Friday, March 29, 2024
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औरंगजेब मर गया पर उस राठौड़ से जीत न पाया, इस्लामी सरदार देते थे टैक्स: मारवाड़ की वह अभेद्य दीवार जिससे टकरा मुगल हुए पस्त

1707 में औरंगजेब की मौत होते ही दुर्गादास राठौड़ ने धावा बोल कर जोधपुर को मुगलों के प्रभाव से मुक्त कराया और वहाँ से इस्लामी शासकों की फ़ौज को खदेड़ा। जो वहाँ रह गए, उन्हें दुर्गादास राठौड़ को 'चौथ' देने के लिए मजबूर होना पड़ा।

भारत भूमि में हमेशा से वीरों की कमी नहीं रही है। बात मेवाड़-मारवाड़ की करें तो राजपूतों की बहादुरी के किस्से पूरे राजस्थान की आन-बान-शान हैं। इन्हीं वीरों में से दुर्गादास राठौड़ भी थे, जिन्होंने औरंगजेब की नाक में दम दिया। उन्होंने न सिर्फ मुगलों को कई बार धूल चटाई, बल्कि मेवाड़ और मारवाड़ में संधि करवा कर हिंदू एकता पर भी बल दिया। वो मारवाड़ के सेनापति थे। वहाँ के राजा अजीत सिंह के संरक्षण का जिम्मा भी उन्होंने ही उठाया था।

दुर्गादास राठौड़ का जन्म 16 अगस्त, 1638 को हुआ था। जबकि, सन् 1718 में 22 नवंबर को उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे उन्होंने अपने त्यागे। अपने अंतिम समय में वो मध्य प्रदेश में भगवान महाकाल की धरती पर निकल गए थे। उन्होंने अपने राजा जसवंत सिंह से एक वादा किया था, जिसे निभाने के बाद उन्होंने अंत समय में निश्चिंत होकर ईश्वर की शरण ली। 1988 में उनके सम्मान में भारत सरकार ने स्टांप जारी किए।

वहीं अगस्त 2003 में उनके सम्मान में सिक्के भी जारी किए गए थे। जब दुर्गादास राठौड़ का जन्म हुआ, उस समय दिल्ली की मुग़ल सल्तनत का बादशाह शाहजहाँ था। राठौड़ वंश के करणौत कुल में जन्मे दुर्गादास राठौड़ के पिता का नाम आसकरण थम जो जोधपुर के तत्कालीन महाराज जसवंत सिंह के करीबी थे। जब महाराज की मृत्यु हुई, उस समय उनकी गर्भवती पत्नी पेशावर में थीं। वहाँ से वो दिल्ली के लिए निकलीं, लेकिन रास्ते में ही उन्हें प्रसव पीड़ा होने लगी।

फिर उनके एक पुत्र का जन्म हुआ, जो जोधपुर के साम्राज्य का उत्तराधिकारी भी बना। महाराज की मृत्यु के बाद उस शिशु की रक्षा की जिम्मेदारी दुर्गादास राठौड़ ने उठाई। उस बालक का नाम अजीत सिंह था। उस समय औरंगजेब उक्त शिशु को अपने संरक्षण में रखना चाहता था, जबकि मारवाड़ पर उसका संपूर्ण कब्ज़ा हो जाए। हालाँकि, राजपूत सरदारों को ये कतई गँवारा न था। औरंगजेब के एक बेटे का नाम मुहम्मद अकबर था, जिसे दुर्गादास राठौड़ ने अपना करीबी बनाया।

ये दुर्गादास राठौड़ की कुशल कूटनीति ही थी कि अकबर ने अपने अब्बा के खिलाफ बगावत कर दिया। हालाँकि, बल और बुद्धि में कुशल न होने के कारण उसकी ये बगावत सफल न हो पाई। इसके बाद दुर्गादास राठौड़ ने उसे मराठा साम्राज्य के तत्कालीन अधिपति छत्रपति संभाजी महाराज के संरक्षण में पहुँचाया। शहजादा अकबर के पुत्र और पुत्री को उसके पीछे पालन-पोषण कर के दुर्गादास राठौड़ ने मित्र-धर्म भी निभाया।

जब वो बच्चे बड़े हो गए तो उन्हें औरंगजेब को सौंप दिया गया। औरंगजेब के विरुद्ध इस तरह का साहस उस समय बड़ी बात थी। शुरू में तो जसवंत सिंह और औरंगजेब के संबंध भी अच्छे थे। लेकिन, औरंगजेब के भाई दारा शिकोह और शुजा को जसवंत सिंह ने बगावत के वक्त समर्थन दिया था। शाहजहाँ भी दारा शिकोह को ही अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। औरंगजेब ने जब सत्ता संभाली, तब मारवाड़ राज्य उसके प्रभाव में थे।

उसने जसवंत सिंह को कभी काबुल, कभी कंधार तो कभी दक्षिण में मोर्चों पर भेज कर दिल्ली से दूर रखने का भरसक प्रयास किया। तब भी महाराज जसवंत सिंह को दुर्गादास राठौड़ पर पूरा भरोसा था और उन्हें लगता था कि वो आगे जाकर कुछ अच्छा करेंगे। एक वाकया जमरूद का है, जहाँ शिकार के दौरान दुर्गादास राठौड़ बिछड़ गए तो एक पेड़ के नीचे थक कर सो गए थे। वहाँ पहुँचे महाराज ने अपने रूमाल से छाया कर के धूप को रोका।

