साल 2014 के आम चुनावों के ठीक बाद भारत के कई पहलुओं में बड़े पैमाने पर बदलाव हुआ। जिसमें सबसे उल्लेखनीय है सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलू। देश में हिन्दू शब्द के इर्द-गिर्द जितने भी विमर्श मौजूद थे सभी को नए सिरे से अलंकृत और परिभाषित किया गया। चाहे योग को वैश्विक स्तर पर पुनः स्थापित करना हो या मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली पर भव्य मंदिर की संकल्पना। ऐसे तमाम दृष्टान्तों के बीच सबसे नई मिसाल है उत्तर प्रदेश की योगी सरकार द्वारा आयोजित विलक्षण और विहंगम ‘दीपोत्सव’। वर्तमान सरकार ने अपनी अमूमन हर राजनीतिक गतिविधि में खुद को मिले मत का मान रखा है।
इसे देश का दुर्भाग्य कहना ही उचित होगा कि 2014 के पहले सत्ता में रही लगभग हर सरकारों ने हिंदुत्व शब्द के मूल स्वरूप को विक्षिप्त ही किया है। इसकी सबसे मज़बूत नज़ीर है देश की वह तथाकथित ‘सेक्युलर पार्टी’ जिसने श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाया। आज भारतीय राजनीति के पटल पर उनका स्थान कहाँ है? इस पर शब्द खर्च करना स्वयं में हास्यास्पद है। देश का शायद ही कोई राजनीतिक दल होगा जिसके नेता/प्रवक्ता ने व्यंग्यात्मक शैली में ‘मंदिर निर्माण की तिथि’ पर प्रश्न नहीं उठाया हो।
एक समुदाय या पंथ के लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता है कि उसकी मान्यताओं, परम्पराओं और त्योहारों को अहमियत मिले। साल 2017 में सत्ता हासिल करने के बाद योगी सरकार ने एक वर्ष के भीतर उत्तर प्रदेश के तमाम धार्मिक स्थलों के जीर्णोद्धार का निर्णय लिया। चित्रकूट से लेकर मिर्जापुर तक और मथुरा से लेकर काशी तक, दशकों बाद किसी सरकार ने (हिन्दू) स्थलों की सुध ली।
लेकिन देश के नेताओं को इफ़्तार करने और सेवई खाने से वक्त मिलता तब बहुसंख्यक वर्ग की विचारधारा के उद्धार पर चिंतन करते। आज विश्व के तमाम देशों में भारतीय त्योहार उत्साह के साथ मनाए जाते हैं, उन्हें लेकर स्वीकार्यता और समझ का दायरा बढ़ा है। इतना ही नहीं ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, रूस जैसे देशों के दिग्गज नेता भारतीय जनमानस को भारतीय त्योहारों की शुभकामनाएँ देते हैं। भारत की प्राचीन चिकित्सा पद्धति और योग के विषय में विमर्श का दायरा सीमित था। वर्तमान सरकार ने प्राचीन चिकित्सा पद्धति- आयुर्वेद और योग को नए आयाम दिए।
वर्तमान सरकार ने अपनी लगभग हर छोटी बड़ी क्रिया से यह सिद्ध किया है कि उनके लिए भारतीय विमर्श कितना अहम है। इस बात के समर्थन में सिर्फ नवंबर महीने में 3 सिलसिलेवार उदाहरण नज़र आए।
पहला उदाहरण नज़र आया जब 6 नवंबर को भारत और इटली की वर्चुअल समिट थी। समिट के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की पृष्ठभूमि में लगा चित्र तमिलनाडु स्थित मामल्लपुरम मंदिर का था।
दूसरा उदाहरण 10 नवंबर को हुई एससीओ काउंसिल ऑफ़ हेड्स ऑफ़ स्टेट 20वीं समिट का है। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी की पृष्ठभूमि में लगा चित्र जोधपुर स्थित मेहरानगढ़ किले का है।
तीसरा उदाहरण 11 नवंबर को हुई आसियान (ASEAN) इंडिया समिट का है। इसमें प्रधानमंत्री मोदी की पृष्ठभूमि में लगा चित्र वाराणसी सारनाथ स्थित धामेक स्तूप का है।
इन बहुआयामी तर्कों के आधार पर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान सरकार इस मुद्दे पर प्रबल है कि देश की आवाम को ऐसी चीज़ों पर ही गर्व करना है जो इस देश की धार्मिक/सांस्कृतिक जड़ में हैं। देश में सर्वप्रथम वही प्रस्तुत किया जाना चाहिए जो इस राष्ट्र की अवधारणा का हिस्सा हैं। तभी दुनिया को आभास होगा कि हम क्यों विशेष और भिन्न हैं।
शायद यही कारण है कि अब देश के तमाम स्वघोषित लिबरल और सेक्युलर राजनीतिक दलों के नूतन हिन्दूवादी नेता (जी राहुल गाँधी भी) मंदिरों के चौखट पर पाए जाते हैं। अपना जनेऊ (जो कि कभी परम्परागत रूप से धारण किया ही नहीं) दिखा कर हिन्दू होने का प्रमाण देते हैं। अन्य राजनीतिक दलों के गिरगिटनुमा इफ़्तार एवं नमाज़वादी (जी अरविन्द केजरीवाल और अखिलेश यादव) जालीदार टोपी पहन कर धार्मिक पाखण्ड की मिसाल पेश करते हैं।
जनता सुबोध हो सकती है लेकिन निर्बोध नहीं, इस श्रेणी के हर छद्म क्रियाकलाप को पहचानती है और अवसर पर हिसाब करती है। जैसे पिछले कुछ वर्षों से लगातार कर रही है।