बिहार के कटिहार से एक बड़ी ख़बर सामने आई है। मामला मनिहार प्रखंड के अब्दुल्लापुर प्राथमिक विद्यालय से जुड़ा है। यहाँ के प्रभारी प्राचार्य अफ़जल हुसैन ने ‘वन्दे मातरम्’ गाने से इनकार कर दिया, जिसके बाद नाराज़ ग्रामीण स्कूल परिसर में पहुँच गए। मामले ने विवाद का रूप ले लिया। अफ़जल हुसैन पर स्थानीय लोगों से हाथापाई करने का भी आरोप है। किसी ने इस पूरी घटना का वीडियो बना लिया जो सोशल मीडिया पर काफ़ी वायरल हो रहा है। इसमें आरोपित शिक्षक हुसैन ‘वन्दे मातरम्’ गाने से मना कर रहा है। शिक्षक ने संविधान का हवाला देते हुए कहा कि कहीं ऐसा नहीं लिखा हुआ है कि ‘वन्दे मातरम्’ गाना अनिवार्य है।
Katihar:Scuffle broke out when a primary school teacher Afzal Hussain refused to sing ‘Vande Mataram’ on Jan 26;Hussain says,”We worship Allah & Vande Mataram means ‘vandana'(worship) of Bharat which is against our belief.Constitution doesn’t say it’s necessary to sing it”.#Biharpic.twitter.com/JjyEWpGRGt
राष्ट्रगीत के सवाल पर शिक्षक ने कहा कि वह सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह के सामने सर झुका सकता है, और कहीं नहीं। यही नहीं, झंडारोहण के बाद अन्य शिक्षक, छात्र-छात्राएँ और ग्रामीणों ने तो राष्ट्रगान (जन-गण-मन) गाया, लेकिन उस शिक्षक ने इससे भी साफ़ इनकार कर दिया। उसने कहा कि वह धार्मिक मान्यताओं को देखते हुए राष्ट्रगान नहीं गाएगा। उसने कहा कि राष्ट्रगान भारत माता की पूजा है, जो कि इस्लाम के ख़िलाफ़ है।
वहीं ज़िला शिक्षा पदाधिकारी ने कहा कि उनके पास इस मामले को लेकर कोई शिकायत नहीं आई है। अगर शिकायत आती है तो कार्रवाई की जाएगी। आरोपित शिक्षक अपने बयान पर क़ायम है और उसने कहा है कि वह न तो राष्ट्रगान गाएगा और न ही ‘वन्दे मातरम्’।
उत्तर प्रदेश के बरेली से एक चौंकाने वाला मामला सामने आया है। एक मुस्लिम महिला को उसके पति ने ‘तीन तलाक़’ देने के बाद हलाला करवाने पर मज़बूर किया। आरोपित ने अपनी पत्नी को अपने पिता (पीड़िता के ससुर) के साथ ज़बरन हलाला करवाया। पीड़िता की बहन ने अदालत में अर्ज़ी देकर न्याय की गुहार लगाई है। पीड़िता ने अपनी शिकायत में कहा:
“पहले मेरे शौहर ने मुझे तलाक़ दे दिया और दुबारा निकाह करने के लिए ससुर के साथ हलाला करवाया। अब वह फिर से तलाक़ देने के बाद देवर से हलाला कराने की ज़िद कर रहा है।”
बरेली के बानखाना निवासी पीड़ित महिला ने आला हजरत हेल्पिंग सोसायटी की अध्यक्ष निदा खान के साथ संयुक्त रूप से संवाददाता सम्मेलन करते हुए बताया कि वर्ष 2009 में उसका निकाह गढ़ी-चौकी निवासी वसीम से हुआ था। निकाह के 2 वर्ष बाद ही वसीम ने ‘तीन तलाक़’ देकर उसे घर से बाहर निकाल दिया। काफ़ी मिन्नतों के बाद वह फिर से पीड़िता को अपने घर में रखने को तैयार हुआ, लेकिन उसने एक शर्मनाक शर्त रख दी।
पीड़िता की बहन ने वसीम और उसके परिवार द्वारा किए गए अत्याचार के बारे में बताते हुए कहा:
“जब मेरी बहन ने ‘हलाला’ की प्रक्रिया से गुजरने से इनकार कर दिया, तो उसके ससुराल वालों ने उसे जबरन इंजेक्शन लगा कर, उसके ससुर के साथ हलाला की ‘रस्म’ पूरी करवाई। अगले 10 दिनों तक, बुजुर्ग व्यक्ति ने मेरी बहन के साथ लगातार बलात्कार किया और फिर उसे ‘तीन तलाक़’ दे दिया ताकि वह अपने पति से दोबारा शादी कर सके। लेकिन, जनवरी 2017 में, उसने फिर से मेरी बहन को तलाक़ दे दिया और फिर परिवार ने उसे उसके पति के छोटे भाई के साथ ‘हलाला’ से गुज़रने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया।”
इतना ही नहीं, आरोपितों ने पीड़िता को ₹15 लाख लेकर मामला ख़त्म करने की भी पेशकश की। लेकिन, पीड़िता ने कहा की वह इंसाफ़ चाहती है और उसने रुपए लेने से इनकार कर दिया। उसने कहा कि वह दोषियों को कड़ी से कड़ी सज़ा दिलाना चाहती है। अपनी बहन के घर रह रही पीड़िता ने कहा कि रोज़-रोज़ कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाना उसके वश की बात नहीं है।
पीड़िता ने बताया कि पहली बार हलाला के बाद उसे अपनाने के बावज़ूद उसका पति उसके साथ काफी मारपीट और गाली-गलौज करता था। पीड़िता ने सरकार से तीन तलाक़, बहुविवाह और हलाला पर कड़े क़ानून बनाने की माँग की। उसने कहा कि सख़्त क़ानून बनाने से महिलाओं पर अत्याचार कम होगा। पीड़िता ने कहा कि वह नहीं चाहतीं कि अन्य महिलाएँ उस दर्द से गुज़रे, जो उसे मिला है।
वहीं जनसत्ता में प्रकाशित ख़बर के अनुसारमुफ़्ती खुर्शीद ने कहा कि अपने ससुर से हलाला करवाने के बाद वह महिला अपने पति के लिए ‘हराम’ हो गई है। मुफ़्ती ने कहा:
“ससुर के साथ हलाला होने पर वह महिला अपने शौहर के लिए हराम हो गई। वह दोबारा अपने शौहर के साथ नहीं रह सकती है। ऐसा करना एक बड़ा गुनाह है। यह देखना होगा कि आखिर ऐसा कैसे हुआ।”
वहीं हजरत हेल्पिंग सोसायटी की अध्यक्ष निदा खान ने कहा कि शरिया अदालतों में अब महिलाओं को भी काज़ी बनाने की व्यवस्था लागू होनी चाहिए।
भारत त्याग और तितिक्षा की भूमि है। भारतीय सनातन परम्परा स्वतः स्फूर्त जीवन का विज्ञान है। फिर भी भारत की सनातन भूमि पर जब भी साधु, संत, संन्यासी, गृहत्यागी अध्यात्म के पथिकों की बात होती है तो लोग तपाक से कह देते हैं कि जिन्हें कोई काम नहीं वो ही ये सब बनते हैं, या ऐसे मार्गों का अनुसरण करते हैं। अपने पिछले लेखों में भी मैंने जिक्र किया और आज फिर आपसे निवेदन है कि हो आइये कुम्भ आपके कई पूर्वग्रह भी वहीं गंगा मइया में डुबकी के साथ धुल जाएँगे। गर मुक़्त हो गए अपनी जड़ता से तो कुम्भ आपको ऐसे साधकों से भी मिलावाएगा, जिन्होंने चरम भौतिकता का आस्वाद लेने के बाद उसकी निरर्थकता को समझ सत्य की ख़ोज एवं जीवन के रहस्यों की तलाश व उससे परिचित होने के लिए जंगलों, पर्वतों की ख़ाक छान रहें हैं, या निर्जन से निर्जन जगहों पर भी धुनि रमाए बैठे हैं।
मेरी नज़र में कुम्भ मानव सभ्यता का एक जीवंत दस्तावेज़ है। जिसे जीवन को समझना हो, तो कहीं और भटकने के बजाय कुम्भ देख आए। वहाँ जानने, समझने और महसूस करने के लिए बहुत कुछ है। वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि कुम्भ की जान अखाड़े हैं और अखाड़े नागा साधुओं से चलते हैं। अखाड़ों का अपना एक पूरा तंत्र है। अगर कुम्भ में हैं या गए तो अखाड़ों को समझे बिना आपकी यात्रा अधूरी होगी।
नागा साधु होना कोई मजाक नहीं है, संयम और साधना की कठिन परीक्षा के बाद ही किसी को नागा साधु की उपाधि दी जाती है। नागा साधु होने का मतलब है सर्वस्व त्याग कर, यहाँ तक कि अपनी सात पीढ़ियों का पिण्डदान कर इस पथ पर आगे बढ़ना।
चलिए आज आपको विस्तार से बताते हैं कि अखाड़ों में शामिल नागा साधु क्या-क्या हैं? उनकी एजुकेशनल बैकग्राउंड क्या है। क्या वो जीवन से ऊबे हुए हैं या आनंद से सराबोर? आज तमाम उच्च शिक्षित युवा भी आख़िर क्यों शामिल होना चाहते हैं अखाड़ों में? भौतिक सुख सुविधाओं को छोड़कर नागा साधु बन इतना कठिन जीवन जीने के निर्णय के पीछे आख़िर क्या है रहस्य?
