Tuesday, November 19, 2024
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ममता बनर्जी को जोर का झटका, विधायक सहित TMC के 4 नेताओं ने जॉइन की BJP

कैलाश विजयवर्गीय की उपस्थिति में तृणमूल कॉन्ग्रेस के विधायक मनिरुल इस्लाम ने बीजेपी जॉइन कर ली है। इसके अलावा टीएमसी नेता गदाधर हाज़रा, मोहम्मद आसिफ इकबाल और निमाई दास ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया है। कैलाश विजयवर्गीय के साथ मुकुल रॉय की मौजूदगी में ये सभी नेता दिल्ली में आज (मई 29, 2019) को आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान बीजेपी में शामिल हुए हैं।

इससे पहले भी मंगलवार (मई 28, 2019) को टीएमसी के 2 विधायकों और 50 से अधिक पार्षद बीजेपी में शामिल हो गए थे। इसके बाद कैलाश विजयवर्गीय ने कहा था कि हम 7 चरणों में टीएमसी विधायकों को बीजेपी में शामिल करवाएँगे। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में चुनाव भी 7 चरणों में संपन्न हुए थे। जिसके बाद विजयवर्गीय ने चुनाव के 7 चरणों की तरह ही विधायकों को बीजेपी के साथ जोड़ने का ऐलान किया था।

बता दें कि इससे पहले चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यह कहकर बंगाल के सियासत में हलचल मचा दी थी कि ‘दीदी आपके 40 विधायक हमारे संपर्क में हैं।’

विधायकों के लागातर पार्टी छोड़ना तृणमूल के लिए खतरे की घंटी है। ममता बनर्जी भी इससे खीझी हुईं हैं। उनकी यह खीज किसी न किसी बहाने लगातार बाहर आ रही है। यहाँ तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने का न्यौता भेजा था, जिसे उन्होंने स्वीकार करने के बाद यू-टर्न लेते हुए अस्वीकार कर दिया।

ममता बनर्जी ने एक चिट्ठी जारी कर लिखा कि बीजेपी ने इस कार्यक्रम में मृत बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिवार वालों को बुलाया है और इसे राजनीतिक हत्या करार दिया है। ममता ने कहा कि ये राजनीतिक हत्या नहीं, बल्कि आपसी रंजिशों के मामले हैं।

ममता बनर्जी ने चिट्ठी में लिखा था, “बधाई, नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, आपके संवैधानिक आमंत्रण को मैंने स्वीकार कर लिया था और आपके शपथ ग्रहण समारोह में मैं आने को तैयार थी। लेकिन पिछले कुछ समय में मैंने रिपोर्ट्स देखी हैं कि भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि उन्होंने बीजेपी के उन 54 कार्यकर्ताओं के परिवार को भी न्यौता दिया है जिनकी बंगाल में राजनीतिक हत्या कर दी गई है।”

राम, रामायण और BJP: कार्यकर्ताओं से पार्टी है, पार्टी से कार्यकर्ता नहीं

भारतीय जनता पार्टी के लिए राम मंदिर एक कोर मुद्दा रहा है और राम मंदिर के नाम पर ही पार्टी को एक पैन इंडिया पहचान मिली या यूँ कहिए कि इसके उद्भव की शुरुआत हुई। लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा और बाबरी विध्वंस के बाद भाजपा की एक अलग पहचान बनी। ये दोनों ही घटनाएँ भगवान श्रीराम से जुड़ी थीं। जब किसी महान व्यक्तित्व को कोई दल, संस्था या शख्स अपने जीवन का आधार बना लेता है तो उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह उस महानता के पीछे निहित संदेशों का अनुसरण करेंगे। भाजपा ने भगवान श्रीराम का कितना अनुसरण किया और कितना नहीं, इस पर विश्लेषण होता रहेगा। लेकिन, हाल के दिनों में दो ऐसी ख़बर आई, जिससे पता चलता है कि भाजपा ने अपनी रणनीति में कुछ सुखद बदलाव किए हैं।

भाजपा की पहचान है उन करोड़ों कार्यकर्ताओं से, जिनमें से बहुतों ने केरल, बंगाल और त्रिपुरा में पार्टी के लिए जान तक न्यौछावर कर दिया। इन तीनों राज्यों में लम्बे समय तक वामपंथी शासन रहने के कारण राजनीति और हिंसा एक-दूसरे के पर्याय बन गए, जिससे भाजपा को यहाँ पाँव जमाने में ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी। बूथ स्तर पर कार्यकर्ता ही काम आते हैं, अमित शाह और नरेन्द्र मोदी हर जगह नहीं हो सकते। स्थानीय राजनीतिक रंजिश में कार्यकर्ताओं की ही जानें जाती हैं, किसी विधायक, सांसद या मंत्री की नहीं। यहाँ हमनें भगवान राम से बात इसीलिए शुरू की क्योंकि अपने लिए लड़ने वालों का ध्यान कैसे रखा जाता है, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इसका उदाहरण शायद उनसे बेहतर किसी ने भी पेश न किया हो।

अगर राम के साथ वानर और भालू सेना न होती तो इस युद्ध का परिणाम कुछ और भी हो सकता था। वानरों व भालूओं ने राम के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी और लंकापति की हार का एक बड़ा कारण बनें। नल-नील ने पुल बनाया, हनुमान ने लक्ष्मण की जान बचाई, अंगद ने रावण को अंतिम बार समझाने के लिए अकेले उनके दरबार में जाने की हिमाकत की, जामवंत ने रावण से मल्लयुद्ध किया और अन्य वानरों ने रावण की पूजा भंग की। ये सब कौन लोग थे? इन सबका परिवार था, मातृभूमि थी, इनके पास खाने-पीने को प्रचुर मात्रा में चीजें थीं लेकिन इन्होने राम के लिए युद्ध लड़ा क्योंकि वे राम को अपना मानते थे, उनके दुःख से दुखी थे, उनके साथ हुए अन्याय को इन्होने अपना माना। कोई मित्रता के बंधन से बंधा रहा, कोई राम को इष्ट मान कर पीछे चलता रहा, किसी ने धर्म के लिए उनका साथ दिया तो किसी ने वचन निभाने के लिए उनके लिए कार्य किया।

राजनीतिक दलों के साथ भी कुछ ऐसा ही होता है। पार्टी सत्ता में आ जाती है तो कार्यकर्ताओं को सीधे मंत्री नहीं बनाया जाता, हाँ क्षेत्र के चुने गए नेता उनके प्रतिनिधि होते हैं, सरकार में, पार्टी में। लेकिन, ये कार्यकर्ता क्यों रहते हैं किसी पार्टी के साथ? कुछ की विचारधाराएँ उस ख़ास पार्टी से मिलती है, कुछ के रिश्तेदार उसमें होते हैं, कुछ को देशहित में ये पार्टी अच्छी लगती है तो कुछ लोगों को उस पार्टी में आगे बढ़ने का मौक़ा दिखता है। भाजपा के कार्यकर्ता भी भाजपा के साथ हैं, इसके कई कारण हो सकते हैं। ये कार्यकर्ता संघी हो सकते हैं, मोदी के बड़े फैन हो सकते हैं, हिंदुत्व की विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं या भाजपा सरकारों के कामकाज के रवैये व उनके द्वारा किए जाने वाले विकास कार्यों से ख़ुश लोग हो सकते है। इसके बाद एक बंधन सा जुड़ जाता है कार्यकर्ता और पार्टी में।

