Thursday, October 10, 2024
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क्यों दफ़्न किए गए दस्तावेज़? क्या सोनिया गाँधी का इतालवी परिवार बोफोर्स घोटाले में शामिल था?

राजीव गाँधी ने यह सुनिश्चित किया कि बोफोर्स के ख़िलाफ़ कोई कड़ा रुख नहीं लिया गया। क्या राजीव गाँधी को पहले से ही सोनिया गाँधी की भागीदारी का पता था? सोनिया गाँधी के दो बहनोइयों, वाल्टर विंची और वाल डे मोरो, का नाम क्यों सामने आ रहा है?

बोफोर्स घोटाला एक ऐसा मामला है जिसने लगभग 3 दशकों तक देश को उलझाए रखा। कई लीक हुई ख़बरों से इस बात का ख़ुलासा हुआ था कि यह शायद पहला अंतर-महाद्वीप रक्षा घोटाला था जो स्वतंत्र भारत में सामने आया था और राजीव गाँधी इसके बीच की सबसे अहम कड़ी थे। यह पहला घोटाला था, जिसने गाँधी-नेहरू राजवंशों को आम जनता की नज़रों से गिरा दिया था। आज के समय में उनके अन्य घोटाले जैसे नेशनल हेराल्ड, जिसमें सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी कथित रूप से शामिल हैं, रॉबर्ट वाड्रा के भूमि घोटाले या राहुल और प्रियंका गाँधी के स्वयं के संदिग्ध भूमि सौदे जिनके बारे में सच्चाई उजागर हो चुकी है।

जब 1980 के दशक में पहली बार यह घोटाला प्रकाशित हुआ था, तब कॉन्ग्रेस पार्टी ने बोफोर्स घोटाले को कोई मुद्दा ही नहीं माना था। हालाँकि, इस घोटाले पर से परदा उठता रहा और दस्तावेज़ो के ज़रिए सच्चाई सामने आती रही। अब तक, केवल राजीव गाँधी का ही नाम बोफोर्स घोटाले में लिया जाता था और सोनिया गाँधी का संबंध क्वात्रोची से था, जिसने इस घोटाले में बिचौलिए की भूमिका निभाई थी। बता दें कि क्वात्रोची, सोनिया गाँधी के क़रीबी दोस्त थे। इस सच को जानने के बाद सोनिया गाँधी और बोफोर्स घोटाले के बीच कनेक्शन होने का शक़ गहराता जा रहा है।

ऑपइंडिया ने इस तरफ अपना ध्यान केंद्रित किया और सबूतों को प्राप्त करने की दिशा में क़दम आगे बढ़ाए जिससे यह पता चल सके कि कहीं सोनिया गाँधी और उनका इटैलियन परिवार बोफोर्स घोटाले में शामिल तो नहीं था और फिर उनके नाम सार्वजनिक रूप से छिपा दिए गए हों। दस्तावेज़ रूपी साक्ष्य इस तथ्य की ओर भी इशारा करते हैं कि शायद, राजीव गाँधी और राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली भारत सरकार (GOI) को ख़ुद कथित तौर पर इस भागीदारी की जानकारी पहले से ही थी और सक्रिय रूप से इसे कवर (छिपाने) करने की कोशिश की गई।

दस्तावेज़ में सोनिया गाँधी के बहनोई के नाम का उल्लेख है

सितंबर 1987 में, भारत सरकार और बोफोर्स के कार्यकर्त्ता एक चर्चा के लिए मिले थे। अप्रैल 1987 में स्वीडिश रेडियो द्वारा यह आरोप लगाने के कुछ महीने बाद ही आरोप लगाया गया था कि कॉन्ग्रेसियों, भारत सरकार और स्वीडन को बड़े पैमाने पर रिश्वत अदा की गई थी। भारत सरकार और बोफोर्स प्रतिनिधियों के बीच हुई इस गुप्त बैठक का सारांश रिकॉर्ड ऑपइंडिया द्वारा एक्सेस किया गया है।

यह बैठक रक्षा मंत्रालय में 15, 16 और 18 सितंबर 1987 को हुई थी। GOI टीम में, तत्कालीन रक्षा सचिव एसके भटनागर, तत्कालीन कानून सचिव पीके करथा, प्रधानमंत्री के विशेष सचिव जीके अरोड़ा और रक्षा मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव एनएन वोहरा शामिल थे। GOI टीम को रक्षा मंत्रालय के ज्वॉइन सेक्रेटरी (ऑर्डनेंस) टीके बनर्जी ने सहायता प्रदान की। बोफोर्स प्रतिनिधिमंडल में Per Ove Morberg (बोफोर्स के अध्यक्ष) और Lars Gothlin (वरिष्ठ उपाध्यक्ष और मुख्य न्यायविद, नोबेल इंडस्ट्रीज) शामिल थे।