नागा साधुओं का इतिहास
सबसे पहले, नागा साधुओं की परंपरा की बात करें तो ये हजारों साल पुरानी है। कई प्राचीन वैदिक ग्रंथों में भी दिगंबर नागा साधुओं के संदर्भ मिलते हैं। हिंदू धार्मिक परंपराओं के अध्येता हरिद्वार के लेखक विष्णु दत्त राकेश के अनुसार, “नागा साधुओं को पहली बार 8 वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा और आध्यात्मिक उन्नति के लिए समूहों में संगठित किया गया था। आदि शंकराचार्य ने ही दशनामी संन्यासी परम्परा की स्थापना की थी। इसमें उस समय सात अखाड़े शामिल थे। अखाड़ा – निरंजनी, जूना, महानिर्वाणी, अटल, अग्नि, आनंद और आवाहन।”
वर्तमान में कुल 13 प्रमुख अखाड़े हैं, जिनमे से 7 की स्थापना ख़ुद शंकराचार्य ने की थी। इनकी स्थापना का शुरूआती उद्देश्य आध्यात्मिक साधना के साथ, शस्त्र संचालन में भी प्रवीण हो, हिंदू मंदिरों और आम लोगों को मुग़ल आक्रमणकारियों से बचाना था।
शस्त्र और शास्त्र दोनों में प्रवीण
राकेश कहते हैं, “अखाड़े के सदस्य शास्त्रों के साथ शस्त्र विद्या में भी निपुण होते थे ताकि अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए ज़रूरत पड़ने पर यज्ञ की समिधा के साथ अपने प्राणों की आहुति देने के लिए भी तैयार रहें।”
शस्त्रों में भाले को अखाड़ों के प्रतीक के रूप में अपनाया गया था। अभी भी नागा साधुओं द्वारा उन शस्त्रों की पूजा की जाती है, साथ ही अखाड़े अपनी सुरक्षा के लिए भी रखते हैं। अखाड़े अपनी शस्त्र प्रवीणता का परिचय कुम्भ के शाही स्नान के समय प्रदर्शित भी करते हैं। हालाँकि, अब किसी मुग़ल आक्रमणकारी का ख़तरा नहीं है। फिर भी शस्त्र और शास्त्र दोनों की जुगलबंदी आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में आज भी अखाड़ों की शान है।
सनातन धर्म की रक्षार्थ की मंदिरों की रक्षा
बता दें कि नगा साधुओं ने सनातन धर्म के रक्षार्थ योद्धाओं के रूप में कई लड़ाइयों में भाग लिया। ऐसा ही एक वाकया है, 1664 में जब औरंगजेब के सेनापति मिर्जा अली तुरंग ने काशी (वाराणसी) पर हमला किया, तो हजारों नागाओं ने सैनिकों की भाँति युद्ध किया और काशी विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा में मदद की। 1666 में जब औरंगजेब की सेना ने हरिद्वार पर हमला किया तो भी नागा साधु उनका विरोध करने के लिए योद्धाओं के रूप में आगे आए। आज ऐसे कई मंदिर जो औरंगजेब के समय ध्वस्त हो मस्जिद बनने से रह गए। उसमें तत्कालीन शासकों के साथ नागा साधुओं का बड़ा योगदान है।
प्राचीन काल में जिस उद्देश्य से अखाड़ों की स्थापना की गई थी, अखाड़ों ने उसे पूरा करने में ख़ुद को समर्पित कर दिया। विदेशी आक्रांताओं से जीवन के रक्षार्थ लड़ना भी जीवन साधना ही है। हालाँकि, अब अखाड़ों का प्रमुख कार्य धार्मिक, आध्यात्मिक साधना ही है। साथ ही समाज के भलाई के लिए भी अखाड़े कई कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं। जिसकी चर्चा आगे आएगी।
सबसे प्रसिद्ध निरंजनी अखाड़ा
वर्तमान अखाड़ों में सबसे बड़ा अखाड़ा जूना अखाड़ा है। इसके बाद निरंजनी और महानिर्वाणी अखाड़ा हैं। इनके अध्यक्ष श्री महंत और अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर के रूप में जाने जाते हैं।
सभी अखाड़ों में निरंजनी अखाड़ा सबसे प्रसिद्ध है। इतना ही नहीं, दुनियावी पैमाने पर भी इसमें सबसे ज्यादा क्वालिफाइड साधु-संत हैं, जो शैव परंपरा के मानने वाले हैं। जटा रखते हैं। इस अखाड़े के इष्टदेव कार्तिकेय हैं। जो देव सेनापति हैं। निरंजनी अखाड़े का प्रमुख स्थान दारागंज है। हरिद्वार, काशी, त्र्यंबक, ओंकारेश्वर, उज्जैन, उदयपुर, बगलामुखी जैसी जगहों पर इस अखाड़े के आश्रम हैं।
दीक्षा प्रक्रिया: कैसे शामिल होते हैं अखाड़ों में
जूना अखाड़ा के मुख्य प्रशासक और एबीएपी के जनरल सेक्रेटरी महंत हरि गिरी का कहना है कि दीक्षा समारोह केवल कुम्भ के दौरान ही होता है और हर बार इसमें शामिल होने वाले लोगों की संख्या हजारों में होती है।
साधकों को दीक्षा की प्रक्रिया पूर्ण करने के लिए सर्वप्रथम अपने शरीर और मन की स्थिरता के लिए कठिन साधनाओं से गुजरकर ख़ुद को ब्रह्मचर्य के पालन के लिए तैयार करना पड़ता है। इस प्रक्रिया के प्रारम्भ में एक ’पंच संस्कार’ समारोह का आयोजन किया जाता है। जिसमें पाँच गुरु उसके लिए अलग-अलग अनुष्ठान करते हैं। इनमें प्रमुख गुरु शिखा (बाल) काटते हैं, भगवा गुरु उन्हें भगवा वस्त्र और रुद्राक्ष गुरु उन्हें रुद्राक्ष की माला भेंट करते हैं, विभूति गुरु शरीर पर भश्म लगाते हैं जबकि लंगोट गुरु उनके शरीर से आख़िरी कपड़ा भी उतरवाते हैं।
अंततः ‘विराज होम संस्कार’ अर्थात गृह त्याग संस्कार अखाड़े के आचार्य महामंडलेश्वर द्वारा संचालित किया जाता है। आकांक्षी को माता और पिता दोनों पक्षों से अपने पूर्वजों की सात पीढ़ियों के साथ स्वयं का भी पिंड दान करना होता है। नागा दीक्षा नामक अंतिम अनुष्ठान का आयोजन उनके छठे गुरु द्वारा अखाड़े के ध्वज के सानिध्य में किया जाता है, जिसके बाद उन्हें नागा घोषित किया जाता है।
कई वर्षों की कठिन परीक्षाओं और आध्यात्मिक साधनाओं में प्रगति के बाद, नागा साधु अपने अखाड़ों में महंत और उसके बाद महामण्डलेश्वर और अंत में आचार्य महामण्डलेश्वर की उपाधि धारण करते हैं, जो कि अखाड़ों के पदानुक्रम में सर्वोच्च स्थान है।
नागा साधु बनने में कम से कम 6 वर्ष का समय लगता है, इस दौरान सन्यासी एक लँगोट के आलावा कुछ नहीं पहनते और कुम्भ में अंतिम दीक्षा के बाद उन्हें लंगोट भी त्यागना होता है। कौन किस कुम्भ में नागा साधु बना है। इसकी पहचान की प्रक्रिया भी है जैसे जिसने प्रयाग में उपाधि धारण की उसे नागा, जिसने उज्जैन में धारण की उसे ख़ूनी नागा, जो हरिद्वार में सन्यासी हुआ उसे बर्फ़ानी नागा तथा नासिक कुम्भ में बने नागा को खिचड़िया नागा कहते हैं।
