सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2025 को अहम फैसला सुनाते हुए कहा था कि ‘शरिया कोर्ट’, ‘काज़ी की अदालत’ या ‘दारुल-क़ज़ा’ जैसे नामों से चलने वाली अदालतों की भारत के कानून में कोई मान्यता नहीं है। सुप्रीम कोर्ट कहा कि इन अदालतों के फैसले कानूनी तौर पर बाध्यकारी नहीं हैं।
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने एक मुस्लिम महिला (शाहजहान) की याचिका पर सुनाया था। 2018 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के एक आदेश को सही ठहराया था। आदेश में मुस्लिम महिला शाहजहान को ही विवाद का कारण बताया और महिला को शौहर (गफ्फार खान) द्वारा मिलने वाले गुजारा भत्ता को मना कर दिया था। इस फैसले पर मुस्लिम महिला ने इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया और महिला को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि याचिका दाखिल करने की तारीख से हर महीने ₹4,000 गुजारा भत्ता महिला को दिया जाए। इसके अलावा, मुस्लिम महिला के शौहर को आदेश दिया गया है कि वह बच्चों के बालिग होने तक उनकी आर्थिक जरूरतों का ख्याल रखे।
भले ही यह मामला एक मुस्लिम समुदाय से जुड़ा था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक बड़े संवैधानिक सिद्धांत को मजबूत करता है। सिद्धांत यह है कि भारत का कानूनी सिस्टम इस्लामिक बयानों या शरिया अदालतों के जरिए किए गए फैसले से ऊपर है। हालाँकि, अगर दोनों पक्ष अपनी मर्जी से ऐसे फैसलों को मानना चाहें तो मान सकता है, लेकिन कानून उन पर कोई दवाब नहीं डालेगा। सुप्रीम कोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि जब गुजारा भत्ता जैसे कानूनी अधिकारों की बात आती है, तो फैसला करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ भारतीय अदालतों के पास है।
जस्टिस सुधांशु धूलिया और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने कहा, “‘काज़ी की अदालत’, ‘(दारुल कज़ा) कजियत की अदालत’ या फिर ‘शरिया कोर्ट’… चाहे उन्हें किसी भी नाम से पुकारा जाए, कानून में उनकी कोई मान्यता नहीं है।”
दारुल कज़ा में समझौता और तलाक: एक धर्मनिरपेक्ष देश में शरिया अदालतों का विरोधाभास
इस मामले में गफ्फार खान नाम के मुस्लिम व्यक्ति ने गुजारा भत्ता देने से बचने के लिए भोपाल के एक दारुल कजा (कजियत) में तलाकनामा दाखिल किया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे पलटते हुए कहा कि ऐसे मंचों की न तो भारतीय कानून में कोई मान्यता है और न ही उनके फैसले कानूनी रुप से बाध्य किए जा सकते हैं।
गफ्फार खान और उनकी बीवी शाहजहान ने 2002 में दूसरी बार निकाह किया था। गफ्फार खान सीमा सुरक्षा बल (BSF) में काम करता है। गफ्फार और शाहजहान के 2 बच्चे हुए, लेकिन समय के साथ रिश्तों में कड़वाहट आ गई। इसी के चलते गफ्फार ने 2005 में भोपाल की ‘काज़ी की अदालत’ में तलाक की अर्जी डाली और 22 नवंबर 2005 को एक समझौते के साथ दोनों फिर से साथ में रहने के लिए मान गए।
समझौते के बाद भी रिश्ता बिगड़ा और शाहजहान ने गफ्फार पर मारपीट करने और 50,000 दहेज की माँग का आरोप लगाया। इसके अलावा शाहजहान का कहना था कि गफ्फार ने उसे और बच्चों को घर से निकाल दिया है। सितंबर 2008 में गफ्फार ने भोपाल की ‘कजियत की अदालत(दारुल कज़ा)’ में तलाक की अर्जी डाली थी।
इसके तुरंत बाद, शाहजहान ने फैमिली कोर्ट में 5 हजार गुजारा भत्ता के लिए अर्जी डाली। फैमिली कोर्ट ने कहा कि यह शाहजहान का दूसरा निकाह है, तो इसमें दहेज की माँग कोई मायने नहीं रखती और बात रही गुजारा भत्ता की तो, शाहजहान अपनी मर्जी से घर छोड़कर आई है, इसलिए केवल बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मंजूर किया जाएगा। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भी फैमिली कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा था।
हालाँकि अब 2025 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया और गफ्फार को गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया। जब शाहजहान ने निचली अदालतों के फैसलों को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, तो सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कोई भी इस्लामिक अदालत भारतीय न्यायपालिका के अनुरुप फैसले नहीं कर सकती। शाहजहान ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि वह अनपढ़ है और उसकी कोई आय नहीं है। इसके अलावा उसे शौहर का घर गलत तरीके से छोड़ने के लिए दोषी भी ठहराया गया था। शाहजहान ने ‘समझौता पत्र’ और शरिया अदालत के तलाक के चलते निचली अदालत के भरोसे पर भी सवाल उठाया था।
इस्लामिक अदालतों की कानूनी स्थिति पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार (फैसला)