एक अदना सा कार्यकर्ता, जो बूथ या गाँव लेवल पर काम कर रहा है, वो हमेशा कहीं न कहीं त्याग की भावना से काम कर रहा होता है। केरल में उसे पता होता है कि उस पर कभी भी हमला हो सकता है, बंगाल में उसे पता होता है कि कभी भी उसकी बहन-बीवी-बेटी के साथ दुर्व्यवहार किया जा सकता है। राहुल गाँधी की कॉन्ग्रेस की आज वह दुर्दशा है, क्योंकि पार्टी ने कभी उसी वामपंथियों के साथ हाथ मिलाया, जो कई कॉन्ग्रेसी कार्यकर्ताओं की मौत का कारण थे। आज सपा-बसपा महागठबंधन ज़मीन पर बुरी तरह इसीलिए फ्लॉप हो गई क्योंकि उन्होंने गठबंधन करने से पहले कार्यकर्ताओं से नहीं पूछा। अक्सर ऐसा होता है कि शीर्ष नेतृव निर्णय लेता है और कार्यकर्ता न मन रहते हुए भी मानते हैं।

लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं की नेतृत्व कार्यकर्ताओं से राय-विचार करना ही छोड़ दे। वामपंथी दलों ने डॉक्टर मनमोहन सिंह की परमाणु संधि का विरोध किया। जहाँ निचले स्तर पर लोगों की राय थी कि अमेरिका से यह संधि हो, उस समय संसद में प्रभावी ताक़त रखने वाले वामपंथी दलों ने इस करार में बाधा पहुँचाई। वे अपने कार्यकर्ताओं को ही इसका उचित और संतुष्ट करने वाला कारण बताने में नाकाम रहे और कैडर पर आधारित वामपंथी पार्टियाँ आज अपने अस्तित्व बचाने के लिए तड़प रही है। कार्यकर्ताओं से पार्टी है, पार्टी से कार्यकर्ता नहीं। भाजपा ने देर से ही सही, इस बात को समझा और हाल के दिनों की दो ख़बरें इसकी पुष्टि करती हैं।

इनमें पहली ख़बर है केंद्रीय मंत्री और स्मृति इरानी द्वारा अमेठी जाकर अपने उस कार्यकर्ता के पार्थिव शरीर को कंधा देना, जिसकी राजनीतिक रंजिश के कारण हत्या कर दी गई। दूसरी ख़बर है बंगाल में हुए पंचायत और लोकसभा चुनावों के दौरान मारे गए कार्यकर्ताओं को नरेन्द्र मोदी के शपथग्रहण समारोह में आमंत्रित करना। हमने भगवान राम से बात इसीलिए शुरू की क्योंकि जब कई वानर और भालू मारे जा चुके थे, राम ने रावण का वध कर दिया, तब रावण से पीड़ित रहे देवराज इंद्र ने राम से पूछा कि वो उनके लिए क्या कर सकते हैं? चूँकि राम ने देवताओं को एक बड़ी समस्या से मुक्ति दिलाई थी, इंद्र उनके लिए कुछ भी करने को तैयार थे। क्या आपको पता है तब भगवान राम ने इंद्र से क्या माँगा?

राम का काम तो हो चुका था। उन्हें उनकी सीता मिल गई थी, लंका में विभीषण का राज था, उनके मित्र सुग्रीव और भक्त हनुमान अभी भी स्वस्थ थे और उनके वापस जाने के लिए पुष्पक विमान भी तैयार था। लेकिन, उन्हें पता था कि यह जीत सिर्फ़ उनकी या सेनापतियों की जीत नहीं है। उन्हें पता था कि इस जीत में किसका किरदार सबसे अहम है। उन्हें इस बात का ज्ञान था कि किनकी वजह से यह सब कुछ संभव हो पाया है। राम को इस समय किसी की भी फ़िक्र नहीं थी, उनके मन में उनके लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर राक्षसों के हाथों मारे जाने वाले वानरों एवं भालुओं के लिए कुछ चल रहा था। तब राम ने इंद्र से कहा:

“सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे।।
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना।।”

भावार्थ: हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पड़े हैं। इन्होंने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जीवित कर दो।
(लंकाकाण्ड, रामचरितमानस)

राम ने मारे गए वानर-भालुओं को जीवित करने को कहा। आज की युग में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है लेकिन अधिकतम जितना हो सके, मारे गए कार्यकर्ताओं या जो पार्टी के लिए काम कर रहे हैं, उनके लिए किया जा सकता है। जो आज इस दुनिया में नहीं हैं, जिन्होंने पार्टी के लिए जान दे दी, उनके परिवारों की उचित देखभाल की जा सकती है। उन्हें उचित सम्मान दिया जा सकता है। उनके बच्चों की उचित शिक्षा के लिए वह राजनीतिक दल व्यवस्था कर सकती है, जिनके लिए उनकी जान चली गई। स्मृति इरानी का अमेठी जाकर मृत सुरेन्द्र के शव को कंधा देना कई तरह के सन्देश छोड़ गया। इससे उन कार्यकर्ताओं में उम्मीद जगी कि ऊपर लेवल पर काम कर रहे लोग उनके बारे में सोचते हैं।

स्मृति इरानी ने सुरेन्द्र के बच्चों की पढाई-लिखाई और सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेने की भी बात कही। इससे यह सन्देश गया कि अगर परिस्थितिवश किसी कार्यकर्ता के साथ कुछ ग़लत हो जाता है तो पीछे उनके परिवार को देखने के लिए वो खड़ा है, जिनके लिए उन्होंने बलिदान दिया। इसी तरह बंगाल में मारे गए कार्यकर्ताओं के परिजनों को उस समारोह का गवाह बनने के लिए बुलाया गया है, जिसमें राष्ट्राध्यक्षों से लेकर अधिकतर वीवीआइपी ही उपस्थित रहेंगे। कैसा दृश्य होगा जब उसी समारोह में, उसी परिसर में दुनिया के सबसे अमीर व्यक्तियों में से एक मुकेश अम्बानी भी उपस्थित होंगे और बंगाल का एक लड़का भी होगा जिसके पिता को सिर्फ़ इसीलिए मार डाला गया, क्योंकि वो लोकतान्त्रिक तरीके से अपना काम कर रहे थे, वो महिला भी होंगी, जिनके पति को केवल इसीलिए मार दिया गया क्योंकि वह किसी ख़ास पार्टी का समर्थन करते थे।