कितने संपन्न और शिक्षित हैं नागा संन्यासी
अखाड़ों में शिक्षा और सम्पन्नता की बात हो तो सर्वप्रथम बात करते हैं निरंजनी अखाड़ा की, जिसमें क़रीब 70% नागा साधुओं ने हायर एजुकेशन हासिल की है। अखाड़ों के पदाधिकारियों में 100 से ज्यादा महामंडलेश्वर और 1100 से ज़्यादा संत-महंत उच्चशिक्षित हैं। इनमें डॉक्टर, लॉ एक्सपर्ट, प्रोफेसर, संस्कृत के विद्वान और आचार्य भी शामिल हैं।
इस अखाड़े के महेशानंद गिरि ज्योग्राफी के प्रोफेसर हैं तो वहीं बालकानंद जी डॉक्टर और पूर्णानंद गिरि लॉ एक्सपर्ट और संस्कृत के विद्वान हैं। संत स्वामी आनंदगिरि नेट क्वालिफाइड हैं। वे आईआईटी खड़गपुर, आईआईएम शिलांग में लेक्चर दे चुके हैं। फ़िलहाल, बनारस से पीएचडी कर रहे हैं। संत आशुतोष पुरी भी नेट क्वालिफाइड और पीएचडी कर चुके हैं।
हाल ही में प्रयागराज कुम्भ में कई युवा नागा साधु भी बने हैं। बीते सप्ताह हुए दीक्षा समारोह में हजारों युवाओं ने अपने बाल त्यागे और पिंड दान कर रातभर चली साधना के बाद ये सभी प्राचीन परंपरा के अनुसार नागा साधु बने। शायद आपको हैरानी हो कि इनमें भी बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट के ग्रेजुएट शामिल हैं।
नागा साधु बनने आए 27 वर्षीय रजत कुमार राय का कहना है, “उन्होंने कच्छ से मरीन इंजीनियरिंग में डिप्लोमा हासिल किया है। नागा साधु बने 29 वर्षीय शंभु गिरी यूक्रेन से मैनेजमेंट ग्रेजुएट हैं। 18 वर्षीय घनश्याम गिरी उज्जैन से 12वीं बोर्ड के टॉपर हैं।
घनश्याम गिरी का कहना है कि उसे बोर्ड की परीक्षाएँ पास करने के बाद अपने उद्देश्य का अहसास हुआ। उस वक्त उसकी उम्र 16 साल थी, जब वह अपने गुरु महंत जयराम गिरी के आश्रम गया। उसका कहना है कि वह अपने गुरु की कृपा के कारण दो साल बाद नागा बनने के लिए दीक्षा लेने कुम्भ समारोह में आया है।
नागा सन्यासी बनने के लिए कोई भेदभाव या बंधन नहीं है
जब उनसे पूछा गया कि नागा बनने के लिए बैकग्राउंड कैसा होना चाहिए तो उन्होंने कहा कि जाति, धर्म, रंग चाहे जो हो लेकिन जो व्यक्ति वैराग्य की तीव्र इच्छा रखता है वह नागा साधु बनने के योग्य है। कई मुस्लिम, ईसाई और बाकी धर्मों के लोग भी नागा संन्यासी के रूप में स्वीकार किए गए हैं। इनमें वो लोग भी शामिल हैं जो पहले डॉक्टर और इंजीनियर रह चुके हैं।
अखाड़ों में भी कोतवाल होते हैं जिनकी ज़िम्मेदारी अखाड़े की देखभाल के साथ नागा संन्यासियों की पहचान करना होता है। निरंजनी अखाड़े के कोतवाल ने बताया कि एक बार जब संन्यासी अखाड़े का हिस्सा बन जाते हैं तो रास्ता बेहद कठिन हो जाता है। कुछ सालों तक उम्मीदवारों की जाँच की जाती है कि वह अपनी इच्छा से संन्यासी बन यहाँ रह रहे हैं या फिर किसी संकट से बचने के लिए यहाँ आए हैं। जब वह सभी परीक्षाएँ पास कर लेते हैं और हमें संतुष्ट करते हैं, तभी वह असली नागा संन्यासी ठहराए जाते हैं।
सामाजिक सरोकार
अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि कहते हैं कि निरंजनी अखाड़ा प्रयागराज-हरिद्वार में पाँच स्कूल-कॉलेज संचालित कर रहा है। हरिद्वार में एक संस्कृत कॉलेज भी है। इनका मैनेजमेंट और व्यवस्थाएँ स्वेच्छा से संत संभालते हैं। यहाँ पर छात्रों की पढ़ाई के साथ, उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास पर ध्यान दिया जाता है।
अंतिम लक्ष्य
वैरागी जीवन जीते हुए वीतरागी हो जाने की यात्रा है संन्यासी होना। अंततः नागा संन्यासियों के जीवन का प्रमुख उद्देश्य और अंतिम लक्ष्य धार्मिक, आध्यात्मिक साधना सिद्धि से जीवन के अनुभवों को सघन करते हुए उसके पार निकल जाना है। बाहरी प्रलोभनों से ख़ुद को काटकर अस्तित्व की गहराई को समझना ही उनका एकमात्र साध्य रह जाता बाकि भौतिक सुविधाएँ मात्र जीवन संचालन के लिए युक्तियुक्त साधन।
अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा ‘पट्टली मक्कल काची’ (पीएमके) के एक अधिकारी की हत्या कर दी गई। स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है और किसी भी अनहोनी से निपटने के लिए तंजावुर जिले में कुंभकोणम के पास लगभग 250 पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया है।
घटना मंगलवार रात तिरुभुवनम में हुई। अज्ञात लोगों के एक समूह ने पीएमके के एक अधिकारी 42-वर्षीय रामलिंगम पर, जो उस समय घर वापस जा रहे थे, उन पर हमला कर हाथ काट दिया। गंभीर रूप से घायल रामलिंगम को कुंभकोणम के एक निजी अस्पताल में ले जाया गया। अस्पताल के डॉक्टरों ने रामलिंगम को शहर के सरकारी मेडिकल कॉलेज के अस्पताल में रेफर कर दिया। हालाँकि, अस्पताल ले जाते समय अत्यधिक रक्तस्राव के कारण रामलिंगम की मृत्यु हो गई।
Ramalingam in this video wears the skull cap & applies Tilak to people who were convincing to convert. Also questions about “We accept offerings made to your good but will you accept food oferred to Hindu God?” Shocking that such brave talk ended his life.#JusticeForRamalingampic.twitter.com/8HpsJ3wJhh
तिरुविदाईमारुधुर पुलिस स्टेशन में तैनात एक पुलिस अधिकारी ने द न्यूज मिनट के संवाददाता को बताया कि इससे पहले भी कई बार रामलिंगम पर हमला हो चुका है। पुलिस अधिकारी ने यह भी बताया कि पहली नजर में इस बात की संभावना लगाई जा रही है कि रामलिंगम की हत्या अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों से बहस के बाद की गई है। पुलिस अधिकारी ने संवाददाता को यह भी बताया कि शहर के मुस्लिम लोग अक्सर अपने समुदाय बाहुल्य के क्षेत्र में जाते हैं। इन क्षेत्रों में मुस्लिम धर्म प्रचार को लेकर काम किया जाता है। यही नहीं इस क्षेत्र में दूसरे समुदाय के लोगों के आने पर भी रोक लगाई गई थी। जिस दिन घटना हुई उस दिन दलित समुदाय के कुछ लोग इस क्षेत्र में आए थे।
