जेएनयू में वामपंथियों द्वारा आतंक का तांडव मचाने के पीछे एक बहुत बड़ी साज़िश है। यहाँ हम इस घटना के पीछे जितने भी कारक हैं, उनके बारे में बात करेंगे। हिंसा को लेकर बहुत कुछ मीडिया में आया भी है और आगे भी हम इसके बारे में बात करेंगे। लेकिन, सबसे पहले ये जानते हैं कि वामपंथी छात्रों ने ऐसा क्यों किया? इसके लिए सबसे पहले जेएनयू प्रशासन के बयान को देखते हैं। जनवरी 1, 2020 से जेएनयू का विंटर सेशन रजिस्ट्रेशन शुरू हुआ। इसके लिए रजिस्ट्रेशन का काम चल रहा था। सालों भर उपद्रव, प्रदर्शन और दंगों में व्यस्त रहने वाले छात्रों को पठन-पाठन का कार्य मंजूर नहीं था और अकादमिक कैलेंडर के हिसाब से कार्य चल रहे थे, इससे वो ख़ासे चिंतित थे।
जेएनयू हिंसा के पीछे असली कारण
शुक्रवार (जनवरी 3, 2020) को अचानक से कुछ छात्र जेएनयू के ‘कम्युनिकेशन एंड इनफार्मेशन सेंटर (CIS)’ में घुस गए और उन्होंने वहाँ मौजूद कर्मचारियों को भगा दिया। इसके बाद इंटरनेट सर्विस को बाधित कर दिया गया। ये छात्र रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया का विरोध कर रहे थे। जेएनयू प्रशासन ने बताया कि इन छात्रों की इस करतूत के कारण उस दिन रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया ठप्प रही। जेएनयू प्रशासन ने इस मामले की पुलिस कंप्लेंट भी की। अगले दिन सीआईएस फिर से चालू किया गया और कर्मचारी आम दिनों की तरह अपना काम करने लगे। हज़ारों छात्रों ने रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में हिस्सा लिया और फी भरी।
इसके बाद वो उपद्रवी छात्र फिर से लौट आए, जिन्होंने सीआईएस को ठप्प किया था। उन्होंने फिर से कर्मचारियों को भगा कर इंटरनेट सर्विस रोकने का प्रयास किया। वो ये देख कर बौखला गए थे कि हज़ारों की संख्या में छात्र रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में हिस्सा ले रहे हैं। दंगाई छात्रों ने बिजली सप्लाई सिस्टम को तोड़फोड़ डाला। उन्होंने ऑप्टिकल फाइबर को नुक़सान पहुँचाया। जेएनयू ने इसे ‘आपराधिक साज़िश’ बताते हुए फिर से पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। जेएनयू ने बताया है कि उपद्रवी छात्रों का ये गुट लगातार ऐसे छात्रों को परेशान कर रहा है, जो पढ़ाई के काम में लगे हैं।
उन्होंने कई कॉलेजों के गेट बंद कर दिए, छात्रों को क्लास जाने से रोका और कर्मचारियों व प्रोफेसरों के साथ बदतमीजी की। कई छात्रों ने जब रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में हिस्सा लेना चाहा तो उन्हें मारा-पीटा गया। हॉस्टलों में भी उन छात्रों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया, जो रजिस्ट्रेशन कराना चाहते थे और जो अकादमिक कैलेंडर के हिसाब से चलना चाहते थे। शाम को ‘पेरियार’ हॉस्टल में दंगाई छात्र घुस गए और उन्होंने एबीवीपी से जुड़े छात्रों की पिटाई की। जैसा कि कुछ प्रत्यक्षदर्शियों ने ऑपइंडिया को बताया है, शॉल में पत्थर छिपा कर लाए कम से कम 500 दंगाइयों ने लाठी-डंडों से छात्रों पर हमला किया।