कुछ लोग ज़रूर कहेंगे कि इससे क्या हो जाएगा? इससे क्या फायदा है? ऐसे ही एक कार्यकर्ता के बेटे ने ये ख़बर सुन कर अपनी प्रतिक्रया में कहा कि उन्हें ये सुन कर अच्छा लगा कि शपथग्रहण समारोह में जाने के लिए उन्हें बुलाया गया है। जैसा कि मीडिया में ख़बरें आई हैं, इनके खाने-पीने से लेकर दिल्ली की यात्रा और यहाँ ठहरने तक की व्यवस्था भाजपा के पदाधिकारीगण देखेंगे। ये काफ़ी नहीं है। भाजपा के लिए अगला क़दम होना चाहिए, उन्हें न्याय दिलाना। ऐसा एक मृत कार्यकर्ता की पत्नी ने कहा भी कि उन्हें न्याय चाहिए। जो अपराधी हैं, जो दोषी हैं, उन्हें सज़ा दिलाने के लिए परिवारों की मदद की जानी चाहिए, कानूनी रूप से। अगर ऐसा होगा तब इस तरह की राजनीतिक हत्याएँ भी थमेंगी।

किसी एक कार्यकर्ता की नहीं, देश के किसी भी कोने में अगर किसी कार्यकर्ता की राजनीतिक रंजिश की वजह से मौत होती है तो उसकी पार्टी को उसके बच्चों की पढाई-लिखाई से लेकर अन्य ज़रूरतों का ध्यान रखना चाहिए। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक दलों के पास रुपए की कमी होती है। उन्हें काफ़ी कुछ का हिसाब नहीं देना पड़ता। उनके पा सत्रह-तरह के आय के स्रोत होते हैं। ये दल सत्ता में हों या विपक्ष में, इनके पास अगर बड़े नेताओं के लिए लगातार भारत भ्रमण का पैसा है तो मारे गए कार्यकर्ताओं के परिवारों की देखभाल करना कोई बड़ी बात नहीं है। भाजपा ने एक अच्छी शुरुआत की है। अमेठी से निकली हवा बंगाल पहुँची है और वो अब दिल्ली आ रही है। देखना है, यह कितनी आगे तक जा पाती है?

स्वरा भास्कर का फ़र्ज़ी फेमिनिज़्म और आँकड़े: राहतें और भी हैं ऑर्गेज्म की राहत के सिवा

इस देश में नारीवाद के आंदोलन को अगर किसी एक धड़े ने सबसे ज़्यादा नुकसान पहुँचाया है तो वो हैं सेलिब्रिटी फेमिनिस्ट्स जिन्हें फ़ेमिनिस्ट का एफ नहीं मालूम और वो इस एफ को हमेशा दूसरे एफ तक खींच कर ले आते हैं, जहाँ एफ करना ही सारी समस्याओं का ख़ात्मा कर देगा। जब मैं एफ लिखता हूँ तो उसका अर्थ है सेक्स या संभोग से, जिसका अंग्रेज़ी पर्याय एफ से शुरू होता है।

सेलिब्रिटी फेमिनिस्ट्स या लिपिस्टिक नारीवादियों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति को बिलकुल भी नहीं समझतीं। उनका नारीवाद पश्चिम के मेल शॉविनिस्ट पिग से शुरू हो कर सेक्सुअल फ़्रीडम पर ख़त्म हो जाता है। भारतीय नारीवाद की दुःखद समस्या है यहाँ के वो नारीवादी जिन्हें मनचाहे व्यक्ति से सेक्स कर लेना और शादी जैसी संस्था पर झाड़ू मारते हुए, एक ब्रश से पूरी संस्था को रंगते हुए उसे ख़ारिज कर, अपना देह त्याग मर्द बन जाना ही नारीवाद लगता है।

नारीवाद का अर्थ स्त्री का पुरुष हो जाना नहीं है। नारीवाद का मतलब है कि स्त्री का स्त्रीत्व बना रहे और उसे हर वो अवसर मिले जो पुरुषों को हासिल है। लैंगिक समानता का तात्पर्य यह नहीं कि आपने पुरुषों की तरह बाल रख लिए या शर्ट पहन लिए, (वैसा करना महज़ एक व्यक्तिगत चुनाव है, लक्ष्य नहीं) बल्कि उसका अर्थ होता है लड़कियों को भी वो सारे अवसर उपलब्ध हों जो लड़कों को होते हैं। जन्म हो जाने देने से लेकर, उसकी पढ़ाई, उसका आहार, उसका पहनावा, उसकी पसंद, उसके व्यक्तिगत चुनाव, उसकी नौकरी, उसकी परिवार में हिस्सेदारी, उसकी आर्थिक स्वतंत्रता, उसकी मानसिक स्वतंत्रता आदि वो अवसर हैं जो समाज उन्हें बिना भेदभाव के दे सकता है।

पश्चिम के समाज में स्त्री के स्वास्थ्य का मसला उतना व्यापक नहीं, वहाँ लैंगिक विषमता भारतीय समाज जैसी खराब नहीं, वहाँ स्कूल भेजने में माँ-बाप भेदभाव नहीं करते, वहाँ यह दिक्कत नहीं है कि लड़कियों को सैनिटरी पैड्स नहीं मिल रहे और वो घास, राख, गंदे कपड़े का प्रयोग कर बीमार रहती हैं। वहाँ इन समस्याओं से निजात पा लिया गया है इसलिए वहाँ अब समानता के डिबेट में फ़्री सेक्स और मल्टीपल पार्टनर की च्वाइस का डिबेट है। चूँकि वहाँ उन मुद्दों का अभाव है जो भारत के हिसाब से जीने के लिए अत्यावश्यक हैं, इसलिए वहाँ बात सेक्स पर होती है।

भारत के लिपस्टिक नारीवादियों ने नीचे के प्रोसेस को भुलाते हुए भारतीय नारीवाद को सीधे सेक्स और कई लोगों के साथ सेक्स करने पर ही ला दिया है। ये समानता भारत के ही उन समाजों के लिए मसला हो सकती है जिन्होंने बाकी अड़चनें पार कर ली हैं। उनकी समस्या सर्वाइवल की नहीं है, उनकी समस्या यह नहीं है कि उनके घर में भाई को बेहतर स्कूलिंग मिल रही है, और उसे यह कहा जा रहा है कि वो पढ़ कर क्या करेगी।

ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जो भारत के उन सवा करोड़ बच्चियों में नहीं है जिसे जन्म से पहले ही गर्भ में मार दिया गया। ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जिसे एक अस्पताल में जन्म देने वाली माँ भारत की उन 83% ग्रामीण महिलाओं में से नहीं हैं जिन्हें एंटी नेटल केयर नहीं मिला। ये समस्या उस लड़की को नहीं होगी जो भारत की उन 82% महिलाओं में नहीं है जिनकी पहुँच सैनिटरी पैड्स तक नहीं है। भारत में एक तिहाई औरतें घरेलू हिंसा की शिकार हैं, एक तिहाई बच्चियों की शादी हो जाती है उम्र से पहले।