उसी समय महाराज ने वहाँ मौजूद लोगों को कह दिया था कि इसी रूमाल की छाया की तरह कभी दुर्गादास राठौड़ संपूर्ण मारवाड़ की रक्षा करेंगे। जसवंत सिंह के पुत्र पृथ्वी सिंह भी अत्यंत शूरवीर थे, जिन्होंने औरंगजेब के सामने ही एक प्रतियोगिता में निहत्थे शेर को हरा दिया था। एक साजिश के तहत ज़हर देकर पृथ्वी सिंह की हत्या करा दी गई। कहा जाता है कि बेटे के मौत के गम में ही जसवंत भी चल बसे। ऐसे समय में न सिर्फ पूरे मेवाड़, बल्कि राजपूताना की नजर दुर्गादास राठौड़ पर थी।

दुर्गादास राठौड़ ने महारानी को सती होने से भी रोका। संग्राम सिंह आरूवा नामक सरदार ने इसके लिए रानी को मनाया। राठौड़ ने इसके बाद चालाकी से महाराज का शव स्वदेश ले जाने के लिए मुगलों को तैयार कराया। जनता को भी समझा दिया गया कि ऐसा कुछ भी न करे जिससे औरंगजेब को जरा भी शंका हो। उधर मुग़ल बादशाह मारवाड़ को हड़प लेने के फेर में था। इधर सरदारों ने एक शासन समिति बना कर सरकार चलाने की जिम्मेदारी सौंप दी।

औरंगजेब का एक सरदार सैयद अब्दुल्ला इसी बीच मारवाड़ पहुँचा, जिसने वापस जाकर बादशाह को बताया कि हिन्दू युद्ध की तैयारी में लगे हुए हैं। चूँकि औरंगजेब ने अजीत सिंह को शासक के रूप में मान्यता नहीं दी, इसीलिए इन वीरों ने युद्ध का निर्णय लिया। मुग़ल बादशाह ने खुद अजमेर में बैठ कर वहाँ की राजनीतिक परिस्थिति को समझा और फिर दिल्ली लौट आया। औरंगजेब की फ़ौज ने राजस्थान में तबाही मचानी शुरू कर दी।

सन् 1681 से लेकर 1687 तक दुर्गादास राठौड़ ने दक्षिण भारत में छिप कर अजीत सिंह की रक्षा की और उनके युवा होने पर उन्हें वापस लेकर लौटे। हालाँकि, औरंगजेब इससे खुश भी था कि दुर्गादास राठौड़ ने उसके पोते-पोती की शिक्षा-दीक्षा इस्लामी तौर-तरीकों से करवाई थी। सन् 1702 में औरंगजेब ने गुजरात के शासक को दुर्गादास राठौड़ की हत्या कराने का आदेश जारी कर दिया। दुर्गादास राठौड़ मारवाड़ लौट कर लगातार औरंगजेब के खिलाफ युद्ध का नेतृत्व करते रहे।

1707 में औरंगजेब की मौत होते ही दुर्गादास राठौड़ ने धावा बोल कर जोधपुर को मुगलों के प्रभाव से मुक्त कराया और वहाँ से इस्लामी शासकों की फ़ौज को खदेड़ा। जो वहाँ रह गए, उन्हें दुर्गादास राठौड़ को ‘चौथ’ देने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस्लामी शासकों ने जिन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था, दुर्गादास राठौड़ ने उनका पुनर्निर्माण करवाया। उज्जैन का चक्रतीर्थ, कहाँ दुर्गादास राठौड़ का निधन हुआ था, वो आज भी हिन्दुओं, खासकर राजपूतों के लिए एक पवित्र स्थल है। 1690 में उन्होंने अजमेर के युद्ध में मुगल सरदार शफी खान को हराया था।

दुर्गादास राठौड़ ऐसे थे कि उनकी देशभक्ति को खरीदने की कई कोशिश नाकाम रहीं। मुगलों ने उन्हें सोने-चाँदी से लेकर पद तक का लालच दिया, लेकिन वो मातृभूमि के साथ रहे। जब दुर्गादास राठौड़ मुगलों से लड़ रहे थे, उसी समय मेवाड़ के राणा राज सिंह की सेना ने गुजरात और मालवा में 32 मस्जिदों को धूल में मिला दिया था। राठौड़ को खासकर लोग इसीलिए करते हैं कि उन्होंने जसवंत सिंह की गर्भवती रानियों (जिनमें से एक के पुत्र की मौत हो गई) के साथ दिल्ली छोड़ते हुए औरंगजेब द्वारा बंदी बनाए जाने की साजिश को नाकाम किया और पीछा कर रही इस्लामी फ़ौज को हराया।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
चम्पारण से. हमेशा राइट. भारतीय इतिहास, राजनीति और संस्कृति की समझ. बीआईटी मेसरा से कंप्यूटर साइंस में स्नातक.

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