तेलंगाना हाईकोर्ट में एक बड़ा अजीब वाकया सामने आया है। वहाँ अदालत ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए हैदराबाद पुलिस को सिर्फ़ इसलिए फटकार लगा दी, क्योंकि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान सबसे अधिक मामले समुदाय विशेष के लोगों के ख़िलाफ़ दर्ज किए गए थे।
चीफ जस्टिस राघवेंद्र सिंह चौहान और जस्टिस बी विजयसेन रेड्डी की पीठ ने सामाजिक कार्यकर्ता शीला सारा मैथ्यूज की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पुलिस कार्रवाई पर नाराजगी जताई। कोर्ट ने हैदराबाद पुलिस को फटकारते हुए पूछा कि क्या इसका मतलब यह है कि दूसरे समुदायों से किसी ने लॉकडाउन का उल्लंघन ही नहीं किया?
गौरतलब हो कि इस याचिका के जरिए शीला सारा मैथ्यूज नाम की सामाजिक कार्यकर्ता ने कोर्ट के समक्ष पुलिस के बर्ताव के ख़िलाफ़ शिकायत की थी। उन्होंने याचिका में उन घटनाओं का ही उल्लेख किया था, जब पुलिस ने मजहब विशेष के युवकों के साथ सख्त बर्ताव किया।
सारा मैथ्यूज ने अपनी याचिका में जुनैद नाम के लड़के के केस का हवाला दिया और बताया कि पुलिस की पिटाई के बाद उसे 35 टाँके आए। इसके अलावा एक मोहम्मद असगर नाम के लड़के का जिक्र किया। जिसे लेकर बताया गया कि असगर किराने का सामान लेने गया था। लेकिन पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया और टॉप फ्लोर से गिरने के कारण उसके दोनों पैर टूट गए।
हालाँकि, इस याचिका की सुनवाई के दौरान पुलिस की ओर से बहुत दलीलें पेश की गईं- जैसे मो. असगर को चोट छत से गिरने से आई है न कि पिटाई से। मगर, कोर्ट ने पुलिस की ओर से दी गई दलीलों को खारिज कर दिया।
साथ ही सारा मैथ्यूज की याचिका के आधार पर डीजीपी से मामले में एक्शन लेने को कह दिया। कोर्ट ने अब इस मामले में निर्देश दिया है कि 20 जून तक पुलिस अधिकारी आरोपित कॉन्स्टेबल पर अपनी कार्रवाई करें और कोर्ट में हलफनामा दाखिल करें।
अब आखिर ऐसी सोच का कारण क्या है?
वामपंथियों और इस्लामी कट्टरपंथियों को समर्थन देने वाली एक लॉबी हमेशा एक आँकड़ा ले कर आती है, और उसके द्वारा यह साबित करना चाहती है कि पुलिस और प्रशासन, और शायद कोर्ट भी, समुदाय विशेष के अपराधी साबित होने में पक्षपाती रवैया अपनाती है।
यदि ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ की इस खबर को देखें तो यहाँ पर इन्होंने वही बात दोहराने की कोशिश की है जिसमें अखिल भारतीय स्तर पर समुदाय विशेष के अपराधी होने का प्रतिशत 15.8 रहा, जबकि उनकी जनसंख्या 14.2% तक ही जाती है। उसके बाद इन्होंने लिखा कि ‘अंडरट्रायल’, यानी वैसे आरोपित जो न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा हैं, उनका प्रतिशत और भी ज्यादा है, जो कि 20.9% है।
अब सवाल यह उठता है कि प्रतिशत में थोड़ा सा अंतर (1.6) यह साबित कर देता है कि पुलिस और प्रशासन समुदाय विशेष को लेकर पक्षपाती है? ऐसे सर्वे में यह क्यों नहीं देखा जाता कि इसी देश में 20-20 साल मुकदमा चलने के बाद आतंकियों को फाँसी दी गई है। अगर पक्षपात होता तो ऐसे लोगों पर इतना समय कैसे जाता?
