Tuesday, March 19, 2024
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छगनलाल के बाथरूम में ही नहाने पर अड़ी नवयुवती, कहा, ‘पितृसत्ता का नाश हो, सबरीमाला में भी जाएँगे, और यहीं नहाएँगे’

युवती खीझ गई, "जब आप मेरे साथ चाय पी सकते हैं, तो मैं आपके बाथरूम में आपकी उपस्थिति में क्यों नहीं आ सकती। हमें भारत के किसी भी कोने मे प्रवेश करने का संवैधानिक अधिकार है, आप का स्नानागार भी भारत का हिस्सा है। आप अपना शर्मनाक तौलिया पहन कर महिला सशक्तिकरण के मार्ग मे खड़े हैं। आपको लज्जा आनी चाहिए।"

छगनलाल नहाने ही घुसे थे कि पड़ोस की युवती ने दरवाजा भड़भड़ाया। छगनलाल गिड़गिड़ाए, “देविजी, हम स्नान कर रहे हैं, आप भीतर नहीं आ सकती।”
देवीजी नाराज़ हुई, “हमारे घर का गीज़र ख़राब है, हम यहाँ क्यों नही नहा सकते?”
छगनलाल बस यही कह पाए, “क्योंकि हम नहा रहे है, अप्रस्तुतीय अवस्था मे है?”

युवती चीख़ी, “द्वार खोलिए, अन्यथा तोड़ना पड़ेगा। डाऊन विद पेट्रियारकी। हम इस पितृसत्तात्मक मनुवादी व्यवस्था की निंदा करते हैं। हमें जल्दी है, आप अपना मग्गा ले कर कोने मे बैठ जाएँ। जब एक महिला अंतरिक्ष में जा सकती है, एवरेस्ट पर जा सकती है तो आपके स्नानागार में क्यों नहीं आ सकती है।”

छगनलाल बोले, “देखिये आप फेमनिष्ठ महिला है, आई मीन फेमिनिस्ट महिला हैं। आपको समझना चाहिए प्रश्न आपके लिंग का नहीं है, मेरे इस स्नानागार पर स्वामित्व का भी नहीं है, प्रश्न मेरी अवस्था का है। मैं उस अवस्था में नहीं हूँ कि महिला के सम्मुख प्रस्तुत हों।”

देवीजी और उत्तेजित हुईं, बोली, “देखो छगनलाल, तुम क्या स्वामी अयप्पा से भी बड़े हो। वे तो अवतरित हुए थे, तुम तो सिर्फ टपके हो। वे वन से शेर पर सवार हो कर लौटे थे, तुम्हारे तो किचन में बिल्ली घुस आये तो तुम उसके दूध पी के लौट जाने तक लौट जाने तक वहाँ तक नहीं घुसते। वहाँ भी हमें उनकी ब्रह्मचारी अवस्था का तर्क दे कर रोका जा रहा था। हमने उनको नहीं छोड़ा तो तुम क्या वस्तु हो, ब्लडी होमो सेपियन्स।”

छगनलाल गिड़गिड़ाए, “परन्तु महिला जज ने तो इसके विरोध में निर्णय दिया था।”

युवती का क्रोध चरम पर था, “महिलाओं को भला क्या पता इस सब महिला सम्बन्धी विषयों पर। वोक समझते हो, वोक? वही वो महान पुरुष हैं जो महिलाओं का दृष्टिकोण समझते हैं।”

छगनलाल ने यह शब्द पहली बार सुना था, बोले, “देवी, यह वोक क्या होता है।”

देवीजी ने हताश हृदय माथे पे हाथ मारा और बोलीं, “हे मूढ़ छगनलाल, वोक मानव वह होता है जो परिष्कृत भाषा में महिला मुक्ति सम्बन्धी नारे लगा सके, उनके साथ लम्बा कुरता धारण कर के प्रदर्शन में जा सके, सिगरेट के धुएँ में स्वयं को खो कर प्रदूषण पर चिंता कर सके, मानव संरचना के सम्बन्ध में चित्र भेज कर षोडशी कन्यायों को जीव-विज्ञान का ज्ञान दे सके और पकड़े जाने पर अपनी प्रखर पंडिता महिला मित्र के समक्ष बहुत क्षमा माँग कर उसका आशीर्वाद प्राप्त करें और पुनः वोकावस्था प्राप्त कर सके। तुम्हारे जैसे, सब कन्याओं को दीदी कहने वाले, जोंक इस वोक महात्मय को न जान सकेंगे। आप समय नष्ट न करें, धृष्ट पुरुष, और द्वार खोलें।” 

“आज सुना है कन्फ़ेशन के बहाने महिलाओं का शोषण करने वाले पादरियों के विरोध मे प्रदर्शन है। वहाँ तो नहीं जाना है?” छगनलाल ने डरते डरते पूछा।

देवीजी बोलीं -“वो सब मधु किश्वर जी जैसी बहन जी लोगों का शग़ल है। वो सब शेफाली वैद्य जैसी संघी महिलाओं का काम है। कोई भविष्य नहीं है उसमें। ऐसे बिना स्कोप के शगल पालने से बेहतर मैं इंजीनियरिंग न कर लेती।जहाँ कैमरा न हो, जिस विषय पर लेखन का सम्पादकीय बनने की कोई संभावना न हो, उस दिशा में हम नहीं जाते। चर्च के भीतर शारीरिक उत्पीड़न पर प्रश्न उठाना धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध है। आप चर्च के भीतर की महिलाओं की बात करते हैं, हम तो पत्रकारिता के क्षेत्र में भी उन महिलाओं के चक्कर में नहीं पड़ते जो अपनी साइड की न हो, चाहे वो लतियाई जाएँ या धकियाई जाएँ, कि पत्रकारों के प्रति हमारे स्नेह सर्वविदित है। जब वोक व्यक्ति परिस्थितिवश ऐसे कार्य करता है तो उसे व्यक्तिगत दोष नहीं सामाजिक पतन माना जाता है जिसके सम्मुख मनुष्य असहाय है। बड़े लेखक इसे स्वीट डिकेडेन्स कहते हैं। हमारी संवेदना आप संघियों की भाँति दिशाहीन नहीं है, एवं हमारी कृपा का प्रसाद पात्रता के अनुसार पड़ता है।”

