बीते कुछ समय में जब भारतीयों ने पैसे, झूठे प्यार या दूसरी चीजों के लालच में आकर पाकिस्तान का साथ दिया और भारत के साथ धोखा किया, जैसे ज्योति मल्होत्रा, देवेंद्र सिंह गजाला, यामीन मोहम्मद वगैरह। तब एक ऐसा शख्स भी था जो सालों तक पाकिस्तान में रहा और वहाँ से भारत के लिए खुफिया जानकारियाँ भेजता रहा। इसकी वजह से कई भारतीयों की जान बची। उस शख्स का नाम था रविंदर कौशिक। खुफिया एजेंसियों में उन्हें ‘ब्लैक टाइगर’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने न सिर्फ पाकिस्तान में रहने का फैसला किया, बल्कि अपनी असली पहचान को पूरी तरह बदल लिया।
कौशिक ने वहाँ की भाषा सीखी और एक पाकिस्तानी लड़की से शादी भी की। वे पाकिस्तानी फौज में मेजर के पद तक पहुँचे। एक ऐसी जिंदगी जी, जहाँ हर पल उनका राज खुल सकता था। फिर भी उन्होंने भारत को ऐसी-ऐसी जानकारियाँ दीं, जिनसे दुश्मन के कई ऑपरेशन नाकाम हो गए।
रविंदर कौशिक ने कभी कोई मेडल या सम्मान नहीं माँगा। वे बस अपने देश की सेवा करना चाहते थे, और ये काम उन्होंने खामोशी से और पूरी लगन से किया।
देश से गद्दारी करने वालों का नाम लेना और उनकी बुराई करना आसान है, लेकिन देश के लिए सब कुछ कुर्बान करने वालों के नाम समय के साथ भूल जाते हैं। ऐसे वीरों को याद करना जरूरी है, जिन्होंने देश के लिए अपनी जिंदगी, यहाँ तक कि अपना नाम भी छोड़ दिया।
रविंदर कौशिक कोई फिल्मी किरदार नहीं थे, बल्कि असल जिंदगी के सुपरहीरो थे। उनकी असली कहानी को बार-बार सुनाया जाना चाहिए।
एक रंगमंच जिसने रविंदर कौशिक को असली जासूस बनाया
कौशिक का जन्म 11 अप्रैल 1952 को राजस्थान के श्रीगंगानगर में हुआ था। वे ऐसे परिवार में बड़े हुए, जहाँ देशभक्ति सिर्फ बातें नहीं, बल्कि जिंदगी का हिस्सा थी। उनके पिता वायुसेना के अधिकारी थे, जिन्होंने युद्ध लड़े थे। बचपन से ही कौशिक ने अपने पिता की तरह देश की सेवा करने का सपना देखा।
युद्ध के मैदान में तो उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका नहीं मिला, लेकिन कॉलेज के रंगमंच ने उन्हें रास्ता दिखाया। वे श्रीगंगानगर के एसडी बिहानी पीजी कॉलेज में कॉमर्स की पढ़ाई कर रहे थे, लेकिन उनकी असली रुचि थिएटर में थी। एक बार उन्होंने एक नाटक में भारतीय अधिकारी का किरदार निभाया, जो दुश्मनों के सामने हार मानने की बजाय मौत चुनता है। दर्शकों में रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग) के कुछ अधिकारी भी थे, जो छिपकर बहादुर और होशियार लोगों की तलाश में थे।
उन्हें रविंदर कौशिक में देशभक्ति और जोश दिखा। नाटक के बाद वे चुपके से कौशिक के पास गए और सीधा प्रस्ताव रखा। उन्होंने कौशिक से कहा कि अपने देश की सेवा करो, लेकिन याद रखो तुम फिर कभी नहीं दिखोगे। तुम्हें कोई और बन कर जीना होगा। कौशिक ने बिना हिचक हाँ कह दिया। 1973 में वे दिल्ली गए और अपने परिवार को बताया कि उन्हें नौकरी मिल गई है। इसके बाद वे रॉ में शामिल हो गए। अगले दो साल तक उन्होंने सख्त ट्रेनिंग ली, उर्दू सीखी, पाकिस्तान की संस्कृति और भूगोल का अध्ययन किया।