इस घटना के बाद इलाके में सांप्रदायिक तनाव की आशंका के तहत कुंभकोणम में और उसके आसपास के इलाके में लगभग 250 पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया है। रामलिंगम के शव को उनके परिवार को सौंप दिया गया है, पुलिस अभी आरोपितों को पकड़ने के प्रयास कर रही है, साथ ही आईपीसी की धारा 302 (मर्डर) के तहत एक FIR भी दर्ज की गई है।
रामलिंगम अपने खानपान के व्यवसाय में काम करने वाले कुछ लोगों को लेने के लिए गली में चले गए थे और वहीं पर उन्होंने समुदाय विशेष के समूह को वहाँ इस्लाम के बारे में बोलते देखा, जिस पर उन्होंने सवाल उठाए।
हालाँकि, इस मुद्दे को दोपहर में मुस्लिम मौलवियों ने सुलझा लिया था। पुलिस को अभी संदेह है कि इन लोगों ने मामले को दबाने के लिए के लिए रामलिंगम के हाथों को काट दिया।
पुलिस अधिकारी के अनुसार, “आमतौर पर गाँवों का दौरा करने वाले लोग खुद को मुस्लिम बहुल इलाकों तक ही सीमित रखते हैं, लेकिन मंगलवार को जो समूह प्रचार करने के लिए आया था, उसने कथित तौर पर एक ऐसी गली का दौरा किया था, जिसमें दलित समुदाय से संबंधित निवासियों की एक बड़ी संख्या थी।”
कर्नाटक में कॉन्ग्रेस पार्टी की मुसीबत कम होने का नाम नहीं ले रही है। पिछले दिनों कर्नाटक में गठबंधन दल के सभी विधायकों को व्हिप जारी करके बजट सत्र के दौरान विधानसभा में उपस्थित रहने के लिए कहा गया था।
पार्टी द्वारा व्हिप जारी होने के बावजूद बजट सत्र के पहले ही दिन कॉन्ग्रेस पार्टी के नौ विधायक विधान सभा में अनुस्थित रहे। इन नौ विधायकों में कॉन्ग्रेस पार्टी के वे चार विधायक भी शामिल हैं, जिन्होंने 18 जनवरी को कॉन्ग्रेस पार्टी के विधायकों की मीटिंग से दूरी बनाई था।
इन चार विधायकों में रमेश जरकिहोली, महेश कुमतल्ली, उमेश जाधव और नागेन्द्र ने सत्र की पहले दिन कार्यवाही में भाग नहीं लिया। हालाँकि, इन चारों विधायकों ने सत्र में हिस्सा नहीं लेने की कोई भी वजह नहीं बताई है।
जानकारी के लिए बता दें कि पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस विधायक दल के नेता सिद्धारमैया ने विधायक दल की बैठक में शामिल नहीं होने वाले विधायकों को एक दूसरा नोटिस दिया है। पहला नोटिस जनवरी के आखिरी सप्ताह में, जबकि दूसरा नोटिस बीते सोमवार को दिया है।
पिछले दिनों 13 विधायकों के समर्थन वापस लेने की आई थीख़बर
पिछले दिनों ज़ी न्यूज़ ने अपने एक रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया था कि कर्नाटक की सियासत में एक बड़ा परिवर्तन आने की सुगबुगाहट है। कुछ दिन पहले कुमारस्वामी ने ख़ुद काम के अत्यधिक बोझ का हवाला दिया था और कहा था, “गठबन्धन की मजबूरी की वज़ह से क्लर्क बन गया हूँ।” शायद अब उनका बोझ हल्का होने वाला हो।
रिपोर्ट के अनुसार, कॉन्ग्रेस के 10 और जेडीएस के 3 विधायक बीजेपी के संपर्क में थे। बीजेपी की कोशिश थी कि जल्दी ही ये 13 विधायक इस्तीफ़ा दे दें। मीडिया में ख़बर यह भी थी कि अगर सब कुछ सही रहा तो बीजेपी कर्नाटक में कुमारस्वामी सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव भी ला सकती थी। हालाँकि, काँग्रेस ने बीजेपी पर विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त का आरोप लगाया था। उधर, बीजेपी ने भी काँग्रेस पर पलटवार करते हुए इससे इनकार किया था। लेकिन अब एक बार फिर से विधान सभा में बजट सत्र के दौरान नौ विधायकों की अनुपस्थिति से प्रदेश की राजनीति में सियासत गर्म होना स्वाभाविक है।
प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) की ओर से रॉबर्ट वाड्रा को मनी लॉन्ड्रिंग केस में सम्मन किए जाने के बाद बीजेपी ने कॉन्ग्रेस पर निशाना साधा। जिसके फौरन बाद कॉन्ग्रेस ने पलटवार करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी पर हमला बोला है।
कॉन्ग्रेस ने कहा कि बीजेपी ने रॉबर्ट वाड्रा पर कई मुद्दों को लेकर आरोप लगाया है, लेकिन आज तक कुछ भी साबित नहीं हो पाया। सीनियर कॉन्ग्रेस नेता संजय सिंह ने कहा, “आज ईडी के सामने रॉबर्ट वाड्रा पेश हुए, कल उनकी जगह मोदी हो सकते हैं।”
Sanjay Singh, Congress: Aaj Robert Vadra ka ho raha hai ED ke saamne, kal Modi ED ke saamne khade honge. https://t.co/0EdcAnjeHI
बता दें कि रॉबर्ट वाड्रा की ओर से अंतरिम जमानत के लिए कोर्ट जाने के बाद दिल्ली के एक कोर्ट ने उन्हें ईडी की जाँच में सहयोग करने को कहा है। यह केस लंदन में 12, ब्रायन्स्ट स्क्वायर में संपत्ति की ख़रीद में मनी लॉन्ड्रिंग के केस से जुड़ा हुआ है।
ईडी ने कोर्ट को यह बताया कि उन्हें इस बात की जानकारी है कि लंदन में वाड्रा की कई सम्पत्तियाँ हैं। इनमें शामिल दो घर पाँच और चार मिलियन के हैं जबकि छह अन्य फ्लैट्स और अन्य सम्पत्तियाँ भी हैं।
बीजेपी प्रवक्ता संबित पात्रा ने यह आरोप लगाया कि वाड्रा को यूपी सरकार के दौरान 2008-09 के समय पेट्रोलियम और डिफेंस डील में मोटा फ़ायद हुआ। उन्होंने यह भी कहा “ वाड्रा ने रिश्वत के तौर पर मिले काले धन से करोड़ों संपत्ति बनाई है।”
ख़बर पुरानी है। एक फरवरी की। मीडिया भूल चुका है। सोशल मीडिया पर कभी कुछ आ जाता है, तो भले ही मीडिया कुछ देर के लिए चला दे, कुछ छाप दे वरना डिब्बा बंद। ख़बर है फाइटर प्लेन मिराज-2000 के क्रैश होने की और दो पायलटों के मौत की। इससे पहले कि हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) या भारतीय वायु सेना (IAF) की जाँच की ख़बर आए, आइए सुनते हैं फौज (खासकर एयर फोर्स) की कहानी।
खासकर एयरफोर्स इसलिए क्योंकि इससे मेरा नाता है – पेशेवर तौर पर तो नहीं लेकिन पारिवारिक तौर पर जरूर है। मेरे परिवार के एक बेहद करीबी (एकदम करीबी, लेकिन नाम नहीं बता पाऊँगा) हैं, जो पायलट हैं एयर फोर्स में। 18-19 साल का फ्लाइंग करियर है उनका। साल बताने का मकसद सीनियरिटी बताना कतई नहीं। मतलब यह है कि इतने साल किसी सिस्टम में रहने वाला बंदा उससे भली-भाँति वाकिफ़ होता है – अच्छाइयों से भी, बुराइयों से भी।
