाब करने, जुलूसों पर पत्थरबाजी करने के बाद भी, आरोपितों और अपराधियों को ‘समुदाय विशेष’ से ले कर ‘दो समूह में झड़प’ के नाम पर छुपा लिया जाता है।

कितनी बार मस्जिदों को तोड़ने की बात तो छोड़िए, उसकी दीवार को छूने की भी खबर आपने सुनी है? कभी सुना है कि किसी गाँव की मस्जिद को हिन्दुओं ने तोड़ दिया? जबकि हिन्दुओं को मंदिर को तोड़ कर, उसकी दीवारों को नींव बना कर, बाबरी मस्जिद बना दी गई, काशी विश्वनाथ के बगल में ज्ञानवापी मस्जिद खड़ी हो गई, मथुरा में मस्जिद की एक दीवार मंदिर की ही है, फिर भी आपने कितने विद्रोह देखे हैं?

सच तो यह है कि इस शांतिप्रिय समुदाय की हरकतें हर त्योहार पर हिन्दू झेल रहे हैं। वो पुलिस से गुहार लगाते हैं कि उनकी सुन ली जाए। दो मिनट में पुलिस स्टेशन को घेर लेने वाली भीड़ किसकी होती है जो जयपुर में आग लगा देती है? रामनवमी के जुलूस पर चप्पल हिन्दू नहीं फेंकते, विसर्जन पर होती पत्थरबाजी हिन्दू नहीं करता, दुर्गा की मूर्तियों की गर्दन हिन्दू नहीं तोड़ता, शिव पर जल चढ़ाने जाते काँवरियों पर ईंट के टुकड़ों की बरसात हिन्दू नहीं करता, धार्मिक आयोजनों के राह में मांस के टुकड़े हिन्दू नहीं फेंकता…

हिन्दू बस सहनशील हो कर अभी भी कानून की शरण लेता है। हिन्दुओं की सहिष्णुता की सीमा कट्टरपंथी समुदाय टटोलना बंद कर दे क्योंकि हर व्यक्ति रक्त-मज्जा का ही बना होता है। इसी हाड़-मांस के इन्सान में समझदारी भी होती है, और वही किसी नारे के पीछे पागल हो कर बाजारों में फटता भी है। परंतु, हिन्दू हर मजहब के पाप का बोझ ले कर नहीं चल सकता, उसकी सहिष्णुता उसकी कमजोरी की तरह देखी जा रही है।

और अंत में, राष्ट्रकवि दिनकर की ये पंक्तियाँ स्मरण रहें:

तीन दिवस तक पंथ माँगते
रघुपति सिंधु किनारे
बैठे पढ़ते रहे छंद
अनुनय के प्यारे प्यारे।

उत्तर में जब एक नाद भी
उठा नहीं सागर से
उठी अधीर धधक पौरुष की
आग राम के शर से।

सिन्धु देह धर त्राहि-त्राहि
करता आ गिरा शरण में
चरण पूज दासता ग्रहण की
बँधा मूढ़ बन्धन में।

सच पूछो, तो शर में ही
बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का
जिसमें शक्ति विजय की।

सहनशीलता, क्षमा, दया को
तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके
पीछे जब जगमग है।

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अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

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