छगनलाल फिर गिड़गिड़ाए, “देवी जी, आप मेरे स्नानागार को चर्च मान कर कुछ समय छोड़ दें।  या इसे किसी प्राचीन बाबा की दरगाह मान लें। मेरा स्नान समाप्त होते ही आप इसे पुनः हिन्दू पूजनस्थल मान कर पददलित करने को स्वतंत्र होंगी। दस मिनट की बात है। “

युवती खीझ गई, “आप सवाल जवाब करते रहेंगे? धर्मनिरपेक्षता की आड़ में आप अपने आतंकवादी हिंदुत्व की रक्षा का प्रयास न करें। आप अधिक सबरीमाला बनने के प्रयास न करें, अन्यथा हमारे कम्युनिस्ट कोप से आपकी रक्षा कोई न कर सकेगा। कोई हमारे अतिक्रमण को पार्किंग विवाद बताएगा, कोई इस पर महिला सशक्तिकरण के गीत लिखेगा और आप अपनी नग्नावस्था पर लज्जित वस्त्रहीन खड़े रह जाएँगे। जब आप मेरे पड़ोसी हैं, आप मेरे साथ ड्राइंग रूम में चाय पी सकते हैं, तो मैं आपके बाथरूम में आपकी उपस्थिति में क्यों नहीं आ सकती। अवस्था भले ही भिन्न हो, आप हैं तो दोनों जगह ही छगनलाल। हम अंदर आ रहे है, आपकी अवस्था से आपका मतलब। हमें भारत के किसी भी कोने मे प्रवेश करने का संवैधानिक अधिकार है, आप का स्नानागार भी भारत का हिस्सा है। आप अपना शर्मनाक तौलिया पहन कर महिला सशक्तिकरण के मार्ग मे खड़े हैं। आपको लज्जा आनी चाहिए।”

छगनलाल जिज्ञासु बालक थे और यह भी सोच रहे थे कि संभवतः यह द्वार के आर-पार शास्त्रार्थ उनके सतीत्व की रक्षा कर सके। सो उन्होंने आगे, देवीजी को व्यस्त रखने के लिए एक और प्रश्न दागा – “परन्तु सबरीमाला में महिला के प्रवेश पर तो प्रतिबन्ध नहीं है, सो वह महिला मुद्दा कैसे हो गया। वैसे भी पांच वीरांगनाओं में से एक बची हैं जो अपनी प्रवेश की ज़िद पर बनी हुई है और वे भी दिल्ली की है। आप तो कल कह रही थी कि रजस्वला स्त्री राष्ट्रगान के लिए खड़े होने में असमर्थ होती है, तो ऐसा दुर्गम मार्ग यूँ भी कैसी चढ़ सकेगी? और जहाँ तक विज्ञान की बात है, आप खुले विचारों के तर्क पर तमाम बंद आस्थाओं का साथ देती है। विज्ञान तो वहाँ भी कहाँ होता है?”

देवीजी अब अपनी हताशा की अंतिम सीमा पर थी, “देखिये, अब हम आपकी अधिक शंकाओं का समाधान नहीं कर सकते। जहाँ तक दुर्गम मार्ग का प्रश्न है, तो हमारी अगली माँग सबरीमाला को समुद्रतट पर बियर बार के निकट लाना है। हम सब वोक पुरुषों के प्रति इस हिंदूवादी भेदभाव का विरोध करेंगे। क्यों एक शराबी व्यक्ति मदिरापान करते हुए भगवान् का दर्शन नहीं कर सकता? क्या एक पियक्कड़ व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है? आपको कैसे पता है कि भगवन पियक्कड़ों को दर्शन नहीं देना चाहते।  यह सब हमारे अगले वर्ष के प्रदर्शन केलिन्डर में है। अभी तो यह अंगड़ाई है, आगे बहुत लड़ाई है। अब बिना कुछ बोले बाहर आएँ, वरना आपकी शंका का समाधान तो नहीं होगा, हम धरना दे कर बैठ गए तो आपकी लघु-दीर्घ सब शंकाएँ भारतीय रेलवे के सौजन्य से ही होंगी।”

छगनलाल ने डरते डरते पूछा- “किंतु आपको जाना कहाँ है?” 

“हमारी पुरानी फ्रेंड की नई पप्पी का नेलपालिश सेरेमनी है। अब आप हमें रूढ़िवादी पुरूषों की भाँति जज मत करने लगिए।” 

यह सुनते ही छगनलाल एक आम भारतीय हिंदू की भाँति, कोने में तौलिया लपेटे अपनी बची-खुची लज्जा को लपेट कर, शर्मिंदा से खड़े हो गए।

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Saket Suryesh
Saket Suryeshhttp://www.saketsuryesh.net
A technology worker, writer and poet, and a concerned Indian. Writer, Columnist, Satirist. Published Author of Collection of Hindi Short-stories 'Ek Swar, Sahasra Pratidhwaniyaan' and English translation of Autobiography of Noted Freedom Fighter, Ram Prasad Bismil, The Revolutionary. Interested in Current Affairs, Politics and History of Bharat.

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