वर्तमान मामले के विश्लेषण में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कई बार कार्यवाही में ‘काज़ी की अदालत’, ‘(दारुल कज़ा) कजियत की अदालत’, और ‘शरिया कोर्ट’ जैसे निकायों का उल्लेख किया गया था। इसके जवाब में, अदालत ने अपने फैसले के ‘पोस्ट-स्क्रिप्ट’ अनुभाग में इस मामले को संबोधित किया।
मामले के तहत, अदालत ने दार-उल-कजा एक समानांतर अदालत है या नहीं और क्या ‘फतवा’ का कोई कानूनी दर्जा है या नहीं इसकी जाँच कराई थी। जिसका हवाला 2014 के विश्व लोचन मदान बनाम भारत संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिया था।
अदालत ने कहा था कि कानूनी तौर पर जो निर्णय लिए जाते है, उसका पालन करना जरुरी होता है, जब तक कि कानून द्वारा ही उसे रद्द न कर दिया जाए। हालाँकि, दार-उल-क़ज़ा के फैसले या फतवा इनमें से किसी भी आवश्यकता को “पूरा नहीं करते”, क्योंकि दार-उल-क़ज़ा “किसी भी सक्षम विधायिका द्वारा नहीं बनाया गया है और ना ही स्वीकारा गया है।”
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दार-उल-कजा जो भी राय या फतवा जारी करता है, वो मान्य नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि किसी भी काजी या मुफ्ती के पास अपनी राय को जबरदस्ती थोपने और फतवे जारी करने का न तो कोई अधिकार है और न ही कोई शक्ति। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि मुगल या ब्रिटिश शासन काल के दौरान जो फैसले लिए जाते रहे हो, उनकी जगह अब स्वतंत्र भारत के सवैंधानिक योजना के तहत नहीं है।
कोर्ट ने कहा, “मामले से संबंधित व्यक्ति या निकाय इसे अनदेखा कर सकता है और किसी भी अदालत में इसे चुनौती देने की कोई आवश्यकता भी नहीं है। इसे बस अनदेखा किया जा सकता है।” 2014 में उसी फैसले के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि हमारी संवैधानिक योजना में जब फतवा या इस्लामी घोषणा की कोई कानूनी मान्यता नहीं है, फिर भी फतवे जारी किए गए हैं और किए जा रहे हैं।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड(AIMPLB) ने कहा कि पूरे देश में न्यायिक प्रणाली का एक नेटवर्क होना चाहिए, जिसमें मुस्लिम अपने विवादों का फैसला काज़ियों द्वारा करवा सकें।

हालाँकि, अदालत ने कहा था कि फतवा किसी विशेषज्ञ की एक राय हो सकती है न कि कोई डिक्री, और यह किसी भी अदालत, राज्य या व्यक्ति पर थोपी नहीं जा सकती। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि फतवा जारी करने पर तब तक आपत्ति नहीं होनी चाहिए, जब तक कि यह कानून के तहत व्यक्तियों को दिए गए अधिकारों का उल्लंघन न करे।
सुप्रीम कोर्ट ने 2014 के विश्व लोचन मदान मामले का हवाला देते हुए कहा कि ‘काज़ी की अदालत’, ‘(दारुल कज़ा) कजियत की अदालत’, ‘शरिया कोर्ट’, चाहे उन्हें किसी भी नाम से पुकारा जाए, कानून में उनकी कोई मान्यता नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट और इलाहाबाद कोर्ट को भी फटकारा, क्योंकि इन्होंने ‘काजी अदालत’ जैसों के ‘समझौते पत्र’ पर भरोसा जताया था। सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने जोर देकर कहा कि इस्लामिक अदालतों जैसे गैर-न्यायिक निकायों की घोषणा पर भारतीय अदालतें भरोसा नहीं कर सकती।
हाल ही में पारित सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया है, “जैसा कि विश्व लोचन मदान (ऊपर) में उल्लेख किया गया है, ऐसे इस्लामिक संस्था द्वारा अगर कोई भी फैसला लिया जाता है, वो किसी पर भी थोपा नहीं जा सकता है। ऐसे फैसले को कानून की नज़र में तभी सही ठहराया जा सकता है जब प्रभावित पक्ष फैसले को स्वीकार करता है और ऐसी कार्रवाई किसी अन्य कानून का उल्लंघन नहीं करती है।” सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि ऐसे फैसले केवल उन पक्षों के बीच ही मान्य किया जा सकता है, जो इसे स्वीकारते हैं। इसके अलावा किसी तीसरे पक्ष पर लागू नहीं किया जा सकता।
शाहजहान और गफ्फार खान दोनों का ही ये दूसरा निकाह था, तो दहेज की माँग की कोई संभावना नहीं है। निचली अदालत की इस टिप्पणी को सुप्रीम कोर्ट ने’आधारहीन’ बताया और कहा कि ऐसी टिप्पणी “कानून के सिद्धांतों से अनजान” थी।

सुप्रीम कोर्ट ने आगे कहा कि फैमिली कोर्ट का यह मानना कि शाहजहान ने अपने शादीशुदा जीवन में कलह पैदा किया, केवल अटकलों पर आधारित था और इसमें कोई सबूत नहीं था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने गफ्फार खान को हर महीने 4000 रुपये गुजारा भत्ता देने का निर्देश दिया है। गुजारा भत्ता तब से लागू किया जाएगा, जब फैमिली कोर्ट में इसकी याचिका दाखिल करने की गई थी। इसके अलावा बच्चों को दिया जाने वाला गुजारा भत्ता भी फैमिली कोर्ट में गुजारा भत्ता याचिका दाखिल करने की तारीख से देना होगा।
क्या शरिया अदालतें भारतीय मुसलमानों के लिए ‘सर्वोच्च’ हैं?