इसलिए, स्वरा भास्कर के लिए ऑर्गेज्म यानी संभोग के दौरान चरमसुख पाना लैंगिक समानता का मसला हो सकता है, उन तमाम औरतों के लिए नहीं जिनके लिए ज़िंदा रहना ही सबसे बड़ा संघर्ष है। स्वरा भास्कर ने ड्यूरेक्स कंपनी के लिए एक कैम्पेन में भाग लेते हुए ‘ऑर्गेज्म इनिक्वालिटी’ या ‘चरमसुख असमानता’ पर बोलते हुए कहा कि महिलाओं को ऑर्गेज्म नहीं मिल रहा जो कि उनका हक़ है।

यहाँ तक कोई समस्या नहीं है, लेकिन जब अब ‘इक्वालिटी’ यानी समानता के डिबेट को ऑर्गेज्म तक ले आती हैं, तो फिर उस शब्द के और मायने निकलने लगते हैं। ऑर्गेज्म पाना एक दैहिक ज़रूरत है, लेकिन सबसे बड़ी दैहिक ज़रूरत उन करोड़ों महिलाओं की यह है कि वो शाम का खाना कैसे खाएँगी, क्या खाएँगी, या भूखी रह कर बच्चों को खिलाएगी। वैसी महिलाओं की संख्या, जिन्हें हम अत्यंत गरीब कह सकते हैं, लगभग 18 करोड़ है।

इसके साथ ही, हमें भारतीय समाज को नहीं भूलना चाहिए जहाँ लगभग 90% लोगों के पास एक अच्छा जीवन स्तर नहीं है जहाँ उन्हें आधारभूत सुविधाओं से लेकर, हॉस्पिटल, स्कूल, नौकरी आदि आसानी से उपलब्ध हों। ये लोग भी गरीब ही हैं, बस ये तेंदुलकर कमिटी या रंगराजन कमिटी के ₹32 प्रतिदिन वाली गरीबी रेखा के नीचे नहीं आते। भारत में ग़रीबों को गरीबी रेखा से नीचे रखने का मतलब है कि उन्हें भोजन मिल रहा है। जिन्हें बिलकुल ही जीने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है वो गरीब कहे जाते हैं।

जिस देश में महिलाओं के लिए ज़िंदा रहना सबसे बड़ा स्ट्रगल है, उस देश की सेलिब्रिटी फेमिनिस्टों को वास्तविकता के आँकड़े देख कर बात करनी चाहिए कि बालासोर के गाँव में एक साड़ी को बीच से फाड़ कर, बिना ब्लाउज़ के अपनी छाती ढकती महिला के लिए उस स्वरा भाष्कर की ऑर्गेज्म इनिक्वालिटी हैशटैग का हिस्सा बनना चाहिए जो सिर्फ चुनावी कैम्पेन में आकर्षक दिखने के लिए बीस साड़ियाँ और ब्लाउज़ सिलवाती हैं?

स्वरा जैसे लोग एलीट हैं। एलीट क्लास की समस्या यह है कि उन्हें कार से बाहर धूल दिखती है, और धूप से काली पड़ चुकी चमड़ी वाली, खेत में खुरपी चलाने वाली महिला की सेचुरेटेड रंगों वाली तस्वीर में ‘हाउ कलरफुल’ दिखता है। वो हर चीज में रंग के साथ क्षणिक निराशा निकाल लेते हैं, लेकिन अपनी चर्चा का हिस्सा उनकी गंभीर समस्याओं को नहीं बनाते। ग़रीबों की बात वो एकेडमिक फ़ोरम पर करते हैं जहाँ उन्हें उनकी समझदारी के लिए नहीं, उनके पेशे या ग्लैमर की दुनिया से होने की वजह से बुलाया जाता है।

इसलिए, इनके लिए मुद्दा थाली पर भात नहीं, थाली की डिजाइन और उस पर शेफ़ ने कैसे सैलेड डिश को सजाकर रखा है, हो जाता है। क्योंकि थाली पर भात और उसी के माँड़ में नमक डाल कर खाने वाले इन्सटाग्राम पर नहीं हैं। जो ऐसा करते हैं, उनसे समस्या नहीं है। जो दिखाते हैं, समस्या उनसे भी नहीं। समस्या तब होती है जब आप एक स्वस्थ विषय पर अपनी ग्लैमर का संक्रमण कर, उसे पैरासाइट की तरह भीतर से खा कर बर्बाद करने लगते हैं।

स्वरा भास्कर और उनके जैसे लिप्सटिक नारीवादियों के लिए बताना चाहूँगा कि भारत में सिर्फ एक तिहाई महिलाओं को नौकरी हासिल है। नौकरी की बात भी नारीवाद के डिबेट का हिस्सा है, लेकिन ये लोग उसे सिर्फ बराबरी तक में ही समेट देते हैं कि जितनी पुरुषों को है, उतनी लड़कियों को भी होनी चाहिए। या फिर, यहीं तक कि एक नौकरी को लिए दोनों को समान वेतन मिलनी चाहिए।

जबकि एक स्त्री के लिए नौकरी के मायने इतने अलग हैं, कि ये आर्थिक स्वतंत्रता पूरे भारतीय समाज की कई समस्याओं का समूल नाश कर सकती है। इस पर आगे बात करने से पहले हमें कुछ और आँकड़े देखने चाहिए। नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार दो तिहाई महिलाओं को ही घरेलू मामलों से लेकर अपने स्वास्थ्य समस्याओं पर बात करने की आज़ादी है। अर्चना दत्ता ने ‘द हिन्दू’ में एक लेखा लिखा है जिसमें वो बताती हैं कि 15 साल की उम्र के बाद कम से कम एक तिहाई महिलाओं ने शारीरिक हिंसा को झेला है।

शादीशुदा महिलाओं में एक तिहाई शारीरिक हिंसा, 14% यौन हिंसा, और सात प्रतिशत अपने पतियों द्वारा ही किए गए यौन हिंसा का शिकार हुईं। एक चौथाई शादीशुदा औरतें घायल हुईं लेकिन उनमें से 14% ने ही किसी भी तरह की मदद माँगने की कोशिश की। बाकी लोग इसे सहते रहे, छुपाते रहे।

आखिर वो सहती क्यों हैं? क्योंकि हमारे समाज में औरतों के पास अपने पैसे नहीं होते कि वो घर छोड़ कर कहीं चली जाए। उसके लिए अपने पिता का घर तो है, लेकिन वो इस बात से भी डरती है कि समाज में उसके पिता का नाम खराब हो जाएगा। या, हो सकता है कि उसके नैहर के लोग उसे रहने ही न दें। फिर वो कहाँ जाएगी, क्या करेगी? उसके सामने स्वरा भाष्कर या ड्यूरेक्स का ऑर्गेज्म पाने की बात नहीं होती, उसके सामने समस्या है कि वो ज़िंदा कैसे रहेगी?