चर्चा स्वयं में आपसी छल, संभवतः ब्लैकमेलिंग और राज़ छिपाने की गाथा थी। दिलचस्प है, झूठ बोलने और यह सुनिश्चित करने की प्रक्रिया में कि कोई रिश्वत नहीं दी गई थी, बोफोर्स ने दो दिलचस्प नामों वाल्टर विंची और वैल डे मोरो का उल्लेख किया है।


इस बैठक के दौरान, बोफोर्स प्रतिनिधियों ने AE सर्विसेज सहित कई फर्मों को भुगतान करने से इनकार कर दिया, जिसमें क्वात्रोची जुड़ा हुआ था। यह बाद में यह दस्तावेज़ सीधे क्वात्रोची के पास गए। वे कई अन्य फर्मों को भुगतान करने से भी मना किया गया, जिन्हें बाद के चरण में पूरा करने का दावा किया गया। ये दावे भी झूठे साबित हुए और दस्तावेज़ो से पता चलता है कि भारत सरकार जानती थी कि झूठ को खत्म किया जा रहा है।

दस्तावेज़ में वाल्टर विंची और वैल डे मोरो के नामों के साइड में “a relation of PM” का उल्लेख है। जाहिर है, अगर विंची और मोरो को ‘पीएम का संबंधी’ कहा जा रहा है, तो इसका मतलब होगा कि वे सोनिया गाँधी से संबंधित थे।

कम से कम यह कहना तो बनता है कि सोनिया गाँधी का परिवार जो इटली से रहता है, वो किसी मायावी परिवार से कम नहीं है। सोनिया गाँधी के पिता और उनकी माँ के अलावा ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं है जिससे उनके परिवार के इतिहास का पता लग सके। सोनिया मैनो का जन्म 9 दिसंबर 1946 को इटली के वेनेटो में विसेंज़ा से लगभग 35 किलोमीटर दूर सिम्ब्रियन-भाषी गाँव लुसियाना में हुआ था। उनके पिता स्टेफानो कथित तौर पर बेनिटो मुसोलिनी और फासीवादी पार्टी के एक वफ़ादार समर्थक थे। सोनिया मेनो गाँधी की कथित तौर पर दो बहनें हैं जो अभी भी अपनी माँ के साथ ओरबासानो में रहती हैं।

सोनिया गाँधी को दो नामों के साथ जोड़ने में हमें एक लंबा समय लगा, भले ही यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि वाल्टर विंची और वाल डे मोरो तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी के पति के रिश्तेदार थे।

हमें 2004 के टाइम्स ऑफ़ इंडिया पर प्रकाशित एक लेख मिला जिसमें सोनिया गाँधी की भतीजी का नाम अरुणा विंची और उसकी बहन अलेसांद्रा के रूप में उल्लेखित है। यह लेख टाइम्स ऑफ़ इंडिया के इतालवी पत्रकार एस्टेले एरियल के साथ बातचीत पर आधारित था।

‘The Red Sari’ पुस्तक में सोनिया की बहनों के रूप में अनुष्का (यह बताया गया है कि उनका उपनाम अल्लसांद्रा था) और नादिया का उल्लेख किया गया है। इस प्रकार, यह निष्कर्ष निकलता है कि वाल्टर विंची अनुष्का के पति थे।

पुस्तक में, दूसरे नाम के लिए वैल डे मोरो का सच सामने आता है। रशीद किदवई, जो गाँधी के एक वफ़ादार पत्रकार हैं, ने ‘सोनिया’ नाम से सोनिया गाँधी की जीवनी लिखी है।

रशीद किदवई ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि 1984 और 1989 के बीच, सोनिया गाँधी (राजीव गाँधी की पत्नी), क्वात्रोची (बोफोर्स घोटाले में मुख्य बिचौलिया) और जेव वल्देमोरो अच्छे दोस्त थे। उन्होंने कहा कि सोनिया गाँधी के लिए सप्ताह का सबसे अच्छा दिन रविवार का दिन होता था, उस दिन “ये दोस्त” एक साथ मिलते थे। पुस्तक में इस बात का भी उल्लेख है कि वल्देमोरो की शादी सोनिया गाँधी की बहन नादिया से हुई थी और वह उस समय दिल्ली में कार्यरत थीं।


इस प्रकार यह स्थापित होता है कि बैठक के सारांश में जिन दो नामों का उल्लेख किया गया है, वाल्टर विंची और वैल डी मोरो सोनिया गाँधी के बहनोई थे।

GOI और बोफोर्स के बीच बैठक में इन नामों का उल्लेख क्यों किया गया?