रविंद्र कौशिक ने इस्लाम के रीति-रिवाज सीखे और यहाँ तक कि खतना भी करवाया। उनकी असली पहचान को धीरे-धीरे मिटा दिया गया। 1975 तक रविंदर कौशिक का नाम कागजों से भी गायब हो गया और वे नबी अहमद शाकिर बनकर पाकिस्तान के लिए रवाना हुए। वे पूरी तरह तैयार थे कि कोई शक न करे कि वे भारतीय हैं।
कौशिक ने जो किया, वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। उनकी कहानी एक ऐसी किंवदंती बन गई, जिसे दोहराना मुश्किल है।
झूठ की जिंदगी – कराची यूनिवर्सिटी से पाकिस्तानी फौज तक
साल 1975 में कौशिक उर्फ नबी अहमद शाकिर पाकिस्तान पहुँचे। बाहर से वे इस्लामाबाद के एक मुस्लिम शख्स लगते थे, लेकिन अंदर से वे रविंदर कौशिक थे, जो अपने देश की सेवा के लिए वहाँ आए थे।
उनका पहला कदम था कराची यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना। उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई शुरू की, ताकि लोगों का भरोसा जीत सकें। वे डिबेट करते, इम्तिहान देते और एक आम पाकिस्तानी छात्र की तरह रहने लगे। किसी को उन पर शक नहीं हुआ। उन्होंने एक नया व्यक्तित्व बना लिया।
पढ़ाई पूरी करने के बाद कौशिक ने पाकिस्तानी फौज में जाने का फैसला किया। रॉ को शुरू में ये जोखिम भरा लगा, लेकिन कौशिक ने मिलिट्री अकाउंट्स डिपार्टमेंट की परीक्षा दी और पहले ही प्रयास में पास हो गए। जो लड़का भारत में नाटक में सैनिक का रोल करता था, वह अब पाकिस्तानी फौज में अफसर बन गया।
इस पद से कौशिक ने भारत के लिए जरूरी जानकारियाँ भेजनी शुरू कीं। ये जानकारियाँ बहुत खास थीं, जैसे फौज की हलचल, अफसरों के तबादले, हथियारों की डिलीवरी वगैरह। उन्होंने इनविजिवल इंक से रिपोर्ट लिखीं और कुवैत या दुबई के रास्ते भारत भेजीं।
उस समय इंटरनेट नहीं था। जानकारी भारत पहुँचने में कई दिन या हफ्ते लग जाते थे। फिर भी कौशिक की भेजी हर जानकारी देशभक्ति का सबूत थी।
रविंदर कौशिक ने अपनी पाकिस्तानी पहचान को और मजबूत करने के लिए एक स्थानीय लड़की अमानत से शादी की, जो उनकी यूनिट में एक दर्जी की बेटी थी। उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम था अरीब। उनकी पत्नी और बेटे को कभी नहीं पता कि उनके घर का आदमी पहले रविंदर था।
कौशिक ने काम पर, घर पर और समाज में अपनी असली पहचान छुपाए रखी। वे दोस्ताना, धार्मिक और अपनी यूनिट के प्रति वफादार दिखते थे। बाहर से वे एक भरोसेमंद पाकिस्तानी फौज के अफसर और प्यार करने वाले पति थे, लेकिन असल में वे भारत के जासूस थे।
भारत के लिए दहाड़ने वाला ब्लैक टाइगर
साल 1979 से 1983 तक भारत के पास ऐसा जासूस था, जो दुश्मन की फौज में मेजर के पद पर था। कौशिक ने ऐसी जानकारियाँ दीं, जिनसे भारत को रणनीतिक फायदा हुआ। उनकी रिपोर्ट्स ने दुश्मन की घुसपैठ रोकी, उनके गुप्त प्लान नाकाम किए और हजारों लोगों की जान बची। कहा जाता है कि उनकी जानकारियों ने ऐसे ऑपरेशनों को रोका, जिनसे 20,000 भारतीय सैनिकों की जान जा सकती थी।
वे ये सब प्रसिद्धि के लिए नहीं कर रहे थे। वे बस मानते थे कि ये काम किसी को तो करना ही है। उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को उनके योगदान के बारे में बताया गया। उन्होंने ही कौशिक को ‘ब्लैक टाइगर’ का नाम दिया, जो रॉ में हमेशा के लिए अमर हो गया। ये कोई कोडनेम नहीं, बल्कि सम्मान था।
