Friday, April 26, 2024
Homeविविध विषयधर्म और संस्कृतिरक्षाबंधन का इतिहास: फ़र्ज़ी नारीवादियों के कुतर्कों के नाम (लम्पट वामपंथी भी पढ़ें)

रक्षाबंधन का इतिहास: फ़र्ज़ी नारीवादियों के कुतर्कों के नाम (लम्पट वामपंथी भी पढ़ें)

वैसी कहानियाँ लिखी गईं, फ़िल्म और गीत बनाए गए जहाँ कमज़ोर बहनों को भाई बचाने आता है। ये धूर्त कल्पना तो किसी पुराण में, धार्मिक पुस्तक में नहीं दिखती। ये तो तथाकथित उन्मुक्त बॉलीवुड के लेखकों, गीतकारों और फ़िल्मकारों की कल्पना है।

फ़र्ज़ी नारीवादियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और स्वीकृति के लिए लालायित लोगों की कई समस्याएँ होती हैं, उनमें से एक है कि उन्हें हर बार उस चीज़ के मायने पता नहीं होते जिसका वो ज़बरदस्ती विरोध कर रहे होते हैं। आजकल रक्षाबंधन पर बहुत लोग आपको तरह-तरह की बातें करते दिखेंगे। इसमें आपको दो-चार प्रचलित शब्द फेंककर हीरो बनता आदमी दिखेगा, मोहतरमा दिखेंगी जिनके पास नया एंगल होता है जो कि बहुत पुराना हो चुका है। कोई इसे पितृसत्ता का प्रोडक्ट बताता है, तो कोई इसे एक घटिया प्रथा कहता मिल जाता है। किसी को ‘बहन ही राखी क्यों बाँधती है’ का जवाब चाहिए, तो कोई ‘भाई पर बहन की रक्षा का दायित्व होता है’ ऐसा मानकर विरोध जता रहा है।

जो लोग गाँवों में रहे हैं, ख़ासकर उत्तर भारत वाले, उन्होंने अपने घर में आए पंडित जी द्वारा सावन पूर्णिमा के दिन रक्षासूत्र बाँधते हुए एक श्लोक पढ़ता सुना होगा:

येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥

इसका अर्थ यह है कि ‘जिस रक्षासूत्र से राजा बलि जैसे दानवीर और महाशक्तिशाली व्यक्ति को बाँधा गया था, उसी रक्षासूत्र से मैं तुझे बाँधता हूँ। हे रक्षे (राखी)! तुम अपने पथ से, संकल्प से अचल और अडिग रहना।’ इस मंत्र का प्रयोग भविष्य पुराण में मिलता है जब इंद्राणी ने देव-दानवों के युद्ध के दौरान इंद्र द्वारा देवों की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते गुरु बृहस्पति के समक्ष पाया। तब उन्होंने एक रक्षासूत्र बनाया और देवगुरू बृहस्पति ने इस मंत्र को पढ़ते हुए इंद्र की कलाई पर वो रक्षासूत्र बाँधा और अंततः देवता विजयी हुए।

इसका प्रसंग आपको वामनावतार में मिलेगा जब राजा बलि ने यज्ञादि करके स्वर्ग छीनने की कोशिश की थी। तब विष्णु ने वामन अवतार लेकर ‘तीन पग’ का दान माँगा था। चूँकि राजा बलि दानवीर थे तो गुरु के मना करने पर भी दान के संकल्प से बँधे होने के कारण दान दिया। विष्णु ने तीन पग (क़दम) में क्रमशः आकाश, पाताल और धरती नाप दी और फिर राजा बलि का घमंड चूर कर दिया। बलि के पास रसातल जाने के सिवा और कोई चारा ना मिला। बहुत समय बाद उसने अपनी भक्ति से विष्णु को प्रसन्न कर लिया और हमेशा साथ रहने का वरदान माँगा। घर ना लौटने पर लक्ष्मी जी को चिंता हुई तो नारद ने पूरा प्रसंग सुनाकर उन्हें एक सुझाव दिया कि वो बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई बना लें, और पति को वापस ले आएँ।

यहाँ पर अब ये देखने योग्य है कि विष्णु ने लक्ष्मी की रक्षा नहीं की, बल्कि उल्टे लक्ष्मी ने विष्णु की रक्षा की। ऐसा ही प्रसंग महाभारत में है कि शिशुपाल वध के दौरान सुदर्शन चक्र चलाते हुए कृष्ण की उँगली से रक्त निकलने लगा तो द्रौपदी ने अपने वस्त्र का एक टुकड़ा निकाल कर बाँधा था, तब से कृष्ण उन्हें अपनी बहन मानते थे। यहाँ भी स्त्री ने पुरुष की रक्षा की और उसका बदला कृष्ण ने चीरहरण में चुकाया। महाभारत में ही कुन्ती ने पौत्र अभिमन्यु को राखी बाँधी है, द्रौपदी ने कृष्ण को बाँधी है। महाभारत में ही जब युधिष्ठिर कौरवों से विजय पाने की युक्ति हेतु कृष्ण से सलाह माँगते हैं तो वो उन्हें राखी का त्योहार मनाने को कहते हैं कि ‘ये कच्चा धागा सारी विपत्तियों को हटाता है।’