सितंबर 1987 में हुई एक बैठक को लेकर वाल्टर विंची और वैल डी मोरो के नामों पर कई सवाल उठ खड़े होते हैं। बैठक के सारांश में मूल रूप से कहा गया है कि बोफोर्स ने दावा किया है कि बोफोर्स सौदे में रिश्वत के रूप में इन दोनों व्यक्तियों को कोई भुगतान नहीं किया गया था। ये दो नाम कई अन्य नामों में से एक हैं।

पूरे सारांश में बोफोर्स घोटाले को देखने के लिए गठित जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) को प्रासंगिक जानकारी नहीं देने के लिए भारत सरकार को घुमा-घुमाकर पेश किया गया। दूसरी तरफ, ऐसा लगता है कि भारत सरकार ने जेपीसी में आने वाली सूचनाओं को हटाकर अपने स्वयं के ट्रैक को कवर किया है।

दिलचस्प बात यह है कि इस बैठक के आयोजित होने से पहले, वाल्टर विंची और वैल डे मोरो का नाम बोफोर्स संदर्भ में कभी नहीं आया था। अभी तक, लीक किए गए दस्तावेज़ो के आधार पर पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यन द्वारा जाँच और रिपोर्ट पहले से ही प्रकाशित की जा रही थी। हालाँकि उनके पास वे सभी (350+) दस्तावेज़ नहीं थे, जिन्हें वह अंततः हासिल कर लेंगी। चित्रा के साथ मेरी बातचीत में, वह इस बात की पुष्टि करती हैं कि उन्होंने अब तक, किसी दस्तावेज़, रिपोर्ट या जानकारी में वाल्टर विंची और वैल डे मोरो का उल्लेख नहीं किया था। बाद में 1989-1990 तक सोनिया गाँधी के परिवार को सौदे से लाभ होने की अफ़वाहें सामने आईं और तब भी दस्तावेज़ी सबूत नहीं थे। चित्रा का कहना है कि अफवाहें शुरू होने के बाद उन्होंने एक बार अपने स्रोत, स्टेन लिंडस्ट्रॉम से इस बात की पुष्टि की जो स्वीडन में बोफोर्स मामले की जाँच कर रहा था, उससे पूछा कि क्या उसने इन दो नामों के बारे में सुना है। चित्रा के अनुसार, स्टेन लिंडस्ट्रॉम को भी इन दो नामोंं के बारे में कई जानकारी नहीं थी।

स्टेन लिंडस्ट्रॉम का कथन यह सिद्ध करता है कि गॉसिप के अलावा जो बहुत बाद में सामने आए उसमें सोनिया गाँधी के बहनोई के ख़िलाफ़ कोई आरोप नहीं थे।

ऐसा कहा जाता है कि इस संबंध में पूछे जाने वाले प्रश्न हमेशा ही संदेहास्पद रहते हैं। इस बैठक में, वाल्टर विंची और वैल डे मोरो के नाम बिना किसी सवाल के पूछे गए थे। जबकि सोनिया गाँधी के बहनोई का उल्लेख किया गया था जबकि क्वात्रोची का उल्लेख नहीं किया गया था।

यह एक आसान सवाल है: वाल्टर विंची और वाल डे मोरो के नामों का उल्लेख क्यों किया गया?

ब्लैकमेल किया गया

जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) के सामने बोफोर्स के प्रतिनिधि भारत में थे। जेपीसी सुनवाई से ठीक पहले बैठक के सारांश में, यह स्पष्ट था कि बोफोर्स जेपीसी से जानकारी गुप्त रखने के लिए बोफोर्स प्रतिनिधि भारत सरकार को घुमा रहे थे। बैठक के दौरान कई बार, गोपनीयता के खंड को दोहराया गया और बोफोर्स के प्रतिनिधि इस बात पर ज़ोर देते रहे कि वे जेपीसी के समक्ष नहीं रखना चाहेंगे क्योंकि फिर जानकारी गुप्त नहीं रह पाएगी। वरिष्ठ बोफोर्स प्रतिनिधिमंडल मूल रूप से, जेपीसी के समक्ष प्रदान की जाने वाली जानकारी के बारे में एक रास्ता खोजने के लिए बैठक कर रहा था। दस्तावेज़ों में बोफोर्स ने सीधे तौर पर राजीव गाँधी सरकार को “गुप्त” जानकारी रखने की धमकी दी थी।