इसलिए, अगर उसे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बनाया जाए, उसे नौकरी की आज़ादी हो, उसे घरेलू काम करने के बदले एक तय सैलरी अपने ही पति से, या घर से मिले, तो वह बचत कर सकती है। वो भी उतनी ही स्वच्छंद होकर फ़ैसले कर सकती है जितना उसका पति। जब उसका पति पहली बार हाथ उठाएगा तो वो उस हाथ को वहीं रोक सकती है, और अपने पैसों के साथ वो कहीं भी जा कर, किसी भी तरह के काम मिलने तक, ज़िंदा रह सकती है। उसका आत्मसम्मान भी उसके साथ रहेगा, और उसका शरीर भी।

चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि पूरा समाज हाउसवाइफ़ को एक नौकरी की तरह देखे और उसे एक तय रक़म दी जाए। ऐसी योजनाएँ बने कि घरेलू महिलाओं को, उनकी सहूलियत के हिसाब से कुछ काम उपलब्ध कराया जाए। घर चलाना, बच्चे पालना, और पूरे परिवार को संभालना मामूली काम नहीं है। इसमें न तो छुट्टी है, न ही बीमार होने का स्कोप। इसलिए, इस समस्या को दूसरे दृष्टिकोण से देखना ज़रूरी है। लड़की को प्रॉपर्टी की तरह देखने की बजाय, उसे एक व्यक्ति के तौर पर देखा जाए। उसे ऐसे देखा जाए कि वो भी परिवार और समाज में उतनी ही हिस्सेदारी रखती है, जितना उसका पति या भाई।

इसलिए, इक्वालिटी जैसे मसलों पर फूहड़ कैम्पेन्स की मदद से डिबेट को बर्बाद करने की कोशिश से समाज को बचाना ज़रूरी है। एलीट लोगों का फ़ेमिनिज़म अलग है। उनका पेट भरा हुआ है, कपड़े चुनने में वो परेशान हो जाते हैं, कॉलेज जाने की च्वाइस है, सफ़ेद पैंट में बैडमिंटन खेलना उनके लिए आसान है। इसलिए, उनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वो सेक्स करते हुए ऑर्गेज्म महसूस नहीं कर पा रहीं। अगर यह समस्या है तो इसका निदान आवश्यक है जो कि ड्यूरेक्स जैसी कम्पनियाँ कर देंगी, लेकिन इसको कृपया इक्वालिटी जैसे डिबेट का हिस्सा मत बनाएँ क्योंकि ऐसी इक्वालिटी का अंत औरतों द्वारा ‘मैं पुरुषों के ट्वॉयलेट में ही जाऊँगी’ पर होता है। इसका अंत बहुत सुखद नहीं होता, आपको पैंट बदलना पड़ सकता है।

रिश्तेदारों ने खतना न होने का डर दिखाकर ‘नरेंद्र मोदी’ का नाम बदलकर रखा मोहम्मद मोदी

लोकसभा चुनाव परिणाम के दिन उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में एक मुस्लिम परिवार में जन्म लेने वाले बच्चे का नामकरण अब मोहम्मद अल्ताफ आलम मोदी कर दिया गया है। रिश्तेदारों के दबाव के कारण बच्चे के जन्म की तारीख को लेकर भी नया विवाद शुरू हो गया है। बच्चे की माँ का दावा है कि रिश्तेदारों ने बच्चे का अकीका और खतना न होने का डर दिखाया है। साथ ही, सामाजिक बहिष्कार की भी बात कही गई। यही वजह है कि उसने नरेंद्र मोदी के बदले मोहम्मद अल्ताफ आलम मोदी नया नाम दे दिया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नीतियों एवं कार्यक्रमों से प्रभावित होकर गोंडा जिले के एक मुस्लिम परिवार ने अपने नवजात बच्चे का नाम प्रधानमंत्री के नाम पर ‘नरेंद्र दामोदर दास मोदी’ रखने की बात कही थी। साथ ही, सहायक विकास अधिकारी (पंचायत) को इस आशय का शपथ पत्र देते हुए बच्चे का नाम परिवार रजिस्टर में दर्ज कर जन्म प्रमाण पत्र जारी करने का अनुरोध किया था। हालाँकि, अब मुस्लिम महिला ने अपने बच्चे का नाम बदलकर ‘मोहम्मद अल्ताफ आलम मोदी’ रखने की बात कही है।

जन्मदिन को लेकर भी है विवाद

नाम के साथ ही बच्चे के जन्मदिन को लेकर भी विवाद शुरू हो गया है। बच्चे की माँ ने जन्मतिथि मई 23, 2019 को बताई थी, लेकिन अब कहा जा रहा है कि नवजात का जन्म 12 मई को ही हुआ था। सीएचसी वजीरगंज की डॉक्टर भावना का दावा है कि बच्चे का जन्म 12 मई को 12.59 बजे वजीरगंज के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में हुआ था। डॉक्टर भावना 12 मई को ड्यूटी पर थीं, जब मेनाज बेगम हॉस्पिटल में भर्ती हुई थी। यह पूरी सच्चाई स्वास्थ्य केंद्र के अभिलेखों मे दर्ज है। लोकप्रियता के लिए 23 मई बताकर बच्चे का नाम नरेंद्र मोदी रखा। महिला अब समाज का डर बता रही है। 

लोगों के दबाव से परेशान होकर बदलना पड़ा नाम

इस घटना के ताजा रुझान यह हैं कि बच्चे की माँ मैनाज बेगम ने कहा कि समाज के डर से उन्होंने बच्चे का नाम बदल दिया है। बच्चे का नाम नरेंद्र मोदी के नाम पर रखे जाने की वजह से समाज के लोग काफी नाराज थे और नाम बदलने का दबाव बना रहे थे। रिश्तेदार नवजात का अकीका और खतना न होने की बात कहने लगे थे, जिससे बच्चा मुस्लिम से हिन्दू हो जाएगा। आखिरकार बच्चे का नाम मोहम्मद अल्ताफ आलम मोदी तय किया गया।

मीडिया के अनुसार, वजीरगंज कस्बे के परसापुर महरौर गाँव निवासी मोहम्मद इदरीस की बहू मेनाज ने 23 मई को बच्चे को जन्म दिया था। उसी दिन बच्चे के पिता मुश्ताक अहमद ने दुबई से फोन किया और पूछा कि क्या नरेंद्र मोदी आया है? मेनाज ने “हाँ” कहकर बेटे का नाम नरेंद्र मोदी रखने का निर्णय लिया था। शुरुआत में परिजनों ने भी बहू मेनाज के फैसले पर रजामंदी जताई। मुस्लिम परिवार में बच्चे का नाम नरेंद्र मोदी रखने पर मेनाज ने देशभर में सुर्खियाँ बटोरी थी।

वीर सिंह ही नहीं, इसहाक और शफ़ी खान भी त्रस्त हैं मवेशी-डकैतों से, कॉन्ग्रेस सरकार में अलवर के किसान बेहाल

पिछले पाँच साल से जब भी हम मवेशियों के बारे में कोई भी चर्चा करते हैं, अवश्यंभावी रूप से उसका अवसान शशि थरूर के “आज भारत में गाय होना मुस्लिम होने से ज्यादा सुरक्षित है” में ही होता है (यह बात वह संसद, ट्विटर, और गुप्ता जी के द प्रिंट में कह चुके हैं) एक नैरेटिव की जकड़ बन गई है कि दुष्ट (खासकर कि अमीर, उच्च-वर्गीय अथवा अगड़ी जातियों के) हिन्दू सड़कों पर पूरा दिन इसीलिए खलिहर घूम रहे हैं कि कोई दूसरे मजहब का मिल जाए मवेशी या मीट के साथ, उसे वहीं पीट-पीट कर मार डाला जाए। और यह नैरेटिव है कि टूटता ही नहीं है- तब भी नहीं टूटा जब यह साफ़ हो गया कि कि जुनैद सीट के झगड़े में मारा गया था, बीफ के नहीं; अब भी नहीं टूटेगा जब स्वराज्य पत्रिका ग्राउंड रिपोर्ट ले आई है कि केवल हिन्दू ही नहीं, समुदाय विशेष का किसान भी मवेशी डाका डाल कर लूटने वाले गुंडों से त्रस्त हैं, और कानून हाथ में तब लेते हैं जब पुलिस कह देती है कि हमारे पास फ़ोर्स नहीं है, खुद देख लो!