अभी तक जितने प्रसंग हुए वो सब के सब श्रावण की पूर्णिमा को हुए। इसी कारण से ये त्योहार इसी दिन मनाया जाता है। इतने प्रसंगों में से एक में भी स्त्री कहीं से हीन नहीं है। उसके उलट स्त्रियों ने अपनी शक्ति से अपने भाई, पति या समाज की रक्षा की है। भाई की कलाई पर बँधी राखी उसकी रक्षा के लिए होती है ना कि वो बहन की रक्षा का वचन देता कहीं भी दिखता है। बहन की रक्षा भाई के लिए उतनी ही सहज प्रक्रिया है, जितनी सहज बात बहन द्वारा भाई को मुसीबत में देखकर मदद करने की। सामान्य विवेक के इस्तेमाल से ये पता चल जाता है कि जो जिसकी रक्षा करने की स्थिति में होगा, वो करेगा। उसके लिए बहन उसको राखी की याद नहीं दिलाती कि तुमको ही रक्षा करनी होगी।

पितृसत्ता और ‘रक्षा’ की गलत विवेचना

दूसरी बात, ‘रक्षा’ शब्द को लेकर है। इसको हमेशा ही शारीरिक रक्षा के दायरे में संकुचित कर दिया जाता है। ऊपर के तीनों विशिष्ट प्राणियों की – फ़र्ज़ी नारीवादियों, तथाकथित बुद्धिजीवियों और ‘अटेंशन सीकिंग नवोदित कूल डूड-हॉट चिक’ की भीड़ – पूरी विवेचना और विश्लेषण इसी शब्द और उसके तोड़े-मरोड़े अर्थ पर जाते हैं। जब वो चर्चा करते हैं तो रक्षा का मतलब सीधा ‘भाई, बहन की रक्षा क्यों करेगा’ से शुरू करते हैं और इसको फिर ये सिद्ध करने में इस्तेमाल करते हैं कि बहनों को भाई, या ये समाज (सॉरी पितृसत्तात्मक समाज) शारीरिक दृष्टि से अक्षम और हीन समझता है।

मुझे ये पूछना है कि कौन-सा भाई राखी बँधवाए, या बिना बँधवाए अपनी बहन की, या अपने घर के कुत्ते की भी मदद नहीं करेगा जब वो विपत्ति में हो? इसके उलट कौन सी बहन, चाहे उसने भाई को राखी बाँधा हो या ना बाँधा हो, अपने भाई, या घर के कुत्ते की ही, मदद को न आएगी जब वो मुसीबत में हो? इसमें राखी कहाँ से आ गया? कौन सी बहन ये वादा कराती है कि मेरी रक्षा करना? मैं तो ऐसी बहनों से आजतक नहीं मिला। कुछ कूढ़मगज अब बहन और कुत्ते को एक लाइन में रखने पर भी मुझसे उलझने की कोशिश करेंगे, इसके लिए न सिर्फ दूसरी लाइन में भाई और कुत्ते को साथ रखा है बल्कि ये भी बता रहा हूँ कि वैसी मूर्खतापूर्ण चर्चा का हिस्सा मैं नहीं बनूँगा। उसका अर्थ बस इतना है कि आदमी अपने पालतू जानवर की भी मदद करता है, तो फिर बहन या भाई, या और संबंधियों की क्यों नहीं करेगा!

अब आते हैं ‘रक्षा’ शब्द के मायने पर। भारत के अलग-अलग हिस्सों में रक्षासूत्र (या राखी) बाँधने का प्रचलन अलग-अलग रूप में है। कहीं भाई को बहन बाँधती है, कहीं पति को पत्नी बाँधती है, कहीं घर की स्त्री/लड़की अपने आराध्य को बाँधती है, तो कहीं पुत्री अपने पिता को बाँधती है। इन सब में उच्च स्थान बाँधने वाले को दिया जाता है कि उसका दिया गया सूत्र (धागा) बँधवाने वाले की रक्षा करेगा क्योंकि इसमें उसने अपनी अराधना, आत्मीयता, स्नेह आदि की शक्ति संचित कर दी है। फिर यहाँ स्त्री हीन कैसे है ये समझ से परे है। किसने ये किया, ये भी समझ के बाहर है।