बोफोर्स द्वारा अपनाई गई धमकी भरे लहज़े का सीधा परिणाम यह था कि भारत सरकार ने माना था कि कुछ जानकारी को ‘गुप्त’ रखने के लिए उन्हें वर्गीकृत किया जाएगा।


राजीव सरकार ने इस तरह बोफोर्स प्रतिनिधियों को मनाया कि कुछ सूचनाएँ जनता से गुप्त रखी जाएँगी, और अगर ज़रूरत पड़ी तो जेपीसी से भी उन सूचनाओं को गुप्त रखा जाएगा।

बोफोर्स प्रतिनिधि भी यह जानने का इच्छुक था कि जानकारियों को कैसे गुप्त रखा जाएगा।

इस बैठक में विश्वास का एक विशाल उल्लंघन भी स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया। राजीव गाँधी सरकार इंगित करती है कि जेपीसी के “संदर्भ की शर्तें” बोफोर्स प्रतिनिधियों को उपलब्ध कराई गई थीं।

अंशों और सामान्य रूप से बैठक के सारांश से यह स्पष्ट है कि बोफोर्स प्रतिनिधियों ने राजीव गाँधी के नेतृत्व में भारत सरकार को ब्लैकमेल करने के लिए हर चाल संभल कर चली। यह ब्लैकमेलिंग एक ऐसे पड़ाव तक जा पहुँची, जहाँ भारत सरकार ने जनता से जानकारियों को गुप्त रखने की बात भी स्वीकार ली।

किसी भी ब्लैकमेल का आधार यह है कि ब्लैकमेलर के पास मोलभाव करने वाली चिप होनी चाहिए। जानकारी का एक टुकड़ा इतना महत्वपूर्ण हो जाता है कि व्यक्ति या संस्थान को ब्लैकमेलर की इच्छाओं के अनुरूप बड़ी सरलता से बाँधा-घुमाया और ब्लैकमेल किया जा सकता है।

राजीव गाँधी की भूमिका और अन्य सरकारी अधिकारियों की भूमिका लंबे समय से स्थापित है। आश्चर्य इस बात पर होता है कि इस साज़िश के सौदे में सिर्फ़ राजीव गाँधी की व्यक्तिगत भागीदारी ही नहीं बल्कि सोनिया गाँधी के इतालवी परिवार की भी भागीदारी थी, जो अब तक आँखों से दूर थी।

क्या राजीव गाँधी को पता था?

सितंबर 1989 की एक कवर स्टोरी में, इंडिया टुडे ने एक चौंकाने वाला ख़ुलासा किया। इस कहानी में उल्लेख किया गया था कि सेना पूरी तरह से बोफोर्स सौदे को रद्द करने के पक्ष में थी। सेना का विचार था कि बोफोर्स को असली दोषियों के नाम और सौदे में रिश्वत प्राप्त करने वालों के नामों का खुलासा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है। जनरल सुंदरजी ने इंडिया टुडे को बताया था कि रक्षा मंत्रालय ने उनसे इस सौदे को रद्द करने में शामिल जोखिमों के बारे में पूछा था, जिसके बारे में जनरल सुंदरजी ने कहा था कि जोखिम सेना को स्वीकार्य थे। वास्तव में, उन्होंने यह भी सिफ़ारिश की थी कि सौदा रद्द कर दिया गया है, इसलिए नहीं कि उन्होंने होवित्जर की गुणवत्ता पर संदेह किया, बल्कि इसलिए कि उन्होंने यह भी माना कि वित्तीय दबाव बोफोर्स को असली दोषियों को प्रकट करने के लिए मजबूर करेगा। अरुण सिंह भी इस योजना के पक्ष में थे।