भगवान नहीं, मुक्के भरोसे फ्लाइंग
थोड़ा अटपटा है, लेकिन 16 आने सच। कैसे? कार तो देखी होगी आपने। उसके डैशबोर्ड में लगे 4-5 मीटर भी देखे होंगे। बस। इसी डैशबोर्ड को बड़ा कर दीजिए, मीटर 10-20 लगा दीजिए। एयरफोर्स के चॉपर या फाइटर प्लेन में पायलेट इन्हीं मीटरों के सहारे उड़ता है। इन्हीं में एक होता है – ऑल्टिमीटर। यह ऊँचाई बताने का काम करती है। सोचिए 10-20 हजार फीट की ऊँचाई पर अगर यह मीटर काम करना बंद कर दे तो क्या होगा? हाथ-पाँव फूल जाएँगे! और अगर लो-फ्लाइंग (2000 फीट से भी नीचे) के दौरान ऐसा हो तो? बाप-रे-बाप! लेकिन एयर फोर्स के पायलटों के लिए यह आम बात है। इतना आम कि जब भी ऐसा होता है, वो डैशबोर्ड पर मुक्का मारते हैं, ऑल्टिमीटर चलने लगता है। कभी एक मुक्के से तो कभी 2-4 मुक्के से।
रूस में इंद्र
2017 के आख़िर में भारतीय फौजें रूस गईं थीं। शहर का नाम था – व्लादिवोस्तो (Vladivostok)। 11 दिनों तक यहाँ भारत-रूस संयुक्त युद्धाभ्यास किया गया था। इस युद्धाभ्यास का नाम ही इंद्र (Indra-2017) था। इंद्र थल-जल-नभ तीनों सेनाओं का संयुक्त युद्धाभ्यास था। इंद्र का उद्देश्य था – शहरी आबादी में ISIS जैसे बड़े आतंकवादी संगठन के हमले को नाकाम करना। इसके लिए नकली तौर पर पूरा का पूरा एक शहर बसाया गया था, जिसे ISIS के नकली आतंकियों ने घेर लिया था।
भारतीय वायुसेना और रशियन वायुसेना दोनों को मिशन दिया गया – शहर से आतंकियों का सफाया। लेकिन नागरिक हितों की रक्षा के साथ-साथ। संयुक्त युद्धाभ्यास (डिफेंस डील के लेवल पर मैत्री देश हो तभी) में होता यह भी है कि आप मेरे साथ मेरे चॉपर में बैठ जाओ, मैं आपके साथ आपके चॉपर में बैठ जाऊँगा। ऐसा सिर्फ दोस्ती के लिए नहीं बल्कि तकनीक के साझा इस्तेमाल व समझ के लिए किया जाता है। इक्के-दुक्के मौकों को छोड़ दिया जाए तो भारत ने लगभग सारी मशीनें रूस से ही खरीदी हैं। मतलब जिस कंपनी, जिस मॉडल के चॉपर रशियन एयरफोर्स के पास था, वही चॉपर इंडियन एयरफोर्स के पास भी। यहीं से कहानी में ट्विस्ट है।
आर्मी के जवानों को उतारना हो या घायलों को रेस्क्यू करना, युद्ध के हालात ऊपर से शहरी आबादी में बिना हेलिपैड के चॉपर को उतारना बहुत कठिन काम होता है। यह कठिन काम रशियन एयरफोर्स के चॉपर ने बहुत ही कुशलता (मक्खन की तरह – यही शब्द थे मेरे करीबी के) से कर लिया। बिना किसी शोर-शराबे (चॉपर के अंदर) के। उसी कंपनी, उसी मॉडल के इंडियन एयरफोर्स के चॉपर ने जब यही काम किया तो नानी याद आ गई। चॉपर के अंदर इतना शोर-शराबा, जैसे ट्रैक्टर (उनके शब्द) चल रहा हो।
दर्जी एक, सैनिक अनेक
व्लादिवोस्तो जाने के लिए शायद कुछ स्पेशल कपड़ों या बैज़ (ठीक से याद नहीं) की ज़रूरत थी। एयरफोर्स के ऑफिसर-नॉन ऑफिसर मिलाकर लगभग 350 लोगों की टीम को वहाँ जाना था। ये 350 लोग भारत के अलग-अलग एयरबेस के थे। सबको दिल्ली आकर यहीं से जाना था। यह जरूरी होता है इतने बड़े स्तर पर किसी भी मूवमेंट के लिए। लेकिन यहाँ भी पेंच है। पेंच है लालफीताशाही का। इन सभी 350 लोगों को स्पेशल कपड़ा या बैज़ भी दिल्ली से ही इश्यू होना था। और ऐसा करने के लिए जिस ठेकेदार को यह काम दिया गया था, उसकी संख्या थी – एक। हुआ वही, जो होना था। कुछ को मिला, कुछ को ऐसे ही जाना पड़ा। बाद में किसी तरीके से उन्हें भेजा गया।
10-20-50-1000 रुपए के कपड़े से लेकर 1000-2000-50000 रुपए के ऑल्टिमीटर से लेकर 10-20-500 करोड़ रुपए के मशीन (चॉपर, फाइटर, मिसाइल, रडार कुछ भी) तक का उदाहरण क्यों? क्योंकि कभी स्क्वाड्रन लीडर समीर अबरोल मर जाता है। तो कभी स्क्वाड्रन लीडर सिध्दार्थ नेगी को भुला दिया जाएगा। उदाहरण इसलिए क्योंकि आपको मतलब हो या न हो, पार्टी आलाकमानों के बड्डे याद कराना नहीं भूलते नेता’जी’ लोग। उदाहरण इसलिए ताकि शहीद होने पर भी मेजर संदीप उन्नीकृष्णन को ‘कुत्ता भी घर पर नहीं जाएगा‘ न सुनना पड़े।
ऊपर के सारे उदाहरण इसलिए क्योंकि इसी देश में वजन बढ़ते रहने के बावजूद भूख हड़ताल कर रहे नेता’जी’ को मीडिया 10-20 दिन तक का कवरेज़ तक दे देता है। किसी छात्र नेता’जी’ को बेल मिली या नहीं, इस पर न जाने कितने प्राइम टाइम करते हुए देश की करोड़ों जनता का प्राइम टाइम ख़राब कर चुका है मीडिया। ऊपर के सारे उदाहरण इसलिए क्योंकि सिर्फ नेता ही भ्रष्ट हैं, यह संदेश न जाए। टॉप पर बैठा अधिकारी (जिसकी कलम में रक्षा सौदों से लेकर यूनिफॉर्म पहनने-पहनाने तक की ताकत होती है) भी इसी समाज का होता है, वो भी उतना ही भ्रष्ट हो सकता है, जितना हम और आप। इसलिए निशाने पर वो भी है। ये सारे उदाहरण इसलिए भी ताकि कुछ सुधार हो और फिर किसी सर्विंग ऑफिसर (लेफ्टिनेंट कर्नल संदीप अहलावत) को इतना तीखा न लिखना पड़े कि उसके कारण बताओ नोटिस जारी हो जाए।
IAF की समास्याएँ
राफ़ेल सुन-सुन कर कान पक चुके हैं तो यह जान लें कि इंडियन एयरफोर्स का अस्तित्व सिर्फ लड़ाकू विमानों के दम पर नहीं है। लड़ाकू विमान महत्वपूर्ण है, लेकिन यह सिर्फ एक हिस्सा भर है। चॉपर, ट्रांसपोर्ट विमान, बेसिक ट्रेनर एयरक्राफ्ट, इंटरमिडयरी जेट ट्रेनर, एडवांस्ड जेट ट्रेनर, मिड-एयर रिफ्यूलर, रडार इन सब से मिलकर इंडियन एयरफोर्स मजबूत होता है। अफसोस यह कि इन सभी को अपग्रेड करने का काम दशकों पीछे चल रहा है। विदेशी खरीद पर हमारी निर्भरता इसलिए क्योंकि HAL समय पर माँग (क्वॉलिटी से समझौता किए बिना) की पूर्ति करने में सक्षम अभी तक तो नहीं हो पाई है।
IAF में भी ‘जुगाड़’
इंटरमिडयरी जेट ट्रेनर (IJT) की ही बात करें तो HAL ने फेज़ आउट हो रहे HJT-16 किरन का अभी तक कोई विकल्प उपलब्ध नहीं कराया है। पिछले साल सीएजी ने एचएएल को इंटरमिडयरी जेट ट्रेनर डेवलप करने में 14 वर्षों की देरी पर जमकर क्लास लगाई थी। 14 साल की देरी! जी हाँ। लेकिन चल रहा है। एयरफोर्स के कैडेट ट्रेनिंग ले रहे हैं – कैसे? जुगाड़ से। यह मैं नहीं पूर्व एयर चीफ मार्शल अरुप राहा का कहना है। इंटरमिडयरी जेट ट्रेनर की कमी के कारण तीन स्टेज की ट्रेनिंग को घटाकर दो स्टेज की ट्रेनिंग कर दी गई है।