अलवर से ग्राउंड रिपोर्ट, चोरी और डकैती ही नहीं, फिरौती भी है मवेशियों की

स्वराज्य संवाददाता स्वाति गोयल-शर्मा की रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान के अलवर में मवेशी चोरी और डकैती का बाकायदा संगठित माफिया गिरोह चल रहा है। पुरानी फिल्मों में जैसे डाकू गिरोह और झुण्ड बनाकर आते हैं, निहत्थे किसानों के मुकाबले उनके पास असलहे की कमी नहीं होती, और किसानों को धमकी दे देते हैं कि घर से बाहर मत निकलना- और यह केवल हिन्दुओं के ही साथ नहीं, मुस्लिम किसानों के साथ भी होता है। शफी खान को भी ₹2.5 लाख के मवेशियों से हाथ धोना पड़ा। किसान की कमर, और उसका ‘कानून में विश्वास’ तोड़ने के लिए यह राशि काफी है।  हिन्दू किसान ही नहीं ,रहीस खान ने भी संवाददाता से कहा कि अगर मवेशी-डकैत उनके हाथ लग गए तो पुलिस तो बाद में, वह खुद पहले उन डकैतों को ‘सबक सिखाएँगे’

जिला अलवर, थाना क्षेत्र रामगढ़ (जो कि 60 गाँवों का थाना है) के अलावड़ा गाँव के इसहाक खान का कहना है कि तीन-तीन भैंसों के रूप में एक झटके में ₹3 लाख से हाथ धो देने के बाद भी वह पुलिस के पास नहीं जाते। कैमरे पर, ऑन-रिकॉर्ड वह और अलावड़ा के ही निवासी शफ़ी खान बताते हैं कि पुलिस के हस्तक्षेप के बाद मवेशियों का मिलना नामुमकिन हो जाता है; ऐसे बिना पुलिस के तो यह उम्मीद बनी रहती है कि शायद मवेशियों की कीमत का कुछ हिस्सा (जोकि 80% तक भी हो सकता है, यानि ₹50,000 की भैंस पर ₹40,000 तक भी हो सकता है) देकर मवेशी वापिस मिल जाएँ। पुलिस में ऐसी ही विश्वास की कमी के चलते 60 गाँवों के थाने में पिछले तीन साल में एक भी मवेशी-चोरी की रिपोर्ट नहीं है- क्योंकि पता है कि पुलिस न केवल मदद नहीं कर सकती, बल्कि पुलिस के आने के बाद मामला बिगड़ ही जाना है। और फर्जी-लिबरल मीडिया गिरोह ऐसे ही हालात में ‘बने’ आँकड़ों को उठा कर “कहाँ होती है मवेशी की चोरी? सब झूठ है।” का नैरेटिव रचता है।

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यहाँ मवेशी-डकैतों के पास पुलिस से ज्यादा असलहा होता है  

शफ़ी खान आगे और भी भौंचक्का कर देने वाली जानकारी देते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक रुँध स्थित अपने अड्डे पर इन मवेशी-डकैतों ने भारी मात्रा में असलहा जमा कर रखा है। बताते हैं कि कैसे पास के छंगलकीगाँव के थानेदार की भी बकरियाँ और भैंसों को मवेशी-डकैत उठा ले गए तो पुलिस ने वहाँ (रूँध स्थित मवेशी-डकैतों के ठिकाने पर) धावा बोल दिया। दोनों तरफ से भारी गोलीबारी हुई लेकिन अंत में पुलिस के पास मवेशी-डकैतों से पहले गोला-बारूद खत्म हो गया। किसी तरह जान बचाकर वहाँ से निकलना पड़ा। उसके बाद से पुलिस ने उस इलाके का रुख करना ही छोड़ दिया।

‘कॉन्ग्रेस की वजह से मेवे मुस्लिम ले गए गाय, भाजपा के राज में ऐसा कभी नहीं हुआ’

डाइका गाँव के वीर सिंह के हवाले से रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अधिकाँश मवेशी-डकैत मेवे (मेवाती) मुस्लिम हैं जिन्हें कॉन्ग्रेस के कोर वोट-बैंकों में से एक होने के चलते सरकारी संरक्षण प्राप्त है; इससे स्थिति पूरी तरह से बेकाबू हो गई है, और मवेशी-डकैतों के हौसले बुलंद हैं। मेवाती पट्टी राजस्थान के अलवर और हरियाणा के नूह जिलों में स्थित है, और इसे मवेशियों की डकैती और उनकी अवैध हत्या का ‘हब’ माना जाता है। वीर सिंह ने यह भी कहा कि राजस्थान में पिछले साल तक रही वसुंधरा राजे की भाजपा सरकार के समय में हालात बेहतर थे।

‘पुलिस मदद करने की बजाय हम ही पर केस ठोंक रही है’

अलवर के मवेशी किसान चक्की के दो नहीं, कई पाटों में पिस रहे हैं। एक तरफ मवेशी-डकैतों के आतंक से गाढ़ी कमाई से खरीदे मवेशी चले जाते हैं, जिससे भूखे मरने और बेरोजगारी की नौबत आ जाती है। दूसरी ओर से पुलिस हाथ खड़े कर रही है कि उसके हाथ में कुछ नहीं है।

लेकिन जब यही किसान खुद चार-पाँच का दल बनाकर सड़कों पर, हाइवे पर पहरा देते हैं कि अपने मवेशियों को यूपी के अलीगढ़ या हरियाणा के मोहम्मदपुर में कटने के लिए ले जा रहे मवेशी-डकैतों से छुड़ा लें तो शेर बनती वही पुलिस ‘कानून हाथ में लेने’ के जुर्म में उन गरीब किसानों को गिरफ्तार करने दौड़ी आती है, क्योंकि उस पर सरकार का दबाव होता है, और सरकार पर मेवाती मुस्लिमों के वोट बैंक का और फर्जी-लिबरल गैंग का दोहरा दबाव।

स्वाति गोयल-शर्मा लिखतीं हैं कि भूखे किसानों का गुस्सा किसी भी दिन फूट सकता है- किसान मवेशी-चोरों को जान से मारकर उसकी जिम्मेदारी लेने के लिए भी तैयार हैं । समाज रात-दिन तोते की तरह ‘अहिंसा-अहिंसा’ रटाने से अहिंसक नहीं हो जाता, बल्कि सरकार और तंत्र के इस भरोसे से अहिंसक होता है कि उसे अन्याय से लड़ने के लिए हथियार उठाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। राजस्थान की गहलोत सरकार अलवर के डेयरी किसानों के बीच चौपाल में बैठकर, उनसे आँख मिलाकर यह भरोसा दे सकती है?