हालाँकि, राजीव गाँधी ने कथित तौर पर 4 जुलाई 1987 को एक बैठक बुलाई और रक्षा मंत्रालय को सूचित किया कि कड़े रुख वाली रणनीति को लागू करें क्योंकि वे अपनी हदों को पार कर रहे थे। इसके तुरंत बाद, अरुण सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया। इंडिया टुडे ने उस समय के राजीव गाँधी का वर्णन “विक्षिप्त व्यक्ति” के रूप में किया था। कथित तौर पर, राजीव गाँधी ने अपनी सरकार को बोफोर्स के लिए मजबूर करने से रोकने के लिए रिश्वत के असली दोषियों के नाम का खुलासा किया था। उन्होंने पहले ही (11 जून को) एक जेपीसी के गठन की अनुमति दी थी, और अब यह जेपीसी का काम है कि वो किस निष्कर्ष के साथ सामने आती है।

किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि राजीव गाँधी यह सुनिश्चित करने के लिए क्यों उत्सुक थे कि बोफोर्स असली नाम उजागर नहीं करेगा। यदि सौदा रद्द कर दिया गया था और वित्तीय दबाव तब बोफोर्स द्वारा महसूस किया गया था, जैसा कि जनरल सुंदरजी द्वारा सुझाया गया था, असली दोषियों के नाम सामने आ सकते हैं। सितंबर 1987 में आयोजित बैठक में वाल्टर विंची और वैल डी मोरो के नामों को आधिकारिक तौर पर लिया गया था, राजीव गाँधी ने यह सुनिश्चित किया कि बोफोर्स के ख़िलाफ़ कोई “हार्ड लाइन” नहीं ली गई। निश्चित रूप से, वैध रूप से पूछ सकते हैं कि राजीव गाँधी किसकी रक्षा करना चाह रहे थे। क्या राजीव गाँधी को पहले से ही सोनिया गाँधी की भागीदारी का पता था? और उसके और वो उनके इतालवी परिवार की रक्षा करने की कोशिश कर रहे थे।

जैसा कि पहले बताया गया था, GOI अधिकारियों और बोफोर्स के प्रतिनिधिमंडल के बीच हुई बैठक न तो यह सुनिश्चित करने के लिए आपसी हाथ-जोड़-तोड़ की रणनीति थी कि न तो GOI और न ही बोफोर्स के अधिकारियों ने रिश्वत के संदर्भ में जेपीसी के आगे अपना मुँह खोला और न ही कोई विवरण प्रकट किया। सरकार द्वारा या बोफोर्स द्वारा जेपीसी के लिए कोई वास्तविक जानकारी सामने नहीं आई। सच तो यह है कि मिली-भगत रूप से जानकारियों को छिपाने की कोशिश की जा रही थी।

उदाहरण के लिए, बोफोर्स प्रतिनिधियों के जेपीसी से मिलने से ठीक पहले हुई बैठक में वाल्टर विंची और वैल डे मोरो के नाम लिए गए थे। जेपीसी में ही, जब दोनों प्रतिनिधियों से पूछताछ की जा रही थी, तो वे नाम एक बार भी सामने नहीं आए। जेपीसी ने कभी भी बोफोर्स के प्रतिनिधियों या रक्षा सचिव से नहीं पूछा कि सरकार का प्रतिनिधित्व क्यों करते हैं, ये दोनों नाम बैठक के दौरान क्यों सामने आए थे।

क्वात्रोची और सोनिया गाँधी घनिष्ठ मित्र थे, ऐसे में यह कल्पना करना वास्तव में बहुत कठिन है कि राजीव गाँधी ख़ुद अपनी पत्नी की भागीदारी के बारे में नहीं जानते थे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति और बोफोर्स के प्रतिनिधियों के बीच हुई इस बैठक से बहुत पहले पूर्व राष्ट्रपति अर्दो की डायरी में कहा गया था कि इस सौदे में क्वात्रोची की अहम भूमिका थी।

भारत सरकार ने क्वात्रोची के ख़िलाफ़ शुरुआत से ही जाँच को नाकाम कर दिया था। 1999 में, केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) ने चार्जशीट में बोफोर्स घूस के लिए एक आरोप-पत्र नामित किया। उसके ख़िलाफ़ मामला जून 2003 में मज़बूत हुआ था जब इंटरपोल ने क्वात्रोची और उसकी पत्नी मारिया द्वारा बीएसआई एजी बैंक, लंदन के साथ दो बैंक खातों का खुलासा किया, जिसमें यूरो 3 मिलियन और $ 1 मिलियन थे। जनवरी 2006 में, इन फ्रीज़ हुए बैंक खातों को अप्रत्याशित रूप से भारत के क़ानून मंत्रालय द्वारा जारी किया गया था, जाहिर तौर पर सीबीआई की सहमति के बिना जिन्होंने उन्हें फ्रीज करने के लिए कहा था।