प्रचलन की ही बात करें तो आज भी श्रावण पूर्णिमा को हर पुरोहित अपने यजमान को घर-घर घूमकर ‘येन बद्धो बलिराजा’ का उच्चारण करते हुए रक्षासूत्र बाँधते हैं। हर अनुष्ठान में एक दूसरे के सम्मान की रक्षा का संकल्प करते हुए यजमान और पुरोहित एक-दूसरे को रक्षासूत्र बाँधते हैं। प्राचीन समय में गुरू अपने शिष्य/शिष्या को, तथा शिष्य/शिष्या अपने गुरू को रक्षासूत्र बाँधते थे। यहाँ रक्षा का अर्थ व्यापक हो जाता है। जब विधार्थी स्नातक हो जाता था तो अपने गुरू से विदा लेते समय आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु रक्षासूत्र बाँधता था। फिर गुरू उसे रक्षासूत्र बाँधते थे कि वो शिक्षार्थी अपने ज्ञान का सदुपयोग करते हुए अपने आचार्य/आचार्या के सम्मान एवम् अपने ज्ञान की रक्षा कर सके।

कहीं भी सिर्फ शारीरिक रक्षा की बात नहीं दिखी है। हर जगह रक्षा का दायरा व्यापक है। कहीं भी ये नहीं दिखता कि स्त्री हीन है, दयापात्र है और पुरुष को राखी बाँधकर दया की भीख की कामना करती है, जैसा कि ये अल्पज्ञानी दावा करते दिखते हैं।

इतिहास से अलग, बॉलीवुड की अपनी कहानी

इतिहास में हुमायूँ को कर्मावती द्वारा राखी भेजने का प्रसंग है जो कि बच्चों की पाठ्यपुस्तक में पढ़ाया जाता रहा है। यहाँ पर एक स्त्री को मदद की गुहार लगाते दिखाया जा रहा है। ये पुस्तकें किस सरकार ने लिखवाईं ये सबको पता है। दूसरी बात, इस प्रसंग का एक अर्थ राखी को सेकुलर त्योहार बनाने की इच्छा भी रही होगी। इससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है। ये अकेला वाक़या है जहाँ एक स्त्री ने राखी भेजकर मदद की इच्छा की है। उसी पुस्तक में आपको ये भी संकेत मिलेगा कि भारत में तभी से ये त्योहार मनाया जाने लगा। ये क्यों है, मुझे नहीं पता।

बची कसर बॉलीवुड ने रक्षा की भीख माँगती हिरोइनों को गीत गवाकर पूरी कर दी। किताबों में तुमने वही किया। बाकी का रेडियो और फ़िल्मों के ज़रिए से दिमाग में घुसा दिया कि राखी का बंधन निभाना ही पड़ेगा। वैसी कहानियाँ लिखीं जहाँ कमज़ोर बहनों को भाई बचाने आता है। ये दिमाग़ी कल्पना तो किसी पुराण में, धार्मिक पुस्तक में नहीं दिखती। ये तो तथाकथित उन्मुक्त बॉलीवुड के लेखकों, गीतकारों और फ़िल्मकारों की कल्पना है।

इस लँगड़े प्रचलन के पीछे तो तुम्हारे समाज को वो हिस्सा है जिससे तुम समाज की दिशा और दशा तय कराने के लिए मुँह ताकते हो। पेट्रियार्की तो वो फूँक रहा है जो इस पर सबसे ज्यादा चिल्लाता है जब उसका मतलब नहीं सधता। यही तो वामपंथियों के विकृत दिमाग के सतत प्रयास का प्रतिफल है जो आज भी नई-नई पत्रकार बनी लड़की चार जुमले उछालकर पितृसत्ता चिल्लाते हुए इसकी त्योहार को ‘रीवैम्प’ करने की गुहार लगाती है! गुहार क्यों लगा रही हो, कर लो ना अगर सक्षम हो तो! उसमें भी तुम्हें इसी हिन्दू समाज की ही मदद चाहिए।

खैर, जिस हिसाब से हिन्दुओं के हर प्रतीक को, हर त्योहार को पर्यावरण-विरोधी से लेकर स्त्री-विरोधी और अंधविश्वास का समर्थक दिखाने की कोशिश होती रही है, उसी कड़ी में आपको अज्ञानता के महाकुम्भ इस तरह की बातें करते दिखेंगे। इनके बनाए गए तथ्यों को असली तथ्यों से काटिए। इनसे पूछिए कि कितनी लड़कियों को जानते हैं जो भाई से रक्षा का वचन करवाती हैं राखी बाँधते वक़्त। इनसे पूछिए कि पितृसत्ता का प्रॉडक्ट बताने के पीछे का तर्क क्या है? इनसे पूछिए की रक्षा शब्द से वो क्या समझते हैं।