गुरुग्राम मुस्लिम युवक के दावे झूठ साबित होने के बावजूद ‘The Wire’ उसे लेकर फैला रहा ज़हर

पूरे लोकसभा चुनाव के दौरान 100 से भी अधिक ग़लत राजनीतिक विश्लेषण कर के अपना एक्यूरेसी रेट शून्य से भी नीचे रखने वाली प्रोपेगैंडा-परस्त वेबसाइट ‘द वायर’ ने अब फेक न्यूज़ के सहारे अपनी बात साबित करने की कोशिश की है। वेबसाइट ने गुरुग्राम वाली उस घटना को उठा कर मुस्लिमों के ख़िलाफ़ अत्याचार के रूप में साबित करने की कोशिश की है, जिसमें शिकायत दर्ज कराने वाले मुस्लिम युवक के दावे झूठे पाए गए थे। बता दें कि गुरुग्राम में मोहम्मद बरकत आलम ने आरोप लगाया था कि ‘जय श्री राम’ न बोलने पर उसके साथ मारपीट की गई और उसकी इस्लामी टोपी को उछाल कर फेंक दिया गया था। बाद में पुलिस की जाँच और सीसीटीवी फुटेज खंगालने के बाद ये दावे झूठे पाए गए थे। यह एक सामान्य मारपीट की घटना थी।

“Simply Being Muslim” पर क्लिक करते ही गुरुग्राम वाली न्यूज़ खुल जाती है (नीचे देखें)

‘द वायर’ के लेख में फेक दावों वाली न्यूज़ का जिक्र कर ‘डर का माहौल’ साबित करने की कोशिश की गई

‘द वायर’ ने एक लेख छापा है, जिसके शीर्षक है- “दक्षिणपंथ ऊपर: लिबरल भारत के लिए रास्ते हुए बंद”। इस लेख में कई सारे आधारहीन कारण गिनाए गए हैं ताकि भारत में असहिष्णुता और डर के माहौल साबित किए जा सकें और उसके लिए गुरुग्राम वाली घटना का भी सहारा लिया गया है। इसमें लिखा गया है कि इस सप्ताह कई हिंसक घटनाएँ हुई, जैसे गुरुग्राम में में पीड़ित के मुस्लिम होने की वजह से घटी घटना। इस लेख में राईट विंग का बताते हुए कुछ ऐसे लेखों के हिस्सों को जगह दी गई, जिसमें लिबरलों के बारे कुछ बातें कही गई थीं।

मोदी जी सॉरी, शपथ ग्रहण में नहीं आऊँगी: 54 राजनीतिक हत्याएँ बनी ममता बनर्जी के U-टर्न का कारण

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कॉन्ग्रेस (TMC) की प्रमुख ममता बनर्जी ने ट्वीट कर बताया है कि वह नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल नहीं होंगी। उन्होंने ट्वीट कर यह आरोप लगाया कि पीएम मोदी ने मुझे मजबूर किया है कि मैं उनके शपथ ग्रहण समारोह में ना शामिल होऊँ।

बता दें कि ममता बनर्जी इस बात से नाराज हैं कि पीएम मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में पश्चिम बंगाल में चुनाव के दौरान मौत के घाट उतार दिए जाने वाले बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिवार वालों को आमंत्रित किया गया है। उन्होंने कहा कि बीजेपी शपथ ग्रहण का भी राजनीतिक लाभ उठा रही है।

ममता बनर्जी ने बकायदा एक चिट्ठी जारी कर लिखा है कि भाजपा ने इस कार्यक्रम में मृत बीजेपी कार्यकर्ताओं के परिवार वालों को बुलाया है और इसे राजनीतिक हत्या करार दिया है। ममता का कहना है कि ये राजनीतिक हत्या नहीं है, बल्कि आपसी रंजिशों के मामले हैं।

ममता बनर्जी ने चिट्ठी में लिखा है, “बधाई, नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, आपके संवैधानिक आमंत्रण को मैंने स्वीकार कर लिया था और आपके शपथ ग्रहण समारोह में मैं आने को तैयार थी। लेकिन पिछले कुछ समय में मैंने रिपोर्ट्स देखी हैं कि भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि उन्होंने भाजपा के उन 54 कार्यकर्ताओं के परिवार को भी न्योता दिया है जिनकी बंगाल में राजनीतिक हत्या कर दी गई है।”

बता दें कि इससे पहले खबरें आई थीं कि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी 30 मई को प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह का हिस्सा होंगी। राज्य सचिवालय में पत्रकारों से बातचीत में ममता ने कहा था कि शपथ-ग्रहण समारोह के लिए मंगलवार को न्योता आया है और वह संवैधानिक शिष्टाचार के नाते इसमें शिरकत करेंगी। लेकिन एक दिन बीतते ही मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया और ममता ने राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब लगाते हुए, शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने से इनकार कर दिया।

वहीं, बंगाल बीजेपी के कैलाश विजय वर्गीय का कहना है कि यह पार्टी का निर्णय है कि किसे शपथ ग्रहण में बुलाए, किसे नहीं।

रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी ने ढूँढ निकाले कॉन्ग्रेस के हत्यारे, कहा – ‘इसी कमरे में बैठे हैं’

लोकसभा चुनाव में कॉन्ग्रेस के प्रदर्शन पर CWC की समीक्षा बैठक के दौरान कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के इस्तीफे की पेशकश के बाद मनी लॉन्ड्रिंग मामले में रोजाना ED ऑफिस के चक्कर काट रहे रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी और कॉन्ग्रेस पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा का गुस्सा कुछ शीर्ष नेताओं पर फूटा और उन्होंने कहा, “कॉन्ग्रेस के हत्यारे इसी कमरे में बैठे हैं।”

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गत शनिवार (मई 25, 2019) को हुई कार्यकारिणी समिति की बैठक में राहुल गाँधी की बहन प्रियंका गाँधी वाड्रा ने कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया और बैठक में मौजूद पार्टी के कुछ शीर्ष नेताओं पर बरसते हुए इशारों में ही उन्हें चुनाव में हुई कॉन्ग्रेस की फजीहत का जिम्मेदार ठहराया। इसी बैठक में राहुल गाँधी ने भी वरिष्ठ नेताओं द्वारा अपने बेटों के लिए टिकट माँगने की जिद पर नाराजगी जाहिर की थी।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, गाँधी परिवार ने इस बैठक में कुछ वरिष्ठ नेताओं द्वारा राहुल गाँधी को जरूरी समर्थन ना देने पर नाराजगी जाहिर की थी। परिवार की नाराजगी स्पष्ट थी, क्योंकि सोनिया भी पूरी बैठक के दौरान नहीं बोलीं और यह जाहिर किया कि उन्हें भी अपने विश्वस्त साथियों से निराशा हासिल हुई।