6 फरवरी 2007 को इंटरपोल के वारंट के आधार पर क्वात्रोची को अर्जेंटीना में हिरासत में लिया गया था। भारतीय जाँच एजेंसी CBI ने अपने प्रत्यर्पण के लिए आधा-अधूरा प्रयास करने के लिए हमला किया और भारत जून 2007 में अपने प्रत्यर्पण के लिए मुकदमा हार गया। इस मामले में न्यायाधीश ने टिप्पणी की थी कि “भारत ने उचित क़ानूनी दस्तावेज़ भी पेश नहीं किए”। नतीजतन, भारत को क्वात्रोची के क़ानूनी खर्चों का भुगतान करने के लिए कहा गया। 2009 में, इंटरपोल ने कॉन्ग्रेस सरकार के तहत CBI के इशारे पर क्वात्रोची के ख़िलाफ़ रेड कॉर्नर नोटिस भी हटा दिया गया।

वास्तव में, मनमोहन सिंह द्वारा क्वात्रोची के ख़िलाफ़ जाँच छोड़ने का कारण यह था कि ‘किसी व्यक्ति को परेशान करना अच्छा नहीं जब दुनिया को लगता हो कि हमारे पास उसके ख़िलाफ़ कोई ठोस दस्तावेज़ नहीं हैं’। 13 अगस्त, 1999 को, सोनिया गाँधी ने भी अपनी पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस में क्वात्रोची के लिए बात की और कहा, “सीबीआई ने मुझे संदिग्ध पाया है। लेकिन हमने आज तक नहीं देखा कि उसने कुछ किया है।”

यहाँ उल्लेख किया जाना चाहिए कि 2005 में, एक आयकर न्यायाधिकरण पीठ ने फैसला सुनाया कि भारत में बोफोर्स एजेंट क्वात्रोची और विन चड्ढा को रिश्वत में 410 मिलियन रुपए का भुगतान किया गया था।

पूरे कॉन्ग्रेसी तंत्र ने लंबे समय से बोफोर्स घोटाले में किसी भी तरह के दोष के लिए सिर्फ़ राजीव गाँधी को ढाल बनाने की कोशिश की है। राजीव गाँधी ने बोफोर्स को स्पष्ट रूप से कहा था कि किसी भी बिचौलिए को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा। यह ठीक उसी तर्क की पंक्ति है जो जेपीसी रिपोर्ट में भी की गई थी। रक्षा सचिव एसके भटनागर ने कहा था कि राजीव गाँधी ने बोफोर्स और स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलाफ पाल्मे को भी बताया था कि किसी भी बिचौलिए को गंभीरता से नहीं लिया जाएगा।

घटनाओं का यह पूरा क्रम एक महत्वपूर्ण प्रश्न को जन्म देता है: इस घोटाले में क्वात्रोची एक अहम भूमिका में था और यह भी साबित हो गया कि उसे बड़े पैमाने पर रिश्वत का भुगतान किया गया था। जबकि घटनाओं के इस पूरे क्रम में, अफ़वाहें 1990 के दशक में बहुत बाद में सामने आईं थीं कि वाल्टर विंची और वैल डी मोरो बोफोर्स घोटाले के बाद बड़े पैमाने पर अमीर हो गए थे, दोनों के तार सीधे तौर पर घोटाले से जुड़े थे। वास्तव में, जैसा कि समझाया गया है, GOI और बोफोर्स प्रतिनिधियों के बीच बैठक में नामों को लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई गई। राजीव गाँधी के साथ-साथ सोनिया गाँधी को भी जाँच से बचाने की कोशिश की गई। राजीव गाँधी को विवरण रखने के लिए बोफोर्स द्वारा ब्लैकमेल किया जा रहा था। इस पर भी सवाल उठता है कि क्या क्वात्रोची, वाल्टर विंची और वैल डे मोरो को पैसा दिलवाने का एक ज़रिया था और बोफोर्स घोटाले में सोनिया गाँधी के शामिल होने की असली सीमा क्या है?