आतंक का ये तांडव 8 घंटों तक चला। महिला छात्रों को भी नहीं बख्शा गया। रजिस्ट्रेशन कराने गए छात्रों की पिटाई की गई। एबीवीपी के छात्रों के रूम का गेट तोड़ कर उनपर हमला किया गया। किसी की गर्दन में चोटें आई हैं तो किसी का हाथ टूट गया है। जब कैम्पस में पुलिस पहुँची तो पुलिस के ख़िलाफ़ भी ‘गो बैक’ के नारे लगाए गए। छात्रों को घेर-घेर कर पीटा गया। एबीवीपी की एक छात्रा शाम्भवी की वेशभूषा में एक वामपंथी छात्रा ने हमले किए ताकि इसमें संगठन का नाम बदनाम हो। बाद में पता चला शाम्भवी ख़ुद घायल हुई हैं और वामपंथी गुंडों की पोल खुल गई।
इसकी पटकथा पिछले कुछ सप्ताह से लिखी जा रही थी। इन दंगाई छात्रों ने एडमिन ब्लॉक में जम कर तोड़फोड़ मचाई थी। यहाँ तक कि कुलपति के दफ़्तर को भी नहीं छोड़ा गया। वहाँ भी तोड़फोड़ मचाई गई। जेएनयू प्रशासन का पूछना है कि क्या ये दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है कि कुछ उपद्रवियों के कारण उन छात्रों को ख़ासी परेशानी हो रही है, जो सचमुच पढ़ाई करने के लिए वहाँ आए हैं। जेएनयू के बयान और रजिस्ट्रेशन रोकने की वामपंथियों की बौखलाहट से काफ़ी-कुछ स्पष्ट हो जाता है। यहाँ सोचने वाली बात ये है कि वामपंथी विश्वविद्यालय में अध्ययन संबंधी कार्य क्यों नहीं होने देना चाहते?
कुछ अन्य मुद्दे, जो वामपंथियों की बौखलाहट का कारण बने
सीएए को लेकर दंगा किया गया। पूरे देश को आगजनी में झोंकने का प्रयास किया गया। विदेशी मीडिया संस्थानों में लेख लिख कर भारत की छवि ख़राब करने की कोशिश की गई। जामिया में आयशा और लदीदा नामक दो जिहादियों को छात्र नेता बता कर पेश किया गया। उनके लिए पूरा का पूरा ड्रामा रचा गया, ताकि ऐसा लगे कि वो ‘पुलिस बर्बरता’ के ख़िलाफ़ संघर्ष कर रही हैं। एएमयू में हिंसा भड़काई गई। सीएए विरोध के नाम पर हज़ारों मुस्लिमों की भीड़ ने ट्रेनों को जलाया और यात्रियों पर पत्थरबाजी की। लेकिन, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक फ़ैसले ने वामपंथियों के इस खेल को बदल दिया।
सीएम योगी ने स्पष्ट कहा कि सीसीटीवी व प्रत्यक्षदर्शियों की मदद से दोषियों को चिह्नित किया जाएगा और जिसने भी सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया है, उसकी संपत्ति बेच कर इसकी भरपाई की जाएगी। एक-एक दंगाई को चिह्नित किया जाने लगा और पोल खुलने लगी कि इसमें कौन-कौन लोग शामिल हैं? बौखलाए वामपंथियों को तब करारा झटका लगा, जब सद्गुरु सरीखी हस्ती ने सीएए को लेकर अपनी राय साझा की और जनता को भ्रम में न पड़ने की सलाह दी। भाजपा ने सीएए के समर्थन में मिस्ड कॉल अभियान शुरू किया और उसे तगड़ा समर्थन मिला। वामपंथी आकाओं ने सोशल मीडिया पर चिंता जाहिर करनी शुरू कर दी कि मिस्ड कॉल के आँकड़े आएँगे तो मीडिया उन्हें जम कर चलाएगा।
Union ministers @AmitShah and @smritiirani participate in BJP’s door-to-door campaign to spread awareness on the Citizenship Amendment Act. The party’s objective is to reach out to 3 crore families. Read more https://t.co/UfwFL2sWFe
— Hindustan Times (@htTweets) January 5, 2020
(HT photos) pic.twitter.com/Ox7hZrpvbx