कौशिक बहुत सावधान रहते थे। उनके संदेश भेजने का तरीका धीमा लेकिन सुरक्षित था। वे सुनिश्चित करते थे कि सारी जानकारी सही और समय पर भारत पहुँचे। वे इतने घुलमिल गए थे कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के बड़े अफसर भी उनसे बिना शक के बात करते थे।
वे सार्वजनिक रूप से भारत कभी नहीं लौटे। एक बार वे अपने भाई की शादी के लिए सऊदी अरब के बहाने आए। तब भी उन्होंने दुबई के बिजनेसमैन का भेस बनाए रखा और अपने पाकिस्तानी परिवार के लिए तोहफे खरीदे।
धोखा: वो मिशन जिसने ब्लैक टाइगर को कर दिया एक्सपोज
रविंदर कौशिक जानते थे कि वे आग से खेल रहे हैं। उनका पर्दाफाश उनकी गलती से नहीं, बल्कि रॉ की एक भूल से हुआ। 1983 में रॉ ने एक और जासूस, इनायत मसीह को पाकिस्तान भेजा, ताकि वह कौशिक को एक खास संदेश दे। ये कदम जोखिम भरा था, क्योंकि कौशिक आठ साल से वहाँ काम कर रहे थे और सीधे संपर्क की जरूरत नहीं थी। फिर भी ये फैसला लिया गया।
मसीह सीमा पार करने में कामयाब रहा, लेकिन जल्दी ही उसे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ने पकड़ लिया। उसे इतना सताया गया कि वह टूट गया और उसने सब कुछ बता दिया। उसने ये भी बताया कि मेजर नबी अहमद शाकिर असल में रविंदर कौशिक हैं। आईएसआई हैरान थी। उन्होंने मसीह को कौशिक से दोबारा मिलने और एक मुलाकात तय करने को कहा।
कौशिक को कुछ पता नहीं था। वे एक पार्क में मसीह से मिलने गए, लेकिन वहाँ पाकिस्तानी अधिकारी उनका इंतजार कर रहे थे। भारत के सबसे मूल्यवान अंडरकवर एजेंट को दुश्मनों की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि किसी ने मसीह को संदेश पहुंचाने के लिए भेजकर उसकी जान से खेलने का फैसला किया था। भारत के सबसे कीमती जासूस को एक गलत फैसले की वजह से पकड़ा गया।
कौशिक को सियालकोट ले जाया गया, जहाँ उससे पूछताछ शुरू हुई। उसे बिना रुके कई घंटों तक प्रताड़ित किया गया। हालाँकि, कौशिक ने कुछ भी नहीं बताया। लगातार प्रताड़ना के बाद भी उन्होंने अपनी मातृभूमि के साथ विश्वासघात नहीं किया। कौशिक ने कभी अपनी पहचान की पुष्टि नहीं की। उन्होंने किसी और का नाम नहीं बताया और एक भी ऑपरेशनल डिटेल लीक नहीं की।
अँधेरे के दो साल-सियालकोट में ज्यादतियों का नहीं हुआ कोई अंत
सियालकोट में कौशिक ने जो दो साल बिताए, वो जेल नहीं, बल्कि उनके हौसले को तोड़ने की कोशिश थी। पाकिस्तानियों ने हर तरह की शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक यातनाएँ दीं। उन्हें सोने नहीं दिया गया, ठंडी सतह पर लेटने को मजबूर किया गया और अकेले में बंद रखा गया। इसका उद्देश्य उनके जीवन को अमानवीय बनाना था, लेकिन कौशिक ने कुछ नहीं कहा।
वे अकेले थे, बिना किसी मदद के। बाद में अपने परिवार को भेजे पत्रों में उन्होंने बताया कि उन्हें क्या-क्या सहना पड़ा। उनके खिलाफ सालों तक मुकदमा चला और 1985 में उन्हें फांसी की सजा दी गई। बाद में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने इसे उम्रकैद में बदल दिया। ये राहत नहीं, बल्कि उनकी तकलीफ को और बढ़ाने का फैसला था।