ये आपको ऐसा कहते मिलेंगे कि ‘आज तो मायने बदल गए हैं ना!’ तो इनको बताइए कि मायने भी तो तुम्हारे चाचा और ताऊ ने बदले हैं, क्योंकि हिन्दू समाज तो इसे भाई-बहन के स्नेह का एक बंधन मानता है। लेकिन ‘बंधन’ शब्द सुनकर ही ऐसे नक़ली नारीवादियों के कान खड़े हो जाते हैं कि ‘बंधन है, बंधन है’। अरे भाई! जैसे ‘दाग अच्छे हैं’ वैसे कुछ बंधन का मतलब सकारात्मक बॉण्ड भी हो सकता है। रक्षा का एक बंधन है, जो कि ना टूटे तो बेहतर है।

त्योहारों के कई उद्देश्य होते हैं समाज में। घर से दूर रहते भाई-बहन को एक-दूसरे से एक दिन मिलने, याद करने का एक ज़रिया है ये। अब आप कहेंगे कि इसकी क्या ज़रूरत है, साल भर क्यों नहीं याद करते। तो मेरा कहना है कि साल भर तो आप प्रेम भी करते हैं, फिर वैलेंटाइन एक दिन क्यों जबकि वो ख़ालिस बाज़ारवाद की उपज है? उसको मनाने पर जब कोई बवाल काटता है तो कैसे ‘अभिव्यक्ति’ का ढोल बजाने लगते हो! फ़्रेंडशिप डे का ‘बंधन’ चलेगा, रक्षा वाला नहीं। यही दोमुँहापन तो तुमको एक्सपोज़ करता है।

तुमको तो किसी ने ज़बरदस्ती राखी नहीं बाँधी, या बँधवाने आ गया? तुम अपने घर में भी चुनाव कर सकते हो अगर तुम्हारा भाई या बहन ऐसे हैं कि तुम्हें नहीं बाँधनी/बँधवानी। कोई नहीं रोकेगा, कोई उपहास भी नहीं करेगा। क्योंकि आस्था में इतनी छूट है। वो दायरा इतना संकुचित नहीं है कि यही करने पर तुम वो हो, असली वाले वो। ये नहीं करोगे तो वो नहीं कहलाओगे। ये तो करना ही पड़ेगा का झंझट नहीं है। मन है करो, मन नहीं है मत करो।

रक्षाबंधन मनाइए। राखी बाँधिए, बँधवाइए। ऐसे चिरकुटों, अल्पज्ञानियों को इनके अज्ञानता में जीने दीजिए। इनको सही मत करिए, कहिए ‘एकदम सही कह रहे हो’। ये कहते ही उसके ईगो की तृप्ति हो जाएगी, जो कि उसका मुख्य उद्देश्य है। यही चाह होती है कि कोई कहे ‘वाह! क्या लिखा है, ये वाला एकदम नया एंगल है।’ इसी एंगल की तलाश में ऐसे आलेख लिखे और लिखवाए जाते हैं। बाद में आपको पता चलेगा कि वही लिखने वाली अपने भाई को राखी बाँध रही है, और लिखने वाला राखी बँधवाने के बाद बहन को गिफ़्ट देने के लिए दुकान छान रहा है।

ऐसा है कि ये लोग ऑफ़िस को ऑफ़िस में ही छोड़ देते हैं। एक्सेप्टेंस की मजबूरी है बेचारों की। ऐसे भी दक्षिणपंथियों को अब टाइप करना आ गया है और वो ऐसे-ऐसे शब्द टाइप कर रहे हैं कि ऐसे लिखने वाले हर साल कम होते जा रहे हैं। मैं तो आपको पूरा इतिहास ही पकड़ा रहा हूँ, इनके मुँह पर खींच-खींच कर मारिए।

Special coverage by OpIndia on Ram Mandir in Ayodhya

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

बंगाल के मेदिनीपुर में भाजपा कार्यकर्ता के बेटे की लाश लटकी हुई, TMC कार्यकर्ताओं-BJP प्रदेश अध्यक्ष के बीच तनातनी: मर चुकी है राज्य सरकार...

लोकसभा चुनाव के दूसरे चरण के मतदान के बीच बंगाल भाजपा ने आरोप लगाया है कि TMC के गुंडे चुनाव को प्रभावित कर रहे हैं।

नहीं होगा VVPAT पर्चियों का 100% मिलान, EVM से ही होगा चुनाव: सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की सारी याचिकाएँ, बैलट पेपर की माँग भी...

सुप्रीम कोर्ट ने वीवीपैट वेरिफिकेशन की माँग से जुड़ी सारी याचिकाएँ 26 अप्रैल को खारिज कर दीं। कोर्ट ने बैलट पेपर को लेकर की गई माँग वाली याचिका भी रद्द कीं।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -

हमसे जुड़ें

295,307FansLike
282,677FollowersFollow
417,000SubscribersSubscribe