उनका ये ‘डर’ तब और बढ़ गया, जब भाजपा ने 3 जनवरी से 3 करोड़ घरों में सीधे दस्तक देकर सीएए के फ़ायदे समझाने शुरू कर दिए। भाजपा के दोनों अध्यक्षों से लेकर साधारण कार्यकर्ताओं तक, सभी ने इस अभियान में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। खेल बदल चुका था। जिस मसले को वामपंथियों ने बड़ा राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया, वो इतना अच्छा क़ानून था कि उसके बारे में जनता को समझा कर भाजपा को ही फ़ायदा होने लगा। वामपंथियों ने अंत में शाहीन बाग़ में ड्रामा खेल कर अपना सबकुछ झोंक दिया। 90 वर्ष की बूढी महिलाओं से लेकर मात्र 20 दिन तक की बच्ची को विरोध प्रदर्शन का चेहरा बनाया गया।
एनडीटीवी सरीखे चैनलों ने इन चेहरों को ख़ासी तवज्जो दी लेकिन सबकुछ विफल रहा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने जोधपुर में स्पष्ट कर दिया कि विपक्षी जो करना है कर लें, सरकार सीएए पर एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी और जनता को घर-घर जाकर इसके बारे में समझाएगी। दिल्ली पुलिस को बदनाम करने की लाख कोशिश की गई लेकिन उससे भी कुछ फ़ायदा नहीं हुआ। जामिया की जिहादिनों से लेकर शाहीन बाग़ के ड्रामे तक, सब फेल होने के बाद वामपंथियों ने अपना अंतिम हथियार निकाला और अपने छात्र संगठन का इस्तेमाल कर के हिंसा और दंगे को अंजाम दिया।
वामपंथी इकोसिस्टम की गहरी साज़िश का पर्दाफाश
अब आते हैं उपद्रवियों व दंगाइयों के आकाओं पर। ये वो लोग हैं, जो जनता को भड़काते हैं, बरगलाते हैं और उनके भीतर ‘डर’ बैठा कर उनका इस्तेमाल करते हैं। इनमें हर क्षेत्र में अच्छा नाम कमा चुके लोगों से लेकर बेरोज़गारी का दौर देख रहे लोगों तक शामिल हैं। राजनीति, साहित्य, सिनेमा और पत्रकारिता- ये चार ऐसे क्षेत्र हैं, जहाँ इन लोगों की बड़ी पैठ है। जेएनयू में हिंसा की ख़बर आते ही स्वरा भास्कर ने तुरंत एक वीडियो शूट किया और लोगों से भारी संख्या में जेएनयू मेन गेट के पास आने की अपील की। ये अपील आम जनता से नहीं बल्कि वामपंथ से सहानुभूति रखने वाले लोगों से थी।
पुणे स्थित एफटीआईआई में छात्रों ने एक विशाल बैनर लगा कर जेएनयू के समर्थन में रैली निकाली। इतनी जल्दी, इतना बड़ा बैनर कैसे तैयार हो गया? इससे तो ऐसा लगता है कि पहले से सारी साज़िशें रच ली गई थीं। अनुराग कश्यप का ट्वीट तुरंत आ गया, जिसमें उन्होंने भाजपा, एबीवीपी, पीएम मोदी और शाह- सबको आतंकवादी बता दिया। बरखा दत्त सरीखे पत्रकारों ने तुरंत एबीवीपी को हिंसा के लिए ज़िम्मेदार ठहराने के लिए अफवाहें फैलानी शुरू कर दी। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी कुछ पत्रकारों से अंग्रेजी में ट्वीट करवाया गया कि छात्रों पर अत्याचार हो रहा है। भारत सरकार की छवि बिगाड़ने की कोशिश की गई।
2002 का गुजरात और जो भी वहाँ हुआ, सौ प्रतिशत सच है । यह सरकार और उनका रवैया सबूत है इस बात का । । यह सरकार आतंकवादी थी और है । #terroristhomeminister #terroristprimeminister
— Anurag Kashyap (@anuragkashyap72) January 5, 2020
अरविन्द केजरीवाल ने तुरंत ट्वीट कर के लिखा कि वो हिंसा की निंदा करते हैं। ये एक बहुत बड़ी चालाकी होती है। ‘हिंसा की निंदा’ करते समय वो न तो पीड़ित न नाम बताते हैं और न ही उनलोगों के बारे में कुछ बताते हैं, जिन्होंने हिंसा की। सीधा ‘हिंसा की निंदा’ कर देने से और बाकी सारी चीजें छिपा लेने से नकारात्मकता का माहौल तो बनता ही है और साथ ही इससे सरकार पर निशाना साधने में भी आसानी होती है। आख़िर इतनी जल्दी पूरा का पूरा लेफ्ट इकोसिस्टम हरकत में कैसे आ गया? इतनी जल्दी पोस्टर-बैनर कैसे बन गए? इतनी जल्दी बड़ी संख्या में लोगों को प्रदर्शन के लिए इकठ्ठा कैसे कर लिया गया? क्यों न माना जाए कि ये सबकुछ पूर्व-नियोजित साज़िश के तहत क्रमबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया।