उन्हें सियालकोट से कोट लखपत जेल और फिर मियांवाली जेल भेजा गया, जहाँ वे जिंदगी भर रहे। जेल में भी वे भारत को पत्र भेजते रहे। एक पत्र में उन्होंने पूछा, “क्या भारत जैसे बड़े देश में कुर्बानी देने वालों को यही मिलता है?” वे प्रसिद्धि नहीं चाहते थे, बस इतना चाहते थे कि उनकी कहानी भुलाई न जाए।
जेल में कई साल बिताने के बाद, उन्हें प्रतिरोध का आखिरी तरीका मिला, लेखन। उन्होंने अपने परिवार को सावधानीपूर्वक और चुपचाप पत्र भेजना शुरू किया। उनके पत्रों से उनके परिवार को सच्चाई पता चली। उनके पिता ये सदमा सहन नहीं कर सके और उनकी मृत्यु हो गई। उनकी माँ ने दिल्ली में हर दरवाजा खटखटाया, लेकिन सरकार ने सिर्फ 500 रुपये की छोटी पेंशन दी, जिसे बाद में 2,000 रुपये किया गया। उनके बलिदान को कभी आधिकारिक मान्यता नहीं मिली।
फिर भी, कौशिक ने कभी कड़वाहट नहीं दिखाई। उन्होंने दर्द और अकेलेपन की बात की, लेकिन कभी पछतावा नहीं जताया। उनका एक वाक्य आज भी गूँजता है, “अगर मैं अमेरिकी होता, तो तीन दिन में जेल से बाहर होता।” ये शिकायत नहीं, बल्कि अपने देश को आईना दिखाने की बात थी।
खामोश विदाई – एक देशभक्त का आखिरी अध्याय
नवंबर 2001 में, 18 साल जेल में बिताने के बाद, रविंदर कौशिक की मियाँवाली जेल में मृत्यु हो गई। वे टीबी और दिल की बीमारी से जूझ रहे थे, लेकिन उन्हें कोई खास इलाज नहीं मिला। उनके लिए कोई अपील या अभियान नहीं चला। भारत ने उन्हें वापस लाने की कोई कोशिश नहीं की। वे उसी तरह मरे, जैसे जिए -खामोशी से।
उनका शव मुल्तान में दफनाया गया, जो उनकी मातृभूमि से बहुत दूर था। उनकी कब्र पर उनका असली नाम भी नहीं लिखा। भारत की तरफ से उनके परिवार को कोई संदेश नहीं मिला, न कोई स्वीकृति, न शोक। जिसने सब कुछ दाँव पर लगाया, उसे इतिहास में चुपके से गायब होने दिया गया।
उनके परिवार ने अकेले में शोक मनाया। उनकी माँ ने इंटरव्यू और पत्रों से उनकी याद को जिंदा रखा। लेकिन दुनिया आगे बढ़ गई। आज उनका नाम किताबों या गणतंत्र दिवस के भाषणों में शायद ही आता हो। उनके नाम पर कोई सड़क, स्मारक या पट्टिका नहीं है।
इतिहास नाम याद रखता है, लेकिन कुछ नाम भूलने के लिए ही बनते हैं। रविंदर कौशिक ऐसा ही नाम है। फिर भी, वे इससे ज्यादा के हकदार हैं। उनके पास कोई मेडल नहीं था, वे परेड में नहीं चले, लेकिन श्रीगंगानगर की गलियों से मियाँवाली की जेल तक, उन्होंने ऐसी जिंदगी जी, जिसकी कल्पना कम लोग कर सकते हैं। उनकी कहानी सिर्फ सीमाओं के पार नहीं, बल्कि पहचान, विश्वास और चुप्पी के पार थी।
खुफिया एजेंसियों और कुछ फिल्मों में उन्हें याद किया जाता है। ‘एक था टाइगर’ और ‘रोमियो अकबर वाल्टर’ जैसी फिल्में उनकी कहानी से प्रेरित हैं, लेकिन कोई भी उन्हें खुलकर श्रेय नहीं देता। उनके परिवार को कोई राजकीय सम्मान नहीं मिला। उनकी कब्र बिना नाम के है, उस देश से दूर, जिसके लिए उन्होंने सब कुछ छोड़ दिया।
लेकिन शायद सम्मान सुर्खियों से नहीं मिलता। शायद ये कहानी को बार-बार सुनाने से शुरू होता है, ताकि हर भारतीय रविंदर कौशिक को जाने।
अब वक्त है कि हम अपने सैनिकों के साथ-साथ कौशिक का नाम भी पढ़ाएँ। वक्त है कि हम वर्दी वालों के साथ-साथ परदे के पीछे सेवा करने वालों को भी सम्मान दें। वक्त है कि हम कहें कि रविंदर कौशिक भारत के ब्लैक टाइगर थे, सच्चे देशभक्त, गुमनाम योद्धा और इस देश के सबसे बहादुर जासूस।