‘रिंगबर्ग बहुत सारे सवाल पूछ रहा है’

स्टॉकहोम के मुख्य ज़िला अभियोजक लार्स रिंगबर्ग ने अगस्त 1987 में बोफोर्स घोटाले की एक स्वतंत्र जाँच शुरू की। बाद में, उन्होंने जाँच को छोड़ दिया क्योंकि न तो भारत सरकार और न ही स्वीडिश सरकार सहयोग कर रही थी। ऑपइंडिया ने बोफोर्स चीफ़ मार्टिन आर्डबो द्वारा एक हस्तलिखित नोट एक्सेस किया जिसमें कहा गया था कि “रिंगबर्ग बहुत सारे सवाल पूछ रहा है” और “अगर पुलिस को पता चल जाए तो क्या करना है”।

यह स्पष्ट है कि आर्डबो पुलिस को “कुछ पता लगने” से चिंतित था और उसी डायरी प्रविष्टि में, उसने यह भी कहा है कि “रिंगबर्ग बहुत सारे सवाल पूछ रहा है”। यह, निश्चित रूप से, इस सवाल का जवाब देता है कि अर्डबो रिंगबर्ग से सवाल पूछे जाने से क्यों इतना डरता था। जबकि रिंगबर्ग को भारत और स्वीडन के सहयोग की कमी और स्वीडिश पीएम ओलोफ पाल्मे और राजीव गाँधी के आपसी संबंध के कारण अपनी स्वतंत्र जाँच छोड़नी पड़ी, तब सोचने वाली बात यह है कि क्या जाँचकर्ता विपरीत परिस्थितियों में काम कर रहे थे जबकि दोनों सरकारों ने न केवल पैसा कमाया, बल्कि भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की पत्नी का परिवार भी इसमें शामिल था।

स्टीन लिंडस्ट्रॉम के साथ रिपब्लिक टीवी के विशेष साक्षात्कार में, उन्होंने ख़ुलासा किया था कि 1986 की शुरुआत में, राजीव गाँधी ने स्वीडिश प्रधानमंत्री ओलाफ पाल्मे के साथ उड़ान भरी थी जहाँ उन्होंने विशेष रूप से रिश्वत के बारे में बात की थी। लिंडस्ट्रॉम ने कहा कि आर्डबो ने अपने अंतिम दिनों में लिंडस्ट्रॉम को बताया था कि वह उस बातचीत में शामिल थे और राजीव ने विशेष रूप से पाल्मे को एक ट्रस्ट को पैसे हस्तांतरित करने के लिए कहा था जो विशेष रूप से इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए बनाया गया था। इस प्रकार, उन्होंने ख़ुलासा किया था कि रिश्वत को लेकर शीर्ष स्तर पर चर्चा की गई थी।

यह तथ्य कि राजीव गाँधी सीधे तौर पर रिश्वत की बातचीत में शामिल थे, वहीं ऑपइंडिया के नए ख़ुलासे के साथ, ऐसा लगता है कि सोनिया गाँधी का इटैलियन परिवार भी इसमें शामिल था। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि रिंगबर्ग द्वारा गवाही देने पर भी यह मामला आगे नहीं बढ़ सका।

लिंडस्ट्रॉम ने 1998 में आउटलुक को दिए एक साक्षात्कार में उल्लेख किया था कि सोनिया गाँधी घोटाले की अनदेखी नहीं कर सकती हैं।

गाँधी परिवार की भागीदारी के बारे में एक सवाल के लिए, उन्होंने कहा था:

अधिक विवरण उपलब्ध होने तक, यह कहना मुश्किल है। लेकिन गाँधी परिवार, विशेष रूप से अब सोनिया को यह बताना चाहिए कि क्वात्रोची के स्वामित्व वाली कंपनियों को बोफोर्स सौदे से भुगतान के रूप में इतनी मोटी रकम कैसे मिली। आखिर क्वात्रोची से सोनिया और गाँधी परिवार का क्या संबंध है? किसने क्वात्रोची और उनके AE सर्विसेज को बोफोर्स में पेश किया? कम से कम एक बात निश्चित रूप से अब ज्ञात है कि अदायगी का एक हिस्सा निश्चित रूप से क्वात्रोची के पास भी गया था। अब यह क़ानूनी स्थिति है और क्या सरकारों को दिलचस्पी दिखानी चाहिए, अब एक औपचारिक मामला तो दर्ज किया ही जा सकता है।

एक और सवाल जो पूछा गया था, “आपके पास किस तरह के दस्तावेज़ हैं? और क्या वे अदायगी करने वालों पर कोई प्रकाश डालते हैं? ”

उन्होंने कहा था:

कुछ परिस्थितिजन्य साक्ष्य हैं। यह एक लंबी कहानी है। मैं इसे जल्दबाज़ी में नहीं समझा सकता। मैं सिर्फ़ इतना कह सकता हूँ कि सभी दस्तावेज़ गाँधी परिवार की ओर इशारा करते हैं। सच्चाई से रूबरू होने का एक अच्छा तरीका यह है कि सोनिया अपने पत्ते टेबल पर रख दें। मगर वो ऐसा करें ये मुश्किल बात लगती है।