बता दें कि बीते कुछ सालों में कई मुस्लिम मौलवियों और राजनेताओं ने संविधान से ऊपर शरिया को प्राथमिकता देने वाले बयान दिए हैं। कई ने यह दावा भी किया है कि भारतीय मुसलमान केवल शरिया का पालन करेंगे। इसका हालिया उदाहरण 14 अप्रैल 2025 को सामने आया, जब झारखंड सरकार के मंत्री हफीजुल हसन ने कहा कि उनके लिए शरिया संविधान से पहले है।
हसन ने उस अल-तक्किया का खुलासा किया, जिसका इस्तेमाल इस्लामवादी अक्सर ‘धर्मनिरपेक्षवादियों’ को मूर्ख बनाने के लिए करते हैं, जैसा कि उन्होंने कहा, “हम कुरान को अपने दिलों में और संविधान को अपने हाथों में रखते हैं।”
साल 2023 में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दावा किया था कि भारत में 100 से अधिक शरिया अदालतें हैं और भारत के सभी मुस्लिम बहुल जिलों में ऐसी इस्लामी अदालतें स्थापित करना उनका इरादा है। 2018 में भी मुस्लिम निकाय ने कहा था कि वह देश के सभी जिलों में दारुल-क़ज़ा (शरिया अदालतें) खोलने की योजना बना रहा है।
AIMPLB ने 2020 में मुस्लिमों से आग्रह किया था कि वे अपने विवादों को हल करने के लिए शरिया जैसी अदालतों को दरवाजा खटाखटाएँ, न कि भारतीय न्यायपालिका का। इसे पहले भी भारत के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने देश के हर जिले में शरीयत अदालतें खोलने का दावा किया था और कहा था कि सभी समुदायों को अपने व्यक्तिगत कानून का पालने करने का अधिकार है।
जबकि AIMPLB, मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले राजनेता और इस्लामावादी लगातार मुस्लिमों को प्रेरित करते हैं कि वे अपने विवादों को हल करने के लिए शरिया या दारुल-कजा का सहारा ले, जिससे इस्लामी धार्मिक लाइनों पर काम करने वाली समानांतर न्यायपालिका को मजबूत किया जा सके।
जैसा की शाहजहाँ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केवल भारत के संविधान के तहत स्थापित वैधानिक अदालतें ही विवादों का फैसला कर सकती हैं। विवादों को निपटाने के लिए गैर-न्यायिक संस्थाओं का सहारा लेना देश के धर्मनिरपेक्ष कानूनी ढाँचे को कमजोर करता है।
इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि भारत की दूसरी अदालतें खुद इस्लामिक अदालतों को वैधता प्रदान करेगी या फिर कानूनी अधिकारों का सुलह करने के लिए गैर-न्यायिक इस्लामिक संस्था के फैसले पर भरोसा करेगी, तो भारत में न्यायिक प्रणाली के अस्तित्व का मतलब ही क्या?
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने फिर से वैधानिक कानून की प्रधानता को स्थापित किया है। साथ ही कहा कि इस्लामिक अदालतें या कोई गैर-कानूनी संस्थाएँ, जो फैसले लेती है, वे कानूनी रुप से किसी पर थोपी नहीं जा सकती है।
मूल रूप से ये रिपोर्ट श्रद्धा पांडे ने अंग्रेजी में लिखी है। इस लिंक पर क्लिक कर इसे पढ़ सकते हैं।