साथ ही, जिसे यहाँ अल्पसंख्यक कहा जाता है, वो वाकई में अल्पसंख्यक है भी नहीं। दूसरी सबसे बड़ी आबादी है और एक-डेढ़ प्रतिशत के अंतर को ऐसे भुनाना जैसे उनकी जनसंख्या 14% हो और अपराधों में उनका हिस्सा 74% का हो रहा है। चाहे अपराधी हों, या अंडरट्रायल, प्रतिशत का अंतर इतना नहीं है कि इसमें पक्षपात ढूँढ लिया जाए।
यहाँ एक और बात आती है कि हम यह क्यों नहीं मानते कि समुचित न्यायिक प्रक्रिया के बाद 80% हिन्दुओं को भी तो सजा मिलती है? वहाँ पर ये सही हो जाता है? यह मानने में क्या समस्या है कि जो अपराध करता है, वो सजा पा रहा है। और हाँ, जो लोग खुला घूमते हैं, उनमें से ऐसा भी तो नहीं है कि एक ही धर्म के लोग न्यायिक प्रक्रिया को बंधक बनाकर बाहर हैं। जिसके भी पास पैसा और सत्ता है, वो तो आज भी बाहर है।
तीसरी बात, ये किस स्टडी में साबित हो गया किसी भी समाज के अपराध में अपराधियों का अनुपात उनकी जनसंख्या के अनुपात के समानांतर होगा? ऐसा नहीं होता। इसके उलट कुछ मजहबों के नुमाइंदों ने आतंकी वारदातों में अपनी एक्सक्लूसिविटी बनाए रखी है और वहाँ तो उनकी मोनोपॉली भी है।
तो क्या ऐसे समयों में हम यह कहते फिरें कि आतंकी घटनाओं में जो नाम आ रहे हैं, उससे लगता है कि पुलिस और प्रशासन एक खास मजहब के लोगों को पकड़ने में ज्यादा रुचि दिखाती है? या फिर हम ये मानेंगे कि ऐसी घटनाएँ लगातार एक मजहबी उन्माद के वश में आकर एक ही तरह के नाम वाले लोग कर रहे हैं?
आतंकी घटनाओं के बाद कुछ समुदायों की चुप्पी बताती है कि वो इन्हें लेकर स्वयं कितना पक्षपाती हैं। उसी तरह, ऐसी घटनाओं की जड़ में जो सोच है, वह इतनी कुत्सित है कि हम चाह कर भी उसकी उपेक्षा कर ही नहीं सकते।
अब अगर वर्तमान मामले की बात करें जहाँ कोर्ट ने लॉकडाउन में ऐसे मामलों में समुदाय विशेष के खिलाफ ज्यादा मुकदमे दर्ज क्यों हुए हैं, तो यह भी तो हो सकता है कि समुदाय विशेष ने ज्यादा बार नमाज के नाम पर, रमजान के नाम पर और ईद के नाम पर लॉकडाउन का उल्लंघन किया हो?
हमने तबलीगी जमात वाले समय से ही देखा कि कैसे कई इमाम, मौलवी आदि लगातार नमाज करने की सलाह दे रहे थे, और पुलिस की चेतावनियों के बाद भी मस्जिद न सही तो घरों की छतों पर इकट्ठा हो कर नमाज पढ़ रहे थे। तो क्या पुलिस भी अब हाथ में कैलकुलेटर ले कर चले कि जिसकी जितनी जनसंख्या है, उसी अनुपात में मुकदमे दर्ज होंगे?
यह भी तो हो सकता है कि कोई समुदाय शांतिप्रिय हो, और कोई समुदाय सिर्फ शांतिप्रिय कहलाता हो, लेकिन उपद्रव करने में अग्रणी हो? अगर किसी को झूठे मामले में फँसाया गया हो तो वो तो कोर्ट में साबित हो ही जाएगा, लेकिन न्यायाधीश द्वारा इस पर सवाल उठाने से पहले बेहतर होता कि वे बताते कि उनकी टिप्पणी का आधार क्या है? क्या पुलिस ऐसे मामलों में मजहब के आधार पर भेदभाव करना शुरू कर दे कि ये आदमी फलाँ मजहब का है, और इसके ज्यादा लोग हो रहे हैं, तो इसको न पकड़ा जाए?