बताया जा रहा है कि राहुल की बहन प्रियंका वाड्रा गाँधी ही पहली नेता थीं, जिन्होंने यह सुझाव दिया कि राहुल को अपने इस्तीफे पर विचार के लिए एक महीने का समय दिया जाए। कॉन्ग्रेस नेताओं के साथ अपनी बातचीत में भी प्रियंका और राहुल ने कई नेताओं की कार्यप्रणाली को सही नहीं ठहराया।

CWC की इस बैठक में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम चुपचाप थे। वहीं, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ‘गो-भक्त’ कमलनाथ इस बैठक में शामिल नहीं हुए। कमलनाथ के बेटे नकुलनाथ मध्य प्रदेश की छिंदवाड़ा और चिदंबरम के बेटे कार्ति तमिलनाडु की शिवगंगा सीट से लोकसभा चुनाव जीते हैं। जबकि, अशोक गहलोत के बेटे वैभव जोधपुर सीट से चुनाव हार गए हैं।

टीचर रमीज़ राजा ने किया 50 से ज़्यादा बच्चों का यौन शोषण, POCSO कोर्ट ने दी आजीवन कारावास की सजा

जयपुर में एक प्राइवेट स्कूल के टीचर रमीज़ राजा को 50 से अधिक बच्चों के ब्लैकमेलिंग, सेक्सुअल एब्यूज और रेप के आरोप सिद्ध होने के बाद, स्पेशल पॉक्सो कोर्ट के जज ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई है।

न्यायालय ने पीडोफाइल शिक्षक (बाल यौन अपराधी) पर ₹50,000 का जुर्माना भी लगाया है, जिसे यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम, भारतीय दंड संहिता और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के तहत POCSO अदालत-3 के द्वारा दोषी ठहराया गया है। यह केस उन पर वर्ष 2017 से चल रहा है।

पीड़ितों में से एक के वकील असलम खान ने कहा, “राजा ने उन छात्रों को यौन शोषण का शिकार बनाया, जो ट्यूशन कक्षाओं के लिए उसके घर आते थे। उसने अपराध की वीडियो क्लिपिंग भी बनाई और ऐसा उसने बच्चों से उसके लिए पैसे लाने के लिए किया था।”

मामले का पता तब चला, जब उसने कुछ वीडियो क्लिपिंग्स को सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया और जब इसे एक पीड़ित बच्चे के पेरेंट्स ने देखा, तो आरोपित शिक्षक रमीज़ राजा पर फरवरी 2017 में FIR दर्ज़ कराई।

रमीज़ राजा को फरवरी 09, 2017 को रामगंज पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया था। आरोपित ने 2011-2017 के दौरान, 6 साल की अवधि में 50 से ज़्यादा बच्चों को अपना शिकार बनाया था और उसने बच्चों के 50 पोर्नोग्राफिक क्लिपिंग भी रिकॉर्ड किए थे।  

जहाँ पर रमीज़ पढ़ाता था वह स्कूल रामगंज के चार दरवाजा में स्थित था। तमाम रैलियों और विरोध के बाद भी स्कूल प्रशासन ने रमीज़ पर कोई एक्शन लेने के बजाए उसे स्कूल से निकाल बाहर किया। हालाँकि, बाद में पुलिस ने स्कूल के मालिक सरवर आलम को सबूत छुपाने के जुर्म में गिरफ्तार किया था।

राहुल गाँधी का ‘मौनव्रत’: कॉन्ग्रेसियों से मिलने से इनकार, बहन प्रियंका ही कर रही हैं सब बातचीत

लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से कॉन्ग्रेस पार्टी अध्यक्ष राहुल गाँधी एकदम एकांतप्रिय होते नजर आ रहे हैं। एक ओर राहुल गाँधी जहाँ चुनाव से पहले लगातार प्रेस कॉन्फ्रेंस से लेकर जनसभाओं में चौकीदार चोर है जैसे नारे लगाते नहीं थक रहे थे, वहीं नतीजों के बाद उन्होंने अचानक से इतनी चुप्पी कैसे साध ली है यह सबके लिए हैरान कर देने वाला प्रश्न हो चुका है।

मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, मंगलवार मई 28, 2019 को भी राहुल गाँधी ने कॉन्ग्रेस के बड़े नेताओं से मिलने से साफ़ मना कर दिया। ऐसे में उनके जीजा जी रॉबर्ट वाड्रा की पत्नी प्रियंका गाँधी वाड्रा ही सभी मेहमानों से मिल रही हैं।

हालाँकि, कुछ सूत्रों का यह भी कहना है कि अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा देने की जिद पर अड़े हुए राहुल गाँधी ने किसी बेहतर विकल्प की तलाश तक अध्यक्ष पद पर बने रहने का निर्णय भी लिया है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो राहुल गाँधी ने अपनी पार्टी को नया अध्यक्ष चुनने के लिए एक महीने का समय दिया है। जून के प्रथम सप्ताह में कॉन्ग्रेस पार्टी की बैठक होनी है, हो सकता है कि राहुल गाँधी उसमें बताएँ कि वो पार्टी में किस पद पर बने रहना चाहते हैं।

नेहरू-गाँधी परिवार की करीबी मानी जाने वाली कॉन्ग्रेस नेता शीला दीक्षित का कहना है कि यह दुखद है कि उन्हें यह दिन देखना पड़ रहा है। साथ ही उन्होंने आशा जताई है कि वरिष्ठ नेता मिलकर राहुल गाँधी को मनाने में कामयाब रहेंगे। लालू प्रसाद यादव से लेकर एमके स्टालिन तक, सभी लोग राहुल गाँधी को फोन द्वारा यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि उन्हें इस्तीफ़ा देने का विचार त्याग देना चाहिए। लालू यादव ने राहुल गाँधी को समझाते हुए यह भी कहा कि उन सभी का सपना भाजपा को डूबते हुए देखना है।

राहुल गाँधी के नजदीकियों का कहना है कि उन्होंने मंगलवार को तुगलक लेन स्थित उनके आवास पर मिलने गए राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, सचिन पायलट और AICC के जनरल सेक्रेटरी केसी वेणुगोपाल से भी मिलने से साफ इनकार कर दिया। ऐसे में उनकी बहन प्रियंका गाँधी ने ही सभी वरिष्ठ नेताओं से बातचीत की।

देखना यह है कि राहुल गाँधी का यह मौन व्रत आखिर कब तक जारी रहता है। यह भी हो सकता है कि राहुल गाँधी चुनाव के बाद बस अपनी थकान उतारना चाह रहे हों। फ़िलहाल उन्हें अकेले छोड़ देना चाहिए, वैसे भी अगले चुनाव में अभी लगभग 5 साल और बाकी है।