सुबह होने से पहले ही रात के 2 बजे ‘गेटवे ऑफ इंडिया’ पर वामपंथियों की एक बड़ी भीड़ जुट गई। ‘हिन्दुओं से आज़ादी’ जैसे नारे लगाने की ख़बरें आईं, जिनकी पुष्टि होनी अभी बाकी है। अगर गुस्सा जेएनयू हिंसा को लेकर था तो हिंसा करने वाले वामपंथियों के ख़िलाफ़ किसी ने भी कुछ क्यों नहीं लिखा? इसमें हिन्दू, ब्राह्मण और भाजपा कैसे घुस गए? याद कीजिए, सीएए के समय भी मजहबी नारेबाजी की गई थी, हिन्दू प्रतीक चिह्नों का अपमान किया गया था और देवी-देवताओं का मज़ाक बनाया गया था। इससे पता चलता है कि लेफ्ट इकोसिस्टम सीएए और जेएनयू के बहाने हिंदुत्व के ख़िलाफ़ अपनी घृणा को एक मुखौटा पहनाना चाहता है।
झूठ फैलाने की सारी हदें पार कर दी गईं
सबसे पहले बात बरखा दत्त की। बरखा ने एक व्हाट्सप्प ग्रुप में हुए चैट का स्क्रीनशॉट शेयर किया। इसमें दावा किया गया कि ‘यूनिटी अगेंस्ट लेफ्ट’ नामक ग्रुप में हिंसा की साज़िश रची जा रही है। ग्रुप का नाम ऐसा रखा गया है, जिससे प्रतीत होता है कि ये एबीवीपी का ग्रुप है। लेकिन, ये दाँव उलटा पड़ गया। जब लोगों ने उस नंबर को खँगाला तो उसका कॉन्ग्रेस कनेक्शन सामने आया। ‘ट्रू कॉलर’ नामक ऐप कर भी उसका नाम ‘आईएनसी’ से ही सेव था। इसके बाद कॉन्ग्रेस ने ट्वीट कर के सफ़ाई देते हुए कहा कि उसने पूर्व में ऐसे कई नंबरों की सेवा ली थी, जिनका अब पार्टी से कोई नाता नहीं है। हालाँकि, तब तक उनकी पोल खुल चुकी थी।
इसी तरह एबीवीपी की कार्यकर्ता की वेशभूषा में एक वामपंथी महिला को तैयार किया गया, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके हैं। उनके इस प्रोपेगेंडा की भी पोल खुल गई। वामपंथी छात्र संगठन के चैट का स्क्रीनशॉट वायरल हुआ, जिससे पता चला कि योजना बना कर हमले किए गए थे। इस ग्रुप में ‘संघी गुंडों की पिटाई’ और ‘ये तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी है’ जैसे मैसेजों का आदान-प्रदान हुआ। इस ग्रुप से ही पता चला कि वामपंथियों ने पहले ही योजना बना ली थी कि वो लोहे के रॉड और डंडों से हमला करेंगे। जामिया से भी गुंडों को बुलाने की बातें की गईं। इस चैट को नीचे देखें:
जेएनयूएसयू की पूर्व अध्यक्ष और वामपंथी नेता आइशा घोष को नकाबपोश गुंडों के नेतृत्व करते हुए देखा गया। जेएनयूएसयू की पूर्व अध्यक्ष गीता कुमारी को नकाब पहने दंगाइयों के साथ हमले की साजिश रचते हुए देखा गया। इन सबके वीडियो वायरल हुए, जिसके बाद वामपंथी गैंग की पोल खुली। राणा अयूब जैसे पत्रकारों ने अफवाह पर अफवाह फैला कर अपने मकसद को अंजाम देने का प्रयास किया। जबकि सच्चाई क्या है, ये घायल छात्रों ने ऑपइंडिया को बताया। घायल छात्रा वेलेंटिना ने बताया कि हॉस्टल रूम से लेकर मेस तक घुस कर एबीवीपी वालों को पीटा गया। महिलाओं के साथ बदतमीजी करने से लेकर प्रोफेसरों के साथ धक्का-मुक्की तक, वामपंथी गुंडों ने लगातार हमले किए।
जेएनयू में लगातार हो रहे विवाद, हिंसा व दंगों का निदान क्या?