ट्रेनी पायलट पहले पिलैटस PC-7 टर्बो ट्रेनर (Pilatus PC-7 Turbo Trainer) के बाद डायरेक्ट एडवांस्ड जेट ट्रेनर हॉक (Advanced Jet Trainer Hawk) पर ट्रेनिंग ले रहे हैं। दुखद यह है कि पिलैटस PC-7 और एडवांस्ड जेट ट्रेनर हॉक – दोनों ही विदेशी प्रोडक्ट हैं। HAL ने इस स्तर पर भी कोई योगदान नहीं दिया है। बेसिक ट्रेनर HTT40 को डेवलप करने में भी HAL पाँच साल पीछे चल रहा है। और सब कुछ ठीक-ठाक रहने पर भी इसके 2021 तक फ्लाइंग सर्टिफिकेट मिलने की उम्मीद बहुत ही कम है।
तेजस से ‘तेज’ गायब
इंडियन एयरफोर्स तेजस को अपने बेड़े में शामिल करने को लेकर बहुत उत्सुक नहीं है। क्यों? क्योंकि इसके साथ तीन मुख्य समस्याएँ हैं – (i) उड़ान स्थिरता सिर्फ 1 घंटे की (ii) उड़ान की रेंज सिर्फ 400 किलोमीटर के रेडियस तक (iii) हथियार ढोने की क्षमता 3 टन। अब तुलना करते हैं इसी के समान विदेशी सिंगल-इंजन फाइटर प्लेन की। स्वीडिश ग्रिपेन-ई (Gripen-E) और अमेरिकन एफ-16 के हथियार ढोने की क्षमता तेजस से दोगुनी है जबकि उड़ान स्थिरता तीन गुनी है।
Holy दुधारू Cow
जिस तेजस को एयरफोर्स लगभग नकार चुकी है, उसके लिए HAL को रक्षा मंत्रालय से दिसंबर 2017 में 330 बिलियन (33,000 करोड़) रुपए की मंजूरी मिली थी। इतनी बड़ी रकम की मंजूरी इसलिए मिली थी ताकि 2020-21 से HAL हर साल 16 की संख्या (लगभग एक स्क्वाड्रन हर साल तैयार) में तेजस मार्क 1A का निर्माण कर एयरफोर्स को सौंप सके। जब तेजस मार्क 1 में ही इतनी देरी हो रही है, तो तेजस मार्क 1A का भविष्य क्या होगा, पता नहीं!
एयरफोर्स डील में भ्रष्टाचार की बात करें तो यह राजनीतिक स्तर तक ही सीमित नहीं है। पूर्व एयर चीफ मार्शल एसपी त्यागी तक का नाम इन सबमें आ चुका है और सीबीआई द्वारा उनको गिरफ़्तारी भी किया जा चुका है। अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले में क्रिस्चियन मिशेल के बाद दीपक तलवार और राजीव सक्सेना की गिरफ़्तारी से भविष्य में और भी बड़े नामों के आने की उम्मीद है।
भारत दो तरफ से दुश्मन देशों से घिरा है। जिसमें चीन तो विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने के रास्ते पर है, साथ ही वो अति-महत्वाकांक्षी भी है। ऐसे में फेज़ आउट होते मिग से घटती स्क्वाड्रन की संख्या चिंता का विषय होना चाहिए। फिर भी 126 MMRCA (Medium Multi-Role Combat Aircraft) डील, जिसे यूपीए के शासन काल में ‘मदर ऑफ ऑल डील’ तक कहा जाने लगा था, उसे अधर में लटका कर VVIP चॉपर डील पर तत्परता मेरे समझ से बाहर है।
जो जरूरी है, उसे टालते जाना! स्वदेशी लेकिन क्वॉलिटी पर खरा नहीं उतर पा रहा हो, जो समय पर प्रोडक्ट नहीं दे पा रहा हो, उस पर भरोसा करते जाना, उसके लिए बड़े-बड़े बजट पास करते जाना! जो जरूरी नहीं है, उसके लिए हड़बड़ी दिखाना! विदेशी कंपनियों से उस प्रोडक्ट को खरीदना! ये जितने भी विस्मयकारी चिन्ह लगाए गए हैं, ये मूलतः उस ओर इशारा कर रहे हैं कि कुछ नहीं, सबकुछ गड़बड़ है। सिस्टम के उलटफेर की जरूरत है।
मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के 7 आरोपितों को अतिरिक्त जिला न्यायाधीश कोर्ट में दोषी करार दिया गया है। मुज़फ़्फ़रनगर के अतिरिक्त जिला न्यायाधीश हिमांशु भटनागर ने इन सभी आरोपितों को दोषी करार देते हुए न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया है। कोर्ट ने इस मामले में दोषियों को सजा सुनाने के लिए 8 फ़रवरी की तारीख तय की है।
मुज़फ़्फ़रनगर दंगे के इसी मामले में राज्य की योगी सरकार ने बड़ा फैसला लिया है। सरकार की तरफ़ से स्पेशल सेक्रेटरी जेपी सिंह और अंडर सेक्रेटरी अरुण कुमार राय ने मुज़फ़्फ़रनगर के जिला मजिस्ट्रेट को पत्र लिखा है।
पत्र में मुजफ़्फरनगर दंगे से जुड़े 38 मामलों को वापस लेने के लिए सिफरिश की गई है। इन सभी 38 मामलों में लगभग 119 लोग अभियुक्त बनाए गए थे। सरकार की तरफ़ से कोर्ट को भेजे गए इस पत्र को राज्यपाल द्वारा मंजूरी दे दी गई है।
जानकारी के लिए आपको बता दें कि अगस्त 2013 में उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर के कवाल गाँव में दो संप्रदाय के बीच दंगा भड़क गया था।
इस दंगे में सचिन व गौरव नाम के दो लोगों की जानें गई थी। इन दोनों ही लोगों की जघन्य हत्या में सभी सात आरोपित शामिल थे। अतिरिक्त जिला न्यायाधिश ने जिन सात लोगों को दंगे के लिए दोषी बताया है वे सभी एक संप्रदाय विशेष से आते हैं।
इन सभी आरोपितों के नाम क्रमश: मुजस्सिम, मुजम्मिल, फ़ुरक़ान, नदीम, जहांगीर, अफ़जाल और इक़बाल हैं। इन सभी को कोर्ट के आदेश पर पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।
कवाला गाँव की इस घटना के बाद मुजफ़्फरनगर शहर और शामली में भी दो संप्रदाय के बीच दंगे हुए थे। इस दंगे में लगभग 60 से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी, जबकि सैकड़ों लोग घायल हुए थे।
इस वीभत्स घटना में कुल 8 आरोपित थे, जिनमें एक आरोपित शहनवाज की मौत पहले ही हो चुकी है।
बुधवार (फरवरी 06, 2019) को सोनिया गाँधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की मनी लांड्रिग मामले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) दफ्तर में पूछताछ चलती रही। इस दौरान रॉबर्ट वाड्रा को ईडी दफ्तर छोड़ने के लिए प्रियंका गाँधी वाड्रा स्वयं गई थी। राजनीति में जिस परसेप्शन का महत्व होता है शायद कॉन्ग्रेस पार्टी उसे ही भुनाने में जुट गई है।
प्रियंका गाँधी वाड्रा ने इसके बाद कॉन्ग्रेस दफ्तर जाकर महासचिव का पद ग्रहण किया। उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा, “रॉबर्ट वाड्रा से क्यों पूछताछ हो रही है, यह पूरी दुनिया जानती है, मैं अपने पति के साथ खड़ी हूँ। राहुल जी ने जो कार्यभार सौंपा है, उसके लिए मैं उनकी आभारी हूँ।”