जब ऑपइंडिया टीम बोफोर्स इंडिया सौदे की प्रमुख जाँचकर्ता चित्रा सुब्रमण्यम के पास पहुँची, और उनसे पूछा कि जाँच कभी भी अपने तार्किक निष्कर्ष तक नहीं पहुँच सकती है और भारत और स्वीडन के बीच संयुक्त जाँच क्यों नहीं हुई, इस पर उन्होंने कहा:

अंतर्राष्ट्रीय जाँच के मामलों में दस्तावेज़ों का आदान-प्रदान करने वाले देशों के लिए, सवाल पूछने वाले देश (इस मामले में भारत) के पास देश की अदालत में केस दर्ज होना चाहिए जिसके आधार पर जानकारी प्रदान करने वाला देश (इस मामले में स्वीडन) सहायता कर सकता है। यह कहना भारत के लिए निराशाजनक है कि स्वीडन ने सहयोग नहीं किया और उनके साथ दस्तावेज़ो को भी साझा नहीं किया, जिसमें SNAB रिपोर्ट भी शामिल थी। वह कौन-सा आधार था जिसके तहत उस समय इस तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान होना चाहिए था, भारत में ऐसा कोई मामला नहीं था।

यह घोटाला भारत की सरकार के साथ 410 क्षेत्र हॉवित्जर तोपों की बिक्री के लिए स्वीडिश हथियार निर्माता बोफोर्स के बीच 1.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर के सौदे में अदा की गई अवैध रिश्वत से संबंधित है जोकि कॉन्ट्रेक्ट की राशि का लगभग दोगुना थी। यह स्वीडन में अब तक का सबसे बड़ा हथियार सौदा था, और विकास परियोजनाओं के लिए चिह्नित धन को किसी भी क़ीमत पर इस अनुबंध को सुरक्षित करने के लिए मोड़ दिया गया था। जाँच में नियमों के उल्लंघन और संस्थानों को दरकिनार करने की बात सामने आई। 24 मार्च 1986 को भारत सरकार और बोफोर्स के बीच इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। 16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो ने ख़ुलासा किया कि इस सौदे के लिए भारत सरकार और स्वीडन के पदाधिकारियों को बड़े पैमाने पर रिश्वत का भुगतान किया गया था। और इस प्रकार, स्वीडिश पुलिस अधिकारी और बोफोर्स सौदे के मुख्य अन्वेषक स्टेन लिंडस्ट्रॉम के ज़रिए इस घोटाले की परतें खुलती चली गई। स्टेन लिंडस्ट्रॉम ने सुब्रमण्यम को स्वीडन, स्विट्जरलैंड और भारत में रिश्वत और इस घोटाले को कवर-अप करने से संबंधित 350 दस्तावेज़ सौंपे।

चित्रा ने कहा:

अब तक, कोई भी भारतीय जाँच एजेंसी आधिकारिक तौर पर स्टेन लिंडस्ट्रॉम के संपर्क में नहीं है।

बहु-आयामी बोफोर्स घोटाला 3 दशक पुराना है और अब लगता है कि अपनी अंतिम यात्रा पर है। लेकिन तीन दशकों के बाद भी, नई जानकारी अब सामने आती रहती है और फिर हमें उस व्यापक विश्वासघात की एक झलक देखने को मिलती है। यह केवल वित्तीय रूप से अक्षमता से ही संबंधित नहीं था बल्कि इसमें दो राष्ट्रों और कई स्वतंत्र जाँचकर्ताओं और पत्रकारों को दोषी ठहराया गया था। अब इस सबूत के साथ कि सोनिया गाँधी का इतालवी परिवार घोटाले में भूमिका निभा सकता था, इस नए सवाल ने अतीत के सवालों को पीछे छोड़ दिया है। यह एक ऐसा घोटाला है जो कई सवालों के साथ जनता के समक्ष है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि इसका परिणाम आज भी मानों कहीं दफ़न हो। उम्मीद है कि अगर इस मामले की निष्पक्ष जाँच हो तभी शायद देश की जनता सच जान सकेगी।

यह मूल खबर OpIndia English की एडिटर नुपुर जे शर्मा की है, जिसका अनुवाद प्रीति कमल ने किया है।

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