जेएनयू पिछली बार कब किसी अच्छे कारण से सुर्ख़ियों में आया था, ये दिमाग पर लाख ज़ोर देने के बावजूद याद नहीं आता। वहाँ कई लोग हैं जो अच्छा कार्य कर रहे हैं लेकिन वो वामपंथियों द्वारा फैलाई जा रही हिंसा और छात्रों के गुटों के बीच लगातार होते टकराव के कारण छिप जाते हैं। हमने देखा कि जो पढ़ना चाहते हैं, उन्हें भी पढ़ने नहीं दिया जा रहा। कई ऐसे छात्र हैं, जो ग्रामीण परिवेश से आए हैं और उनके व उनके परिवार की पूरी उम्मीद फ़र्ज़ी राजनीति पर नहीं, जेएनयू के अकादमिक कैलेण्डर पर टिकी है। उनका क्या होगा? सबसे पहले उपाय ये है कि जेएनयू में छात्र राजनीति पर कुछ सालों के लिए लगाम लगाई जाए।
वाराणसी के बीएचयू में भी एबीवीपी से लेकर सभी छात्र संगठनों की उपस्थिति है। वहाँ छात्र संघ के चुनाव नहीं होते लेकिन तब भी वहाँ छात्र अपनी माँगें रखते हैं, विरोध प्रदर्शन करते हैं और देशहित से जुड़े मुद्दों पर चर्चा भी करते हैं। क्या राजनीति और चुनाव होने से ही एक यूनिवर्सिटी की पहचान बनती है? अगले कुछ वर्षों के लिए जेएनयूए में चुनाव व राजनीति सम्बन्धी गतिविधियों पर लगाम लगा कर यहाँ लगातार हो रहे विवाद को थामा जा सकता है। अगर ऐसे कोई क्रियाकलाप होते भी हैं तो इसे पूर्ण पुलिसिया संरक्षण में कराया जाना चाहिए। ऐसी सुरक्षा हो, जहाँ एक व्यक्ति को भी हिंसा करने की इजाजत न हो।
Video bears witness to #JNU VC @mamidala90‘s statement that those opposing registration for Winter session of #JNU are behind violence to scuttle the academic process of varsity. pic.twitter.com/JWr4n81GbW
— Prasar Bharati News Services (@PBNS_India) January 6, 2020
जहाँ वामपंथियों की अच्छी-खासी उपस्थिति है, वहीं राजनीतिक हिंसा की वारदातें ज्यादा क्यों होती हैं? केरल में संघ व भाजपा कार्यकर्ताओं का ख़ून बहाया जाता है। पश्चिम बंगाल में कभी तृणमूल के कार्यकर्ताओं के साथ यही किया गया था। ये अलग बात है कि आज तृणमूल की भी यही नीति है। त्रिपुरा में भाजपा की सरकार बनने से पहले तक लगातार कत्लेआम मचाया गया। इन सभी राज्यों में वामपंथियों के सबसे अच्छे दौर में ऐसी वारदातें हुईं। जैसे ही उनकी उपस्थिति कमज़ोर पड़ी, उनके कार्यकर्ताओं ने हिंसा करनी भी शुरू कर दी। अब वो इसी फॉर्मूले को जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों में आजमा रहे हैं। छात्रों को आगे कर के अस्तित्व की लड़ाई लड़ी जा रही है।