यह पहला मौका है जब कॉन्ग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी के जीजा रॉबर्ट वाड्रा संदिग्ध वित्तीय लेन-देन के आपराधिक आरोपों के सिलसिले में किसी जाँच एजेंसी के समक्ष पेश हुए हैं। वाड्रा ने पहले इन आरोपों से इनकार किया था और कहा था कि राजनीतिक बदले के लिए उनके खिलाफ यह कार्रवाई की जा रही है। इसी दौरान, रॉबर्ट वाड्रा अपना चश्मा भूल गए थे, जिस वजह से पूछताछ देर से शुरू हो पाई।
ईडी का आरोप है कि फ्लैट अरोड़ा का नहीं, बल्कि वाड्रा का है।
रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ ये केस लंदन के 12 ब्रायंस्टन स्क्वायर पर स्थित एक संपत्ति की खरीद में धन शोधन से जुड़ा है। बताया जाता है कि 19 लाख पाउंड में ये संपत्ति खरीदी गई थी। जाँच एजेंसी ने अदालत को बताया था कि संजय भंडारी (हथियारों का व्यापारी, इस समय भगोड़ा) के खिलाफ आयकर विभाग काला धन अधिनियम एवं कर कानून के तहत जाँच कर रहा है। इसी कड़ी में मनोज अरोड़ा का नाम भी सामने आया।
हालाँकि, रॉबर्ट वाड्रा का कहना है कि उनका संजय भंडारी या उनके चचेरे भाई सुमित चढ्ढा-भावतोष से किसी तरह का लेना देना नहीं है, ये बात जरूर है कि वो मनोज अरोरा को जानते हैं। मनोज अरोड़ा उनका कर्मचारी रह चुका है। वाड्रा ने कहा कि ये गलत है कि उन्होंने या उनकी तरफ से मनोज अरोड़ा के लिए ईमेल लिखे गए थे।
क्या है पूरा मामला
वर्ष 2009 में एक पेट्रोलियम सौदे में रॉबर्ट वाड्रा की अहम भूमिका बताई जा रही है। इसकी जाँच की जा रही है। वहीं, एजेंसी को यह भी सूचना मिली है कि लंदन में कई प्रॉपर्टी रॉबर्ट वाड्रा से संबंधित हैं। इनमें 2 घर और 6 फ्लैट शामिल हैं। ईडी चाहती है कि वाड्रा आएँ और अपनी प्रॉपर्टी के बारे में जानकारी दें।
रॉबर्ट वाड्रा ने अपनी अग्रिम जमानत याचिका में आरोप लगाया है कि उनके खिलाफ अनुचित, दुर्भावनापूर्ण और अन्यायपूर्ण तरीके से कार्रवाई की जा रही है, जो राजनीति से प्रेरित है। वहीं, प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने अदालत में सवाल उठाया कि क्या एजेंसी को किसी राजनीतिक ब्रिगेड की जांच नहीं करनी चाहिए? क्या ऐसा करना राजनीतिक प्रतिशोध कहलाएगा?
प्रियंका गाँधी वाड्रा की भूमिका
माना जा रहा है कि रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जो माहौल बना था, प्रियंका गाँधी के इस कदम ने उस माहौल को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्तमान में मीडिया का सारा केंद्र अब प्रियंका गाँधी वाड्रा पर केंद्रित हो गया है। अगर वह रॉबर्ट वाड्रा के साथ नहीं जातीं, उसके अलग निहितार्थ निकाले जाते। कहा जाता कि रॉबर्ट वाड्रा के साथ उनका परिवार नहीं है, जबकि भारतीय समाज में परिवार को काफी महत्व दिया जाता है। भारतीय परम्परा में अक्सर देखा जाता है कि पत्नी हर हाल में पति का साथ देती है। प्रियंका गाँधी वाड्रा ने रॉबर्ट वाड्रा को ईडी तक छोड़ और ये कहकर राजनीतिक संदेश दिया है कि “मैं अपने पति के साथ खड़ी हूँ।”
आज सुबह कॉन्ग्रेस कार्यालय से हटाए गए थे रॉबर्ट वाड्रा के पोस्टर
आज सुबह ही कॉन्ग्रेस कार्यालय के बाहर लगे प्रियंका-रॉबर्ट के पोस्टर को एनडीएमसी द्वारा हटवाया गया। कुछ लोगों का मानना है कि कॉन्ग्रेस ने ही बदनामी के डर से पोस्टरों को हटवाया, क्योंकि ईडी दफ्तर में आज ही वाड्रा से पूछताछ होनी तय थी।
अब देखना यह है कि प्रवर्तन निदेशालय अगली बार रॉबर्ट वाड्रा को पूछताछ के लिए कब बुलाता है। क्या ये तारीख 2019 के चुनावों के बाद आएगी या, तब आएगी, जब प्रियंका गाँधी वाड्रा उत्तर प्रदेश के दौरे पर हों।
चुनावी सीजन में कुछ भी कहा जाना और पर्याय निकालना आम बात होती है इसलिए अभी यह देखना बाकी है कि रॉबर्ट वाड्रा के केस में प्रियंका गाँधी वाड्रा की भूमिका क्या रहने वाली है।
कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पुलिस ने कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को बचाने के लिए सीबीआई अधिकारियों को बंधक बनाने की शर्मनाक हरकत की। इस घटना से न केवल केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो जैसी उच्च स्तरीय जाँच एजेंसी की छवि धूमिल करने का प्रयास किया गया बल्कि राज्य और केंद्र के मध्य अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हुई। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए ऐसी परिस्थिति उसके संघीय ढाँचे के लिए बेहद ख़तरनाक साबित हो सकती है।
राजीव कुमार को कई बार समन भेजा जा चुका था जिसके बाद सीबीआई की टीम उनसे पूछताछ करने गई थी लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने सारी लोकतांत्रिक शुचिता को दरकिनार कर सीबीआई का मजाक बना कर रख दिया। ध्यातव्य है कि सीबीआई को तीन प्रकार से केस सुपुर्द किए जाते हैं।
एक तो तब जब राज्य सरकार की पुलिस किसी केस को सुलझाने में असफल होती है तब राज्य सरकार केंद्र से सीबीआई जाँच करवाने का आग्रह करती है। दूसरा तरीका है कि केंद्र सरकार स्वयं किसी महत्वपूर्ण केस की जाँच सीबीआई से करवाना चाहे तो करवा सकती है। इन दोनों परिस्थितियों के अतिरिक्त हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट सीबीआई जाँच के आदेश दे सकते हैं।
जब सीबीआई को राज्य से किसी केस की जाँच की अनुमति मिल जाती है तब उसे उस राज्य में पुलिस के अधिकार मिल जाते हैं। इसी अधिकार के चलते सीबीआई राजीव कुमार से पूछताछ करने गई थी। संविधान केंद्र सरकार को यह अधिकार भी देता है कि यदि किसी राज्य में संकट उत्पन्न हो तो केंद्र हस्तक्षेप कर सकता है।
कानून व्यवस्था मुख्य रूप से राज्य के जिम्मे है किंतु यदि राज्य की स्थिति बिगड़ जाए और कोर्ट सीबीआई जाँच का आदेश दे तो सीबीआई कोर्ट का आदेश मानने को बाध्य है। इस दृष्टि से हज़ारों करोड़ों रुपए के चिट फंड घोटाले (जिनसे लाखों लोग प्रभावित हुए) से संबंधित केस की छानबीन सीबीआई से करवाना केंद्र सरकार का दायित्व है। इस कार्य में बाधा उत्पन्न करना या तो भ्रष्टाचार को समर्थन देने जैसा है, या फिर राज्य का अपनी जनता की पीड़ा से मुँह मोड़ने जैसा।
हालाँकि, सीबीआई की छवि पहली बार धूमिल नहीं हुई है। कुछ महीने पहले सीबीआई के दो वरिष्ठ अधिकारियों के बीच चली तनातनी का तमाशा देश ने देखा। एक दूसरे के ऊपर आरोप प्रत्यारोप करते हुए निदेशक आलोक वर्मा और सेकंड इन कमांड राकेश अस्थाना ने सीबीआई जैसे संस्थान की अच्छी खासी फ़ज़ीहत करवाई। सरकार ने दोनों को छुट्टी पर भेजा जिसके बाद मामला कोर्ट में गया। इन सबके बीच 25 अक्टूबर 2018 को एक विचित्र खबर आई कि इंटेलिजेंस ब्यूरो के 4 अधिकारी आलोक वर्मा के घर के बाहर ‘पकड़े’ गए।
अर्थात अभी तक तो एक ही एजेंसी ‘तोता’ उपनाम लेकर बदनाम थी लेकिन आईबी के अधिकारियों को जिस प्रकार सड़क पर घसीटा गया था उससे यह स्पष्ट हो गया कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के अधीन काम करने वाली केंद्रीय एजेंसियों की वास्तव में क्या स्थिति है।
आंतरिक और बाह्य सुरक्षा
एजेंसियों का कार्यक्षेत्र समझने के लिए देश के सुरक्षा ढाँचे को समझना ज़रूरी है। सुरक्षा के मुख्यतः दो प्रकार हैं- आंतरिक और बाह्य। बाह्य सुरक्षा सशस्त्र सेनाओं के जिम्मे है जबकि आंतरिक सुरक्षा का दायित्व गृह मंत्रालय के अधीन कार्य करने वाली एजेंसियाँ संभालती हैं जिनमें सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फ़ोर्स कहलाने वाले बल भी सम्मिलित हैं।
यदि संपूर्ण सुरक्षा ढाँचे की कल्पना एक मनुष्य के रूप में की जाए तो हम देखेंगे की सशस्त्र सेनाएँ इस मनुष्य के पाँव हैं जो सीमाएँ लाँघने में सक्षम हैं, राज्य सरकारों की पुलिस और केंद्रीय पुलिस बल इस मनुष्य के हाथ हैं जो एक दायरे के अंदर ही काम कर सकते हैं लेकिन इंटेलिजेंस या गुप्तचर विभाग इस सुरक्षा रूपी मनुष्य का दिमाग है जो दूर तक सोच सकता है और भविष्य के खतरों को भाँप सकता है।
जहाँ जाँच एजेंसियाँ वारदात होने के बाद काम करती हैं वहीं इंटेलिजेंस एजेंसियाँ अपराध होने से पहले उसके घटित होने की संभावनाओं पर निगरानी रखती हैं। सीबीआई और आईबी के कार्यक्षेत्र में यह मूल अंतर है। आईबी को पब्लिक आर्डर और आंतरिक सुरक्षा संबंधी सूचनाएँ गुप्त रूप से इकट्ठा करने की ज़िम्मेदारी दी गई है जिसके अंतर्गत उसे संवेदनशील स्थानों पर निगरानी रखनी होती है। किंतु आलोक वर्मा प्रकरण में आईबी की कार्यशैली पर ही सवाल खड़े किए गए।
सीबीआई और आईबी दोनों की फ़ज़ीहत होने का एक ही कारण है। वह यह कि दोनों एजेंसियों को संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं हैं और इन दोनों की वैधानिक स्थिति भी स्पष्ट नहीं है। जहाँ सीबीआई अपनी उत्पत्ति का स्रोत दिल्ली पुलिस स्पेशल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट (1946) बताती है वहीं आईबी किसी भी कानून द्वारा स्थापित एजेंसी नहीं है। नवंबर 2013 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने सीबीआई को ‘असंवैधानिक’ घोषित कर दिया था। इससे पहले 2012 में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने आईबी के वैधानिक दर्ज़े पर सवाल खड़े किए थे।
हालाँकि द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया था कि सीबीआई को DSPE एक्ट से मुक्त कर एक पृथक सीबीआई एक्ट के अंतर्गत स्थापित किया जाना चाहिए लेकिन अभी तक इस पर अमल नहीं किया गया है।
अमरीका और हमारे सुरक्षा प्रणाली में यही मौलिक भेद है। अमरीका ने 1947 में National Security Act पास कर एक्सटर्नल इंटेलिजेंस एजेंसी सीआईए बनाई और आंतरिक सुरक्षा के लिए एफबीआई को तमाम ऐसे वैधानिक अधिकार दिए जिससे वह कॉउंटर इंटेलीजेंस और आपराधिक जाँच दोनों कार्य करती है।
हमें भी स्वतंत्रता के बाद ऐसी ही स्वायत्तता प्राप्त आंतरिक सुरक्षा एजेंसी बनानी थी जो इंटेलिजेंस एकत्र करना और आपराधिक जाँच दोनों कर सके क्योंकि इंटेलिजेंस और ‘इन्वेस्टिगेशन’ एक दूसरे से गहराई तक जुड़े हुए पहलू हैं। भ्रष्टाचार और संगठित अपराध से लेकर आतंकवाद तक आज सभी प्रकार के अपराधों के तार आपस में जुड़े होते हैं। कई बार एजेंसियों में बेहतर तालमेल न होने के कारण जाँच प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न होती है।
एक समय सीबीआई का निदेशक केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) नियुक्त करता था। भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करने में आज भी CVC को सीबीआई से अधिक अधिकार प्राप्त हैं। लेकिन CVC के पास फुल टाइम चीफ़ विजिलेंस अफसर नहीं हैं जो सीबीआई की तरह जाँच कर सकें। और सीबीआई को राज्य में पुलिस के अधिकार देने के बावजूद हथियार नहीं दिए जाते। इससे यह पता चलता है कि जिस एजेंसी के पास अधिकार हैं उसके पास दायित्व नहीं है और जिसके पास दायित्व है उसे अधिकार नहीं दिए गए।
देश की अन्य एजेंसियों की वैधानिकता की बात करें तो 2017 में एक मजेदार बात हुई थी। देश के किसी भी कानून में एक इंटेलिजेंस एजेंसी का कार्यक्षेत्र परिभाषित नहीं है फिर भी 2017 में नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गेनाइजेशन (NTRO) के कर्मचारियों को Intelligence Organisations (Restriction of Rights) Act, 1985 के अधीन लाकर यूनियन बनाने से रोक दिया गया था।
आतंकवाद से लड़ने के लिए हड़बड़ी में कानून लाकर बनाई गई जाँच एजेंसी एनआईए का दायरा भी सीमित ही है। आज आवश्यकता है एक ऐसी एजेंसी की जो आंतरिक सुरक्षा, भ्रष्टाचार की जाँच, इंटेलिजेंस एकत्र करना और आतंकवाद इन सभी ज़िम्मेदारियों को पूर्ण स्वायत्ता के साथ संभाल सके।